उत्तराखंड में करीब 26% चीड़ के जंगल हैं यानी कि ऐसे जंगल जहां चीड़ के पेड़ो की मात्रा सबसे अधिक है। इन चीड़ के पेड़ो को यहां अभिशाप माना जाता है क्यूंकि चीड़ के पेड़ से निकलने वाले पत्तों में आग बहुत तेजी से लगती है और उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग के लिए इन्ही चीड़ की पत्तियों को जिम्मेदार माना जाता रहा है। वहीं दूसरी ओर चीड़ के पेड़ काफी ज्यादा फायदेमंद भी माने जाते हैं। चीड़ के पेड़ों का नई वैज्ञानिक तकनीकों से सदुपयोग करके राज्य सरकार और उत्तराखंड वन विभाग अच्छा खासा राजस्व भी पैदा कर सकता है।
चीड़ के पेड़ों का दो तरह से करते हैं उपयोग
उत्तराखंड में यहां की राज्य सरकार और वन विभाग चीड़ के पेड़ों का दो तरह से उपयोग करते आए हैं। जिनमे पहला तो है टिम्बर के लिए और दूसरा रेजिन निकालने के लिए जिसे यहां की स्थानीय भाषा में लीसा कहते हैं। चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालने के लिए इनका मैनेजमेंट 1985 और 1990 के आसपास से वैज्ञानिक तरीकों से किया जा रहा है। लीसा की बाजार में अत्यधिक मांग हैइससे विभिन्न तरह के उत्पाद बनाये जाते हैं।
लीसा निकालने के लिए उपयोग होने वाले मेथड
चीड़ के पेड़ से लीसा निकालने के लिए दो तरह के मेथड उपयोग में लाए जाते हैं। पहला मेथड है वह बहुत पुराना है जो की 1960 के आसपास इस्तेमाल में लाया गया था जिसे वसूला मेथड भी खा जाता है। इस वसूला मेथड में चीड़ के पेड़ों पर बहुत बड़ा घाप बना दिया जाता है जिसकी वजह से चीड़ के पेड़ों को बहुत नुकसान होता है। वसूला मेथड में किये गए घाप की वजह से कई सारे चीड़ के पेड़ गिर गए और कई पेड़ो को बहुत ज्यादा छति पहुंची है। जिसकी वजह से इस मेथड को उपयोग में बहुत कम लाया जा रहा है और इस मेथड को बंद करने की बात भी चल रही है।
दूसरा मेथड है बोरहोल मेथड यह मेथड साल 1985 से 1990 के आसपास उपयोग में लाया गया। इस मेथड में 5 सेंटीमीटर और 3 सेंटीमीटर का एक घाप बनाया जाता है और फिर उसमे 45 डिग्री एंगल पर रील्स बनाई जाती है जिससे धीरे धीरे करके लीसा निकलता है। इस मेथड में पहले 5 पहले पांच साल में एक घाप बनाया जाता है फिर अगले पांच साल में दूसरा घाप बनाया जाता है। ऐसे करके चार दिशाओं में घाप बनाए जाते हैं, ऐसे करके 25 साल में एक साइकिल पूरा होता है 1985 के आसपास यह मेथड चालू किया गया था आज 2020 हो चुका है तो इस मेथड का एक साइकिल पूरा हो चुका है।
वसूला मेथड से पानी और मिटटी को भी नुकसान
वसूला मेथड में लीसा विदोहन के लिए खुला हुआ घाप बनाना पड़ता है। ये जो खुला हुआ घाप रहता है उसमे एसिड का भी छिड़काव भी किया जाता है। खुला हुआ होने के कारण जब बारिश होती है तो ये एसिड पानी और आसपास की मिटटी में जा मिलता है जिसकी वजह से वहां आसपास की मिटटी और पानी को भी नुकसान पहुँचता है।
वन विभाग ने बोरहोल मेथड में किए बदलाव
उत्तराखंड वन विभाग के नरेंद्र नगर फारेस्ट डिवीज़न के डीएफओ धर्म सिंह मीणा ने बताया की उन्होंने बोरहोल मेथड में कुछ बदलाव किये है जिसकी वजह से हम इसे मॉडिफाइड बोरहोल मेथड कहते हैं। इस मेथड के माद्यम से लीसा विदोहन पिछले साल 2019 से शुरू किया था। इस साल हमने इसे पूरे नरेंद्र नगर डिवीजन में शुरू किया है करीब 15,000 घाप लगाए गए हैं इसके परिणाम अभूतपूर्व हैं इसकी वजह से बहुत ही शुद्ध क्वालिटी का लीसा निकलता है इसमें हमने इसकी पैकेजिंग में भी सुधार किया है जिसकी वजह से फैक्ट्री तक एक शुद्ध क्वालिटी कालीसा पहुंच सके।
बोरहोल मेथड में काम करने का खर्च भी कम
इस बोरहोल मेथड में काम करने का जो खर्चा है वह तकरीबन सौ परसेंट कम है आईएफएस अधिकारी धर्म सिंह मीणा ने बताया इस मेथड को उपयोग करने में तकरीबन 20 रूपये लग रहे हैं वही पुराने वाले रिल मेथड में तकरीबन 150 रुपए लगते थे रिल मेथड में स्किल्ड लेबर चाहिए होता था जो कि नेपाल तथा हिमाचल प्रदेश से मुख्यता मंगाना पड़ता था जबकि बोरहोल मेथड जो है वह साधारण है इसमें यहां के आसपास के लोगों को ही ट्रेनिंग देकर प्रशिक्षित किया गया है जिसकी वजह से उन आसपास के लोगों को भी रोजगार प्रदान किया जा सके।
इस बोरहोल मेथड से लीसा की क्वांटिटी में भी बढ़ोतरी देखने को मिली है एक में करीब 3 लीटर लिसा एक पेड़ से निकला है जबकि पुराने वाले रेल मेथड से करीब 8 महीने में 3:30 लीटर लिसा निकलता है।