पानी का सम्बन्ध सीधे-सीधे जंगल और हरियाली से है। जंगल बारिश के जल को अपने भीतर समाकर जलधाराओं को आबाद करते हैं। जैसे-जैसे हम जंगलों को नष्ट कर रहे हैं, जलसंकट गहराता जा रहा है। जल बचाना है तो जंगलों को बचाना जरूरी है।
हमारे गाँव में वैतरणी है, यहाँ पर तीन धारे हैं। इन धाराओं का पानी पत्थरों को तराशकर बनाये गये गोमुख से निकलता है। इन जलधाराओं से पानी सदाबहार प्रवाहित होता रहता है। धाराओं के ऊपर सीढ़ीनुमा खेत हैं। खेतों के ऊपरी भाग में ढालदार पहाड़ी शुरू होती है। यह ढालदार पहाड़ी बांज-बुरांश के पेड़ों से आच्छादित है। इसके ऊपर नादरीधार और फिर उससे कुछ ऊपर जाने पर बुग्याल लग जाता है।
वैतरणी की धाराओं का पानी गर्मियों में ठण्डा और जाड़ों में इसका तापमान सामान्य रहता है। हमें बचपन में बड़े-बूढ़ों से सुनने को मिलता था कि बांज के जंगल के कारण वैतरणी के धारे सदाबहार रहते हैं एवं पानी भी सुस्वादु है। पहले इन धाराओं के पास जूते पहनकर जाना, बर्तन मांजना वर्जित था। साथ ही खेतों के ऊपर के जंगल से छेड़छाड़ की मनाही रहती थी। एक तरह से यह जंगल और जल का एक-दूसरे के साथ के अन्तर्सम्बन्ध की समझ का लोकज्ञान था।
हमारे गाँव से 15 किलोमीटर की दूरी पर मंडल चट्टी है; इसके पार्श्व में बालखिला एवं अमृतगंगा का संगम है। इन दोनों नदियों का उद्गम बुग्याली इलाकों में है। 12 हजार से 15-16 हजार फुट की ऊँचाई तक फैली ये पहाड़ियाँ बुगीयुक्त घास, औषधीय पादपों एवं फूलों से लदी रहती हैं। बारिश और बर्फ के पानी अलग-अलग जलधाराओं के साथ पहाड़ी पंडालों से नीचे की ओर प्रवाहित होता है। दस-ग्यारह हजार फुट तक के निचले भाग में पहुँचते ही यह जलराशि जंगलों में समाहित होती है, जहाँ मोरू (ओक), कांचूला (मैपल), पांगर (चैसनैट), बांज और बुरांश के घने वृक्षों, जो कि चौड़ी पत्ती के पेड़ हैं, से आच्छादित है।
ये जंगल बारिश के जल को अपने में समाहित कर एक ओर हरियाली के फैलाव को बढ़ाते हैं, तो दूसरी ओर अपने भीतर समाहित इस जलराशि से जलधाराओं को सदाबहार बनाए रखते हैं। जल और जंगल का यह लेने और देने का रिश्ता इन जलधाराओं को जीवन्तता प्रदान करता है या सरल शब्दों में कहें तो ये इन्हें पानी देकर जीवन देने का काम करते हैं।
बालखिला नदी के जंगल बीच में नष्ट होने के कगार पर पहुँच गये थे, जिसे बचाने के लिये पहली बार वर्ष 1973 के मार्च और अप्रैल के माह में स्थानीय ग्रामीणों ने पेड़ों की रक्षा के लिये ‘चिपको आन्दोलन’ चलाया, जिसके फलस्वरूप जंगल कटने से बच गये। इसी प्रकार अमृतगंगा के जलागम के सिर सूखे पेड़ों के कटान भी ‘चिपको आन्दोलन’ के कारण निरस्त किये गये।
जल और जंगल का इस प्रकार का अन्तर्सम्बन्ध कहीं भी देखने को मिल सकता है। मुझे तीन दशक पहले जम्मू-कश्मीर में दरियायी झेलम के उद्गम बेणीनाग जाने का मौका मिला था उसका भी पणढाल काफी बड़ा है। बैणीनाग के पास ऊपरी भाग में स्थित नागवन पहाड़ हैं जो वृक्षों से लदा था। अनुभवों के आधार पर वन विभाग ने वहाँ पर मानवीय हस्तक्षेप पूर्णतः बन्द कर दिया था।
जलराशि से जंगल बना हुआ है और जंगल के कारण बारिश का पानी का इस नागवन के इलाके में भण्डारण हो जाता है, जिससे दरियायी झेलम सदाबहार रहती है, इसके अलावा मुझे दंडकारण्य में, जहाँ से गोदावरी की कई सहायक धाराएँ उद्गमित होती हैं, जाने का मौका मिला। शबरी, शिलेरू तथा इंद्रावती-पामलेरू को देखने-समझने का मौका मिला था। यहाँ के घने जंगलों का और जलराशि के बीच का अन्तर्सम्बन्ध भी समझ में आया। सह्याद्रि के सदाबहार जंगलों का वहाँ की वनस्पति एवं जलराशि जो एक-दूसरे के पूरक हैं, उनके आपसी रिश्ते को समझा जा सकता है।
पूर्वोत्तर भारत में मुख्य रूप से ब्रह्मपुत्र की दर्जनों सहायक धाराओं का जल-प्रवाह एवं जंगल की अभिवृद्धि सीधे-सीधे इससे समझी जा सकती है।
इस प्रकार छोटी-बड़ी वनस्पति बारिश के जल को भूमि में समाहित करती है। यह जलराशि धीरे-धीरे रिसकर जलधाराओं के रूप में प्रवाहित होती है। जंगल एक तरफ से जलराशि को भण्डारित करते हैं। हमारा अनुभव है कि जहाँ जंगल नष्ट हो गए हैं वहाँ थोड़ी-सी वर्षा के बाद ताजी बाढ़ आ जाती है; जो अपने प्रवाह क्षेत्र में भारी नुकसान का कारण बनती है। उत्तराखण्ड में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ वृक्षविहीन पहाड़ियों में 40-50 मिमी बारिश से ही भारी नुकसान देखा गया। दूसरी ओर भौंस (मण्डल)-घरसासी के घने वन क्षेत्र में सौ-दो सौ मिमी बारिश होने के बावजूद, भूक्षरण, भूस्खलन तो दूर की बात जल में गाद की मात्रा भी बहुत ही न्यून देखी गई।
यद्यपि बारिश के पानी को एकत्रित करने एवं संग्रहित करने के कई तरीके हैं। जिनका अनुपालन सदियों से होता रहा है। तालाब, बाँध एवं कुएँ आदि की भी उत्तम व्यवस्था रही है, लेकिन जल-जंगल एवं जमीन के एकीकृत संरक्षण का जो प्राकृतिक तरीका है उसका प्रकृति को बहुआयामी लाभ है।
जंगल-पानी को बनाए रखने के लिये मशीनी रोक का काम करते हैं। बारिश की मारक क्षमता को रोकते हैं। इसकी नमी से खेतों तक नमी बनी रहती है। महीनों तक अववर्षण का प्रभाव जंगल सह लेते हैं। जहाँ जल होगा वहाँ जंगल हरे-भरे रहेंगे, जैव विविधता का अनुपम भण्डार होगा। इसलिये जंगल और जमीन के अन्तर्सम्बन्ध इस प्रकार उलझे हुए हैं कि इन्हें अलग से देख पाना कठिन है।
ये एक-दूसरे के पोषक हैं। प्रकृति के इन तीनों महत्त्वपूर्ण घटकों के संरक्षण-संवर्द्धन की दृष्टि होनी चाहिए। हमारे देश में पर्वतीय एवं आदिवासी क्षेत्रों के कई गाँवों में जंगल, जल और धरती के संरक्षण-संवर्द्धन की समृद्ध परम्परा देखी जा सकती है। उत्तराखण्ड के रेणी, डुंगरी-पैतोली, बटेर, गोपेश्वर के गाँवों के लोगों, जिनमें महिलाओं की अग्रिम भूमिका रही है; ने अपने जंगलों को सफलतापूर्वक बचाया है, क्योंकि जंगल नष्ट होने से जल और जमीन पर पड़ने वाले प्रभाव को वे समझते हैं।
यह सर्वविदित है कि इस धरती पर कहीं भी किसी तरह के वन, मुख्य रूप से सघन वनों से आच्छादित भूमि, जल के विशाल जीवित भण्डार की तरह हैं। सभी तरह के जंगलों में, वृक्ष, भूमि में, जिसे ये अपने क्षत्रपों से छाया देते हैं। इनकी विशाल शाखाएँ, तने और पत्तियों में पानी को धारण करने की क्षमता रहती है। इस प्रकार वन और वन्य आवास, जल-धाराओं को पोषित करते हैं।
ये बाढ़, सूखा और तूफान-जैसी आपदाओं की मारक क्षमता को कम करते हैं। वन, खाद्य सुरक्षा को भी सुनिश्चित करने में योगदान देते हैं। जलवायु परिवर्तन को नियमित करते हैं। स्थानीय ग्रामीणों के आहार की पूर्ति करके खाद्य, चारा-पत्ती तथा अन्य उत्पादों के स्रोत भी हैं। इस प्रकार वनों का महत्त्वपूर्ण उत्पाद पानी है। चाहे वह भूमिगत जल हो या प्रवाहमान क्यों न हो!
पानी है तो जंगल है, वनस्पति है तथा उससे जुड़ा पूरा समृद्ध पारितंत्र रहता है; इसलिये प्रकृति के विभिन्न घटकों में जल और जंगल अद्वितीय हैं। आज अति प्राथमिकता के आधार पर इनके संरक्षण और संवर्द्धन में जुटने की आवश्यकता है।
आपो देवता
वेदों में ‘जल’ को देवता माना गया है, किन्तु उसे जल न कहकर ‘आपः’ या ‘आपो देवता’ कहा गया है। ‘ऋग्वेद’ के पूरे चार सूक्त ‘आपो देवता’ के लिये समर्पित हैं और जल के बारे में बड़ी गम्भीर बातें उनमें कही गई हैं। कुछ मंत्र ये हैं-
अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्।। पृञ्चतीर्मधुना पयः।।
यज्ञ की इच्छा करने वालों के सहायक मधुर रस जल-प्रवाह, माताओं के सदृश पुष्टिप्रद हैं। वे दुग्ध को पुष्ट करते हुए यज्ञ-मार्ग से गमन करते हैं।
अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह।। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्।।
जो ये जल सूर्य में (सूर्य किरणों में) समाहित हैं। अथवा जिन (जलों) के साथ सूर्य का सान्निध्य है, ऐसे ये पवित्र जल हमारे ‘यज्ञ’ को उपलब्ध हों।
अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः।। सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः।।
हमारी गायें जिस जल का सेवन करती हैं, उन जलों का हम स्तुतिगान करते हैं। अन्तरिक्ष एवं भूमि पर प्रवाहमान उन जलों के लिये हम हवि अर्पित करते हैं।
अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।। देवा भवत वाजिनः।।
जल में अमृतोपम गुण है। जल में औषधीय गुण है। हे देवो! ऐसे जल की प्रशंसा से आप उत्साह प्राप्त करें।
(लेखक ‘चिपको आन्दोलन’ के प्रणेता हैं)
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