हाल ही में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध में हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र में बढ़ते पानी के संकट पर चिंता व्यक्त की गई है। हिंदू-कुश क्षेत्र में किये गए इस अध्ययन में पाया गया कि इस क्षेत्र के 8 शहरों में पानी की उपलब्धता आवश्यकता के मुकाबले 20-70 प्रतिशत ही थी। रिपोर्ट के अनुसार, मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिमपॉन्ग और दार्जिलिंग जैसे शहर जलसकंट से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, संरक्षण का अभाव,अनियोजित शहरीकरण और जनसंख्या का दबाव इन क्षेत्रों में जल संकट के प्रमुख कारण हैं। वर्तमान में हिंदू-कुश क्षेत्र की आबादी का मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा बड़े शहरों और 8 प्रतिशत छोटे शहरों में रहता है। परंतु एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2050 तक क्षेत्र की 50 प्रतिशत आबादी शहरों में रहने लगेगी, जो पानी की उपलब्धता के संदर्भ में इस क्षेत्र के भविष्य पर कई प्रश्न खड़े करता है।
पर्वतीय राज्यों में वर्तमान जल संकट को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- 1. मांग (Demand), 2. आपूर्ति (Supply)
प्राकृतिक झरने (Springs) हिंदू-कुश क्षेत्र में जल की आपूर्ति के प्रमुख स्रोत रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार, हिंदू-कुश क्षेत्र में लगभग 50 लाख प्राकृतिक झरने हैं, जिनमें से लगभग 30 लाख इस क्षेत्र के भारतीय राज्यों में पाए जाते हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस क्षेत्र के 50 प्रतिशत प्राकृतिक झरने सूख रहे हैं। जो प्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र के अन्य जल स्रोतों और नदियों के सतत् प्रवाह को प्रभावित करते हैं। हिंदू-कुश क्षेत्र के जल संकट को भारत के उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के उदाहरण से समझा जा सकता है, जहाँ एक समय 500 से अधिक प्रकृतिक झरने हुआ करते थे , परंतु वर्तमान में इस ज़िले में मात्र 57 झरने ही शेष बचे हुए हैं। इनमें से लगभग 15-20 झरने ही प्रवाह के मामले में ठीक माने जा सकते हैं, जबकि गुणवत्ता के मामले इनकी संख्या बहुत ही कम है।
पर्वतीय राज्यों में जल संकट के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:
अनियोजित शहरीकरण और वनोन्मूलन
मैदानी क्षेत्रों के विपरीत पर्वतीय राज्यों में भूमिगत जल का मुख्य स्रोत प्राकृतिक झरने ही होते हैं। इन क्षेत्रों में अनियोजित शहरीकरण से एक तरफ जहाँ प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ा है (एक अनुमान के अनुसार, इस क्षेत्र में पिछले 12 वर्षों में जल की मांग में दोगुनी वृद्धि हुई है), वहीं औद्योगीकरण, कृषि और विकास की अन्य गतिविधियों से वनों की कटाई और भूमि के प्रयोग में परिवर्तनों से झरनों के प्राकृतिक मार्ग प्रभावित हुए हैं तथा जल संचयन के प्राकृतिक स्रोतों में कमी हुई है, जो पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वन विभाग के आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 2015 तक उत्तराखंड में 45,000 हेक्टेयर से अधिक और हिमाचल प्रदेश में लगभग 12,000 हेक्टेयर वन-भूमि को विकास कार्यों के लिये अधिग्रहित किया गया, जबकि इसी अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर देश में लगभग 151 लाख हेक्टेयर वन-भूमि को विकास कार्यों के लिये अधिग्रहित किया गया।
जलवायु परिवर्तन
पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण में आए बदलाव ने संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों के संकट को और बढ़ा दिया है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पिछले 60 वर्षों में हिंदू-कुश हिमालयी क्षेत्र के तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इस दौरान हिमालय क्षेत्र में प्रत्येक दशक में औसतन 1.2°C -1.7°C की वृद्धि हुई है।
वर्षा की आवृत्ति में परिवर्तन
पर्वतीय क्षेत्रों के पारिस्थितिकी तंत्र में वर्ष का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पर्वतीय क्षेत्रों की ढलान युक्त भूमि में वर्षा जल के रुकने के लिये धीमी और लंबे समय तक चलने वाली वर्षा सबसे उपयुक्त होती है, परंतु पिछले कुछ सालों में वर्षा की आवृत्ति तथा वर्षा दिवसों (पूर्व में 45-90 दिनों के स्थान पर 35-45 दिन) में हुई कमी ने इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है।
खनन और औद्योगीकरण
देश के पर्वतीय राज्यों में शहरीकरण के साथ ही भूमिगत खनिज पदार्थों के लिये खनन, फैक्ट्री, बाँध के निर्माण जैसी गतिविधियों से क्षेत्र की प्राकृतिक संरचना के महत्त्वपूर्ण घटकों को अपूरणीय क्षति हुई है। इस क्षेत्र में खनन गतिविधियों में वृद्धि से प्राकृतिक जल के स्रोतों को नुकसान तो हुआ ही है, साथ ही खनन के कारण भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ जाने से जल के संचयन में भी कमी आई है, जिसने जल संकट की समस्या को और बढ़ा दिया है।
अपर्याप्त जल प्रबंधन
हिमालयी क्षेत्र के वर्तमान जल संकट के मुख्य कारणों में जल की आपूर्ति के साथ ही उसके उचित प्रबंधन के लिये आवश्यक प्रयासों में कमी भी शामिल है। उदाहरण के लिये वर्तमान में उत्तराखंड शहर में उपयुक्त जल प्रबंधन के अभाव में लगभग 20 प्रतिशत जल का नुकसान हो जाता है। इसके साथ ही वर्षा जल को संरक्षित करने के लिये आवश्यक कदम न उठाना या जल के पुनर्प्रयोग (Recycled Use) को बढ़ावा न देना इस समस्या को और अधिक बढ़ा देता है।
पर्वतीय जल संकट का प्रभाव
विश्व की कुल आबादी के लगभग 17 प्रतिशत लोग भारत में निवास करते हैं, जबकि विश्व में जल के कुल प्राकृतिक स्रोतों का मात्र 4 प्रतिशत ही इस देश में पाया जाता है। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ देश के एक बड़े भू-भाग के लिये जल उपलब्ध कराती हैं और इन नदियों के जल का मुख्य स्रोत हिमालय क्षेत्र में झरनों (Water Springs) जैसे ही जल के अन्य प्राकृतिक स्रोत हैं (उदाहरण- देवप्रयाग में गंगा का मुख्य स्रोत लगभग 27 प्रतिशत ग्लेशियर व 73 प्रतिशत जल के अन्य प्राकृतिक स्रोत)। ऐसे में यदि हिमालय क्षेत्र के वर्तमान जल संकट पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो शीघ्र ही यह पूरे भारत के लिये एक बड़ी समस्या बन सकता है।
जल संकट का प्रभाव पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि पर भी देखने को मिला है। उदाहरण के लिये पानी की कमी से सिक्किम में बड़ी इलायची (Black Cardamom) की खेती में कमी। भारतीय हिमालय क्षेत्र में लगभग 60 हज़ार गाँव हैं, इनमें रहने वाले लोगों की पूरी जीवनशैली प्राकृतिक झरनों पर निर्भर है। प्राकृतिक झरनों में जल की कमी और प्रदूषण बढ़ने से आस-पास के क्षेत्रों में संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाएगा। यदि वर्तमान जल संकट का निवारण नहीं किया गया तो आगामी वर्षों के दौरान शहरों में बढ़ती जनसंख्या के लिये साफ पानी उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती होगी। ध्यातव्य है कि निति आयोग द्वारा वर्ष 2018में जारी ''संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक-2.0'' में वर्ष 2020 के बाद देश के कई प्रमुख शहरों में पीने के पानी की उपलब्धता के संदर्भ में चिंता व्यक्त की गई है। पानी की कमी के कारण सूखा और वनाग्नि जैसे प्रत्यक्ष दुष्प्रभावों के अतिरिक्त यह समस्या भविष्य में क्षेत्र के पारिस्थितिक तंत्र के लिये अपूरणीय क्षति का कारण बन सकती है।
जल-संकट के निवारण के लिये आवश्यक कदम
जल संचयन (Water Harvesting): घर और समुदाय के स्तर पर वर्षा के प्राकृतिक जल के संचयन के माध्यम से जल का सदुपयोग कर जल संकट जैसी स्थितियों से बचा जा सकता है।
प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण: प्रभावित क्षेत्रों में पानी के स्थानीय प्राकृतिक स्रोतों की पहचान कर उन्हें पुनः सक्रिय करने के प्रयास किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिये पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों जैसे-सिक्किम, मेघालय, नागालैंड आदि में ‘धारा विकास’ योजना के तहत प्राकृतिक झरनों की जल संग्रहण क्षमता को बढ़ाया गया है।
दूषित जल का पुनर्चक्रण (Recycling): घरों या अन्य इकाइयों से निकलने वाले अपशिष्ट जल को विभिन्न तकनीकी माध्यमों से शोधित कर कृषि और औद्योगिक जैसे अनेक क्षेत्रों में पुनः प्रयोग किया जा सकता है।
समग्र जल प्रबंधन दृष्टिकोण: जल प्रबंधन के लिये प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर एक समग्र जल प्रबंधन दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के साथ ही लोगों को भी प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को देखते हुए जल संरक्षण में योगदान देना चाहिये।
जल संकट से निपटने के लिये भारत सरकार की पहल:
अभिनव भारत @75: भारत सरकार ने नीति आयोग की अभिनव भारत @75 योजना के तहत वर्ष 2023 तक भारत में जल संरक्षण के लिये कई स्तरों पर कार्ययोजना की रूपरेखा प्रस्तुत की है। इस योजना के अंतर्गत पेयजल से लेकर कृषि और उद्योगों में प्रयोग होने वाले जल के संबंध में व्यवस्थित कार्ययोजना द्वारा जल का संरक्षण सुनिश्चित करना है।
धारा विकास: सिक्किम राज्य में वर्ष 2008 में शुरू हुई ‘धारा विकास’ योजना के माध्यम से प्राकृतिक झरनों के संरक्षण के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए।
जल शक्ति अभियान: जल संकट से त्रस्त देश के 255 ज़िलों में जल-संरक्षण के लिये जुलाई 2019 को जल शक्ति अभियान की शुरुआत की गई है। इस पहल के तहत सरकार की विभिन्न योजनाओं जैसे-मनरेगा, एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम आदि के समन्वय से इन क्षेत्रों में जल संरक्षण के प्रयासों को बढ़ावा देना है। साथ ही भारत सरकार द्वारा ‘जल जीवन मिशन’ परियोजना के अंतर्गत जल आपूर्ति के अतिरिक्त जल संरक्षण के लिये 1 लाख करोड़ रुपए का बजट निर्धारित किया गया है।
निष्कर्ष
प्राकृतिक झरने हिमालय क्षेत्र में जल का एकमात्र स्रोत होने के साथ ही मैदानी क्षेत्र की नदियों के प्रवाह में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पिछले कुछ दशकों में हिमालय क्षेत्र में हुए अनियंत्रित शहरीकरण, वनोन्मूलन और जल के अनियंत्रित दोहन से इस क्षेत्र के संवेदनशील पारितंत्र को गंभीर क्षति हुई है। सरकार की योजनाएँ थोड़े समय के लिये राहत प्रदान करने में तो सफल रही हैं, परंतु एक समग्र कार्ययोजना और सभी हितधारकों के सहयोग के अभाव में समय के साथ-साथ इस क्षेत्र में जल-संकट की समस्या और अधिक गंभीर हुई है। अतः यह आवश्यक है कि क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिये सभी हितधारको द्वारा सामूहिक प्रयासों को बढ़ावा दिया जाए तथा भविष्य में विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में विकास और प्रकृति के बीच समन्वय पर विशेष ध्यान दिया जाए।
मूल रिसर्च का लिंक नीचे दिया गया है -
लेखक
डाॅ. दीपक कोहली, उपसचिव
वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश
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