बैरी बरखा आ जा रे

Submitted by editorial on Sat, 06/23/2018 - 17:27
Source
दैनिक जागरण, 17 जून, 2018

चौमासाचौमासा रिमझिम बारिश में भीगा मन बागी हो जाता है। बस में नहीं रहता। कभी बूँदों की लड़ी के सहारे आसमान पर चढ़ जाना चाहता है तो कभी टाइम मशीन में बैठ पीछे छूट चुकी यादों की गलियों में टोह लेने पहुँच जाता है। मानसून की आहट मिलते ही मन एक दफा फिर इस बगावत के लिये मचलने लगा है। रिमझिम बारिश की सीनाजोरी के किस्से सुना रही हैं प्रसिद्ध साहित्यकार ममता कालिया-

कितनी अजीब बात है, जिन्दगी हमें आगे धकेलती है, बारिश हमें पीछे ले जाती है। इधर बादल गरजे, बिजली चमकी, घटाएँ घुमड़ीं और उधर यादों के कबूतर गुटरगूं करने लगे। उम्र पीछे के मैदान में छलांगें लगाती पहुँच जाती है कॉलेज के उन दिनों में, जब हम अपनी बात अपनी जुबान में नहीं कहते थे। कभी जायसी, कभी अज्ञेय तो कभी नागार्जुन के शब्द दोहरा देते थे, गोया ये हमने ही लिखे हों या उन्होंने हमारे लिये ही लिखे हों। सीधी-सादी लड़कियाँ श्रोता बनी रहतीं और हिन्दी विभाग के लड़के वक्ता। लड़के जायसी के शब्दों में कहते,

‘चमक बीजु बरसै जल सोना
दादुर मोर सबद सुठि लोना
रंगराती पीतम संग जागी
गरजै गगन चौंकि गर लागी’


कोई शोख लड़की अप्रस्तुत प्रत्युत्तर में कहती,

‘सावन बरस मेह अति पानी
भरनि परी, हौं बिरह झुरानी’


हम, जो हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी नहीं थे, इन उद्गारों से निर्लिप्त रहते। हमें तो राज कपूर की फिल्म बरसात ज्यादा दिल के करीब लगती। मन झूम उठता, जब रेडियो से निकल कर यह तराना हम तक पहुँचता- “बरसात में हम से मिले तुम सजन तुम से मिले हम बरसात में…”

शंकर जयकिशन की धुन पर शैलेन्द्र के शब्द, निम्मी की प्यासी आँखे- सब दिल के बाइस्कोप में अन्धड़ मचा देते। प्रेम में न होकर भी हम निम्मी के विरह वियोग के दृश्य याद कर आहें भरते। यह पता चलने में कई बरस लग गये कि वर्षा ऋतु ने हमें प्रेम में पड़ना सिखाया। भला इतना बड़ा छाता हमें कहाँ मिलता, जिसमें दो दिल पनाह पाते। हाँ, कॉलेज की दीवार से सट कर बारिश रुकने का इंतजार बारहा किया। सिर के ऊपर कॉपी रख कर, कॉमन रूम तक भागने का जतन खूब होता। बारिश रूक जाने पर घर तक का रास्ता साइकिल से नापने में नया नकोर लगता। सड़क किनारे के पेड़ नहा-धोकर तरोताजा खड़े मिलते। सड़क धुल कर चमकदार हो जाती।

जगह-जगह फुटपाथ पर भुट्टे सिंकते नजर आते। शाम को घर में पोई की पकौड़ी बनती। माँ हरे रंग की साड़ी पहन, खस का हरा, खुशबूदार शर्बत बनातीं, पापा नागार्जुन का कविता संग्रह हाथ में थाम, सस्वर पाठ करते,

‘अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे?
कालिदास सच-सच बतलाना।’


रेडियो से मधुर गीत बजता,

“पीके फूटे आज प्यार के सावन बरसा री।”

हम खुश होते, आज फुहार पड़ी है, हमें क्यारियों में पानी नहीं डालना पड़ेगा। यही बरसात जब तीन-चार दिन खिंच जाती तो लोग परेशान हो जाते। बाजार कैसे जाएँ, भीगे कपड़े कहाँ सुखाएँ, अखबार रोज भीग जाता है, कैसे पढ़ें। ज्यादा जोर की मूसलाधार बरसात में स्कूल-कॉलेज बन्द हो जाते। बच्चों का हुड़दंग स्कूल के मैदान की बजाय गली-आँगन में बरपा हो जाता। माताएँ त्रस्त हो जातीं। उनके फुरसत के घंटे छिन जाते।

हर शहर में बारिश का मिजाज जुदा होता है। कलकत्ते में बारिश होते ही सड़कें घुटने-घुटने पानी में डूब जाती हैं। शहर एक बड़ा-सा तालाब बन जाता है, बंगाली बाबू लोग कन्धे पर झोला लटकाए हाथ में छाता थामे, बाड़ी (घर) जाने को आतुर बस स्टॉप पर खड़े हो जाते हैं। सड़क पर पीली टैक्सियों की कतार लग जाती है। बैंगन भाजा बेचने वाले ग्राहकों में व्यस्त हो जाते हैं। झालमुड़ी बेचने वाले अपना खोमचा प्लास्टिक की चादर से ढक कर किसी मकान के पोर्च में शरण ग्रहण कर लेते हैं।

मुम्बई में महा जागरण, महारैली की तर्ज पर बारिश का मौसम महामानसून होता है। मुम्बई वालों को आदत पड़ गई है इसकी। पाउस पड़ने पर कोई काम नहीं रुकता। बाई खाना बनाने आती है, ड्राइवर आठ बजे ड्यूटी पर मुस्तैद रहता है, बच्चे बरसाती पहन कर स्कूल बस का इंतजार करते हैं और लोकल गाड़ियाँ चलती रहती हैं। मुम्बई की चिन्ता तब शुरू होती है, जब रेल की पटरियाँ पानी में डूब जाएँ, क्योंकि तब लोकल यातायात ठप पड़ जाता है। नरेश सक्सेना की पंक्तियाँ याद आ जाती हैं:

“समुद्र पर हो रही है बारिश खुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र कहाँ जा कर डूब मरें, क्या करें इतने नमक का?”

इसी मुम्बई ने बरसात पर न जाने कितनी यादगार रोमांटिक फिल्में बनाईं हैं। यही मु्म्बई बरसात को लेकर एकदम प्रैक्टिकल है भारी बारिश में घर पर अखबार सूखे पहुँचेंगे।

डब्बेवाला घर से ले जाकर टिफिन, वक्त पर दफ्तर पहुँचाएगा, बच्चे समय से घर लौट आएँगें। परिवार अगले दिन बरसात से मोर्चा लेने को तैयार मिलेगा। यकीन करना मुश्किल है कि बरसात, बरसात की रात, बारिश, दो आँखें बारह हाथ, गाइड, चमेली जैसी फिल्मों के तूफान और बारिश वाले दृश्य यहीं फिल्माए गये, जहाँ लोग बालकनी में खड़े होकर बरसात का नजारा नहीं देखते। अपनी दिल्ली तो दिलजली ठहरी। लू के थपेड़ों से जल-भुन कर बैठी रहती है। दिल्ली वाले एसी और कूलर से बाहर निकलना जानते ही नहीं। मौसमों का स्वागत करने में सबसे फिसड्डी हैं। आज गरमी को रो रहे हैं, कल बारिश को रोने लगेंगे, सड़कों और गंदले पानी के जमाव पर सिर धुनेंगे। हम शहर वालों को न कृषि की चिन्ता है, न कृष्टि की। अनावृष्टि और अतिवृष्टि के बीच हम बस इतना करेंगे कि बन्द कमरे में बैठकर जगजीत सिंह को गाते सुन लेंगे।

‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो..
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’


सच तो यह है कि दिलों के अन्दर की नमी अगर सूख जाये तो बारिश भी जीवन में असर नहीं करती।