मध्यप्रदेश में पानी रोको अभियान की आयोजना बनाने वाली टीम के एक सदस्य श्री केजी व्यास से भी हमने जल संरचनाओं के तकनीकी पक्ष को लेकर विस्तृत बातचीत की। श्री व्यास मूलतः भूवैज्ञानिक हैं और पानी आंदोलन के वरिष्ठ चिंतक रहे हैं। आप म.प्र. सरकार की राज्य स्तरीय जलग्रहण कार्यक्रम समिति में सदस्य भी हैं। श्री व्यास ने उन देशों की भी यात्रायें की है जहां पानी हमारे देश के मुकाबले बहुत कम बरसता है। लेकिन बेहतर जल प्रबंधन के कारण वहां के निवासियों के चेहरे पानीदार लगते हैं। इस बातचीत के कुछ अंश के माध्यम से आप भी श्री व्यास से रूबरू होईएः
जल संवर्धन की गाईड लाईन का मूलतत्व प्रत्येक गांव में कम से कम इतने पानी का इंतजाम करना है ताकि हमारी जरुरतें पूरी हो सकें। अभी तक जितने वाटर शेड कार्यक्रम हुए उनमें प्रमुख खामियां यहीं देखने में आई है कि हम पानी तो रोकते हैं लेकिन उसका जरूरत से कोई संबंध नहीं होता। वह पानी जरुरत का मुश्किल से 5 या 10 प्रतिशत होता है। परिणाम यह होता है कि वाटर शेड प्रोग्राम तो हो जाता है लेकिन लोगों की तकलीफें कम नहीं होतीं। पानी रोको कार्यक्रम में हमने गांव को इकाई माना। प्रत्येक गांव में इतनी संरचनाएं बनाएं कि जितना पानी रोके, चाहे वह जमीन के ऊपर हो या जमीन के नीचे, हमारी जरूरतों के साथ मेल खाए। अनेक लोगों को यह भ्रांति रहती है। कि जितना पानी हम डालते है उतना हम निकाल पाते हैं। चट्टानों के गुणधर्म इसको नियंत्रित करते हैं। अगर आपने 100 यूनिट पानी जमीन में डाला है तो आप केवल 2 यूनिट पानी ही निकाल पायेंगे। ऐसी स्थिति में हमारा सोच यह होना चाहिए की जमीन के नीचे जिन चट्टानों के नीचे पानी भर जाता है या जिन चट्टानों में पानी सोखने की ताकत होती उनको तो पूरा जमीन के नीचे जिन चट्टानों के नीचे पानी भर जाता है। या जिन चट्टानों में पानी सोखने के ताकत होती उनको तो पूरा पानी से भरकर रखें। इसके साथ ही तालाबों की श्रृंखला भी बनाएँ ताकि जितना पानी हम जमीन से नीचे से निकालते हैं उतना पानी तालाबों के माध्यम से पुनः नीचे पहुँच जाये। अगर हम ऐसा कर सकें तो पर्याप्त जल उपलब्ध करा सकेंगे।प्रदेश में पानी के मामले में पिछले पांच-छह सालों से जितनी चर्चा गांवो की हुई है उतनी शहरों की नहीं सरकार ने इस साल गर्मी में शहरों पर ध्यान दिया है। प्रदेश के पांच प्रमुख शहरों, इंदौर, भोपाल, जबलपुर, रायपुर और रीवा में नागरिकों और नगर पालिकाओं को जोड़कर इनकी शुरुआत की गई। इंदौर में पानी का संकट बहुत गहरा है। यहां नर्मदा का पानी तो हम ला रहे हैं लेकिन उसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। परिणाम स्वरुप इंदौर नगर निगम पर वित्तीय बोझ बढ़ रहा है। हमें नया विकल्प भी चुनना चाहिए। इन्हें उपयोग में लाते रहें, परंतु उसमें हमारी आर्थिक स्थिति इतनी खराब न हो कि हम दूसरे विकास कार्य न कर पाये। मेरा सोच है कि इंदौर की वसाहट बेसाल्टिक चट्टान पर है। यह चट्टान काले रंग का पत्थर होता है जिसमें कच्चा और पक्का दोनों का मिश्रण होता है। कच्चे पत्थर को ‘कोपरा’ और मुरम भी कहते हैं। इस काले पत्थर में वहीं एक ‘लेयर’ (परत) होता है। जिसमें पानी समा सकता है। इस परत को अगर हम किसी तालाब से या किसी और और साधन से जोड़ दें तो बहुत बड़ी मात्रा में पानी इकट्ठा हो जाता है।
शहरों में प्रत्येक कॉलोनी में बगीचे और धर्मशालाएँ होती हैं। वहां विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ होती हैं। यहीं पर या कॉलोनी में एक ऐसी जगह का भी निर्माण किया जाए, जहां वर्षा का पानी रोका जा सके। यह इंतजाम होने पर कॉलोनी का सारा पानी कॉलोनी में रुक जायेगा। वहां जितने भी कुएं और नलकूप हैं उसमें बरसात के बाद भी पानी मिलेगा। ऐसे प्रयासों से नागरिकों की पानी को लेकर नगरपालिका पर निर्भरता खत्म होगी। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि कालोनियों से बहता हुआ पानी शहर के निचले हिस्सों की ओर जाकर तंग बस्तियों में बाढ़ की स्थिति पैदा करता है। इस बाढ़ के कारण सम्पत्ति के नुकसान के साथ-साथ नागरिकों और जिला प्रशासन को भी समस्या का सामना करना पड़ता है। अगर नगर पालिकाएं इस दिशा में सोचें तो बहुत सारे शहरों की जल समस्या निपट सकती है। मालवा में तो जल संकट से निपटने का यह बहुत सरल और उपयोगी तरीका हो सकता है। हम पानी की उपलब्धता बढ़ाने के समय मांग और पूर्ति के सिद्धांतों की अवहेलना करते हैं। हम एक छोटी सी संरचना बनाकर यह मान लेते हैं कि हमारी जरुरतों की पूर्ति हो गई है। जबकि होना यह चाहिए कि हमारी आवश्यकता जितनी है उसी प्रकार जलग्रहण संरचनाओं का निर्माण होना चाहिए। कोशिश यह होनी चाहिए कि अगले पांच-दस साल में बढ़ने वाली आबादी के मान से यह निर्माण हो। अभी यह हो रहा हे कि नलकूप रिचार्ज कर दो, समस्या हल हो जाएगी। जहां तक गांव का सवाल है, तो वहां का रकबा करीब हजार एकड़ के आसपास होता है। बसाहट मुश्किल से 5 से 10 प्रतिशत इलाके में होती है। 70 से 80 प्रतिशत इलाका खेती का होता है। इसके अलावा चरनोई और बाकी काम की जमीन होती है।
गांव में यह प्रयोग होना चाहिए कि हमारे जितने भी खेत हैं, प्रत्येक खेत को एक ‘केचमेंट’ (जलसंग्रहण क्षेत्र) मान लें। अगर खेतों में से बहकर निकलने वाली बूंदों को वहीं रोक लें उसके लिए एक या दो छोटे कच्चे कुएं बना लें और उसमें सारा पानी रिसाने की कोशिश करें। ऐसा होने पर जितने कुएं और खेत हैं, उसमें पानी का बहुत ज्यादा इजाफा होगा। परंतु गांव के भी पानी के गणित को समझना होगा। हमें कितने पानी की जरूरत है और कितना पानी मिल रहा है। और कितने की आवश्यकता है एवं कितना इंतजाम हमने किया है, इसका ठीक-ठाक से आंकलन होना बेहद जरुरी है। जब तक पानी रोकने के कार्यक्रम में पानी के गणित को नहीं समझेंगे, तब तक पानी के संकट से मुक्त नहीं हो पायेंगे।
पानी रोको अभियान की प्रेरणा आस्ट्रेलिया से मिली। वहां पाया कि बहुत सारे इलाके ऐसे थे जहां दो वर्ष से पानी नहीं गिरा था और फिर भी पानी का कोई संकट नहीं था। उन लोगों ने बरसात के पानी को इस तरह से सहेजा है कि मुश्किल से 10 प्रतिशत पानी बहकर निकलता है। शेष सारा का सारा पानी जमीन के नीचे रिसाने की कोशिश की गई। इसके कारण वहां के निवासियों को 2 साल भी पानी नहीं गिरने पर खेती और कृषि कार्य में कोई परेशानी नहीं होती है। वहां से प्रेरणा लेकर प्रदेश में इस दिशा में कार्य करने की सोचा। इसके लिए पानी रोको अभियान की आयोजना को मूर्त रूप दिया गया। पानी रोकने की कोशिश घर से शुरु करनी चाहिए। उसके बाद खेत, खलिहान, नालों आदि जगहों पर करना चाहिए। इतना पानी रोकें जो हमारी जरूरत से सवा या डेढ़ गुना ज्यादा हो। प्रदेश में इस साल जो काम हुआ है वह सिर्फ अभी लोगों में इस कार्य के प्रति चेतना जागृति करने और समझाईश देने तक सीमित है। अनेक लोग सोचते हैं कि पानी रोको अभियान के बाद अब तो बहुत पानी हो गया होगा। लेकिन यह बात सही नहीं है। क्योंकि इस साल मात्र हमारा यह उद्देश्य था कि लोगों तक यह संदेश जाए। एक बार लोग इस कार्य से परिचित हो जाएं, फिर इस कार्य में तकनीक का समावेश किया जायेगा। उसके बाद तीन-चार साल में हम पानी के मामले में आत्मनिर्भर होने लगेंगे। अगर इस कार्य में सरकार अकेले कोशिश करती है तो वह पूरी तरह से सभी गांवों में इसे लागू नहीं कर पायेगी। क्योंकि 52 हजार गांवों में पानी रोकने के लिए जितनी मशीनरी, अमला व संसाधन चाहिए वह सरकार के पास नहीं है। इसलिए समाज जब तक इस काम में आगे नहीं आयेगा तब कुछ नहीं हो सकता।
भारत का सनातन काल से पानी के लिए व्यापक जनभागीदारी का चरित्र रहा है। चाहे वह जैसलमेर में देखने को मिले या लद्दाख में। राजा, महाराजा, समाज की केवल मदद करते थे। समाज स्वप्रेरणा से आगे बढ़ता था, अपनी इच्छाशक्ति व संसाधनों से अपनी जरूरतों को पूरी करता था। पिछले कुछ सालों से हम तालाबों को तो भूल गये और स्टापडेम की अवधारणा अपना ली। इससे नुकसान यह हुआ कि हम नाले में पानी तो रोक लेते हैं, जिसमें लंबाई का लाभ तो मिल जाता है। लेकिन चौड़ाई और गहराई का उतना लाभ नहीं मिल पाता। इससे अधिक राशि खर्च करके कम मात्रा में पानी रोकते हैं। अब हम जलसंकट की भयावहता को भोग रहे हैं और आर्थिक परेशानियां भी हैं। तब ऐसी जलग्रहण संरचनाओं का निर्माण करें, जिससे खर्च तो कम से कम आए लेकिन पानी ज्यादा से ज्यादा रुकता हो। साथ ही गांव वाले इनके निर्माण की तकनीक से परिचित हों। इसके लिए उन्हें किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़े। क्योंकि जितनी जटिल इंजीनीयरिंग संरचना होगी, गांव का आदमी उससे उतना ही दूर होगा।
यह सभी जानते हैं कि तालाब खोदने की तकनीक से गांव वाला अपने आपको परिचित पाता है। इसलिए वह सहर्ष तैयार हो जाता है। मप्र. में जो पानी रोको अभियान चलाया गया है, यह शुरुआत थी लोगों को परिचित कराने की। अब जो प्रयास होना चाहिए वह समाज की ओर से होना चाहिए। सरकार की भूमिका इसमें सिर्फ सहयोग की होनी चाहिए। तभी 52 हजार गांवों में काम कर पानी का संकट दूर कर पायेंगे। पानी रोको कार्यक्रम के माध्यम से कोशिश की है। कि इससे संपूर्ण समाज जुड़े। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार है उसी प्रकार हर व्यक्ति को पर्याप्त पानी का भी अधिकार है। शिक्षा के अनुरुप पानी का भी लोकव्यापीकरण हो। बूंद हमारी मनुहार नहीं करें, हम बूदों की मनुहार करें, उन्हें आमंत्रित करें।
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