गंगा का प्रभात

Submitted by Hindi on Sat, 08/17/2013 - 11:26
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काव्य संचय – (कविता नदी)
गलित ताम्र भव : भृकुटि मात्र रवि
रहा क्षितिज से देख,
गंगा के नभ नील निकष पर
पड़ी स्वर्ण की रेख!
आर-पार फैले जल में
घुलकर कोमल आलोक,
कोमलतम बन निखर रहा,
लगता जग अखिल अशोक!

नव किरणों ने विश्वप्राण में
किया पुलक संचार,
ज्योति जड़ित बालुका पुलिन
हो उठा सजीव अपार!

सिहर अमर जीवन कंपन से
खिल-खिल अपने आप,
केवल लहराने को लहराता
लघु लहर कलाप!

सृजन तत्व की सृजन शीलता से
हो अवश, अकाम-
निरुद्देश्य जीवन धारा
बहती जाती अविराम!
देख रहा अनिमेष, हो गया
स्थिर, निश्चल सरिता जल,
बहता हूं मैं, बहते तट,
बहते तरु, क्षितिज, अवनि तल!

यह विराट भूतों का भव
चिर जीवन से अनुप्राणित,
विविध विरोधी तत्वों के
संघर्षण से संचालित!
निज जीवन के हित अगणित
प्राणी है इसके आश्रित,
मानव इसका शासक, आतप,
अनिल, अन्न, जल शासित!

मानव जीवन, प्रकृति चलन में
जड़ विरोध कुछ निश्चित,
विजित प्रकृति को कर, उसने की
विश्व सभ्यता स्थापि!
देश काल स्थिति से मानवता
रही सदा ही बाधित,
देश काल स्थिति को वश में कर
करना है परिचालित!

क्षुद्र व्यक्ति को विकसित होकर
बनना अब जन-मानव,
सामूहिक मानव को निर्मित
करनी है संस्कृति नव!
मानवता के युग प्रभात में
मानव जीवन धारा
मुक्त अबाध बहे-मानव जग
सुख स्वर्णिम हो सारा!