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दैनिक भास्कर, 10 अगस्त, 2017
पलायन करना इंसान की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। वह स्वेच्छा से पलायन करता है तो उसे बुरा नहीं कहा जाता, लेकिन आज उत्तराखंड में हो रहा पलायन स्वाभाविक नहीं है और न स्वेच्छा से किया गया पलायन है। यह मजबूरी में उठाया गया कदम है, जो रुकता नजर नहीं आ रहा है…
उत्तराखंड को देव-भूमि कहा जाता है। देवता कहें, ईश्वर या प्रकृति जैसी आस्था हो कुछ भी कहें, इसने हमें, यानी उत्तराखंड को बहुत कुछ दिया है। यहाँ जंगल भी हैं, पहाड़ भी। पानी भी है और खनिज सम्पदा भी और वह भी प्रचुर मात्रा में, लेकिन हमने उसका दोहन तो भरपूर किया, लेकिन प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में कुछ खास नहीं किया। अपने निजी स्वार्थ के चलते हम इसका दोहन ही करते रहे और इसे बचाकर रखने के लिये कुछ भी करने की नहीं सोचा। हम तो अपने आज को बचाने की होड़ में यह भी भूल गए कि आखिर हम अपनी अगली पीढ़ी के लिये क्या छोड़कर जाएँगे? नतीजा सबके सामने है।
हमारी अपनी ही करतूतों से जंगल नष्ट हो रहे हैं, हिमाच्छादित ग्लेशियर तेजी से सूख रहे हैं। पानी है, लेकिन प्यास बुझाने का संकट खड़ा हो गया है। पहले जो फसलें हुआ करती थीं, अब गायब हो चुकी हैं। पेड़ों के अभाव में पहाड़ दरकने लगे हैं। जंगलों के वीरान होने से जंगली जानवर गाँव की तरफ आने लगे हैं। खड़ी फसल चौपट करने के साथ ही बन्दर-भालू पालतू पशुओं पर हमले भी करने लगे हैं और शेर बाघ जैसे हिंसक जानवर इंसानों पर भी हमला करने लगे हैं। एक अजीब किस्म का दहशत भरा माहौल बन गया है पहाड़ के गाँवों और कस्बों में। इस सबका असर यह हो रहा है कि बड़ी संख्या में लोग गाँव से छोटे-बड़े कस्बों या फिर दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। आँकड़े बताते हैं कि इस पहाड़ी राज्य के 13 जिलों में से आधे से अधिक जिलों में पलायन की गहरी मार पड़ी है। कई जिलों के तो गाँव के गाँव ही खाली हो गए हैं और इस पलायन ने इन गाँवों के घरों को भी धराशायी कर दिया है।
आज की तारीख में पलायन इस राज्य की सबसे बड़ी चिन्ता है। पलायन तो पहले भी होता था और उत्तराखंड में ही नहीं, देश-विदेश में भी। इधर-उधर से पलायन होना या करना बुरा भी नहीं माना जाता था। पलायन करना इंसान की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इसी प्रवृत्ति के चलते रोमा आज भी पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। आदमी अपनी इच्छा से पलायन करता है, तो उसे बुरा नहीं कहा जाता, लेकिन आज उत्तराखंड में होने वाला पलायन न तो स्वाभाविक है और न ही अपनी इच्छा से किया गया पलायन है। इसके विपरीत यह पलायन मजबूरी में उठाया गया एक कदम है और यह कदम रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। दिन-ब-दिन आगे ही बढ़ता जा रहा है। इसे रोका नहीं गया, तो एक दिन समूचे उत्तराखंड से सभी गाँववासी या तो पहाड़ के छोटे-बड़े कस्बों में बस कर वहाँ नई मलिन बस्तियों के संस्थापक बन जाएँगे या फिर महानगरों की बदबूदार मलिन बस्तियों के एक हिस्सेदार ये पहाड़ी भी हो जाएँगे।
रोजगार के लिये पहाड़ से पलायन पहले भी होता था, लेकिन तब हर पलायन करने वाले को उम्र के अन्तिम पड़ाव में वापस पहाड़ पर जाकर रहने की आशा बनी रहती थी। अब वापस जाने की कोई उम्मीद ही नहीं रह जाएगी, क्योंकि पहाड़ में ऐसा कुछ बचेगा ही नहीं, जिसके लोभ में वो वापस जाने की बात भी सोचे। पहले आमतौर पर एक परिवार से एक व्यक्ति ही रोजगार की तलाश में देश-विदेश की तरफ पलायन करता था और अपने घर के लालन-पालन के लिये हर महीने कुछ पैसा मनीऑर्डर के जरिए भेजता रहता था। एक समय तो यह इलाका मनीऑर्डर इकोनॉमी की अलग पहचान भी बना चुका था। कहने का मतलब यह है कि पलायन आज के उत्तराखंड की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है और यह खतरा दिनोंदिन बड़ा ही होता जा रहा है। पलायन की इस समस्या ने यहाँ की सांस्कृतिक विरासत को भी बहुत नुकसान पहुँचाया है। पहले हम इसी पलायन के चलते अपनी कुमाऊं और गढ़वाल की बोलियों-भाषाओं, रीति-रिवाजों, पहनावों, साहित्य और संस्कृति कला-अल्पना से दूर हुए अब कहीं यह पलायन हमें अपने इलाके से, अपनी मातृभूमि से ही दूर न कर दे।
यह सब इसलिये हो रहा है और आगे भी होते रहने की आशंका है, क्योंकि हम या तो इस प्रदेश की असलियत को नहीं समझ पाए या फिर समझते हुए भी इसके समाधान की दिशा में कुछ करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखा सके। इसके साथ ही नियोजन में भागीदारी के सवाल ने भी समस्या को गहरा ही किया है। एक तो नियोजन ऐसे लोगों, अफसरों के हाथ में रहा, जिन्हें पहाड़ की असलियत पता नहीं थी या फिर लूट की मानसिकता वाले लोग ही नियोजन और क्रियान्वयन में हावी रहे। समस्या गहरी थी और जनता ने चेताया भी, लेकिन कारगर नीतियाँ नहीं बनीं।
जनचेतना का ही तकाजा था कि कई दशकों के संघर्ष के बाद इस इलाके को एक स्वायत्त राज्य का दर्जा भी दिया इस उम्मीद में कि अपना राज्य बन जाने पर नियोजन और नीतियों के निर्माण के साथ ही प्रदेश की जरूरतों के अनुरूप राज्य हित में उनका क्रियान्वयन भी होगा, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका और विकास के पायदान पर आगे बढ़ने के बजाय पिछड़ते ही चले गए। इन परिस्थितियों के सन्दर्भ में एक ऐसे मजबूत तंत्र की नितान्त जरूरत है, जो जन जागरूकता के साथ ही नियोजकों, नीतिकारों और नीतियों को लागू करने वाली एजेंसियों को राह दिखाने का काम करता रहे। ऐसा एक तंत्र एक नियमित प्रकाशन भी हो सकता है, जो समय-समय पर अपने लेखों के जरिए सरकार और तमाम दूसरी एजेंसियों को आगाह करता रहे और उत्तराखंड राज्य के अनुरूप नियोजन की सलाह भी समय-समय पर देता रहे।
प्रसंगवश उल्लेखनीय यह भी है कि इस हिमालयी राज्य के पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में स्थितियाँ कहीं बेहतर हैं, उधर पूर्वोत्तर के राज्य सिक्किम ने विकास के तमाम पैमानों पर इस देश के कई तथाकथित विकसित राज्यों को भी पीछे धकेल दिया है। जम्मू-कश्मीर जैसा राज्य एक अलग तरह की परेशानी का शिकार है, ऐसी ही स्थिति पूर्वोत्तर के कुछ आतंक प्रभावित राज्यों की भी है, लेकिन आतंकवाद का शिकार होने से पहले जम्मू-कश्मीर भी आर्थिक दृष्टि से उत्तराखंड से बेहतर ही था, मगर तब उत्तराखंड एक राज्य नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा हुआ करता था। राज्य बनने के बाद इस उत्तराखंड में विकास और बदलाव की जो सुगन्धित बयार बहनी चाहिए थी, वैसा तो बिल्कुल भी नहीं हुआ, उल्टा हालात बद से बदतर ही होते जा रहे हैं।
एक बात और कि उत्तराखंड या फिर किसी भी पहाड़ी राज्य को विकास के पैमाने पर अलग-अलग तराजू से नहीं मापा जा सकता। केवल भाषा और संस्कृति को छोड़ दें, तो पूरे हिमालयी क्षेत्र की समस्याएँ एक जैसी हैं, इसलिये विकास की रफ्तार भी एक जैसी ही होनी चाहिए और यह तब होगा, जब पूरे हिमालयी क्षेत्र का एकीकृत नियोजन हो और उसी के अनुसार योजनाएँ बनें और उन्हें लागू किया जाए।
इसीलिये साल 1993-1994 में भारत सरकार के ही योजना आयोग के कुछ सदस्यों ने अपनी एक चार सौ पेज की रिपोर्ट में एकीकृत हिमालयी विकास प्राधिकरण के गठन की सिफारिश भी की थी, लेकिन अफसरशाही के हिमालय विरोधी तबके ने उस रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दिया था। अब वह रिपोर्ट कहाँ है, किसी को पता नहीं। ये तमाम समस्याएँ हैं, जिन पर मिल-बैठकर विचार करने और समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझकर उनका दीर्घकालीन हल खोजने की जरूरत है। तभी हिमालयी राज्य उत्तराखंड का समुचित विकास होगा।