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वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ते तापमान के अन्य खतरे हो सकते हैं:
दुनिया में भारी वर्षा, बाढ़, सूखा, तूफान, चक्रवात जैसी आपात स्थितियां कही अधिक बढ़ना।
गर्म अक्षांशों में वर्षा घटने से सूखे जैसी स्थिति से कृषि की पैदावार घटना।
बर्फ के सर्दियों में तेजी से पिघलने से गर्मी में नदियों में पानी की कमी हो जाना।
भारत जैसे देश में 7000 किलोमीटर लंबा समुद्रतट है और भारत की चौथाई जनसंख्या तट के 50 किलोमीटर के अंदर बसती है, समुद्र का जल स्तर बढ़ने से जमीन डूबने, खेत, घर, बस्तियां व नगर नष्ट होने, खारा पानी तटों पर अंदर आने जैसे खतरनाक प्रभाव हो सकते हैं।
जो देश लगभग पूरे द्वीप हैं और समुद्र तट पर ही बसे हैं, जैसे बांगलादेश, मालदीव, मॉरीशस आदि, उनके लिये भारी खतरा है।मलेरिया जैसे रोगों और उन्हें फैलाने वाले कीटों का दूसरे इलाकों पर हमला बोलना।
धान जैसी ज्यादा पानी वाली फसलों की खेती में कमी आना।
इन सब प्रभावों की सबसे ज्यादा मार गरीबों पर पड़ेगी जो बाढ़ और सूखे से अपने को बचा नहीं सकते, जिन्हें पानी के लिये दूर जाना पड़ता है, जिनकी खेती केवल वर्षा पर निर्भर है, जो वनों पर बहुत निर्भर करते हैं और जो मछुआरे हैं आदि।
कौन जिम्मेदार ?
यह तो साफ है कि धरती की इस हालत के लिये इंसान जिम्मेदार है। 1750 के आसपास जब से औद्योगिक युग चालू हुआ, इंसान ने भारी मात्रा में कोयला, पेट्रोल, डीजल, लकड़ी और प्राकृतिक गैस जलाकर बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पादन चालू कर दिया जो एक प्रमुख ग्रीन हाउस गैस है (ऐसी गैस जो गर्मी को सोख कर रखती है) जाहिर है कि ऐसा सबसे ज्यादा दुनिया के अमीर और विकसित देशों ने किया जिन्होंने अपने विकास का रास्ता बेहिसाब उद्योग लगाकर और गाड़ियों की संख्या बढ़ाने का कार्य किया। अफसोस की बात तो यह है कि गरीब या विकासशील देशों (जैसे भारत) के अमीर भी ठीक वही रास्ता चुन रहे हैं- धरती के सभी संसाधनों की अंधाधुंध, गैर जिम्मेदाराना इस्तेमाल का और धरती को हमेशा के लिये दूषित करने का। लेकिन फिर भी इसका जो कुछ भी नुकसान होगा उसे सबसे पहले गरीब ही भुगतेंगे-चाहे वो गरीब देश हों या गरीब परिवार। पानी की किल्लत हो या अनाज की, सबसे पहले भुखमरी और बदहाली की मार गरीब झेलते हैं। दुनिया के देशों में गरीब देश अभी तक अपने लोगों के लिये अनाज, ऊर्जा, बिजली, पानी, सड़कें और उद्योग जुटाने में लगे हैं- उन्हें अभी विकास के लिये बहुत से नए उद्योग धन्धे लगाने हैं-ऐसे में दुनिया के वायुमंडल की सफाई वे कैसे करेंगे? या फिर विकास के महंगे, कठिन तरीके कैसे चुनेंगे?
दुनिया को गंदा करने में अमीरों और गरीबों में कितना फर्क है यह इसी से समझा जा सकता है कि सन् 1900 के बाद के 90 सालों में एक औसत अमरीकी व्यक्ति ने एक औसत भारतीय के मुकाबले 43 गुना कार्बन डाइऑक्साइड वायु में फेंकी है। यानी एक अमरीकी इस मामले में 43 भारतीयों के बराबर है।
पूरी दुनिया में आज यही बहस छिड़ी हुई है। CO2 कम करने की जिम्मेदारी कौन उठाए-अमीर देश, जिन्होंने पहले यह तबाही लाई है और बेहद फिजूलखर्ची वाले रहन सहन के आदी हैं? या फिर विकासशील देश जो विकास के उसी रास्ते पर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, और जल्दी ही CO2 छोड़ने में अमीर देशों के बराबर पहुंच जाएंगे।
यहां यह बताना जरूरी है कि सन 1997 में क्योटो में हुई बैठक में अमरीका और आस्ट्रेलिया ने किसी भी तरह से अपने CO2 छोड़ने की मात्रा कम करने से साफ इंकार कर दिया था। अमरीका ने कहा था कि ‘अमेरिकी लोगों के जीवन के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता’- सोचने की बात यह है कि इस गैर जिम्मेदारी का नुकसान पूरी दुनिया और सारी भावी पीढ़ियां झेलेंगी।