पोषाहारः लोक स्वास्थ्य की प्राथमिकता

Submitted by Shivendra on Tue, 01/28/2020 - 12:47
Source
कुरुक्षेत्र, जनवरी, 2020

आयुष्मान भारत-स्वास्थ्य और आरोग्य केन्द्रों के जरिए गैर-संचारी रोगों की जांच की सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि लोगों में पोषण और खान-पान के स्वस्थ तौर-तरीकों के बारे में केवल जागरूकता ही न बढ़े बल्कि स्वस्थ जीवनशैली को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों में तालमेल कायम करने के साथ कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं। सकारात्मक परिवर्तन लाने के इन तमाम प्रयासों का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है- जनता के व्यवहार में बदलाव लाना। सितम्बर के महीने में पोषण माह और पौष्टिक आहार की अक्सर चर्चा सुनी और पढ़ी जाती है। इस लेख का उद्देश्य ‘पोषण’ के बारे में समझ बढ़ाना और इसके महत्व को जानना तथा पोषण और स्वस्थ खान-पान से सम्बन्धित पहलुओं चर्चा करना है।

पोषण क्या है?

पोषण के बारे में आप क्या जानते हैं? ब्रिटिश न्यूट्रीशन (पोषण) फाउंडेशन द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार ‘भोजन में पोषक तत्वों का अध्ययन, शरीर में पोषक तत्वों के उपयोग के तौर-तरीकों और खुराक, स्वास्थ्य और बीमारियों के बीच सम्बन्ध को पोषण कहा जाता है।’ एक अन्य विस्तृत परिभाषा के अनुसार ‘पोषण शरीर की आहार सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ली जाने वाली खुराक है।’ इसमें जो महत्त्वपूर्ण बात गौर करने की है वह है, ‘आहार सम्बन्धी आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए ली जाने वाली खुराक’। हमारे शरीर की जरूरतें बदलती रहती हैं इसलिए हमारी खुराक में भी बदलाव होते रहना चाहिए। यानी जीवन के हर चरण में आहार सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सम्पूर्ण जीवनचक्र को ध्यान में रखने वाला दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उदाहरण के लिए एक बच्चे की पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएं किशोर से अलग होती हैं और इसी तरह एक वयस्क कामकाजी व्यक्ति की बुजुर्ग व्यक्ति से भिन्न होती हैं। सही पोषण वाली पर्याप्त और संतुलित खुराक और उसके साथ नियमित शारीरिक गतिविधियां अच्छे स्वास्थ्य की बुनियाद मानी जाती है। अपर्याप्त पोषण से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है और बीमारियों प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है जिससे शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और उत्पादकता में कमी आती है। यहाँ से हम नए वाक्यांश पर पहुँचते हैं जो गलत पोषण का नतीजा है और जिसे ‘कुपोषण’ कहा जाता है। कुपोषण में अल्प-पोषण और अति-पोषण, दोनों ही स्थितियां शामिल हैं जिनसे अलग-अलग रोग वाली स्थितियां उत्पन्न होती हैं। लोक-स्वास्थ्य के क्षेत्र में तीन ऐसे शब्द हैं जिन्हें अल्प-पोषण की स्थिति के आकलन का मानदंड माना गया हैः स्टंटिंग (वृद्धि रोध,),वेस्टिंग (भार क्षय) और अंडर वेट (न्यून भार), जबकि अति पोषण का मापन अतिभार, मोटापे और आहार सम्बन्धी गैर-संचारी रोगों जैसे हृदय रोग, दिल का दौरा, मधुमेह और कुछ प्रकार के कैंसर के रूप में किया जाता है।

वृद्धिरोध से ग्रस्त (स्टंटेड) बच्चा वह है जिसका वजन अपनी ही उम्र के मानक कद वाले बच्चे के वजन से कम है। वेस्टिंग या भार क्षय अत्यधिक अल्प-पोषण की स्थिति का लक्षण है जो आमतौर पर पूरी खुराक न मिलने या पेचिस जैसी संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त होने पर उत्पन्न होती है। वेस्टिंग में शरीर की रोग-प्रतिरोधी प्रणाली गड़बड़ा जाती है जिससे संक्रामक रोगों के प्रति संवेदनशीलता, इनकी अवधि और प्रचंडता बढ़ जाती है जिससे मौत का खतरा भी बढ़ जाता है।  दूसरी ओर, अंडरवेट यानी कम वजन का होना एक ऐसी स्थिति है जिसमें बच्चे का भार अपनी उम्र के बच्चे के मानक भार से कम होता है। प्रमाणों से पता चलता है कि बच्चों का वजन मामूली तौर पर कम होने पर उनके जीवन के लिए खतरे की आशंका होती है और अगर भार बहुत कम हो तो खतरा बहुत अधिक बढ़ जाता है।

अगर किसी बच्चे का वजन अपनी ही उम्र के बच्चे के मानक वजन से अधिक हो तो उसे ओवर वेट यानी अधिक वजन वाला माना जाता है। बाल्यकाल के मोटापे का सम्बन्ध वयस्क होने पर मोटापे की अधिक आशंका से है जिससे कई तरह की बीमारियां, जैसे मधुमेह और हृदय एवं रक्तवाहिकाओं सम्बन्धी रोग हो सकते हैं। मोटापे की वजह से होने वाले ज्यादातर गैर-संचारी रोग इस बात पर निर्भर करते हैं कि मरीज उम्र क्या है और मोटापे की अवधि कितनी है। मोटे बच्चों और वयस्कों को, दीर्घावधि और अल्पावधि, दोनों ही तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। इनमें प्रमुख हैं- हृदय और रक्तवाहिकाओं से सम्बन्धित बीमारियां (मुख्य रूप से हृदय रोग और दिल का दौरा पड़ना), मधुमेह, मांसपेशियों और हड्डियों सम्बन्धी विकास (खासतौर पर ऑस्टियोआर्थरिटिस) और गर्भाशय, स्तन और बड़ी आंत का कैंसर। बच्चे की बढ़वार की दर को दुनिया भर में पोषण के स्तर का संकेतक माना जाता है। आम लोगों का स्वास्थ्य तथा ऊपर बताए गए संकेतक स्वास्थ्य के स्तर के मापन का प्रत्यक्ष पैमाना हैं और इसलिए यहाँ उनकी चर्चा करना जरूरी है।

भारत में पोषण की स्थिति

पोषण की बुनियादी शब्दावली की जानकारी की काफी अच्छी समझ हो जाने के बाद आइए, इन संकेतकों की वैश्विक स्थिति का जायजा लिया जाए और हमारा देश इस लिहाज से कहाँ पर है, इस पर विचार किया जाए। ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार दुनिया में पांच साल से कम उम्र के 15.08 करोड़ बच्चे स्टंटेड और 5.05 करोड़ वेस्टेड हैं। भारत में 4.66 करोड़ बच्चे स्टंटेड और 2.55 करोड वेस्टेड हैं। इतना ही नहीं, भारत उन देशों में समूह शामिल है जहाँ दस लाख से अधिक ओवरवेट यानी अधिक वजन वाले बच्चे हैं। कुल मिलाकर रिपोर्ट में जिन 141 देशों का विश्लेषण किया गया उनमें से 88 प्रतिशत (124 देश) एक से अधिक किस्म के कुपोषण की समस्या से ग्रस्त हैं। देश, समाज, परिवार और व्यक्ति पर कुपोषण की समस्या का आर्थिक, सामाजिक, चिकित्सकीय और विकास सम्बन्धी प्रभाव बड़ा गम्भीर और दीर्गकालीन होता है और इससे उत्पादकता में कमी के परिणामस्वरूप विकास में गिरावट का सामना करना पड़ता है।

भारत में कुपोषण की स्थिति को चित्र-1 की मदद से बड़े स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है।

इन आंकड़ों से जो महत्त्वपूर्ण मुद्दा निकलकर सामने आता है, वह यह है कि हालांकि राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण-3 और राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण-4 तक बेहद मामूली बदलाव नजर आता है, सुधार नौ वैश्विक पोषण लक्ष्यों को पूरा करने की ओर भी अग्रसर नहीं हो रहा है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य जो सामने आता है, वह यह है कि हमारे 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे और वयस्क महिलाएं रक्ताल्पता यानी एनीमिया से ग्रस्त हैं। इसका मतलब यह हुआ कि देश का हर दूसरा बच्चा (6-59 महीने का), किशोरियां (15-19 वर्ष) और प्रजनन की उम्र की महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। यही नहीं, हमारे देश में हर तीसरा किशोर (15-19 वर्ष) भी रक्ताल्पता का शिकार है।

भारत सरकार की पहल

जैसाकि पीछे कहा जा चुका है राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 में मामूली सुधार देखे गए हैं। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार की नीतियां और पहल सही दिशा में हैं और इनका असर भी दिखने लगा है। स्वास्थ्य के निर्धारकों में सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक क्षेत्रों के विभिन्न घटक शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों में पोषण के कई प्रमुख निर्धारकों में महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है। स्वच्छ भारत मिशन में खुले में शौच की बुराई से मुक्त समुदायों के निर्माण पर ध्यान केन्द्रित किया गया है जिससे बच्चो में पेचिश और आंतों के संक्रमण के प्रकोप को कम में काफी मदद मिली है। प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना गर्भवती महिलाओं और शिशुओं को स्तनपान कराने वाली महिलाओं को सहायता प्रदान करती है और इसके अन्तर्गत आरोग्यपूर्ण व्यवहार तथा टीकाकरण को प्रोत्साहन दिया गया है। टीकाकरण से छूट गए बच्चों और गर्भवती महिलाओं को लक्ष्य बनाकर चलाए जा रहे ‘मिशन इन्द्र धनुष’ के तहत शत प्रतिशत टीकाकरण का प्रयास किया जा रहा है।

माँ (मदर्स एब्सोल्यूट एफेक्शन एमएए) अभियान माताओं में शिशुओं को स्तनपान कराने की आदत को बढ़ावा देने की पहल है जिसके अन्तर्गत छह महीने तक के बच्चों को सिर्फ माँ का दूध पिलाने को प्रेरित किया जाता है ताकि शिशुओं में संक्रमण की रोकथाम। बच्चों, किशोर-किशोरियों और गर्भवती माताओं में पोषण सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय सघन डायरिया नियंत्रण पखवाड़ा कार्यक्रम, पेट के कीड़ों से छुटकारा दिलाने के लिए राष्ट्रीय कृमि मुक्ति दिवस कार्यक्रम और प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान पर अमल करता है। सितम्बर 2017 में आंगनवाड़ियों के जरिए गर्भवती महिलाओं और शिशुओं को स्तनपान कराने वाली माताओं, बच्चों और किशोरियों को पूरक पोषण उपलब्ध कराने के लागत सम्बन्धी मानदंडों में संशोधन किया गया और इन्हें खाद्य मूल्य सूचकांक से जोड़ दिया गया। लेकिन ये सब स्वतंत्र और अलग कार्यक्रम हैं और अलग-अलग मंत्रालयों द्वारा अपनी खिचड़ी खुद पकाने की प्रवृत्ति के अनुसार चलाए गए हैं। अन्तरराष्ट्रीय अनुभव से पता चलता है कि जिन इलाकों में कुपोषण की समस्या गम्भीर है, वहाँ ध्यान केन्द्रित करके इन सब कार्यक्रमों को तालमेल से चलाने से कुपोषण में कमी लाने की दर बढ़ जाती है। राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरुआत इसी सोच से हुई है। अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस 2019 के अवसर पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरुआत की।

 राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरुआत 9046.17 करोड़ रुपए के तीन साल के बजट से 2017-18 में की गई। इसे अब ‘पोषण अभियान’ नाम दिया गया है और यह देश में पोषण को युद्ध-स्तर पर सुधारने के समग्र दृष्टिकोण पर आधारित है।

पोषण अभियान का उद्देश्य स्टंटिंग, अल्पपोषण, एनीमिया (छोटे बच्चों, महिलाओं और किशोरियों) में क्रमशः 2 प्रतिशत, 2 प्रतिशत, 3 प्रतिशत और 2 प्रतिशत वार्षिक की दर से कमी लाना है। हालांकि स्टंटिंग में कमी लाने का लक्ष्य कम से कम 2 प्रतिशत वार्षिक का है लेकिन पोषण अभियान के तहत स्टंटिंग के स्तर को 38.4 प्रतिशत (एनएफएचएस-4) से घटाकर 2022 तक 25 प्रतिशत के स्तर पर लाना है, (मिशन-25, 2022 तक)। इस कार्यक्रम से 10 करोड़ से अधिक लोगों को फायदा होगा। सभी राज्यों और जिलों को चरणबद्ध तरीके से इसके दायरे में लाया जाएगा यानी 2017-18 में 315 जिलों 2018-19 में बाकी जिले।

पोषण अभियान के अन्तर्गत कुपोषण की समस्या के समाधान में योगदान करने वाले विभिन्न कार्यक्रमों का आकलन किया जाता है जिसके लिए बेहद मजबूत तालमेल प्रक्रिया भी शामिल है। इसके अलावा, इसमें सूचना और संचार टेक्नोलॉजी पर आधारित रियल टाइम निगरानी प्रणाली, राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों को लक्ष्य पूरा करने के लिए प्रोत्साहन देने, आंकड़े/संकेतकों को रिकॉर्ड करने के लिए आईडी आधारित उपकरणों के उपयोग के लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रोत् देने, आंगनवाड़ी केन्द्रों में उपयोग किए जाने वाले रजिस्टरों का प्रचलन समाप्त करने, आंगनवाड़ी केन्द्रों में बच्चों के कद के नापने की शुरुआत करने, सामाजिक ऑडिट, पोषण संसाधन केन्द्रों की स्थापना, विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से जन-आन्दोलन चलाकर पोषण अभियान में जनता की भागीदारी बढ़ाने का प्रस्ताव है।

पोषण अभियान के महत्त्वपूर्ण नीतिगत घटकों में जन-समुदायों को एकजुट करना और सामाजिक एवं व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तन लाना भी शामिल है। समुदाय और अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं के बीच सम्पर्क सुधारने के लिए समुदाय-आधारित कार्यक्रमों की व्यवस्था करने और व्यापक जन-भागीदारी के जरिए इसे जन-आंदोलन में परिवर्तित करके सुपोषित भारत के रूप में ‘न्यू इंडिया’ के निर्माण की परिकल्पना पोषण अभियान में की गई है। लाभार्थियों में स्वास्थ्य और पोषण सम्बन्धी व्यवहार के बारे में जागरुकता सुनिश्चित करने के लिए सितम्बर का महीना (2018 से) पोषण माह के रूप में मनाया जाता है और इस दौरान प्रसवपूर्व देखभाल, एनीमिया, विकास और खुराक की निगरानी, बालिकाओं की शिक्षा, विवाह की सही उम्र, आरोग्य और स्वच्छता, खानपान की स्वस्थ आदतों पर ध्यान केन्द्रित कर अनेक तरह की गतिविधियां संचालित की जाती हैं। पिछले साल खानपान मेलों, रेलियों, स्कूल-स्तर के अभियानों, एनीमिया परीक्षण और उपचार शिविर, व्यजनों का प्रदर्शन, रेडियो व टीवी पर वार्ता कार्यक्रमों और देश भर में सेमिनारों के आयोजन जैसे अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से पोषण अभियान के तमाम पहलुओं को प्रदर्शित किया गया। रिपोर्टों के अनुसार जन-आन्दोलन डैशबोर्ड में देश में 23 लाख गतिविधियां दर्ज की गई जिनमें देश भर में करीब 27 करोड़ लोगों से सम्पर्क साधकर उन्हें सहभागी बनाया गया जिनमें से एक तिहाई पुरुष थे। पोषण माह 2019 के मुख्य विषयों को चित्र-1 में दर्शाया गया है।

पोषण अभियान की गतिविधियों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इसमें 1000 दिन तक देखभाल के कार्यक्रम, पेचिश के प्रबंधन, एनीमिया परीक्षण आदि के लिए प्रथम पंक्ति के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं-आशा कार्यकर्ताओं और ऑग्जीलियरी नर्स मिडवाइव्ज (एएनएम) की सेवाओं का भरपूर फायदा उठाया जाता है क्योंकि अग्रिम पंक्ति के ये कार्यकर्ता ही लाभार्थियों के दरवाजे तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं। पोषण माह के कार्यक्रमों/गतिविधियों में स्वास्थ्य मंत्रालय के कार्यों के कुछ घटकों को दोहराया जाता है। इन्हीं कारणों से पोषण अभियान का प्रभारी जिन दो प्रमुख मंत्रालयों को बनाया गया है, उनमें महिला और बाल विकास मंत्रालय और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय शामिल हैं। पोषण अभियान के घटक के रूप में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रलाय ने एनीमिया मुक्त भारत अभियान भी शुरू किया जो कुपोषण को रोकथाम के मौजूदा कार्यक्रमों (सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए आयरन व फोलिक एसिड की प्रतिपूर्ति के कार्यक्रम, एनीमिया की रोकथाम के लिए स्वास्थ्य केन्द्र आधारित उपचार प्रोटोकाल, राष्ट्रीय कृमि मुक्ति दिवस आदि) से अलग है। एनीमिया-मुक्त भारत की रणनीति के अन्तर्गत स्कूल जाने वाले किशोर-किशोरियां और गर्भवती महिलाओं में एनीमिया के परीक्षण और उपचार के लिए नई टेक्नोलॉजी अपनाने, एनीमिया के बारे में उच्च अनुसंधान के लिए संस्थागत प्रणाली कायम करने, अधिक पौष्टिकता वाले आहार का सेवन बढ़ाने और मास/मिड मीडिया संचार सामग्री सहित विस्तृत संचार रणनीति अपनाने पर जोर दिया गया है। पोषण अभियान के तहत एनीमिया में कमी लाने के पूर्व-निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से बनाई गई एनीमिया-मुक्त भारत रणनीति छह लक्षित लाभार्थी समूहों को फायदा पहुँचाने के लिए है जिसके लिए छह उपायों और छह संस्थागत प्रणालियों की भी व्यवस्था की गई है। इस रणनीति के संचालन सम्बन्धी दिशानिर्देश 14 अप्रैल, 2018 को प्रधानमंत्री ने छत्तीसगढ़ में जारी किए थे।

 एनीमिया मुक्त भारत रणनीति

  1. पांच साल से कम उम्र के सभी बच्चों के लिए आशा कार्यकर्ता की निगरानी सप्ताह में दो बार आयरन फोलिक एसिड (आइएफए) की प्रतिपूर्ति
  2. 5-10 साल के बच्चों के लिए साप्ताहिक आइएफए (आईएफए) प्रतिपूर्ति।
  3. पेट के कृमियों से मुक्ति के लिए बच्चों और किशोरों में वार्षिक/अर्ध-वार्षिक आधार पर दवा देना।
  4. स्कूल जाने वाले किशोरों और गर्भवती महिलाओं के लिए नई टेक्नोलॉजी पर आधारित देखभाल केन्द्र परीक्षण योजना।
  5. एनीमिया बारे में उच्च अनुसंधान के लिए संस्थागत प्रणाली की स्थापना।
  6. एनीमिया के पोषण से इतर कारणों पर ध्यान देना।
  7. विस्तृत संचार रणनीति जिसमें मास/मिड मीडिया/सोशल मीडिया संचार सामग्री (जिसमें रेडियो और टीवी स्पॉट, पोस्टर, रोजगार विज्ञापन, अंतर-वैयक्तिक संचार जैसी सामग्री) शामिल हैं।

पोषण माह (सितम्बर 2018) के दौरान, 1,00,000 रोगी एनीमिया टी-3 (जांच, उपचार और वार्ता) शिविरों में पहुंचे। मार्च 2019 में आयोजित पोषण पखवाड़े के दौरान देश भर में 1.65 करोड़ लोग एनीमिया टी-3 कैम्पों में आए और नवजात शिशुओं की घर पर देखभाल करने के कार्यक्रम के जरिए 48.14 लाख बच्चों का ध्यान रखा गया। देश में गर्भवती महिलाओं में से 87.2 प्रतिशत को आयरन और फोलिक एसिड की 180 गालियां देकर एनीमिया मुक्त भारत अभियान को सफल बनाने का प्रयास किया गया। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक ऑनलाइन डैशबोर्ड (https:/anemiamuktbhart.info) बनाया है जिसमें एनीमिया-मुक्त भारत और इसी तरह के विभिन्न कार्यक्रमों और अन्य सम्बन्धित संकेतकों के बारे में जानकारी के अलावा इनमें हुई प्रगति से सम्बन्धित जानकारी हासिल की जा सकती हैं।

निष्कर्ष

पोषण निश्चित रूप से नीतिगत मुद्दा है जिसका दायरा महिलाओं और बच्चों तक सीमित नहीं है। आज हमारा देश उस दौर में पहुंच गया है जहां चुने हुए सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की बजाय विस्तृत चिरस्थाई विकास लक्ष्यों पर समग्र रूप से जोर दिया जा रहा है। संचारी रोगों की गहराती समस्या के साथ-साथ पोषण की अधिकता की समस्या ने बड़ी जटिल नीतिगत चुनौतियां उत्पन्न कर दी हैं। उदाहरण के लिए महिलाओं की बजाय पुरुषों में मधुमेह और उच्च-रक्तचाप का प्रकोप बढ़ता जा रहा है, हालांकि मोटापे/वजन ज्यादा होने की समस्या महिलाओं में ज्यादा है।

हाल के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि हमारे देश को अति-पोषण और न्यून-पोषण की समस्याओं की ‘दोहरी मार’ झेलनी पड़ रही है। सरकार इस मसले का हल खोजने का प्रयास कर रही है जिसके तहत बीमारियों की रोकथाम पर अधिक जोर दिया जा रहा है। यानी आयुष्मान भारत-स्वास्थ्य और आरोग्य केन्द्रों के जरिए गैर-संचारी रोगों की जांच की सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही है। इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि लोगों में पोषण और खान-पान के स्वस्थ तौर-तरीकों के बारे में केवल जागरूकता ही न बढ़े बल्कि वे स्वस्थ जीवन शैली को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों में तालमेल कायम करने के साथ ही कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं। लेकिन सकारात्मक परिवर्तन लाने के इन तमाम प्रयासों का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है-जनता के व्यवहार में बदलाव लाना जिसमें व्यक्ति और समुदाय सूझ-बूझ से पोषण की अपनी आवश्यकताओं और खाए जाने वाले भोजन के बारे में निर्णय लेते हैं। इतनी ही नहीं, वे स्वस्थ जीवनशैली अपनाने के बारे में भी फैसला करते हैं जिससे स्वस्थ खानपान के फायदे कई गुना बढ़ जाते हैं। जैसाकि पोषण अभियान के नारे में कहा गया है- सही पोषण, देश रोशन। निश्चय ही, तंदुरुस्त जनता स्वस्थ्य और उत्पादक राष्ट्र की आधारशिला है।

(डॉ. मनीषा वर्मा, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में अपर महानिदेशक (एमएंडसी) और डॉ. पूजा पासी, वरिष्ठ आइईसी परामर्शदाता हैं।)

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