ग्लेशियर दुनिया में एक तरह के पानी के बैंक हैं और फिक्स्ड डिपॉजिट भी इन्हें माना जा सकता है। ये पृथ्वी का वही हिस्सा है जो दुनिया को एक बड़े रूप में पानी देते हैं। मतलब आप ये मानिए कि दुनिया के 75 फीसदी पीने के पानी के स्रोत ग्लेशियर ही हैं और लगभग 47 देशों में पाए जाते हैं। पृथ्वी पर जीवन से पहले ग्लेशियरों का अस्तित्व रहा है। अंटार्कटिका, अलास्का, ग्रीनलैण्ड व दुनिया भर के अन्य बड़े ग्लेशियर हैं और अपने देश में भी हिमालय एक बड़े ग्लेशियर की श्रेणी में आता है।
अकेले अंटार्कटिका के ग्लेशियर पूरी दुनिया के ग्लेशियर का 84 फीसद भाग है। इसी से सभी महाद्वीपों में कहीं न कहीं पानी की व्यवस्था तय की जाती है। दुर्भाग्य यह है कि अब ग्लेशियरों के हालात बिगड़ते शुरू हो गए हैं, जिस पर बहस भी जारी है। ग्लेशियर के अध्ययन पर आधारित एक रिपोर्ट यह दर्शाती है कि हर ग्लेशियर दुनिया में प्रति वर्ष 1-2 मीटर की गति से सिकुड़ता चला जा रहा है। अगर यही हालात रहे तो आने वाले समय में हम एक बहुत बड़े जल संकट में ही नहीं अटकेंगे, बल्कि समुद्र तल अप्रत्याशित रूप से इस हद तक पहुंच जाएगा कि दुनिया के कई प्रमुख देश व शहर डूब जाएंगे।
अभी हाल ही के मौसम विज्ञान संगठन जेनेवा के एक ताजा अध्ययन के अनुसार अंटार्कटिका के ही एक स्थान पर तापक्रम 20 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है, जो दो साल पहले 2017 में करीब 17.5 डिग्री सेल्सियस था। लगातार अंटार्कटिका के बढ़ते हुए तापक्रम का सीधा और बड़ा मतलब यह है कि हम अपने ग्लेशियरों को तेजी से खो देंगे। ये भी सच है कि अंटार्कटिका जैसा स्थान जहां पर कभी भी 15 डिग्री. से. कम तापक्रम नहीं 5 डिग्री.से. बढ़ा है। अध्ययन का एक हिस्सा यहभी था कि अगर गर्मी इसी अनुमान से बढती रही हतो करीब आने वाले 100 वर्षों में समुद्र तल 3 मीटर ऊपर चला जाएगा और ये दुनिया के लिए एक बड़ी तबाही होगी। क्योंकि इन हालातों में अगर 1.42 करोड़ वर्ग किलोमीटर के अंटार्कटिका की पूरी बर्फ पिघल गई तो ये समुद्र तल को 60 मीटर बढ़ा देगा और ये पृथ्वी पर प्रलय मचा देगा।
वैज्ञानिकों ने बार-बार यह चेताने की कोशिश की है कि अंटार्कटिका पर औसतन 1.9 किमी परत के रूप में मौजूद बर्फ अब बिखरने को है। इसके पिघलने की गति 1989 से 2017 तक 6 गुना बढ़ चुकी है और ये सिर्फ इसलिए भी हुआ क्योंकि बहुत तेजी से गर्मी अंटार्कटिका की सभी सीमाओं को तोड़ रही है। अब अगर आज के हालातों को देख लें तो वर्ष 2100 तक इतनी बर्फ पिघल जाएगी कि कई द्वीप, देश और 11 शहर इसमें डूब जाएंगे।
बढ़ते जलस्तर के खतरे की वास्तविकता को ऐसे समझे कि वर्ष 2100 तक हिंद महासागर में मौजूद मालदीव डूब जाएगा और इसी डर से आज वह भारत, श्रीलंका व ऑस्ट्रेलिया से जमीन खरीद अपने नागरिकों को जलवायु शरणार्थी बनने से बचाने में जुटा है। दूसरी तरफ ग्रीनलैंड के बारे में भी यही माना जा रहा है जो कि दुनिया में बर्फ का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। सदी के अंत तक यहां करीब 4.5 फीसदी बर्फ पिघल जाएगी और यह समुद्र के स्तर में 13 इंच की वृद्धि कर देगा।
‘साइंस एडवांसेस’ नामक पत्रिका में छपे एक अध्ययन के अनुसार ऐसा भी है कि करीब वर्ष 2030 तक अगर यही हालात रहे और उसी तरह गर्मी बढ़ती चली गई तो ग्रीनलैण्ड की पूरी बर्फ पिघल जाएगी। अमरीका में अलास्का फेयरबैंक्स कैसा जियोफिजिकल इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन के अनुसार, आने वाले समय में ग्रीनलैण्ड कैसा दिखेगा, इसे लेकर उन्होंने एक तस्वीर पेश की है जो दर्शाती है कि आज पूरी तरह बर्फ से ढके ग्रीनलैण्ड में आपको हरियाली दिखी देगी और ग्रीनलैम्ड की बर्फ को पिघलने से रोकना मनुष्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।
करीब 6 लाख 60 हजार वर्ग किमी. में फैली हुई बर्फ 81 फीसदी ग्रीनलैण्ड को घेरे हुए हैं, जिसमें धरती के शुद्ध जल की बड़ी उपलब्धता मानी जाती है। यहां दुनिया के वो आठ मुख्य जल निकाय हैं जिनसे दुनिया को पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होती है। नासा के ऑपरेशन आइस ब्रिज के तहत वैज्ञानिक लगातार इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि ग्रीनलैण्ड में बर्फ के स्तर में क्या परिवर्तन आएंगे। उनके असार वर्ष 1991 और वर्ष 2015 के बीच ग्रीनलैण्ड की बर्फ की चादरों ने समुद्र स्तर में 0.02 इंच की वृद्धि की है और अगर ये वृद्धि इसी तरह होती रही तो ये तय मान लीजिए कि हालात और भी गंभीर हो जाएंगे। ये इसलिए भी समझना जरूरी है कि दुनिया में जो तापक्रम वृद्धि तेजी से हो रही है उसका सीधा बड़ा असर अगर कहीं पड़ता है तो ग्लेशियर पर। ये सब कुछ जलवायु परिवर्तन के साथ ही जोड़कर देखा जा सकता है। इसमें हिमालय भी है, जिसमें वर्ष 1982 से 2000 के बीच में करीब 1.5 डिग्री तापक्रम बढ़ा और प्रति वर्ष 0.6 डिग्री सेल्सियस की यहां बढ़ोत्तरी पाई गई है। यहां के बड़े ग्लेशियर चेनाब, पार्वती, वासप, गंगोत्री आदि हैं जिनमें वर्ष 1962 से वर्ष 2001 के बीच औसतन 400 मीटर की कमी आई है।
वैसे तो ग्लेशियरों को एक ऐसी संरचना के रूप में भी देखा जाता है जो गतिशील रहता है, लेकिन ये इस बात पर निर्भर करता है कि किसी भी वर्ष में वर्षा के योगदान से कितने ग्लेशियर बन पाए। क्योंकि अब देखा जा रहा है कि अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। इस कारण ग्लेशियरों की संरचना पर लगातार संकट बढ़ा है। दूसरी बड़ी बात यह भी है कि ग्लेशियरों के बिगड़ते हालात की वजह ब्लैक कार्बन है जिसने अपनी बड़ी जगह बना ली है। साथ में घठते वन, वनाग्नि की बढ़ती घटनाएं, मनुष्य जनित कचरा व ग्रीनहाउस गैसें आदि जैसे तमाम कारक हैं जिन्होंने धीरे-धीरे दुनिया भर में ग्लेशियरों के हालात गम्भीर कर दिए हैं।
सवाल ये पैदा होता है कि बात सिर्फ अंटार्कटिका, ग्रीनलैण्ड व हिमालय की नहीं है बल्कि आने वाले समय में इनके खत्म होने से बढ़ने वाले समुद्री जलस्तर और पीने के पानी की उपलब्धता की है। ये वे सवाल होंगे, जिनका शायद हमारे पास कोई भी उत्तर नहीं होगा। अब नए सिरे से ग्लेशियर को लेकर सरकारों, नीतिकारों व वैज्ञानिकों को एक साथ मिल-बैठकर गंभीर होना होगा और ये मानकर चलना होगा कि अगर नदियों को बचाना है, अगर तालाबों में लगातार पानी को सिंचित करना है और उन्हें जीवित रखना है तो ग्लेशियरों का महत्व समझना होगा। अंततः किसी भी संकट के समय हमें यदि कोई पानी उपलब्ध करा सकता है तो वे हैं हमारे ग्लेशियरों का महत्व समझना होगा। अंततः किसी भी संकट के समय हमें यदि कोई पानी उपलब्ध करा सकता है तो वे हैं हमारे ग्लेशियर। आने वाला समय इन्ही के अस्तित्व पर निर्भर है। इसे गम्भीरता से समझने की ज आवश्यकता है और आने वाला कल इसी पर निर्भर है। इसे गंभीरता से समझने की आज आवश्यकता है और आने वाला कल इसी पर निर्भर करेगा कि हम अपने ग्लेशियरों को कितना मजबूत और समृद्ध रखते हैं। ये बात तो साफ है कि जल है तो कल है और तब ही पानी का हर पल है।