21वीं सदी को भले ही हम तरक्की और विज्ञान का युग कहते हों, लेकिन ज़मीनीं हक़ीक़त यही है कि आज भी समाज में अमीरी-गरीबी, ऊंच-नीच, शहरी-ग्रामीण और यहां तक कि महिला और पुरुष के बीच भी गहरा भेदभाव किया जाता है। महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा न केवल कमज़ोर माना जाता है बल्कि उसे कई प्रकार की रूढ़िवादी मान्यताएं और परंपराओं के बंधन में भी जकड़ दिया जाता है। विशेषकर माहवारी के दौरान उसके साथ सबसे अधिक अनुचितपूर्ण व्यवहार किया जाता है। जबकि यह पूरी तरह से प्राकृतिक प्रक्रिया है। ऐसे में इस वैज्ञानिक और स्त्री सशक्तिकरण के दौर में सभी जगह विशेषकर विद्यालयों और कॉलेजों में खुलकर इस विषय पर चर्चा करना अनिवार्य होनी चाहिए।
बालिकाओं में किशोरावस्था में होने वाले बदलावों में खासतौर पर मासिक धर्म को कई मान्यताओं और धारणाओं में लपेटा गया है। लड़कियों में आमतौर पर 14 से 15 वर्ष की आयु में मासिक धर्म आरम्भ हो जाता है। सामाजिक रूढ़ियों के कारण महिलाओं विशेषकर किशोरियों को महिने के इन चार-पांच दिनों में बहुत बुरे दौर से गुजरना पड़ता है। पूरी दुनिया में 28 मई को मासिक धर्म स्वच्छता दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2014 में जर्मनी के एक स्वैच्छिक संगठन वाश यूनाइटेड के द्वारा इस दिवस को मनाने की शुरुआत की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य ही यह था कि महिलाओं और किशोरियों को महीने के उन पांच दिनों यानी की अपने मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता बनाये रखने के लिये जागरूक किया जाये।
ग्रामीण समाज में मासिक धर्म और उससे जुड़े पहलुओं पर चर्चा करना वर्जित समझा जाता है। महिलाएं इस विषय पर बातचीत करने और अपनी परेशानियों को बताने में झिझकती हैं। पर्वतीय ग्रामीण समाज में मासिक धर्म को हीन भावना से देखा जाता है। जहां इसके बारे में बात तक नहीं की जाती है। यही कारण है कि किशोरियों को इस संबंध में सही जानकारी नहीं मिल पाती है। इधर-उधर से आधी अधूरी जानकारी मिलने पर कई बार लड़कियों और महिलाओं को गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। आज के समय में जब जीवन का हर पहलू बदल रहा है, तब बालिकाओं में भी मासिक धर्म जल्दी आरम्भ हो जाता है। कई बार तो बच्चियों में नौ-दस वर्ष की आयु में ही माहवारी शुरू हो जाती है। इस दौरान उन्हें क्या सावधानियां बरतनी चाहिए, वह नहीं जानती हैं। जिससे उनका स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है। महिलाओं में कई गंभीर बीमारियों और संक्रमण का प्रमुख कारण मासिक धर्म के दौरान अस्वच्छता और इस संबंध में जागरूकता की कमी है।
जाहिर है कि महिलाओं और किशोरियों की एक बड़ी संख्या ग्रामीण निम्न वर्ग से है जहां पर गरीबी और कठोर सामाजिक मान्यताओं के कारण माहवारी के दौरान स्वच्छता पर ध्यान नहीं दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में माहवारी के दौरान महिलाओं को बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित रहना पड़ता है। जिसके कारण परिणाम दयनीय और भयानक होते हैं। माहवारी के दौरान स्वच्छता रखने में सैनिटरी पैड महत्वपूर्ण साधन है। नवभारत टाइम्स के 22 जनवरी 2018 संस्करण में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2015-16 की रिपोर्ट के अनुसार देश की 15 से 24 आयुवर्ग की 62 प्रतिशत युवतियाॅं सैनिटरी पैड के बदले कपड़े के इस्तेमाल करती हैं। महिलाओं का एक बड़ा वर्ग सैनिटरी पैड के उपयोग से वंचित है।
इंडियन ब्यूरो स्टैंडर्स ने पहली बार 1980 में सैनिटरी पैडस के लिये मानक तय किये। अधिक संख्या महिलाओं को सैनिटरी पैड की उपलब्धता नहीं हो पाती है। ऐसे में मानकों के अनुरूप सैनिटरी पैड का उपयोग दूर की कौड़ी है। सरकारें भी इस मुद्दे पर संवेदनशील नहीं दिखती हैं। महिलाओं की जरूरी आवश्यकता सैनिटरी पैड पर भी 12 प्रतिशत की दर से जीएसटी लगाया गया था। हालांकि देश भर में महिलाओं और महिला संगठनों की नाराजगी तथा जागरूक लोगों के विरोध के बाद जुलाई 2018 में सरकार ने सैनिटरी पैड को जीएसटी कर से मुक्त कर दिया है।
भारतीय ग्रामीण समाज में मासिक धर्म के मिथ बहुत गहराई में व्यक्त हैं। जिसके कारण महिलाओं को अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। जानकारी के अभाव और सामाजिक वर्जनाओं के कारण किशोरियों को मानसिक और शारीरिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। हेंवलघाटी के पिपलेथ ग्रामसभा की तेरह वर्षीय अनामिका (बदला हुआ नाम) ने बातचीत में बताया कि जब उसे मासिक धर्म शुरू हुआ तो वह खून देखकर घबराकर रोने लग गई। हालांकि इस बारे में उसे अपनी बड़ी बहनों से कुछ जानकारियां मिली थी। लेकिन इसके बावजूद अपने शरीर से खून निकलता देखकर वह बहुत डर गई थी। उसे पैड लगाना भी नहीं आ रहा था। अपनी मां की मदद से उसने पैड लगाना सीखा। इस बारे में उसने अपने आस-पास से जानकारी लेने का प्रयास किया। कुछ जानकारी उसे अपनी सहेलियों से मिली।
पर्वतीय गांवों में मासिक धर्म और इससे जुड़ी सही और व्यवस्थित जानकारी का नितांत अभाव है। जिसके कारण महिलाओं में अनेक गम्भीर बीमारियों का खतरा बना रहता हैं। पेट, किडनी, गर्भाशय और संक्रमण की बीमारी से महिलाओं को लगातार जूझना पड़ता है। एक अन्य किशोरी अनामिका (बदला हुआ नाम) ने बताया कि माहवारी के दौरान उसे पेट, पैरों और कमर में बहुत तेज दर्द होता है और चक्कर आते हैं। सामाजिक माहौल ऐसा है कि वह इस बारे में ज़्यादा बात करने से भी हिचकिचाती हैं। सरकार के द्वारा भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनी जहां वह अपनी समस्या के बारे में जाकर बात कर सके।
अनामिका जैसी स्थिति उत्तराखंड के पर्वतीय गांवों की लगभग सभी लड़कियों की है। यही बात मेनोपाॅज की ओर बढ़ रही महिलाओं ने भी व्यक्त की है। मेनोपाॅज या रजोनोवृत्ति के प्रति भी महिलाओं में बहुत आशंकायें हैं। जिन महिलाओं को मेनोपाॅज हो गया है, उनको भी पेट, पैर और कमर दर्द से जूझना पड़ रहा है। पेट और पेशाब से सम्बन्धित कई दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। पर्वतीय ग्रामीण महिलाओं की इन शारीरिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का निदान दिख नहीं रहा है। महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान शारीरिक व मानसिक स्तर पर तो चुनौतियों का सामना करना पड़ता ही है, दूसरी तरफ समाज के द्वारा इस दौरान किया जाने वाला भेदभाव और सामाजिक बंदिशें भी महिलाओं के कष्टों को बढ़ाती हैं। महिलाओं को माहवारी के दौरान कई मोर्चों पर एक साथ जूझना पड़ता है। अधिकांश परिवारों में माहवारी शुरू होने के तीन-चार दिनों तक महिलाओं को रसोई में विशेष एतिहात रखनी पड़ती है। इस दौरान किसी भी प्रकार के धार्मिक क्रियाकलापों में भाग लेने से उन्हें वंचित कर दिया जाता है। उनका धर्म स्थलों में प्रवेश भी प्रतिबंधित रहता है। हालांकि कई बार इस परंपरा के खिलाफ आवाज़ें भी उठ चुकी हैं। कई महिलाओं ने बातचीत में बताया कि बचपन से ही उनके मन में इन धारणाओं को कूट-कूट कर भर दिया गया है। समाज और परिवार से इस दौरान कोई संवेदना नहीं मिल पाती है। जिसके कारण वे इन वर्जनाओं को तोड़ने का साहस भी नहीं कर पाती हैं। हालांकि समय के साथ कुछ बदलाव हुए हैं परन्तु इन बदलावों का कोई व्यापक असर पर्वतीय महिलाओं के जीवन पर नहीं दिखता है।
मासिक धर्म एक जरूरी और प्राकृतिक प्रक्रिया है। आडंबरों और गलत धारणाओं के कारण महिलाओं का जीवन नर्क बन रहा है। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक धर्म के बारे में व्यापक प्रचार-प्रसार किये जाने की नितांत आवश्यकता है। विद्यालयों और कालेजों में इस विषय पर खुली चर्चा करवाये जाने की ज़रूरत है। इन खुली चर्चाओं में छात्रों और युवकों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि वह अपने परिवार की महिलाओं की दिक्कतों और कष्टों को अच्छे से समझ पायें। नीतिगत स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे केन्द्र बनाये जाने की आवश्यकता है जहां मासिक धर्म से जुड़े सभी पहलुओं पर किशोरियों, युवतियों और सभी उम्र की महिलाओं को जानकारी व जरूरी स्वास्थ्य सेवायें मिल सकें। अब समय आ गया है कि मासिक धर्म जैसे जरूरी विषय पर मिथ्या और गलत धारणाओं को समाप्त करके जानकारी व जागरूकता को फैलाया जाये।