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पत्रिका, 16 सितंबर 2014
पानी के रास्तों में लगातार रुकावट और पानी की जगहों पर कब्जा ‘पानी’ को बर्दाश्त नहीं है। झीलों, तालाबों और वेटलैंड पर कब्जा करके हमने पानी की जगहों को कम किया है। परिणामतः पानी हमारी जगहों में यानी हमारे घरों में घुसने लगा है। मुंबई, लेह-लद्दाख, बाड़मेर और केदारनाथ के बाद कश्मीर में आई बाढ़ को प्राकृतिक आपदा कहकर भूलने की कोशिश कर रहे हैं। पर क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है। ये ऐसी जगहें हैं या तो पहाड़ है या रेगिस्तान, इनमें अब बाढ़ आ रही है। राजस्थान पत्रिका के इस एपिसोड में बताया गया है कि नदी, नालों और झीलों पर अतिक्रमण ने ही/भी बिगाड़े हैं कश्मीर में हालात।
चंद्रभूषण
अब हम बारिश की अस्वाभाविक स्थितियां देख रहे हैं। केदारनाथ में 24 घंटे में लगभग 400 मिलीमीटर बारिश हुई थी। इसी प्रकार कश्मीर में 24 घंटे में 225 मिलीमीटर बारिश हुई है। यह बारिश देश के औसत से तुलना करें तो साल भर में होने वाली 800 मिलीमीटर बारिश के लगभग आधा या एक-चौथाई एक दिन में बरसा है। संकेत तो यही बता रहे हैं कि अस्वाभाविक बारिश की स्थितियां एक आम परिघटना में बदलती जा रही है। जम्मू कश्मीर में बाढ़ जैसी समस्याएं एक तरह से प्रकृति की ओर से मनुष्य के लिए चेतावनी है कि उसके विकास कार्यों की दिशा और उनका नियोजन-संयोजन प्रकृति की दिशा और उसके स्वभाव से मेल नहीं खा रहा। पहले भी प्रकृति इस तरह की कईं चेतावनियां हमें दे चुकी है। कार्बन डाइअॅाक्साइड का उत्सर्जन तो समस्या है ही, समस्या और भी कई हैं, जो सीधे-सीधे हमारे विकास के मॉडल और नियम-कानूनों की लचर अनुपालना से जुड़ी हैं।
जम्मू-कश्मीर में आज की तारीख में 50 प्रतिशत से अधिक झीलों, तालाब और वेटलैंड का अतिक्रमण किया जा चुका है।
उन पर मकान, रिसॉर्ट, रोड आदि बनाए जा चुके हैं। इसलिए जब इतनी अधिक मात्रा में पानी गिरता है तो उसका निकलना असंभव सा हो जाता है। वह इसलिए कि यह जो झील आदि होती हैं वो स्पंज की तरह काम करती हैं- अर्थात वह काफी मात्रा में पानी सोख लेती हैं। फिर जो नाले थे वे भी इस प्रक्रिया में या तो बाधित हो गए या फिर जाम हो गए। इसलिए पानी की निकासी का जरिया ही नहीं बचा। आज श्रीनगर और कश्मीर में बाढ़ की जो स्थिति देखने को मिल रही है यह उसका बड़ा कारण है। श्रीनगर में पिछले 5 दिनों से बारिश तो काफी कुछ रुकी हुई है फिर भी पानी नहीं निकल रहा है। क्योकि निकासी मार्ग बाधित हैं।
कार्बन गैस उत्सर्जन कम करने के उपाय दीर्घकालिक तो हैं पर इसका कोई विकल्प नहीं है। सिर्फ यही क्यों, बचाव और रक्षा के सारे उपाय समयसाध्य हैं - वह चाहे शहरीकरण की प्लानिंग का मामला हो या फिर चेतावनी और मौसम भविष्यवाणी प्रणाली विकसित करने की बात हो अथवा अतिक्रमण को हटाने के लिए प्रयास हों। इन सभी कामों में समय लगेगा। पर इनका कोई विकल्प नहीं है। अगर हमने यह प्रयास नहीं किए तो यह तय मानिए कि आने वाले दिनों में भारत को इस तरह की ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।
पिछले कुछ वर्षो में भारत अत्यधिक बारिश की कुछ स्थितियां देख भी चुका है। 2005 में मुंबई की वर्षा, 2010 में लेह-लद्दाख, 2013 में उत्तराखंड और 2014 में जम्मू-कश्मीर की बारिश। यह सब अस्वभाविक बारिश की स्थितियां हैं।
केदारनाथ-उत्तराखंड में 24 घंटे में लगभग 400 मिमी बारिश हुई थी। इसी प्रकार कश्मीर में 24 घंटे में लगभग 225 मिमी बारिश हुई है। ये बारिश कितनी अधिक है इसका अंदाजा इससे लग सकता है कि हमारे देश में साल में औसतन 800 मिमी बारिश होती है। आगे आने वाले दिनों में भारत में इन विकट मौसम स्थितियों की आवृत्ति और बढ़ सकती है। मानसून पर निर्भर होने और एक गरीब देश होने के कारण भारत के लिए ये स्थितियां अधिक परेशानी का सबब बन सकती हैं। मौसम परिवर्तन की समस्याओं से गरीब आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित होती है। हमारे पास चेतावनी, बचाव और राहत तंत्र भी विकसित नहीं है। संसाधन भी कम हैं। इसलिए भारत को विशेष रूप से सावधान रहने की जरूरत है।
वर्ष 1902 में भी श्रीनगर में भारी बाढ़ आई थी। दो वर्ष तक पानी भरा रहा था और पानी उतरने के बाद बीमारियां फैली थीं। उस समय डोगरा शासकों ने अंग्रेजों से सहयोग मांगा और अंग्रेज इंजीनियरों की एक टीम वहां पहुंची। इस टीम ने क्षेत्र और परिस्थितियों का अध्ययन कर ड्रेजर मंगवाया। वुलर झील से खडनयार तक जमीन और पहाड़ को स्टीम इंजन चलित ड्रेजरों से खोदा और झेलम का पानी डायवर्ट किया। आजादी के बाद बनी शेख अब्दुल्ला की सरकार के जेहन में वर्ष 1902 की बाढ़ थी इसलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से आग्रह किया और जम्मू-कश्मीर के लिए एक ड्रेजर आयात कर वहां भिजवाया गया। इसी से श्रीनगर में पादशाही बाग से वुलर झील तक 42 किलोमीटर का फ्लड चैनल तैयार किया गया ताकि श्रीनगर के बाहर से ही झेलम का पानी वुलर झील पहुंच जाए।
एक रिपोर्ट के अनुसार श्रीनगर, बारामुला और बांदीपुर के पांच हजार वैटलैण्ड में से अधिकतर पर अतिक्रमण की बाढ़ आई हुई है। झेलम और सहायक नदियों के पाट भी नहीं छोड़े गए हैं। संबंधित विभाग पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाकर इतिश्री कर लेता है लेकिन अतिक्रमण हटते नहीं। पानी निकास के अनेक रास्ते अवरूद्ध हो चुके हैं। नादरू नम्बल, नरकारा नम्बल, होकारसर आदि की जमीन पर अब रिहायशी कॉलोनियां खड़ी हैं। यहां तक की श्रीनगर विकास प्राधिकरण ने ही जमीन नीलाम कर कॉम्पलेक्स खड़े करवा दिए हैं। पादशाही बाग से वुलर झील तक बना फ्लड चैनल भी अतिक्रमण की चपेट मे है। पचास व साठ के दशक में जम्मू कश्मीर सरकार के पास चार ड्रेजर थे। ये ड्रेजर नदियों में आई गाद व पत्थरों को हटाने के काम आते थे लेकिन दो दशक से इनका उपयोग बंद कर दिया गया।
लेखक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरनमेंट के डिप्टी डायरेक्टर जनरल हैं।
के श्रीनिवास, सीईओ, वसुधा फाउंडेशन
जम्मू-कश्मीर में बाढ़ को समझने के लिए हमें इस क्षेत्र में भूमि उपयोग के पैटर्न की समीक्षा करनी होगी। झेलम और दूसरी नदियों, झीलों के आस पास दो प्रकार की अनियोजित मानवीय गतिविधियों ने इस बाढ़ की विकरालता को काफी बढ़ा दिया है।
पहला तो नदी के आसपास के क्षेत्र में पेड़ों के काटे जाने से नदी के तटबंध और तटीय क्षेत्रों में पानी को रोकने-बांधने की क्षमता काफी कम हो गई। दूसरे नदी या झील के आसपास अतिक्रमण से बाढ़ के पानी निकासी के रास्ते भी बंद हो गए। विशेषकर बड़े निर्माणों जैसे रिसॉर्ट आदि के निर्माण से इस प्रकार की स्थितियां पैदा होती हैं। पुणे में भी हाल में जो भूस्खलन देखने को मिला था उसका कारण भी मुख्य रूप से पेड़ों को काटा जाना ही था। कमोबेश सभी प्राकृतिक आपदाओं में यही पैटर्न नजर आता है। हरियाली अर्थात जंगल को बढ़ाने का एक फायदा और है। इससे कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कुछ हद तक नियंत्रित की जा सकती है। आखिर मौसम परिवर्तन की जो स्थितियां पैदा हो रही हैं उनमें मानव जनित गतिविधियों से कार्बन उत्सर्जन की बड़ी भूमिका है।
देश के अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ का कवरेज और रिपोर्टिंग में भी भेदभाव देखने को मिलता है। जम्मू-कश्मीर में बाढ़ को लेकर जो संवेदनशीलता दिखाई है, वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में नहीं दिखाई है। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी। क्या मीडिया ने देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ की कवरेज में भेदभाव बरता? निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर में पिछले 60 वर्षों की यह सबसे भीषण बाढ़ थी। वहां के लोगों ने झेलम का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था। राज्य के ढाई हजार से अधिक गांवों में बाढ़ ने कहर बरपाया। 300 से अधिक लोगों की जान चली गई। 10 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तत्परता से बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद कहा- 'यह राष्ट्रीय स्तर की आपदा है।' उन्होंने एक हजार करोड़ रुपए की बाढ़ पीड़ितों की सहायता की घोषणा की। सरकारी तंत्र ने सक्रियता दिखाई। सेना के बचाव व राहत कार्य तेजी से शुरू हुए।
शायद इसीलिए राष्ट्रीय मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगातार दस दिन तक जम्मू-कश्मीर की बाढ़ सुर्खियों में रही। 'जन्नत' कहे जाने वाले कश्मीर में कुदरत का कहर कयामत बनकर किस तरह टूटा, इसकी हकीकत मीडिया ने देश को बताई।
लाइव रिपोर्टिग, जलप्लावन की दर्दनाक तस्वीरें, पीड़ितों की आप-बीती तथा मानवीय संवेदनाओं को छूने वाले वृत्तांत मीडिया के जरिए ही देश के लोगों ने पढ़े, सुने और देखे। पीड़ित परिवारों के बिछुड़े लोगों को मिलाने और उनके बारे में जानकारियां देने में मीडिया की अहम भूमिका सामने आई। लोगों ने यह भी देखा कि घाटी में आम दिनों में सेना पर पत्थर बरसाने वालों ने किस तरह सेना की रहनुमाई में बाढ़ से अपनी जान बचाई।
सही है, जब देश के किसी हिस्से में तबाही मची हो तो राष्ट्रीय मीडिया उसकी अनदेखी कैसे कर सकता है। आपको याद होगा, पिछले साल उत्तराखंड में बाढ़ ने भयानक कहर बरपाया था। 6 हजार लोगों की जानें चली गई। 4 हजार से ज्यादा गांव जलमग्न हो गए।
उत्तराखंड की त्रासदी भीषणतम त्रासदियों में से एक थी। उस दौरान राष्ट्रीय मीडिया जिस तरह तत्पर हुआ, उसी तरह कश्मीर में भी हुआ। हां, तब 24 घंटे चलने वाले चैनलों ने जरूर अति कर दी थी। उसकी आलोचना भी की गई थी लेकिन उस वक्त मीडिया, खासकर चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनलों की पेशेगत जिम्मेदारी को लेकर इंसानी भेदभाव और अनदेखी का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता था।
अगर यह आरोप इस बार कश्मीर की बाढ़ के दौरान मीडिया कवरेज खासकर न्यूज चैनलों पर की गई रिपोर्टिग को लेकर अवश्य लग चुका है। इसे अगर और स्पष्ट कहूं तो यह कि जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
जम्मू-कश्मीर की तरह ही उत्तर-पूर्वी राज्यों का एक बड़ा हिस्सा भीषण बाढ़ की तबाही से जूझ रहा था। कश्मीर में बाढ़ से सिर्फ एक सप्ताह पहले तक ब्रह्मपुत्र ने झेलम से भी अधिक रौद्र रूप धारण कर रखा था। उत्तर-पूर्व के राज्यों में बाढ़ की क्या स्थिति है और वहां के लोग किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं इसकी एक झलक भी चौबीस घंटे चलने वाले हमारे इन राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों में दिखाई नहीं पड़ी।
जो थोड़ी बहुत सूचनात्मक तौर पर जानकारियां सामने आई वह भी प्रिंट मीडिया के जरिए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हत्या, बलात्कार, गॉसिप या फिर मनोरंजन परक कथा-कहानियों से ही फुरसत नहीं थी। केन्द्र सरकार ने तो उत्तर-पूर्वी राज्यों की बाढ़ को बहुत हल्के में लिया ही, मीडिया ने भी यही किया। मानों टीवी चैनल्स सरकार का अनुसरण करने में लगे हों।
उत्तर-पूर्व के राज्यों में कुल मिलाकर 20 लाख से भी अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए थे। अकेले असम के 16 जिलों में 12 लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह पीड़ित थे। जबकि सिर्फ डेढ़-पौने दो लाख पीड़ितों को ही सरकारी राहत शिविरों में शरण दी जा सकी थी। ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों ने असम में लगातार हुई बारिश से भारी तबाही मचा रखी थी। दो हजार से अधिक गांव पूरी तरह जलमग्न थे। दूर-दराज के ग्रामीण इलाके हर तरह के संपर्क से कटे हुए थे। कच्चे झोंपड़ों में रहने वाली गरीब ग्रामीण आबादी को अस्तित्व का संघर्ष करते हुए देखा जा सकता था।
लोग पेड़ के डंठल की नावें बनाकर खतरनाक ढंग से उफनते पानी को पार कर रहे थे। ये हालात कुछ प्रेस एजेंसियों के हवाई सर्वेक्षणों और तस्वीरों में कुछ राष्ट्रीय अखबारों के जरिए सामने आए। अगर असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में बाढ़ की विभीषिका की आपको वास्तविक थाह लेनी है तो गूगल सर्च करके देखिए।
प्रेस एजेंसियों के फोटोग्राफ्स और विवरण सारी स्थिति बयां कर देंगे। मेघालय में जिंजिरम नदी के कारण काफी तबाही हुई। करीब सवा लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए। मणिपुर के लाम्फेलपेट इलाके के कई हिस्सों में नाम्बुल नदी के उफान ने बरबादी मचाई। अरुणाचल प्रदेश में लगातार बारिश तथा सियांग और संबासिरी नदियों में उफान से जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।
प्रदेश का पूर्वी सियांग और लोहित जिला अन्य हिस्सों से कट गया था। छितरी आबादी और विकट क्षेत्र के कारण बाढ़ प्रभावितों की वहां कोई मदद करने वाला नहीं था लेकिन केन्द्र सरकार ने अनदेखी की तो मीडिया भी सोया रहा। सरकार का असम की बाढ़ के प्रति नजरिया केन्द्रीय मंत्री वी.के. सिंह के बयान से ही स्पष्ट था। वी.के. सिंह 'डेवलपमेंट ऑफ नॉर्थ-इस्टर्न रीजन' (डीओएनईआर) के प्रभारी मंत्री हैं।
प्रेट्र के संवाददाता ने जब उनसे असम में बाढ़ के हालात के बारे में पूछा तो उनका जवाब था- 'असम में बाढ़ कोई नई बात नहीं है।' असम सहित उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य हर वर्ष बाढ़ की विभीषिका से जूझते हैं, यह वहां के निवासियों का जज्बा है लेकिन क्या इसीलिए हमें उनकी पीड़ा से कोई सरोकार नहीं? यह कैसी संवेदनहीनता है?
देश के नागरिकों के बीच भेदभाव करने की यह कैसी मानसिकता है? इन स्थितियों में जम्मू-कश्मीर में अगर सरकार की तत्परता तथा असम में उदासीनता को जम्मू-कश्मीर राज्य में आसन्न चुनाव से जोड़कर देखा जाए तो क्या गलत है? खैर, सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक कारणों से यह विभेद करते हैं लेकिन मीडिया भी यही करे तो यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।
उत्तर-पूर्व के लोगों में यह भावना और मजबूत होगी कि सरकार तो है ही देश का मीडिया भी उनकी समस्याओं को लेकर संवेदनहीन है। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हाल ही देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ को लेकर जो रवैया अपनाया, उससे तो यह प्रमाणित भी हुआ है।
चंद्रभूषण
अब हम बारिश की अस्वाभाविक स्थितियां देख रहे हैं। केदारनाथ में 24 घंटे में लगभग 400 मिलीमीटर बारिश हुई थी। इसी प्रकार कश्मीर में 24 घंटे में 225 मिलीमीटर बारिश हुई है। यह बारिश देश के औसत से तुलना करें तो साल भर में होने वाली 800 मिलीमीटर बारिश के लगभग आधा या एक-चौथाई एक दिन में बरसा है। संकेत तो यही बता रहे हैं कि अस्वाभाविक बारिश की स्थितियां एक आम परिघटना में बदलती जा रही है। जम्मू कश्मीर में बाढ़ जैसी समस्याएं एक तरह से प्रकृति की ओर से मनुष्य के लिए चेतावनी है कि उसके विकास कार्यों की दिशा और उनका नियोजन-संयोजन प्रकृति की दिशा और उसके स्वभाव से मेल नहीं खा रहा। पहले भी प्रकृति इस तरह की कईं चेतावनियां हमें दे चुकी है। कार्बन डाइअॅाक्साइड का उत्सर्जन तो समस्या है ही, समस्या और भी कई हैं, जो सीधे-सीधे हमारे विकास के मॉडल और नियम-कानूनों की लचर अनुपालना से जुड़ी हैं।
जम्मू-कश्मीर में आज की तारीख में 50 प्रतिशत से अधिक झीलों, तालाब और वेटलैंड का अतिक्रमण किया जा चुका है।
उन पर मकान, रिसॉर्ट, रोड आदि बनाए जा चुके हैं। इसलिए जब इतनी अधिक मात्रा में पानी गिरता है तो उसका निकलना असंभव सा हो जाता है। वह इसलिए कि यह जो झील आदि होती हैं वो स्पंज की तरह काम करती हैं- अर्थात वह काफी मात्रा में पानी सोख लेती हैं। फिर जो नाले थे वे भी इस प्रक्रिया में या तो बाधित हो गए या फिर जाम हो गए। इसलिए पानी की निकासी का जरिया ही नहीं बचा। आज श्रीनगर और कश्मीर में बाढ़ की जो स्थिति देखने को मिल रही है यह उसका बड़ा कारण है। श्रीनगर में पिछले 5 दिनों से बारिश तो काफी कुछ रुकी हुई है फिर भी पानी नहीं निकल रहा है। क्योकि निकासी मार्ग बाधित हैं।
चेतने का समय
कार्बन गैस उत्सर्जन कम करने के उपाय दीर्घकालिक तो हैं पर इसका कोई विकल्प नहीं है। सिर्फ यही क्यों, बचाव और रक्षा के सारे उपाय समयसाध्य हैं - वह चाहे शहरीकरण की प्लानिंग का मामला हो या फिर चेतावनी और मौसम भविष्यवाणी प्रणाली विकसित करने की बात हो अथवा अतिक्रमण को हटाने के लिए प्रयास हों। इन सभी कामों में समय लगेगा। पर इनका कोई विकल्प नहीं है। अगर हमने यह प्रयास नहीं किए तो यह तय मानिए कि आने वाले दिनों में भारत को इस तरह की ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।
पिछले कुछ वर्षो में भारत अत्यधिक बारिश की कुछ स्थितियां देख भी चुका है। 2005 में मुंबई की वर्षा, 2010 में लेह-लद्दाख, 2013 में उत्तराखंड और 2014 में जम्मू-कश्मीर की बारिश। यह सब अस्वभाविक बारिश की स्थितियां हैं।
केदारनाथ-उत्तराखंड में 24 घंटे में लगभग 400 मिमी बारिश हुई थी। इसी प्रकार कश्मीर में 24 घंटे में लगभग 225 मिमी बारिश हुई है। ये बारिश कितनी अधिक है इसका अंदाजा इससे लग सकता है कि हमारे देश में साल में औसतन 800 मिमी बारिश होती है। आगे आने वाले दिनों में भारत में इन विकट मौसम स्थितियों की आवृत्ति और बढ़ सकती है। मानसून पर निर्भर होने और एक गरीब देश होने के कारण भारत के लिए ये स्थितियां अधिक परेशानी का सबब बन सकती हैं। मौसम परिवर्तन की समस्याओं से गरीब आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित होती है। हमारे पास चेतावनी, बचाव और राहत तंत्र भी विकसित नहीं है। संसाधन भी कम हैं। इसलिए भारत को विशेष रूप से सावधान रहने की जरूरत है।
अंग्रेजों ने खोदी नहर...
वर्ष 1902 में भी श्रीनगर में भारी बाढ़ आई थी। दो वर्ष तक पानी भरा रहा था और पानी उतरने के बाद बीमारियां फैली थीं। उस समय डोगरा शासकों ने अंग्रेजों से सहयोग मांगा और अंग्रेज इंजीनियरों की एक टीम वहां पहुंची। इस टीम ने क्षेत्र और परिस्थितियों का अध्ययन कर ड्रेजर मंगवाया। वुलर झील से खडनयार तक जमीन और पहाड़ को स्टीम इंजन चलित ड्रेजरों से खोदा और झेलम का पानी डायवर्ट किया। आजादी के बाद बनी शेख अब्दुल्ला की सरकार के जेहन में वर्ष 1902 की बाढ़ थी इसलिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से आग्रह किया और जम्मू-कश्मीर के लिए एक ड्रेजर आयात कर वहां भिजवाया गया। इसी से श्रीनगर में पादशाही बाग से वुलर झील तक 42 किलोमीटर का फ्लड चैनल तैयार किया गया ताकि श्रीनगर के बाहर से ही झेलम का पानी वुलर झील पहुंच जाए।
...हमने किए अतिक्रमण
एक रिपोर्ट के अनुसार श्रीनगर, बारामुला और बांदीपुर के पांच हजार वैटलैण्ड में से अधिकतर पर अतिक्रमण की बाढ़ आई हुई है। झेलम और सहायक नदियों के पाट भी नहीं छोड़े गए हैं। संबंधित विभाग पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाकर इतिश्री कर लेता है लेकिन अतिक्रमण हटते नहीं। पानी निकास के अनेक रास्ते अवरूद्ध हो चुके हैं। नादरू नम्बल, नरकारा नम्बल, होकारसर आदि की जमीन पर अब रिहायशी कॉलोनियां खड़ी हैं। यहां तक की श्रीनगर विकास प्राधिकरण ने ही जमीन नीलाम कर कॉम्पलेक्स खड़े करवा दिए हैं। पादशाही बाग से वुलर झील तक बना फ्लड चैनल भी अतिक्रमण की चपेट मे है। पचास व साठ के दशक में जम्मू कश्मीर सरकार के पास चार ड्रेजर थे। ये ड्रेजर नदियों में आई गाद व पत्थरों को हटाने के काम आते थे लेकिन दो दशक से इनका उपयोग बंद कर दिया गया।
लेखक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरनमेंट के डिप्टी डायरेक्टर जनरल हैं।
बदलना होगा भू-उपयोग पैटर्न
के श्रीनिवास, सीईओ, वसुधा फाउंडेशन
जम्मू-कश्मीर में बाढ़ को समझने के लिए हमें इस क्षेत्र में भूमि उपयोग के पैटर्न की समीक्षा करनी होगी। झेलम और दूसरी नदियों, झीलों के आस पास दो प्रकार की अनियोजित मानवीय गतिविधियों ने इस बाढ़ की विकरालता को काफी बढ़ा दिया है।
पहला तो नदी के आसपास के क्षेत्र में पेड़ों के काटे जाने से नदी के तटबंध और तटीय क्षेत्रों में पानी को रोकने-बांधने की क्षमता काफी कम हो गई। दूसरे नदी या झील के आसपास अतिक्रमण से बाढ़ के पानी निकासी के रास्ते भी बंद हो गए। विशेषकर बड़े निर्माणों जैसे रिसॉर्ट आदि के निर्माण से इस प्रकार की स्थितियां पैदा होती हैं। पुणे में भी हाल में जो भूस्खलन देखने को मिला था उसका कारण भी मुख्य रूप से पेड़ों को काटा जाना ही था। कमोबेश सभी प्राकृतिक आपदाओं में यही पैटर्न नजर आता है। हरियाली अर्थात जंगल को बढ़ाने का एक फायदा और है। इससे कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कुछ हद तक नियंत्रित की जा सकती है। आखिर मौसम परिवर्तन की जो स्थितियां पैदा हो रही हैं उनमें मानव जनित गतिविधियों से कार्बन उत्सर्जन की बड़ी भूमिका है।
कुदरत के कहर पर भी करती है मीडिया भेदभाव
आनंद जोशी
देश के अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ का कवरेज और रिपोर्टिंग में भी भेदभाव देखने को मिलता है। जम्मू-कश्मीर में बाढ़ को लेकर जो संवेदनशीलता दिखाई है, वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में नहीं दिखाई है। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी। क्या मीडिया ने देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ की कवरेज में भेदभाव बरता? निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर में पिछले 60 वर्षों की यह सबसे भीषण बाढ़ थी। वहां के लोगों ने झेलम का ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा था। राज्य के ढाई हजार से अधिक गांवों में बाढ़ ने कहर बरपाया। 300 से अधिक लोगों की जान चली गई। 10 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तत्परता से बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद कहा- 'यह राष्ट्रीय स्तर की आपदा है।' उन्होंने एक हजार करोड़ रुपए की बाढ़ पीड़ितों की सहायता की घोषणा की। सरकारी तंत्र ने सक्रियता दिखाई। सेना के बचाव व राहत कार्य तेजी से शुरू हुए।
शायद इसीलिए राष्ट्रीय मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लगातार दस दिन तक जम्मू-कश्मीर की बाढ़ सुर्खियों में रही। 'जन्नत' कहे जाने वाले कश्मीर में कुदरत का कहर कयामत बनकर किस तरह टूटा, इसकी हकीकत मीडिया ने देश को बताई।
लाइव रिपोर्टिग, जलप्लावन की दर्दनाक तस्वीरें, पीड़ितों की आप-बीती तथा मानवीय संवेदनाओं को छूने वाले वृत्तांत मीडिया के जरिए ही देश के लोगों ने पढ़े, सुने और देखे। पीड़ित परिवारों के बिछुड़े लोगों को मिलाने और उनके बारे में जानकारियां देने में मीडिया की अहम भूमिका सामने आई। लोगों ने यह भी देखा कि घाटी में आम दिनों में सेना पर पत्थर बरसाने वालों ने किस तरह सेना की रहनुमाई में बाढ़ से अपनी जान बचाई।
सही है, जब देश के किसी हिस्से में तबाही मची हो तो राष्ट्रीय मीडिया उसकी अनदेखी कैसे कर सकता है। आपको याद होगा, पिछले साल उत्तराखंड में बाढ़ ने भयानक कहर बरपाया था। 6 हजार लोगों की जानें चली गई। 4 हजार से ज्यादा गांव जलमग्न हो गए।
उत्तराखंड की त्रासदी भीषणतम त्रासदियों में से एक थी। उस दौरान राष्ट्रीय मीडिया जिस तरह तत्पर हुआ, उसी तरह कश्मीर में भी हुआ। हां, तब 24 घंटे चलने वाले चैनलों ने जरूर अति कर दी थी। उसकी आलोचना भी की गई थी लेकिन उस वक्त मीडिया, खासकर चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनलों की पेशेगत जिम्मेदारी को लेकर इंसानी भेदभाव और अनदेखी का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता था।
अगर यह आरोप इस बार कश्मीर की बाढ़ के दौरान मीडिया कवरेज खासकर न्यूज चैनलों पर की गई रिपोर्टिग को लेकर अवश्य लग चुका है। इसे अगर और स्पष्ट कहूं तो यह कि जम्मू-कश्मीर की बाढ़ को लेकर मीडिया ने जो संवेदनशीलता दिखाई वह देश के उत्तर-पूर्व (असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश) में आई बाढ़ में कहीं नजर नहीं आई। जबकि बाढ़ का कहर और उससे प्रभावितों की त्रासदी किसी भी तरह कमतर नहीं थी।
जम्मू-कश्मीर की तरह ही उत्तर-पूर्वी राज्यों का एक बड़ा हिस्सा भीषण बाढ़ की तबाही से जूझ रहा था। कश्मीर में बाढ़ से सिर्फ एक सप्ताह पहले तक ब्रह्मपुत्र ने झेलम से भी अधिक रौद्र रूप धारण कर रखा था। उत्तर-पूर्व के राज्यों में बाढ़ की क्या स्थिति है और वहां के लोग किन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं इसकी एक झलक भी चौबीस घंटे चलने वाले हमारे इन राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों में दिखाई नहीं पड़ी।
जो थोड़ी बहुत सूचनात्मक तौर पर जानकारियां सामने आई वह भी प्रिंट मीडिया के जरिए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हत्या, बलात्कार, गॉसिप या फिर मनोरंजन परक कथा-कहानियों से ही फुरसत नहीं थी। केन्द्र सरकार ने तो उत्तर-पूर्वी राज्यों की बाढ़ को बहुत हल्के में लिया ही, मीडिया ने भी यही किया। मानों टीवी चैनल्स सरकार का अनुसरण करने में लगे हों।
उत्तर-पूर्व के राज्यों में कुल मिलाकर 20 लाख से भी अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए थे। अकेले असम के 16 जिलों में 12 लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह पीड़ित थे। जबकि सिर्फ डेढ़-पौने दो लाख पीड़ितों को ही सरकारी राहत शिविरों में शरण दी जा सकी थी। ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों ने असम में लगातार हुई बारिश से भारी तबाही मचा रखी थी। दो हजार से अधिक गांव पूरी तरह जलमग्न थे। दूर-दराज के ग्रामीण इलाके हर तरह के संपर्क से कटे हुए थे। कच्चे झोंपड़ों में रहने वाली गरीब ग्रामीण आबादी को अस्तित्व का संघर्ष करते हुए देखा जा सकता था।
लोग पेड़ के डंठल की नावें बनाकर खतरनाक ढंग से उफनते पानी को पार कर रहे थे। ये हालात कुछ प्रेस एजेंसियों के हवाई सर्वेक्षणों और तस्वीरों में कुछ राष्ट्रीय अखबारों के जरिए सामने आए। अगर असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में बाढ़ की विभीषिका की आपको वास्तविक थाह लेनी है तो गूगल सर्च करके देखिए।
प्रेस एजेंसियों के फोटोग्राफ्स और विवरण सारी स्थिति बयां कर देंगे। मेघालय में जिंजिरम नदी के कारण काफी तबाही हुई। करीब सवा लाख लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए। मणिपुर के लाम्फेलपेट इलाके के कई हिस्सों में नाम्बुल नदी के उफान ने बरबादी मचाई। अरुणाचल प्रदेश में लगातार बारिश तथा सियांग और संबासिरी नदियों में उफान से जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।
प्रदेश का पूर्वी सियांग और लोहित जिला अन्य हिस्सों से कट गया था। छितरी आबादी और विकट क्षेत्र के कारण बाढ़ प्रभावितों की वहां कोई मदद करने वाला नहीं था लेकिन केन्द्र सरकार ने अनदेखी की तो मीडिया भी सोया रहा। सरकार का असम की बाढ़ के प्रति नजरिया केन्द्रीय मंत्री वी.के. सिंह के बयान से ही स्पष्ट था। वी.के. सिंह 'डेवलपमेंट ऑफ नॉर्थ-इस्टर्न रीजन' (डीओएनईआर) के प्रभारी मंत्री हैं।
प्रेट्र के संवाददाता ने जब उनसे असम में बाढ़ के हालात के बारे में पूछा तो उनका जवाब था- 'असम में बाढ़ कोई नई बात नहीं है।' असम सहित उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य हर वर्ष बाढ़ की विभीषिका से जूझते हैं, यह वहां के निवासियों का जज्बा है लेकिन क्या इसीलिए हमें उनकी पीड़ा से कोई सरोकार नहीं? यह कैसी संवेदनहीनता है?
देश के नागरिकों के बीच भेदभाव करने की यह कैसी मानसिकता है? इन स्थितियों में जम्मू-कश्मीर में अगर सरकार की तत्परता तथा असम में उदासीनता को जम्मू-कश्मीर राज्य में आसन्न चुनाव से जोड़कर देखा जाए तो क्या गलत है? खैर, सरकार और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक कारणों से यह विभेद करते हैं लेकिन मीडिया भी यही करे तो यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।
उत्तर-पूर्व के लोगों में यह भावना और मजबूत होगी कि सरकार तो है ही देश का मीडिया भी उनकी समस्याओं को लेकर संवेदनहीन है। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हाल ही देश के दो अलग-अलग हिस्सों में आई बाढ़ को लेकर जो रवैया अपनाया, उससे तो यह प्रमाणित भी हुआ है।