इन्दौर की मिसाल

Submitted by admin on Sun, 02/14/2010 - 15:22
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क्रांति चतुर्वेदी

बूंद-बूंद पानी की कीमत क्या है? लम्बे समय तक समाज की इनके प्रति उपेक्षा भरी नजरें और व्यवस्था के अहं की विकरालता के आगे इन नन्हीं बूंदों को बह जाने देने की तुच्छ सी समझी जाने समस्या को नजरअंदाज करने का खामियाजा इन्दौर जैसे महानगर के समाज और सरकार को भी अब समझ में आने लगा है। तथाकथित प्रगतिशीलता का बाना ओढ़े हमारा समाज जंगल, बूंद और तालाब, कुएं, बावड़ियों की चिंता की तरफ, भला, क्यों ध्यान देता......। हमारी सरकारों ने जब देखा कि इन्दौर में बढ़ती आबादी के साथ भयावह जल संकट दस्तक देने वाला है तो उन्होंने इसका ‘फास्ट फूड’ फार्मूला खोज निकाला। करोड़ो रुपए पानी के इंतजाम में फूँके जाने लगे। लगभग 25 साल पहले ‘नर्मदा लाओ, इन्दौर बचाओ’ के नारे पर अमल करते हुए इन्दौर से 70 किमी. दूर मंडलेश्वर के पास जलूद में बहती नर्मदा के हाथ जोड़कर उसे इन्दौर न्यौता गया। 70 किमी की पाइप लाइन डाली गई। 5 स्टेट पंपिंग द्वारा नर्मदा को पहाड़ों की चुनौती स्वीकारते हुए इन्दौर लाया गया। इस योजना के संचालन और संधारण पर भारी लागत आई। इन्दौर के जलप्रदाय प्रबंधन में मौटे तौर पर देखा जाए तो 35 करोड़ रुपये की राशि विद्युत खपत में खर्च होती है। 7 करोड़ रुपये संचालन, संधारण एवं रसायनों, विभिन्न विद्युत यांत्रिकी कार्यों, जल वितरण प्रणाली के संचालन, संधारण में व्यय होती है। 7 करोड़ रुपये नर्मदा प्रोजेक्ट के वेतन भत्तों व अन्य मदों में खर्च होते हैं। इसी तरह 10 करोड़ रुपये यशवंत सागर, बिलावली व नलकूपों के संचालन-संधारण पर खर्च होते हैं। इस प्रकार 58 से 60 करोड़ के लगभग राशि प्रति वर्ष खर्च हो जाती है। जबकि जलकर बमुश्किल 10 करोड़ रुपये तक ही प्राप्त हो पाता है। तब इन्दौर को पानी पिलाने के लिए राशि की व्यवस्था कहां से करें? यह प्रश्न पिछले दिनों इसलिए भी सूर्खियों में आया क्योंकि विद्युत मंडल ने अपने 400 करोड़ रुपये की बकाया राशि अदा नहीं करने के कारण नर्मदा परियोजना की बिजली काट देने की धमकी दे दी थी। यद्यपि न्यायालय की व्यवस्था के बाद मामला सुलझा तथापि यह इन्दौर के सामने एक अहम् प्रश्न छोड़ गया है कि पाइप के माध्यम से घर बैठे नर्मदा के पानी का आनंद लेने वाली व्यवस्था और समाज हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठा रहा। शहर को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमारे कुए, बावड़ियां, नलकूप रिचार्जिंग, तालाबों का रख-रखाव और नये तालाब निर्माणों पर अपेक्षित ध्यान क्यों नहीं दिया गया। सूखे के संकट के चलते अब पानी को लेकर हमारे विचारों में भी नई कोपलें आ रही हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह जो मध्यप्रदेश में वर्षा बूंदों को रोकने की दिशा में एक जेहाद छेड़े हुए हैं, ने साफ शब्दों में कहा है कि इन्दौर में करोड़ो की लागत वाली नर्मदा परियोजना के तृतीय चरण की उम्मीद यहां के लोग छोड़ दें। समाज और व्यवस्था इस बात में जुट जायें कि इन्दौर के आसपास पुरानी जल संरचाओं, कुए और बावड़ियों का उचित संधारण और साफ-सफाई करके कैसे हम पानी के मामले में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर सकते हैं....।

सरदार सरोवर परियोजना से उपजा नर्मदा घाटी का दर्द और इन्दौर महानगर की जल प्रदाय व्यवस्था हमारे समाज के सामने दो मिसाल हैं – लेकिन इनकी ध्वनि का संकेत एक ही है कि बूंदो की उपेक्षा हमें कितनी भारी पड़ती है। जिस तरह हमारी आजादी के पीछे अनगिनत लोगों की कुर्बानियां उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत की जाती हैं। जलप्रंबंधन के क्षेत्र में भी कुछ ऐसी ही उदाहरण देने होंगे। तीन-चार राज्यों के वृहद समाज ने अपने गांव में और खेत का पानी खेत में रहने देने के लिए नियोजित प्रबंध नहीं किया तो इसका खामियाजा ‘सरोवर’ की विशाल जल राशि नर्मदा घाटी के गांवों में भर जाने के रूप में हमारे सामने है। तब क्या विस्थापन को ‘कुर्बानी’ के तौर पर लेकर शेष समाज बूंदों के महत्ता समझते हुए इसे एक ‘सबक’ के रूप में स्वीकार करेगा? बांध के विरोध और समर्थन में दोनों पक्षों की ओर से अनेक अकाट्य तर्क दिए जाते हैं। इस मुद्दे पर भी व्यापक बहस की गुंजाइश है। लेकिन नर्मदा घाटी में अपनी झोपड़ी के सिर से कवेलू उतारकर किसी दूरस्थ स्थान पर इसे ‘सेट’ करते किसी आदिवासी के चेहरे से बतियाने पर उसकी भूमिका का संभवतः ईमानदारी से चयन किया जा सकता है...।

नर्मदा घाटी ने इस यात्रा में हमें एक संदेश यह भी दिया है-

“जागो-समाज-जागो !
जैसे भी हो सके,
इन बूंदों को रोको!!
अकाल के बढ़ते शिकंजों को रोकने फिर किसी समुद्र को
फिर किसी समुद्र को
नदी, नालों में न आना पड़े।
यह धारा उलटी है।
ना.....ना....।
तुम्हारे लिए तो ये बूंदे ही भली हैं.....।
इन्हें रोको, इन्हें रोको।

............नर्मदे हर.......!