गुजरात भूकंप : कुछ सुझाव

Submitted by Hindi on Mon, 04/29/2013 - 10:12
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पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती पुस्तक से साभार, प्रथम संस्करण 2011
राष्ट्रीय तथा आंचलिक स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप तथा उसके दुष्प्रभावों की समझ के लिए चिपको आंदोलन के सदस्यों ने देश के अनेक हिस्सों की अध्ययन यात्राएं की हैं ताकि अलग-अलग अंचलों में आई बाढ़, भूकंप, भूस्खलन तथा तूफान की आपदाओं को समग्र तथा सही परिपेक्ष्य में समझा जा सकें। उत्तराखंड, असम, अरुणाचल, लातूर, आंध्र प्रदेश तथा उड़ीसा के क्रम में हम गुजरात के भूकंप प्रभावित क्षेत्रों का अध्ययन करने, राहत में आंशिक हाथ बटाने तथा आगे की व्यवस्था हेतु समाज से विकसित दृष्टि को समझने हेतु गुजरात गए। 26 जनवरी 2001 को प्रातः गुजरात में आए विनाशक भूकंप ने एक बार पुनः हमें इस बात के लिए विवश कर दिया है कि प्राकृतिक आपदाओं से जूझने के लिए हमें नये सिरे से तैयार होना पड़ेगा। प्राकृतिक आपदाओं से जूझने के लिए क्षेत्रीय रणनीतियों के साथ एक स्पष्ट, व्यवहारिक तथा जनमुखी राष्ट्रीय नीति की भी जरूरत है। यह भी देखा जाना है कि परंपरागत ज्ञान को हम किस तरह आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ सकते हैं। यह अत्यंत खेद का विषय है कि पिछले एक दशक में अनेक भूकंप (चार), तूफान (तीन) तथा बाढ़ से जानमाल की अपूर्णीय क्षति हो जाने के बावजूद हम न तो राष्ट्रीय आपदा नीति विकसित कर सके हैं और न ही आम जन को इससे जूझने की क्षमता हेतु प्रेरित कर सके हैं। भूस्खलन, सूखा तथा जंगल की आग उक्त आपदाओं से जुड़ी मानी जाए तो प्राकृतिक आपदा का राष्ट्रीय परिदृश्य बहुत डराने वाला है। इस संबंध में समय-समय पर सामाजिक कार्यकर्ताओं, वैज्ञानिकों आदि से मिले सुझाव कम नहीं है लेकिन उन्हें न तो महत्व दिया गया और न ही इन सुझावों को एक राष्ट्रीय आपदा नीति विकसित करने हेतु प्रयुक्त किया गया। इन सुझावों तथा अनुभवों का अंश भी अगर इस संकट से जुझने हेतु प्रयुक्त किया गया होता तो इन आपदाओं से ध्वस्त समाज को उठने में और अपने को पुनः बसाने में मदद मिलती।

इस दशक में गढ़वाल (1991), लातूर (1993) जबलपुर (1997), चमोली (1999) के बाद गुजरात का भूकंप (2001) सर्वाधिक विनाशक रहा है। बाढ़ की घटनाएँ पिछले दशक में चौगुना बढ़ी हैं तथा इसी क्रम में हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन तथा भूकटाव की घटनाएँ भी बढ़ी हैं और आंध्र प्रदेश तथा उड़ीसा के तूफान अगले अनेक सालों तक हमारी स्थिति को गड़बड़ाए रखने वाले हैं।

राष्ट्रीय तथा आंचलिक स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप तथा उसके दुष्प्रभावों की समझ के लिए चिपको आंदोलन के सदस्यों ने देश के अनेक हिस्सों की अध्ययन यात्राएं की हैं ताकि अलग-अलग अंचलों में आई बाढ़, भूकंप, भूस्खलन तथा तूफान की आपदाओं को समग्र तथा सही परिपेक्ष्य में समझा जा सकें। उत्तराखंड, असम, अरुणाचल, लातूर, आंध्र प्रदेश तथा उड़ीसा के क्रम में हम गुजरात के भूकंप प्रभावित क्षेत्रों का अध्ययन करने, राहत में आंशिक हाथ बटाने तथा आगे की व्यवस्था हेतु समाज से विकसित दृष्टि को समझने हेतु गुजरात गए।

वास्तव में 26 जनवरी को हम लोग चमोली जिले के ग्राम बछेर में वन एवं पर्यावरण संवर्धन शिविर में थे। हमें शाम को पता चला कि सुबह के समय गुजरात में प्रलयंकारी भूकंप आया है। शिविर में और लोगों के अलावा डॉ. शेखर पाठक भी आए थे। शिविर में इस त्रासदी में मारे गए लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की गई। अगले दिन गोपेश्वर आकर गुजरात के परिचित मित्रों से वहां के हाल-चाल मालूम किए तथा उनकी कुशल पूछी। गुजरात की इस त्रासदी को समझने के लिए शेखर पाठक तथा मैं 6 फरवरी 2001 को अहमदाबाद पहुंचे।

अहमदाबाद में हमें लेने के लिए ट्री ग्रोवर सोसाइटी, आनंद से डॉ. भूपेन मेहता, पी.आर.एल. से डॉ. नवीन जुयाल तथा इसरो से डॉ. एम.एम. किमोठी आये थे। सबसे पहले तो हम अपने परिचितों के हालचाल पूछने गए।

अहमदाबाद में हमने देखा कि किस प्रकार दस मंजिले भवन भी नष्ट हुए। कई मकान उल्टे-उल्टे से दिखाई दे रहे थे। लोग अभी तक सदमे से नहीं उबर पाए थे। ऐसे व्यक्ति भी मिले जो दिनभर तो अपने दस मंजिल भवन में रहते हैं लेकिन रात को उसमें सोने में भय लगता है। इस लिये सोने के लिए पास के मैदान में चले जाते हैं।

अगले दिन मेरे और शेखर पाठक के अलावा नवीन, प्रीति, मेहता तथा रोवट भूकंप प्रभावित गाँवों में गए। इन गाँवों में भूकंप की त्रासदी को देखा और शाम को हम भुज पहुंचे। भूकंप ने इस शहर को भी तहस-नहस करके रख दिया था। बड़े-बड़े मकान इधर-उधर उल्टे-पुलटे एवं उखड़ तक गए थे।

अगले दिन हम कच्छ के रण तक भी गए। उस रास्ते में आठ-दस झोपड़ियां देखीं। यह भी देखा कि यहां पर भूकंप का उस प्रकार का प्रभाव नहीं है जैसा कि अब तक देखा था। रास्ते में एक बांध भी देखा, जिसमें बड़ी-बड़ी दरारें पड़ी गई थीं। हल्के एवं घास फूंस के झोपड़ों में रहने वालों का नुकसान कम ही देखा गया। वे जल्दी ही उठ खड़े हो गए हैं और अपने रंग-बिरंगे शिल्प की बिक्री भी करने लग गए हैं। एक कुम्हार ने बताया कि उसका मकान भी टूटा है। उससे उसका सामान भी नष्ट हुआ है। कुम्हारी का सामान भी टूट-फूट गया था। जब हमने उससे पूछा कि अब क्या होगा। उसने बताया कि झोपड़ी खड़ी कर दी है। एक हजार रूपये की राशि प्राप्त हुई है। इसलिए जल्दी ही चाक आदि खरीद कर अपना काम शुरू कर दूंगा।

अगले दिन भी हम भूकंप प्रभावित गाँवों में गए, जिसमें अंजार भी था। अंजार तहस-नहस हो गया था। यह गांव खंडहर में बदल गया है। ऐसा लगता है कि इसे झंझोड़ करके रख दिया हो। यहां पर बताया गया कि गणतंत्र दिवस पर प्रभात फेरी निकालते हुए कई बच्चे भी मारे गए थे। लोगों के आंखों में आंसू नहीं रह गए थे।

इसी क्रम में एक सप्ताह तक हमने अहमदाबाद, सुरेंद्रनगर, राजकोट तथा कच्छ जिलों के विभिन्न गाँवों, कस्बों, नगरों के अलावा कच्छ के रण के अंतिम गाँवों में जाकर भूकंप आपदा के स्वरूप, क्षति का अनुमान लगाने, स्थानीय समाज, प्रशासन की स्थिति देश तथा विश्व से आयी मदद का स्वरूप समझने का प्रयास हुआ। पारंपरिक मकानों तथा पिछले दशकों में निर्मित मकानों का तुलनात्मक अध्ययन (निर्माण की तकनीक तथा ध्वंस के प्रकार) करने, के साथ नगरीकरण को भी समझा गया। यद्यपि राहत का मिज़ाज समझना हमारा मुख्य लक्ष्य नहीं था फिर भी नगर, कस्बे तथा ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय समाज ने किस तरह संगठित होकर इस आपदा में अपने को एक किया, यह समझना हमारे लिए जरूरी था। इसी तरह पूरे देश के आम जन ने किस तरह इस आपदा से जूझने हेतु स्थानीय समाज को सहयोग किया, इसे भी समझना आवश्यक था।

आम लोगों के अलावा हम विकसित, सेवा, डी एम आई, सी आर सी, एलिसब्रिज, आरोग्य समिति, पी आर एल ग्रुप, सहयोग, कच्छ नव निर्माण अभियान, कच्छ विकास ट्रस्ट, कच्छ महिला समिति, अंजलि हॉस्पिटल (राजाबाव), पी एस आई (देहरादून), राष्ट्रीय वृक्ष उत्पादक महासंघ, राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड के सदस्यों एवं कार्यकर्ताओं से मिले और इसके अलावा सुश्री इला भट्ट, श्री कान्हा खां (अध्यक्ष, दूध उत्पादक मंडल, कच्छ) तथा श्री थिओ (NTGC, Anand) से भी हमने विस्तार से इस हेतु चर्चा की।

राष्ट्रीय स्तर पर पिछले अनुभवों के आधार पर हमारा यह मानना है कि कुछ कार्य प्राथमिकता के आधार पर तुरंत शुरू किये जाने आवश्यक है-
संवेदनशील अथवा सर्वाधिक आपदाग्रस्त स्थानों का चिह्नांकन किया जाए। विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली आपदाओं के चिह्नांकन के साथ आपदा के प्रकार एवं प्रभाव तथा उसके न्यूनीकरण अथवा फैलाव की जानकारी का संकलन कर क्षेत्र विशेष के लोगों तथा सरकारी तंत्र को उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए। इसका नियमन हो और इसे सख़्ती से लागू करने की नगर निगम अथवा ग्राम पंचायतों की अनिवार्य तथा सुनिश्चित ज़िम्मेदारी हो। भूकंप तथा भूस्खलन के प्रति अति संवेदनशील क्षेत्रों में यह प्रक्रिया (परिपालन) कानूनी रूप से अनिवार्य की जानी चाहिए।

ग्राम से लेकर ब्लाक, जिला, प्रदेश तथा देश के स्तर पर आपदा प्रबंधन समितियां बननी चाहिए। ये विकास, पर्यावरण संबंधी समितियों की अनिवार्य हिस्सा बनें। ये समितियां बचाव, राहत तथा पुनर्वास के प्रति उत्तरदायी हों। इन समितियों में ग्राम पंचायतों, ग्राम स्तरीय अन्य संगठन, महिला संगठन, गैर सरकारी तथा सरकारी संगठन तथा विशेषज्ञ इस समिति में हों।

देश के विभिन्न क्षेत्रों में घटित होने वाली आपदाओं प्रभावित समाज के बचाव तथा राहत का प्रशिक्षण संभावित क्षेत्रों के लोगों को दिया जाए। इसमें सामान्य नागरिकों के साथ ग्राम पंचायतों, महिला संगठनों, युवक मंगल दलों, स्वैच्छिक संगठनों, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक संगठनों तथा ग्राम स्तरीय सरकारी कर्मचारियों को शामिल किया जाए। आपदा प्रबंधन तथा प्रशिक्षण एक विषय के रूप में विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किया जाए।

आपदा प्रबंधन में संचार साधनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। आपदाओं की पूर्व सूचना देने तथा घटित होने के बाद बचाव, राहत तथा पुनः निर्माण हेतु संचार साधनों के उपायोग का विस्तार किया जाना चाहिए। वायरलेस सेट, इलेक्ट्रॉनिक फिल्में तथा पोस्टर भी इस हेतु उपयोगी हो सकते हैं।

प्रभावित परिवारों/क्षेत्रों का तत्काल चिह्नांकन तथा क्षति का सर्वेक्षण करने हेतु ग्राम स्तर पर ऐसी व्यवस्था विकसित होनी चहिए जो किसी भी तरह की आपदा के समय स्वतः सक्रिय हो जाए। ग्राम तथा ब्लॉक स्तर की समितियां बचाव एवं राहत कार्यों में पूरी तरह उत्तरदायी हों।

आपदा प्रभावितों के समग्र पुनर्वास को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए तथा पुनर्वास की अवधारणा में उनकी आवासीय व्यवस्था के साथ ही रोज़गार की पुनर्स्थापना के विषय को भी महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए तथा इसके लिए पर्याप्त ढांचागत व्यवस्था की जानी चाहिए।

उक्त राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में प्रस्तुत सुझावों के साथ हम गुजरात के संदर्भ में कुछ विशेष निवेदन करना चाहते हैं। यद्यपि भूकंप के परिणामों की अभी व्यापक पड़ताल नहीं हो सकी है। क्षति प्रभावितों को उबारने, बेघर-बेरोजगार हुए लोगों के पुनर्वास के लिए व्यापक अध्ययन, व्यवहारिक नियोजन तथा प्रभावी क्रियांवयन की आवश्यकता है। लेकिन कुछ बातें हम कहना चाहते हैं। ये सुझाव निम्न हैं-

पुनर्वास हेतु व्यापक रणनीति की आवश्यकता है। यद्यपि गुजरात में राहत तथा पुनर्वास हेतु पर्याप्त सहयोग मिल रहा है। सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाएं कार्य में जुटी हैं लेकिन ग्रामीण स्तर पर समन्वय का व्यापक कार्य करने हेतु आवश्यकता है, क्योंकि धीरे-धीरे सरकारी और गैर सरकारी मदद घटती तथा सिमटती रहेगी। ऐसे में स्थानीय समिति की जरूरत है जिसमें प्रभावित समाज के हर तबके का प्रतिनिधित्व हो। यह समिति गांव के साथ ब्लाक तथा जिला स्तर पर भी बने। राहत सामग्री के भंडारण, वितरण तथा जरूरतों के आंकलन हेतु यह आवश्यक है। यही समिति आगे स्थायी पुनर्वास तथा रोजगारपरक कार्य कर सके।

हर परिवार को राशन का कोटा कम से कम एक माह हेतु एक बार में दिया जाए। वितरित सामग्री की पावती ली जाए और इस हेतु पर्याप्त प्रचार किया जाए।

लोगों को अपना घर बनाने के लिए प्रेरित किया जाए और वांछित सहयोग भी दिया जाए। इससे स्थानीय समाज का पुरुषार्थ प्रभावी होगा तथा स्वाभिमान भी बना रहेगा और समाज तथा सरकार का सहयोग भी लिया जा सकेगा।

मकान बनाने की पारंपरिक पद्धति तथा नई तकनीकों का संतुलित समन्वय किया जाए और नगर तथा गाँवों हेतु मकान बनाने हेतु विश्वसनीय पद्धतियां विकसित और लागू की जाए। विभिन्न स्थानों पर पारंपरिक तथा नई पद्धति से बने मकानों को ध्वस्त और बचा पाना, ये दोनों पद्धतियों में कुछ ख़ामियाँ और कुछ ख़ूबियाँ हैं। इनका समन्वय किया जाए।

गुजरात की जनता ने पिछले सालों में सूखा, तूफान और भूकंप को साथ-साथ झेला है। अतः इन तीनों विपदाओं का संगठित प्रकार से सामना किया जा सके, ऐसी पद्धति विकसित होनी चाहिए। इस हेतु आधारित विकास का ढांचा लागू होना चाहिए।

खेती तथा पशुपालन को हुई क्षति की समीक्षा हो, बीजों की व्यवस्था हो। गुजरात में हस्तशिल्प, मिट्टी के उपकरण, कढ़ाई के सामान, नमक उत्पादन, धातु कार्य तथा अन्य हुनर जीवन के आर्थिक आधार रहे हैं। इन्हें पुनः सक्रिय जीवनाधार का रूप देने के लिए कापार्ट, समाज कल्याण विभाग, नाबार्ड, हस्तशिल्प बोर्ड, जवाहर रोज़गार योजना आदि संस्थाओं, योजनाओं का योगदान लिया जाना चाहिए।

गुजरात भूकंप का सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों, महिलाओं तथा समाज के निर्बल वर्गों पर पड़ेगा, अतः भोजन, चिकित्सा, निवास तथा शिक्षा हेतु और अनाथ हुए बच्चों की व्यवस्था में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं आने दी जाए।