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संडे नई दुनिया, 19 जून 2011
मध्य प्रदेश के जंगल गंजे यानी विरल होते जा रहे हैं। सख्त वन नीति के बाद वन भूमि तो नहीं घट रही है लेकिन सघन वन तेजी से विरल वनों में तब्दील हो रहे हैं। वर्ष 1995 तक यहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल की जगह 2005 में 41 घनमीटर ही रह गया और एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में यह 35 घनमीटर हो गया है।
भारत की धरा पर सबसे ज्यादा वन भूभाग वाले मध्य प्रदेश में जंगल बेहद खतरनाक हालात में जा पहुंचे हैं। उन्हें गंजेपन का कोढ़ खाए जा रहा है। 31 फीसदी जमीन पर जंगल की हकीकत सिर्फ कागजों पर ही है। प्रदेश के 95 लाख हेक्टेयर वन भूमि में से मात्र सात फीसदी वन ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सघन जंगल की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है। 50 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि पर वन के नाम पर सिर्फ बंजर जमीन या उजड़ा जंगल बचा है। सत्रह लाख हेक्टेयर वन भूमि तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है। 38 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दोबारा जंगल खड़ा करने के लिए 35 हजार करोड़ की रकम और बीस साल के वक्त की दरकार है लेकिन न तो रकम है और न इच्छाशक्ति। वन भूमि पर बढ़ते आबादी के दबाव के चलते जंगल तेजी से सिकुड़ रहे हैं।1956 में जब मध्य प्रदेश बना था तो 1 लाख 91 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में जंगल पसरे थे लेकिन 1990 तक जंगल की साठ हजार वर्ग किलोमीटर भूमि (लगभग साठ लाख हेक्टेयर जमीन) बांट दी गई। इसके बाद बचे कोई 1 लाख 30 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल में से मध्य प्रदेश में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर वन भूमि बची है। सख्त होते वन कानूनों के बाद कहने को वन भूमि नहीं घट रही है लेकिन किसी झबरे व्यक्ति (घने बाल वाला) के सिर से तेजी से झड़ते बालों की तरह मध्य प्रदेश में जंगल सघन से बिरले होते जा रहे हैं। 1995 तक जहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल था वहीं 2005 में यह घटकर 41 घनमीटर रह गया। अगली रपट में यह कितना घटेगा यह सोचकर ही वन अफसर घबरा रहे हैं।
करीब 95 लाख हेक्टेयर के इस वन क्षेत्र में दस नेशनल पार्क और 25 अभयारण्य इलाके ही सही सलामत बचे हैं लेकिन यह इलाका मात्र दस हजार वर्ग किलोमीटर (दस लाख हेक्टेयर) का ही है लेकिन इसके भी साठ फीसदी इलाके करीब छह हजार 700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही घने जंगल बचे हैं। इसके बाद थोड़ा बहुत जंगल 58 हजार किलोमीटर में फैले-पसरे आरक्षित वन में से 18 हजार वर्ग किलोमीटर (करीब 18 लाख हेक्टेयर) क्षेत्र में बचा है। बाकी संरक्षित वन का इलाका है जिसका कोई माई-बाप नहीं है। संरक्षित वन में से वनवासियों को निस्तार के लिए लकड़ी ले जाने से लेकर लघु वनोपज एकत्र करने की छूट है। इसका सदुपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। सरकार ने इसी वन भूमि में से डेढ़ लाख लोगों को उनके जंगल की जमीन पर अधिकार को मान्यता देते हुए करीब तीन लाख हेक्टेयर जमीन पर पट्टे दे दिए हैं। तीन लाख लोगों के वन भूमि पर दावे के आवेदन अब भी विचाराधीन हैं। हालांकि इससे कागजों पर वन भूमि का रकबा नहीं घटेगा लेकिन देश की आजादी के बाद से सात मर्तबा वन भूमि को बांटने और उसे वन भूमि से अलग करने का काम 1990 तक हुआ है।

जंगलों पर सरकारी परियोजनाओं के नाम पर जो प्रहार हो रहे हैं, उसकी जगह नए जंगल लगाने (क्षतिपूर्ति वनीकरण) के नाम जमा रकम भी केंद्र सरकार राज्य को देने में आनाकानी करती है। केंद्र के पास मध्य प्रदेश का 800 करोड़ जमा है लेकिन बार-बार किए आग्रह के बावजूद उसने मात्र 53 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जंगलों के रखरखाव के नाम पर बीते साल के दौरान तो केंद्र ने फूटी कौड़ी तक नहीं दी। इसके पहले के दो सालों में उसने क्रमशः 23 और 25 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जहां तक राज्य के वन विभाग की कमाई का सवाल है तो उसकी सालाना कमाई मात्र एक हजार करोड़ रुपए के आसपास ही है। अब ऐसे में जंगल कहां से बढ़ेंगे और कैसे बढ़ेंगे? मध्य प्रदेश को केंद्र सरकार ने हाल ही में तीन साला बुंदेलखंड पैकेज के नाम छह जिलों के बिगड़े वनों को सुधारने के नाम पर 107 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। इलाके के वन क्षेत्र की जरूरत के हिसाब से देखा जाए तो यह रकम मात्र बारह हजार रुपए प्रति हेक्टेयर बैठती है। बुंदेलखंड के हालात सबसे ज्यादा भयावह हैं। इस इलाके के छह जिलों में कोई 11 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में से सत्तर से अस्सी फीसदी वन बिगड़े हुए हैं। वहां न तो जंगलों की सुरक्षा के चाक-चौबंद प्रबंध हैं और न जंगलों को सहेजने लायक पानी है।
एक आला वन अफसर ने कहा कि बुंदेलखंड के हालात तो प्रदेश के आदिवासी जिलों से भी ज्यादा बुरे हैं। संयुक्त वन प्रबंधन और वन विकास अभिकरण के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक रवींद्र नारायण सक्सेना भी मानते हैं कि बुंदेलखंड पैकेज के तहत मिली रकम इलाके के सूरते हाल के लिहाज से नाकाफी है लेकिन फिर भी जो पैसा मिला है उसका अधिकतम इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है। जंगलों को बचाने के लिए भी हमने वनवासियों की आर्थिक सेहत सुधारने की योजनाएं जमीन पर उतारी हैं। जंगलों की कटाई की समस्या सिर्फ बुंदेलखंड की नहीं है। प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा नदी के किनारे जंगलों का बेरहमी से कत्लेआम हुआ है।

जंगल आंकड़ों की नजर में
भारत भौगोलिक क्षेत्रफल 32 लाख 87 हजार 263 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 7 लाख 69 हजार 512 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। यह पूरे क्षेत्रफल का 23.41 फीसदी बैठता है। जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है तो उसका क्षेत्रफल 3 लाख 8 हजार 245 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर वन का क्षेत्र है। यानी 30.71 फीसदी वन क्षेत्र पूरे देश के जंगल क्षेत्र के औसत के मुताबिक मध्य प्रदेश का यह औसत काफी अच्छा है। लेकिन जब मध्य प्रदेश के वन की हालत पर नजर डालें तो वे चिंताजनक है। राज्य में अति सघन जंगल का क्षेत्र मात्र 6 हजार 647 वर्ग किलोमीटर है यानी महज 7 फीसदी। जबकि सघन वन 35 हजार 7 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं यानी 37 फीसदी हिस्से में वहीं विरल जंगल का क्षेत्र 36 हजार 46 वर्ग किलोमीटर है अर्थात 38 फीसदी वैसे कुल वनाच्छादित क्षेत्र 77 हजार 700 वर्ग किलोमीटर है यानी 82 फीसदी खुला क्षेत्र 16 हजार 989 वर्ग किलोमीटर यानी 18 फीसदी है। वर्ष 1995 तक प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल हुआ करता था लेकिन 2005 में प्रति हेक्टेयर 41 घनमीटर जंगल था। एक अनुमान से फिलहाल प्रति हेक्टेयर 35 घनमीटर जंगल ही मौजूद हैं।
सख्ती बरती है जंगलों को बचाने के लिए
प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह का मानना है कि जंगलों की मुख्यतः जो समस्याएं हैं, उनमें पहली तो वनों की अवैध कटाई से जंगलों को हो रहे नुकसान की है। दूसरी चुनौती जंगलों में घुसपैठ और वनभूमि पर अतिक्रमण की तथा तीसरी वन क्षेत्र में अवैध उत्खनन की है। फिर समस्या उन वनवासियों की भी है जो सदियों से जंगलों में रहते आए हैं।
सिंह कहते हैं कि यदि वनवासियों को जंगल में ही रोजगार के वैकल्पिक साधन मिल जाएं तो वे वन माफियाओं के कहने पर जंगलों को निशाना नहीं बनाएंगे। यह बात कितनी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जंगलों में रहने वाले डेढ़ करोड़ वनवासियों में से आधे के पास राशन कार्ड तक नहीं है। सिंह मानते हैं कि प्रदेश में अवैध कटाई दो तरह से हो रही हैं, एक तो रोजगार की कमी के चलते निस्तारी काम के लिए लकड़ियां कटती हैं। यह दिखने में छोटा अपराध लगता है लेकिन जंगलों की तरक्की रोकने में सबसे बड़ी बाधा यही है। वे पेड़ बढ़ने के पहले ही काट देते हैं। लेकिन वन माफिया द्वारा कराई जा रही कटाई भी कम गंभीर नहीं है। सिंह का दावा है कि उनके द्वारा विभाग की कमान संभालने के बात संगठित वन अपराधियों के खिलाफ बरती गई सख्ती के कारगर नतीजे सामने आए हैं। अकेले वर्ष 2010 के दौरान लकड़ी के अवैध परिवहन में प्रयुक्त 600 गाड़ियां जब्त की गईं इनमें से 275 गाड़ियों को विभाग ने कब्जे में ले लिया है। इस मिलीभगत में लिप्त जंगल महकमें के कर्मचारियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई भी की गई है। इससे पहली बार वन कर्मियों और वन माफियाओं के बीच यह संदेश गया है कि यदि वे पकड़े गए तो उनकी कहीं सुनवाई नहीं होने वाली।
सरताज कहते हैं कि जंगलों से लकड़ी काटकर मीलों उसके गट्ठे सिर पर लादना किसी को भी नहीं भाता इसलिए हमने वनवासियों को रोजगार दिलाने की खातिर जंगलों में अब तक 2 करोड़ बांस लगाए हैं। प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से 300 से 500 बांस के पेड़ आए हैं। इससे हर एक व्यक्ति को साल में दो हजार बांस मिलेंगे। यह सिलसिला 40 साल तक चलेगा। जाहीर है कि वनवासी को आय का एक अतिरिक्त साधन मिलेगा। तीस हजार हेक्टेयर ऐसा क्षेत्र छांटा है जहां टसर उत्पादन की अच्छी संभावना है। टसर उत्पादन से जुड़ा हरेक व्यक्ति सालाना 50 हजार तक कमा सकता है। इसी तरह लाख उत्पादन और महुआ उत्पादन पर भी इसी के चलते जोर दिया गया है। वनवासियों के बीच अचार तोड़ने की होड़ के कारण अचार पकने के पहले ही तोड़ लिया जाता था। इससे अचार का वाजिब दाम नहीं मिल पाता था। अब बांस की तरह वनवासियों को अचार के पेड़ भी आवंटित हैं।
मध्य प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह से राजेश सिरोठिया की बातचीत पर आधारित
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