Source
नेशनल दुनिया, 18 फरवरी 2013
गंगा में प्रदूषण के कारण सिर्फ टेनरियां ही नहीं हैं, कई और भी हैं, लेकिन एक बड़ी वजह तो हैं ही। घरों से निकलने वाला हर तरह का कचरा और गंदगी नदियों में ही प्रवाहित की जाती है। लेकिन नदी में रासायनिक कचरे का प्रवाह उन पर बड़ा जानलेवा हमला होता है। जब सरकार यह जानती है कि कारख़ानों का कचरा नदी के प्रदूषण का एक बड़ा सबब है तो ऐसी ठोस व्यवस्था क्यों नहीं की जाती जिससे सीवेज का उचित ट्रीटमेंट किया जा सके और उस शोधित जल को नदी में छोड़ने के बजाय किसी और काम में इस्तेमाल किया जाए। तमाम सरकारी आश्वासनों और चंद व्यावहारिक कोशिशों के बावजूद गंगा क्यों मैली है और इसमें प्रदूषण का स्तर लगातार क्यों बढ़ रहा है यह बात किसी से छिपी नहीं है। राष्ट्रीय नदी को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए अब तक करोड़ों रुपया बर्बाद किया गया और एक्शन प्लान बने, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। जब सरकारी व्यवहार और नीतियों में ही नदी को नाले के तौर देखा और इस्तेमाल किया जाएगा तो कैसे आस लगाई जा सकती है। खैर, इन दिनों कुंभ चल रहा है तो इसी की बात सही। जब इलाहाबाद में कुंभ शुरू हुआ था तो उससे पहले गंगा की आत्मा पर जहरीला वार करने वाली कानपुर और आसपास की करीब 400 छोटी-बड़ी टेनरियां (चमड़ा शोधन करने वाले कारखाने) बंद करने का आदेश स्थानीय शासन ने दिया था। जनवरी 10 से 13 फरवरी तक कुछ टेनरियां बंद हुई तो कुछ सरकारी आदेश और सख़्ती के बाद भी चोरी-छिपे चलते हुए नदी में जहरीले रसायन छोड़ती रहीं।
अब जबकि कुंभ उतार पर है तो कानपुर की टेनरी लॉबी ने इस एक महीने की बंदी के दौरान अपने 1000 करोड़ रुपए के नुकसान का गणित पेश कर दिया है। कई टेनरी मालिकों ने तो यह भी दावा किया है कि विधिवत काम शुरू होने को लेकर अनिश्चितता का माहौल है इसलिए नुकसान 2,500 करोड़ तक जा सकता है। टेनरी मालिक विलाप कर रहे हैं कि उनके सामने मजदूरों का संकट खड़ा हो गया है। उनका कहना है कि महीने भर की बंदी के कारण 70 प्रतिशत कामगार रोज़गार की तलाश में गुजरात और पंजाब चले गए हैं। जो बचे हैं वे बहुत ज्यादा मजूरी मांग रहे हैं। बहरहाल, कुंभ के दौरान चमड़ा कारखानों की बंदी से टेनरी मालिकों व राजस्व के नुकसान और मज़दूरों के पलायन तथा उनकी पीड़ा को जानते-समझते यहां सरकारी रुख को समझा जाए तो बात साफ हो जाती है कि आखिर गंगा की यह दशा-दुर्दशा क्यों है।
पहली बात तो यह कि अगर कुंभ न होता तो कानपुर और आसपास की टेनरियां बाकायदा चलती रहतीं और गंगा में ज़हरीला कचरा बहाती रहतीं। जैसा कि होता ही रहा है। यहां यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि गंगा में प्रदूषण का कारण सिर्फ ये टेनरियां ही नहीं हैं, कई और भी हैं, लेकिन एक बड़ी वजह तो हैं ही। घरों से निकलने वाला हर तरह का कचरा और गंदगी नदियों में ही प्रवाहित की जाती है। लेकिन नदी में रासायनिक कचरे का प्रवाह उन पर बड़ा जानलेवा हमला होता है। जब सरकार यह जानती है कि कारख़ानों का कचरा नदी के प्रदूषण का एक बड़ा सबब है तो ऐसी ठोस व्यवस्था क्यों नहीं की जाती जिससे सीवेज का उचित ट्रीटमेंट किया जा सके और उस शोधित जल को नदी में छोड़ने के बजाय किसी और काम में इस्तेमाल किया जाए। पर ज्यादातर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अपनी क्षमता के अनुसार काम नहीं कर पा रहे या खराब हैं इसलिए गंदगी को नदी में छोड़ने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रह जाता।
इसका एक अर्थ यह हुआ कि सरकार सब कुछ जानते हुए भी मौन है। हां, दबाव पड़ने पर या किसी अवसर विशेष पर कोई कार्रवाई की जाती है, जुर्माना लगाया जाता है तो उसका असर चंद दिनों तक ही रहता है। यह बात सिर्फ गंगा पर ही लागू नहीं होती, देश की हर नदी की यही व्यथा है। नदियां हमारे घरों और कारख़ानों की गंदगी ढोने वाला नाला बनकर रह गई हैं। ऐसे में गंगा एक्शन प्लान की कामयाबी पर तो संदेह पैदा होता ही है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2020 तक गंगा को साफ करने का जो सपना देखा था उसके साकार होने का आधार भी बहता हुआ प्रतीत होता है।
अब जबकि कुंभ उतार पर है तो कानपुर की टेनरी लॉबी ने इस एक महीने की बंदी के दौरान अपने 1000 करोड़ रुपए के नुकसान का गणित पेश कर दिया है। कई टेनरी मालिकों ने तो यह भी दावा किया है कि विधिवत काम शुरू होने को लेकर अनिश्चितता का माहौल है इसलिए नुकसान 2,500 करोड़ तक जा सकता है। टेनरी मालिक विलाप कर रहे हैं कि उनके सामने मजदूरों का संकट खड़ा हो गया है। उनका कहना है कि महीने भर की बंदी के कारण 70 प्रतिशत कामगार रोज़गार की तलाश में गुजरात और पंजाब चले गए हैं। जो बचे हैं वे बहुत ज्यादा मजूरी मांग रहे हैं। बहरहाल, कुंभ के दौरान चमड़ा कारखानों की बंदी से टेनरी मालिकों व राजस्व के नुकसान और मज़दूरों के पलायन तथा उनकी पीड़ा को जानते-समझते यहां सरकारी रुख को समझा जाए तो बात साफ हो जाती है कि आखिर गंगा की यह दशा-दुर्दशा क्यों है।
पहली बात तो यह कि अगर कुंभ न होता तो कानपुर और आसपास की टेनरियां बाकायदा चलती रहतीं और गंगा में ज़हरीला कचरा बहाती रहतीं। जैसा कि होता ही रहा है। यहां यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि गंगा में प्रदूषण का कारण सिर्फ ये टेनरियां ही नहीं हैं, कई और भी हैं, लेकिन एक बड़ी वजह तो हैं ही। घरों से निकलने वाला हर तरह का कचरा और गंदगी नदियों में ही प्रवाहित की जाती है। लेकिन नदी में रासायनिक कचरे का प्रवाह उन पर बड़ा जानलेवा हमला होता है। जब सरकार यह जानती है कि कारख़ानों का कचरा नदी के प्रदूषण का एक बड़ा सबब है तो ऐसी ठोस व्यवस्था क्यों नहीं की जाती जिससे सीवेज का उचित ट्रीटमेंट किया जा सके और उस शोधित जल को नदी में छोड़ने के बजाय किसी और काम में इस्तेमाल किया जाए। पर ज्यादातर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अपनी क्षमता के अनुसार काम नहीं कर पा रहे या खराब हैं इसलिए गंदगी को नदी में छोड़ने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रह जाता।
इसका एक अर्थ यह हुआ कि सरकार सब कुछ जानते हुए भी मौन है। हां, दबाव पड़ने पर या किसी अवसर विशेष पर कोई कार्रवाई की जाती है, जुर्माना लगाया जाता है तो उसका असर चंद दिनों तक ही रहता है। यह बात सिर्फ गंगा पर ही लागू नहीं होती, देश की हर नदी की यही व्यथा है। नदियां हमारे घरों और कारख़ानों की गंदगी ढोने वाला नाला बनकर रह गई हैं। ऐसे में गंगा एक्शन प्लान की कामयाबी पर तो संदेह पैदा होता ही है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2020 तक गंगा को साफ करने का जो सपना देखा था उसके साकार होने का आधार भी बहता हुआ प्रतीत होता है।