Source
भारतीय धरोहर, जनवरी-फरवरी 2010
देवास जिले में पिछले तीन सालों से लगातार औसत से कम वर्षा होने के कारण रबी का रकबा लगातार घट रहा था। किसानों के पास सिंचाई के साधनों के नाम पर सिर्फ नलकूप थे। वो भी अत्यधिक भू-जल दोहन के कारण एक-एक कर किसान का साथ छोड़ते जा रहे थे। सिंचाई के लिए पानी की तलाश में 500 से 1000 फीट गहरे नलकूप करवाने के कारण किसान कर्ज में धंसता जा रहा था। ऐसे निराशाजनक परिदृश्य में तत्कालीन कलेक्टर श्री उमाकांत उमराव ने जल संवर्धन के क्षेत्र में एक नई अवधारणा विकसित कर उसे अभियान का रूप देने के लिए एक कारगर रणनीति तैयार की।नवंबर-दिसंबर के हल्के सर्द मौसम में यदि आप हवाई यात्रा के दौरान देवास जिले के टोंकखुर्द विकासखंड के ऊपर से गुजरे तो आपको हरे-हरे खेतों में ढेर सारी नीली-नीली बुंदकियां दिखाई पड़ेगी आप हैरत में पड़ जाएंगे। आपके मन में एक जिज्ञासा पैदा होगी कि आखिर खेतों में यह नीले रंग की फसल कौन-सी है...तो हम आपको बता दें कि इस क्षेत्र के किसानों ने अपनी खेती के तरीकों में क्या कोई बदलाव किया है? यहां के किसान अपने खेतों में पानी की खेती कर रहे हैं और ये जो नीली बुंदकियां हैं वो वास्तव में हर खेत में पानी से लबालब भरे तालाब हैं।
वर्ष 2007 और वर्ष 2008 में इस विकासखंड के धतुरिया और गोरबा गांव को पानी की खेती के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। इस क्षेत्र में पानी की खेती क्यों शुरू हुई… किसने शुरू करवाई। यह पानी की खेती किसानों के लिए कितनी लाभप्रद रही… इस पानी की खेती का अर्थशास्त्र क्या है… इसकी अवधारणा क्या है...यह एक लंबी कहानी है लेकिन मैं आपको संक्षेप में सुनाता हूं।
यह लंबी कहानी जानने के लिए पृष्ठभूमि के तौर पर आपको हमारी कृषि की स्थिति पर एक नजर डालनी होगी। वर्ष 2006 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश का कृषि परिदृश्य बहुत ही निराशा पैदा करने वाला था। फसल खराब हो जाने और कर्ज न चुका पाने के कारण विदर्भ में लगातार किसान आत्महत्या कर रहे थे। मध्यप्रदेश में 150 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में फसल उत्पादन में निरंतर कमी आंकी जा रही थी।
देवास जिले में पिछले तीन सालों से लगातार औसत से कम वर्षा होने के कारण रबी का रकबा लगातार घट रहा था। किसानों के पास सिंचाई के साधनों के नाम पर सिर्फ नलकूप थे। वो भी अत्यधिक भू-जल दोहन के कारण एक-एक कर किसान का साथ छोड़ते जा रहे थे। सिंचाई के लिए पानी की तलाश में 500 से 1000 फीट गहरे नलकूप करवाने के कारण किसान कर्ज में धंसता जा रहा था। यहां यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यदि यही हालात निरंतर बने रहते तो मध्य प्रदेश के देवास जिले में भी कर्ज में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं संभावित थीं।
ऐसे निराशाजनक परिदृश्य में तत्कालीन कलेक्टर श्री उमाकांत उमराव ने जल संवर्धन के क्षेत्र में एक नई अवधारणा विकसित कर उसे अभियान का रूप देने के लिए एक कारगर रणनीति तैयार की।
श्री उमराव ने पानी को कृषि में एक INPUT की संज्ञा देते हुए पानी बचाने के काम की एक अर्थशास्त्रीय अवधारणा प्रस्तुत की उन्होंने कहा कि किसान को यदि अपनी खेती को सुदृढ़ करना है तो उसे अपनी कुल जोत के दसवें हिस्से में पानी की खेती करनी होगी और उसे सिंचाई के लिए भू-जल दोहन में निवेश करने के बजाय सतही जलस्रोत में निवेश करना होगा। सतही जलस्रोत तैयार करने से सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति तो संभव होगी साथ-ही-साथ जमीन की गुणवत्ता में तेजी से सुधार होगा और कृषि के साथ कृषि से जुड़े आजीविका के वैकल्पिक स्रोत भी तालाब में जा सकेंगे।
इतना ही नहीं किसानों द्वारा की गई यह छोटी कोशिश पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होगी। पानी की इस अर्थशास्त्रीय अवधारणा को अमली जामा पहनाने के लिए “रेवासागर” अभियान के प्रथम चरण में ऐसे 5000 किसानों को चिन्हित किया गया है जिनके पास कृषि जोत रकबा 10 एकड़ या इससे अधिक है या जिन्होंने सर्वाधिक नलकूप खनन कराए हैं।
इस अवधारणा के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा थी समाज की सोच। अभी तक पानी बचाने के लिए जितने भी अभियान चलाए गए थे उनमें पानी बचाने के काम को सामुदायिक श्रेणी में रखा गया था और खास बात यह थी कि लोगों का मानना था कि जल संवर्धन का काम सरकार का है। इस मानसिकता को तोड़ने के लिए प्रचार-प्रसार की ऐसी रणनीति तैयार की गई कि लोग पानी बचाने के काम को व्यक्तिगत माने और उन्हें इस काम में व्यक्तिगत लाभ दिखाई पड़े।
लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आया और उन्होेंने यह माना कि पानी का संचय शासकीय या सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है बल्कि व्यक्तिगत काम के लिए यह व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। इसका प्रमाण यह है कि वर्ष 2006-07 में जिले में 78 करोड़ रुपए की लागत से 1600 रेवासागर बने और वह भी बिना किसी शासकीय मदद से। लोगों ने स्वयं के लाभ के लिए स्वयं ही कृषि क्षेत्र में 78 करोड़ रुपए का पानी के लिए निवेश किया। बाद में यही प्रयास “बलराम तालाब योजना” का आधार बना।
रेवासागर अभियान से किसानों को जोड़ने के लिए कृषि उपज मंडियों में ही गोष्ठियों का आयोजन किया गया। गोष्ठियों में लंबे-लंबे भाषणों के बजाय आपसी बातचीत के जरिए ही इस अवधारणा को किसानों तक पहुंचाया गया। तकनीकी मार्गदर्शन के लिए इन गोष्ठियों में कृषि विभाग के अधिकारी और स्वंयसेवी संगठनों के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे।
इन गोष्ठियों में जो भी किसान रेवासागर निर्माण के लिए तैयार होता उसके खेत में तत्कालीन कलेक्टर श्री उमाकांत उमराव स्वयं पहुंचते कुछ देर उसके तालाब में गेती चलाते या ट्रैक्टर चलाकर मिट्टी पाल पर डालते। प्रशासनिक अमले की इस सक्रियता से जिले में अभियान को लेकर एक सकारात्मक माहौल पैदा हुआ। लोग जुड़ते गए कारवां बनता गया। वर्ष 2006 में जिले में 4 महीने के अल्प समय में 600 तालाब बने।
किसानों को खरीफ की फसल में फायदा पहुंचा। रबी की फसल के रूप में डॉलर चना बोया गया किसानों ने तालाब की आधी कीमत एक ही वर्ष में लाभ के रूप में वसूल ली। पानी बचाने की यह अर्थशास्त्रीय अवधारणा आसपास के जिलों में भी फैलने लगी। परिणामस्वरूप सीहोर, शाजापुर, उज्जैन, हरदा, खंडवा, रायसेन, धार, विदिशा, होशंगाबाद, भोपाल, बैतुल जिले के किसान भी रेवासागर देखने और तकनीकी जानकारी लेने के लिए देवास पहुंचने लगे।
वर्ष 2007 में 1000 नए तालाबों का निर्माण हुआ और 2 वर्षों में जिले में 1600 तालाबों के रूप में पानी की खेती की अवधारणा एक बड़े आकार में दिखाई पड़ने लगी। पानी की खेती के इस लाभ को खुद महसूस किया और व्यक्त करने के लिए अपनी भाषा भी गढ़ी। मात्र 1 वर्ष 4 माह में इन 1600 तालाबों में से लगभग 16000 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में आंतरिक सिंचाई क्षमता निर्मित हुई। आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो पिछले 50 वर्षों में विभिन्न परियोजनाओं के संचालन में शासन द्वारा अरबों रुपया व्यय किए जाने के बाद भी सिंचित क्षेत्र में मात्र 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी जबकि रेवासागर अभियान में बिना शासन की आर्थिक मदद के 3.5 प्रतिशत सिंचाई क्षमता बढ़ी जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
रेवासागर अभियान के परिणामों का अध्ययन जल संवर्धन के क्षेत्र में कार्यरत एक समाजसेवी संस्था विभावरी द्वारा किया गया। संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट में लिखा है कि लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा दिए गए भू-जलस्तर के आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि जिन गांवों में 20 से अधिक रेवासागर का निर्माण हुआ है वहां भू-जल स्तर में बढ़ोतरी 1.5 से 2 मीटर तक आंकी गई है।
देवास विकासखंड के जिन गांवों में रेवासागर की संख्या 10 से 20 के बीच है वहां भू-जल स्तर में 0.5 से 1 मीटर तक बढ़ोतरी हुई है। भू-जल एवं रेवासागर में संगहीत पानी की गुणवत्ता को लेकर भी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमिगत जल की तुलना में रेवासागर में संग्रहीत पानी की कठोरता काफी कम है टोंकखुर्द में भू-जल की hardness 350 से 600 PPM तक है जबकि विभिन्न रेवासागर में संग्रहीत पानी की हार्डनेस 150 से 200 पीपीएम तक पाई गई है। इसी प्रकार भूमिगत जल की तुलना में रेवासागर में घुलनशील नाइट्रोजन की मात्रा अधिक है। रेवासागर में संग्रहीत पानी में एलकेलिनिटी भी कम है। पानी की गुणवत्ता के कारण यह स्पष्ट रूप से कहा जाता है कि खेती में उत्पादकता के लिए भूमिगत जल की तुलना में रेवासागर में संग्रहीत पानी अधिक श्रेष्ठ है।
किसानों के बीच विभावरी द्वारा कराए गए सर्वे से यह स्पष्ट हुआ है कि नलकूप से सिंचाई की तुलना में रेवासागर से सिंचाई करने में पांच गुना समय की बचत होती है।
समय की बचत से ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य जो कि इस अध्ययन में निकलकर आया है वो यह है कि रेवासागर से सिंचाई करने से पानी की 25 से 30 प्रतिशत तक बचत होती है। इस रिपोर्ट में यह निष्कर्ष दिया गया है कि गेहूं की सिंचाई के लिए 50 से.मी. पानी पर्याप्त है लेकिन नलकूप से सिंचाई करते समय 75 से 85 से. मी. पानी खर्च होता है। किसानों के अनुसार इसकी खास वजह यह है कि अनियमित विद्युत प्रदाय के कारण दोबारा सिंचाई करते समय पूर्व से सिंचित क्षेत्र को फिर से गीला करने में पानी व्यर्थ होता है।
पर्यावरणीय दृष्टि से रेवासागर के महत्व को रेखांकित किए बिना रेवासागर की इस कहानी का समापन उचित नहीं है क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा इन दिनों वैश्विक स्तर पर छाया हुआ है। विभावरी द्वारा रेवासागर पर किए गए अध्ययन में इस मुद्दे को विशेष रूप से उल्लेखित किया गया है।
सतही जल संरचनाओं के अभाव में पिछले कुछ वर्षों से अप्रवासी पक्षी भी जिले में नहीं पहुंच रहे थे। साथ ही स्थानीय पक्षियों की प्रजातियां भी विलुप्त हो रही थी लेकिन रेवासागर अभियान के दौरान निर्मित 1600 सतही जल संरचनाओं के कारण बड़ी संख्या में पक्षी तालाब के आसपास देखे जाने लगे हैं। किसानों के अनुसार तालाब किनारे बगुलों, चिड़ियों की उपस्थिति, मेंढक की आवाजें आनंदपूर्ण माहौल तो पैदा करती है साथ ही टिड्डियों का प्रकोप भी कम हुआ है।
अंत में साथियों मैं यही कहना चाहूंगा कि कोपनहेगन में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए जो बात कही जा रही है उसके लिए रेवासागर एक विकल्प है क्योंकि किसान तालाब की मेंढ़ों पर फलदार वृक्ष लगा रहे हैं। 1600 तालाबों की मेंढ़ों पर लगभग 20 से 25 हजार वृक्ष भी लगाए गए हैं। सतही जल संरचना में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होने से रासायनिक खादों के उपयोग में भी कमी आएगी। साथ ही भू-जल के दोहन में जितनी विद्युत ऊर्जा की खपत होती है उसकी तुलना में सतही जल संरचना से सिंचाई करने में मात्र 10 प्रतिशत विद्युत ऊर्जा की खपत होगी।
अप्रत्यक्ष तौर पर इससे भी कार्बन रेटिंग कम करने में मदद मिलेगी। यदि इन तालाबों वाले क्षेत्र में तापक्रम का अध्ययन किया जाए तो निश्चित रूप से निष्कर्ष सामने आएगा कि यह रेवासागर सिर्फ खेती में लाभ का गणित ही नहीं है बल्कि जलवायु परिवर्तन को रोकने का भी एक चोटा लेकिन असरदार उपाय है। तो आप सब आमंत्रित है देवास जिले में हुए इस छोटे और विनम्र प्रयास को देखने के लिए…
72ए, कॉलोनी बाग, विशाल मेगामार्ट के पीछे, ए.बी. रोड देवास (म.प्र.)
वर्ष 2007 और वर्ष 2008 में इस विकासखंड के धतुरिया और गोरबा गांव को पानी की खेती के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। इस क्षेत्र में पानी की खेती क्यों शुरू हुई… किसने शुरू करवाई। यह पानी की खेती किसानों के लिए कितनी लाभप्रद रही… इस पानी की खेती का अर्थशास्त्र क्या है… इसकी अवधारणा क्या है...यह एक लंबी कहानी है लेकिन मैं आपको संक्षेप में सुनाता हूं।
यह लंबी कहानी जानने के लिए पृष्ठभूमि के तौर पर आपको हमारी कृषि की स्थिति पर एक नजर डालनी होगी। वर्ष 2006 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश का कृषि परिदृश्य बहुत ही निराशा पैदा करने वाला था। फसल खराब हो जाने और कर्ज न चुका पाने के कारण विदर्भ में लगातार किसान आत्महत्या कर रहे थे। मध्यप्रदेश में 150 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में फसल उत्पादन में निरंतर कमी आंकी जा रही थी।
देवास जिले में पिछले तीन सालों से लगातार औसत से कम वर्षा होने के कारण रबी का रकबा लगातार घट रहा था। किसानों के पास सिंचाई के साधनों के नाम पर सिर्फ नलकूप थे। वो भी अत्यधिक भू-जल दोहन के कारण एक-एक कर किसान का साथ छोड़ते जा रहे थे। सिंचाई के लिए पानी की तलाश में 500 से 1000 फीट गहरे नलकूप करवाने के कारण किसान कर्ज में धंसता जा रहा था। यहां यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यदि यही हालात निरंतर बने रहते तो मध्य प्रदेश के देवास जिले में भी कर्ज में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं संभावित थीं।
ऐसे निराशाजनक परिदृश्य में तत्कालीन कलेक्टर श्री उमाकांत उमराव ने जल संवर्धन के क्षेत्र में एक नई अवधारणा विकसित कर उसे अभियान का रूप देने के लिए एक कारगर रणनीति तैयार की।
श्री उमराव ने पानी को कृषि में एक INPUT की संज्ञा देते हुए पानी बचाने के काम की एक अर्थशास्त्रीय अवधारणा प्रस्तुत की उन्होंने कहा कि किसान को यदि अपनी खेती को सुदृढ़ करना है तो उसे अपनी कुल जोत के दसवें हिस्से में पानी की खेती करनी होगी और उसे सिंचाई के लिए भू-जल दोहन में निवेश करने के बजाय सतही जलस्रोत में निवेश करना होगा। सतही जलस्रोत तैयार करने से सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति तो संभव होगी साथ-ही-साथ जमीन की गुणवत्ता में तेजी से सुधार होगा और कृषि के साथ कृषि से जुड़े आजीविका के वैकल्पिक स्रोत भी तालाब में जा सकेंगे।
इतना ही नहीं किसानों द्वारा की गई यह छोटी कोशिश पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होगी। पानी की इस अर्थशास्त्रीय अवधारणा को अमली जामा पहनाने के लिए “रेवासागर” अभियान के प्रथम चरण में ऐसे 5000 किसानों को चिन्हित किया गया है जिनके पास कृषि जोत रकबा 10 एकड़ या इससे अधिक है या जिन्होंने सर्वाधिक नलकूप खनन कराए हैं।
इस अवधारणा के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा थी समाज की सोच। अभी तक पानी बचाने के लिए जितने भी अभियान चलाए गए थे उनमें पानी बचाने के काम को सामुदायिक श्रेणी में रखा गया था और खास बात यह थी कि लोगों का मानना था कि जल संवर्धन का काम सरकार का है। इस मानसिकता को तोड़ने के लिए प्रचार-प्रसार की ऐसी रणनीति तैयार की गई कि लोग पानी बचाने के काम को व्यक्तिगत माने और उन्हें इस काम में व्यक्तिगत लाभ दिखाई पड़े।
लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आया और उन्होेंने यह माना कि पानी का संचय शासकीय या सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है बल्कि व्यक्तिगत काम के लिए यह व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। इसका प्रमाण यह है कि वर्ष 2006-07 में जिले में 78 करोड़ रुपए की लागत से 1600 रेवासागर बने और वह भी बिना किसी शासकीय मदद से। लोगों ने स्वयं के लाभ के लिए स्वयं ही कृषि क्षेत्र में 78 करोड़ रुपए का पानी के लिए निवेश किया। बाद में यही प्रयास “बलराम तालाब योजना” का आधार बना।
रेवासागर अभियान से किसानों को जोड़ने के लिए कृषि उपज मंडियों में ही गोष्ठियों का आयोजन किया गया। गोष्ठियों में लंबे-लंबे भाषणों के बजाय आपसी बातचीत के जरिए ही इस अवधारणा को किसानों तक पहुंचाया गया। तकनीकी मार्गदर्शन के लिए इन गोष्ठियों में कृषि विभाग के अधिकारी और स्वंयसेवी संगठनों के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे।
इन गोष्ठियों में जो भी किसान रेवासागर निर्माण के लिए तैयार होता उसके खेत में तत्कालीन कलेक्टर श्री उमाकांत उमराव स्वयं पहुंचते कुछ देर उसके तालाब में गेती चलाते या ट्रैक्टर चलाकर मिट्टी पाल पर डालते। प्रशासनिक अमले की इस सक्रियता से जिले में अभियान को लेकर एक सकारात्मक माहौल पैदा हुआ। लोग जुड़ते गए कारवां बनता गया। वर्ष 2006 में जिले में 4 महीने के अल्प समय में 600 तालाब बने।
किसानों को खरीफ की फसल में फायदा पहुंचा। रबी की फसल के रूप में डॉलर चना बोया गया किसानों ने तालाब की आधी कीमत एक ही वर्ष में लाभ के रूप में वसूल ली। पानी बचाने की यह अर्थशास्त्रीय अवधारणा आसपास के जिलों में भी फैलने लगी। परिणामस्वरूप सीहोर, शाजापुर, उज्जैन, हरदा, खंडवा, रायसेन, धार, विदिशा, होशंगाबाद, भोपाल, बैतुल जिले के किसान भी रेवासागर देखने और तकनीकी जानकारी लेने के लिए देवास पहुंचने लगे।
वर्ष 2007 में 1000 नए तालाबों का निर्माण हुआ और 2 वर्षों में जिले में 1600 तालाबों के रूप में पानी की खेती की अवधारणा एक बड़े आकार में दिखाई पड़ने लगी। पानी की खेती के इस लाभ को खुद महसूस किया और व्यक्त करने के लिए अपनी भाषा भी गढ़ी। मात्र 1 वर्ष 4 माह में इन 1600 तालाबों में से लगभग 16000 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में आंतरिक सिंचाई क्षमता निर्मित हुई। आंकड़ों की दृष्टि से देखें तो पिछले 50 वर्षों में विभिन्न परियोजनाओं के संचालन में शासन द्वारा अरबों रुपया व्यय किए जाने के बाद भी सिंचित क्षेत्र में मात्र 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी जबकि रेवासागर अभियान में बिना शासन की आर्थिक मदद के 3.5 प्रतिशत सिंचाई क्षमता बढ़ी जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
रेवासागर अभियान के परिणामों का अध्ययन जल संवर्धन के क्षेत्र में कार्यरत एक समाजसेवी संस्था विभावरी द्वारा किया गया। संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट में लिखा है कि लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा दिए गए भू-जलस्तर के आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि जिन गांवों में 20 से अधिक रेवासागर का निर्माण हुआ है वहां भू-जल स्तर में बढ़ोतरी 1.5 से 2 मीटर तक आंकी गई है।
देवास विकासखंड के जिन गांवों में रेवासागर की संख्या 10 से 20 के बीच है वहां भू-जल स्तर में 0.5 से 1 मीटर तक बढ़ोतरी हुई है। भू-जल एवं रेवासागर में संगहीत पानी की गुणवत्ता को लेकर भी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमिगत जल की तुलना में रेवासागर में संग्रहीत पानी की कठोरता काफी कम है टोंकखुर्द में भू-जल की hardness 350 से 600 PPM तक है जबकि विभिन्न रेवासागर में संग्रहीत पानी की हार्डनेस 150 से 200 पीपीएम तक पाई गई है। इसी प्रकार भूमिगत जल की तुलना में रेवासागर में घुलनशील नाइट्रोजन की मात्रा अधिक है। रेवासागर में संग्रहीत पानी में एलकेलिनिटी भी कम है। पानी की गुणवत्ता के कारण यह स्पष्ट रूप से कहा जाता है कि खेती में उत्पादकता के लिए भूमिगत जल की तुलना में रेवासागर में संग्रहीत पानी अधिक श्रेष्ठ है।
किसानों के बीच विभावरी द्वारा कराए गए सर्वे से यह स्पष्ट हुआ है कि नलकूप से सिंचाई की तुलना में रेवासागर से सिंचाई करने में पांच गुना समय की बचत होती है।
समय की बचत से ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य जो कि इस अध्ययन में निकलकर आया है वो यह है कि रेवासागर से सिंचाई करने से पानी की 25 से 30 प्रतिशत तक बचत होती है। इस रिपोर्ट में यह निष्कर्ष दिया गया है कि गेहूं की सिंचाई के लिए 50 से.मी. पानी पर्याप्त है लेकिन नलकूप से सिंचाई करते समय 75 से 85 से. मी. पानी खर्च होता है। किसानों के अनुसार इसकी खास वजह यह है कि अनियमित विद्युत प्रदाय के कारण दोबारा सिंचाई करते समय पूर्व से सिंचित क्षेत्र को फिर से गीला करने में पानी व्यर्थ होता है।
पर्यावरणीय दृष्टि से रेवासागर के महत्व को रेखांकित किए बिना रेवासागर की इस कहानी का समापन उचित नहीं है क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा इन दिनों वैश्विक स्तर पर छाया हुआ है। विभावरी द्वारा रेवासागर पर किए गए अध्ययन में इस मुद्दे को विशेष रूप से उल्लेखित किया गया है।
सतही जल संरचनाओं के अभाव में पिछले कुछ वर्षों से अप्रवासी पक्षी भी जिले में नहीं पहुंच रहे थे। साथ ही स्थानीय पक्षियों की प्रजातियां भी विलुप्त हो रही थी लेकिन रेवासागर अभियान के दौरान निर्मित 1600 सतही जल संरचनाओं के कारण बड़ी संख्या में पक्षी तालाब के आसपास देखे जाने लगे हैं। किसानों के अनुसार तालाब किनारे बगुलों, चिड़ियों की उपस्थिति, मेंढक की आवाजें आनंदपूर्ण माहौल तो पैदा करती है साथ ही टिड्डियों का प्रकोप भी कम हुआ है।
अंत में साथियों मैं यही कहना चाहूंगा कि कोपनहेगन में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए जो बात कही जा रही है उसके लिए रेवासागर एक विकल्प है क्योंकि किसान तालाब की मेंढ़ों पर फलदार वृक्ष लगा रहे हैं। 1600 तालाबों की मेंढ़ों पर लगभग 20 से 25 हजार वृक्ष भी लगाए गए हैं। सतही जल संरचना में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होने से रासायनिक खादों के उपयोग में भी कमी आएगी। साथ ही भू-जल के दोहन में जितनी विद्युत ऊर्जा की खपत होती है उसकी तुलना में सतही जल संरचना से सिंचाई करने में मात्र 10 प्रतिशत विद्युत ऊर्जा की खपत होगी।
अप्रत्यक्ष तौर पर इससे भी कार्बन रेटिंग कम करने में मदद मिलेगी। यदि इन तालाबों वाले क्षेत्र में तापक्रम का अध्ययन किया जाए तो निश्चित रूप से निष्कर्ष सामने आएगा कि यह रेवासागर सिर्फ खेती में लाभ का गणित ही नहीं है बल्कि जलवायु परिवर्तन को रोकने का भी एक चोटा लेकिन असरदार उपाय है। तो आप सब आमंत्रित है देवास जिले में हुए इस छोटे और विनम्र प्रयास को देखने के लिए…
72ए, कॉलोनी बाग, विशाल मेगामार्ट के पीछे, ए.बी. रोड देवास (म.प्र.)