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आउटलुक, 28 अगस्त, 2017
हाल ही में गोरखपुर में हुई बच्चों की मौत पर राष्ट्रीय स्तर पर हो-हंगामा शुरू हो गया था। ऐसा शायद इसलिये हुआ क्योंकि यह घटना मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र गोरखपुर में हुई। ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी पर भी चर्चा की गयी। यह घटना वर्ष 2005 में हुई उस घटना की पुनरावृत्ति थी, जिसमें हर घंटे एक बच्चे की मौत हुई थी। मैंने राज्य सरकार से अनुरोध किया है कि प्रत्येक वार्ड को दो ऑक्सीजन विभाजक उपकरण उपलब्ध कराया जाए, जो ऑक्सीजन को कमरे में ही केंद्रित कर सके।
हाल ही में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और पुणे स्थित नतालिया इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) ने गोरखपुर में एक बैठक आयोजित की थी, तो हम में से कुछ डॉक्टर एक साथ बैठे थे। इस बैठक की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है, लेकिन बाद में सूत्रों ने संकेत दिया कि सरकार को दी गयी जाँच रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि तीव्र इन्सेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के अधिकांश मामलों की वजह स्क्रब टायफूस है। इसके शुरूआती संकेत बुखार, सिरदर्द और चकत्ते हैं। फिर क्यों मौत का मौसम के शुरू में ही गोरखपुर में एक ही छत के नीचे 100 से अधिक बच्चों की मौत एईएस के कारण हो गयी? यह तब हुआ, जब खुजली टायफूस का इलाज ऐजिथ्रोमाइसिन और डॉक्सीसाइक्लिन जैसी दवाइयों से बेहद आसानी से हो सकता है! ये दवाइयाँ सस्ती हैं और हर जगह मिल जाती हैं।उल्लेखनीय है कि इस तथ्य के खुलासे से पहले एईएस होने के पीछे दो प्रमुख कारण माने जाते थे- जापानी इन्सेफलाइटिस (जेई) और एंटेरो-वायरल। दोनों ही लाइलाज थे और इनसे मृत्यु की औसत दर 25 से 30 प्रतिशत थी। तो क्या यह माना जाना चाहिए कि एक वायरस केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपना स्वरूप बदल सकता है? कई बार वहाँ का दौरा करने और अध्ययन के बाद अमेरिका के अटलांटा के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (सीडीसी) और एनआइवी की संयुक्त टीम ने माना कि एईएस संभवत: जेई और एंटेरो-वायरल इन्सेफलाइटिस के कारण होता है।
यहाँ यह भी बता दें कि वर्ष 2005 से निरंतर प्रचार के कारण केंद्र सरकार को जापान से जेई वैक्सीन का आयात करना पड़ा। वैक्सीनेशन के कारण वर्ष 2007 और उसके बाद से कुल एईएस मामलों में जेई मामले घटकर 6-8 प्रतिशत तक आ गये थे। इसके बाद एईएस के मामलों और इससे होनेवाली मौतों में कोई बड़ी गिरावट नहीं देखी गयी। इससे यह मान लिया गया कि एटीओ के अधिकांश मामलों के लिये एंटेरो-वायरल इन्सेफलाइटिस जिम्मेवार था। यदि अब बिना किसी अध्ययन और शोध के कुल एईएस मामलों के दो-तिहाई हिस्से के लिये स्क्रब टाइफूस को जिम्मेवार मान लिया जा रहा है, तो फिर इन बीमारियों से हो रही मौतों में कमी क्यों नहीं आ रही है, जबकि इसका एंटीबायोटिक बहुत सस्ता और हर जगह उपलब्ध है।
शोध जरूरी है, लेकिन केवल शोध के भरोसे नहीं रहा जा सकता है। एईएस के मामलों और मौतों की वजहों की पड़ताल कर सही निवारक कदम उठाये जाने चाहिए।
वर्ष 1977 के बाद से एईएस के कारण हर साल देश के 19 राज्यों के हजारों लोग मारे जा रहे हैं। यूपी का पूर्वांचल इससे बुरी तरह प्रभावित है।
मुझे संदेह है कि एईएस के तीन-चौथाई मामलों की वजह एंटेरो-वायरल इन्सेफेलाइटिस है। सीडीसी टीमों ने भी इसकी पुष्टि की है। एंटेरो-वायरल इन्सेफलाइटिस का न तो कोई वैक्सीन है और न ही कोई इलाज। यह मानव और पशु मल के माध्यम से संक्रमित होता है।
भारत की आबादी करीब 120 करोड़ है। इस आबादी का 50 प्रतिशत हिस्सा अभी भी खुले में शौच करता है। बारिश के पानी में बहकर मल खेतों में जाता है और वहाँ से दरारों के माध्यम से वह भूगर्भ में मौजूद वाटर टेबल तक पहुँच जाता है। इससे बचने के लिये हर 10 घरों पर एक स्वच्छ शौचालय और साफ पानी की व्यवस्था की जानी चाहिए। मुख्यमंत्री ने कहा है कि वह यह सुनिश्चित करेंगे कि सन 2018 तक यूपी के हर घर में शौचालय हो। अगले वर्ष तक इस वादे के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से को पूरा करने से स्वास्थ्य जोखिम बहुत कम हो जाएगा।
एईएस के खिलाफ हमारा स्व-वित्तपोषित अभियान 2005 में शुरू हुआ था। हमने महसूस किया कि इस समस्या का समाधान एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के माध्यम से ही किया जा सकता है। इसको ध्यान में रखते हुए हमने 75 पृष्ठों का एक राष्ट्रीय इन्सेफलाइटिस उन्मूलन कार्यक्रम तैयार किया और वर्ष 2006 में यूपीए सरकार को भेजा था। हालाँकि इस पर प्रतिक्रिया नहीं के बराबर हुई, इसलिये हमने अपने संसाधनों का उपयोग कर इस स्कीम को ‘पायलट प्रोजेक्ट’ के रूप में शुरू किया। यह वर्ष 2010 की बात है। हमने यह स्कीम नेपाल सीमा पर कुशीना-गाड़ और गोरखपुर के बीच भोलिया गाँव में शुरू किया था। मीडिया ने इस पहल को पूर्वांचल का दांडी मार्च करार दिया था।
वर्ष 2012 में यूपीए-2 सरकार ने आखिरकार अलग नाम (इन्सेफलाइटिस और एईएस की रोकथाम व नियंत्रण के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम) से एक योजना लागू की। एईएस से निबटने के लिये 4,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये। चूँकि यह एक असाध्य बीमारी है, इसलिये निवारक उपायों और जागरूकता पर काम करने के लिये सरकार जमीनी स्तर पर अधिक से अधिक लोगों को लगाना चाहिए था। लेकिन, सरकार ने फंड (लगभग 2500 करोड़ रुपये) टीके के निर्माण के लिये फार्मा कम्पनियों को देने और आईसीयू बनाने तथा उपचार केन्द्रों में अन्य बुनियादी ढाँचे को मजबूत करने के लिये खर्च करने का फैसला किया। ऐसा नहीं कहा जा सकता है, कि इस योजना में किस तरह की कोई गड़बड़ी हुई, लेकिन इसका क्रियान्वयन ठीक तरीके से नहीं हुआ।
बहरहाल, उपरोक्त के अलावा एईएस के कई अन्य कारण हैं, लेकिन वे कारण दुर्लभ हैं। यहाँ जो तीन कारण बताये गये हैं, वे ही इनकी प्रमुख वजहें हैं। हालाँकि इसको लेकर एक बात यह भी सामने आयी थी कि लीची खाने से इन्सेफलाइटिस होता है। लोगों में इसकी खूब चर्चा हुई थी, लेकिन इसका अब तक कोई सबूत नहीं मिला है।
गौर करनेवाली बात है कि दिल्ली में डेंगू से मौत पर हमेशा अलर्ट जारी हो जाता है। लेकिन, पूरे देश में पिछले 40 सालों में डेंगू से जितने लोगों की मौत हुई है वह पूर्वी उत्तरप्रदेश में एईएस से हर वर्ष होनेवाली औसत मौत से कम होगी। दिल्ली में डेंगू के मच्छर कूलर में पाये जाते हैं। डेंगू के मामलों में अधिकतम मृत्यु दर पाँच प्रतिशत या उससे अधिक है जबकि औसत मृत्यु दर 1-2 प्रतिशत के आस-पास है। वहीं, पिछले 40 वर्षों में इन्सेफलाइटिस से मौत की दर 30 प्रतिशत थी।
गोरखपुर में लोगों को स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करने के तरीके में कुछ बदलाव की जरूरत है। यहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं को सबके लिये बराबर का दर्जा देना चाहिए। केंद्र ने वर्षों से इसको लेकर किसी भी तरह का लगातार प्रयास नहीं किया है। क्या ऐसा इसलिये है कि प्रभावित होने वाले छोटे बच्चे हैं और वह भी गरीब किसानों के? डब्ल्यूएचओ द्वारा इस दिशा में एकमात्र कदम उठाया गया था कि सीडीसी टीम को मौके पर कई बार भेजा गया था, लेकिन इससे बहुत लाभ नहीं मिला। मेरे खयाल में इस समस्या का एकमात्र समाधान एक वृहत्तर राष्ट्रीय कार्यक्रम है। ठीक उसी तरह का कार्यक्रम जिसने पोलियो और स्मॉल पॉक्स को समाप्त कर दिया।
हाल ही में गोरखपुर में हुई बच्चों की मौत पर राष्ट्रीय स्तर पर हो-हंगामा शुरू हो गया था। ऐसा शायद इसलिये हुआ क्योंकि यह घटना मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र गोरखपुर में हुई। ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी पर भी चर्चा की गयी। यह घटना वर्ष 2005 में हुई उस घटना की पुनरावृत्ति थी, जिसमें हर घंटे एक बच्चे की मौत हुई थी। मैंने राज्य सरकार से अनुरोध किया है कि प्रत्येक वार्ड को दो ऑक्सीजन विभाजक उपकरण उपलब्ध कराया जाए, जो ऑक्सीजन को कमरे में ही केंद्रित कर सके। ऑक्सीजन की आपूर्ति में रोक के कई अन्य कारण हो सकते हैं, जिनके मद्देनजर ये उपकरण लाभकारी साबित हो सकेंगे।
इन्सेफलाइटिस तीन प्रकार के होते हैं।
जापानी इन्सेफलाइटिस
इसका वायरस सूअरों में पाया जाता है और इनकी संख्या में गुणात्मक इजाफा होता है, लेकिन ये अपने होस्ट को प्रभावित नहीं करता है। जब एक मच्छर सूअर को काटता है, तो सूअर के शरीर में मौजूद इन्सेफलाइटिस का वायरस मच्छर के शरीर में चला जाता है। मच्छर मनुष्य को काटता है, तो यह वायरस मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाता है। कमजोर शरीरवालों के शरीर में यह तेजी से फैलता है। यह बीमारी 2-3 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों के लिये बेहद खतरनाक है।
लक्षण : ऐंठन, तेज (104 से 106 डिग्री) बुखार, सिरदर्द, उल्टी, शरीर में दर्द, दौरा/आक्षेप पड़ना और कोमा में चला जाना। यह एक-दो दिनों में ही असर दिखाना शुरू कर देता है।
इलाज : नहीं
वैक्सीन : उपलब्ध
रोकथाम : बच्चों को धान के खेतों से दूर रहने (खासकर सुबह और शाम के वक्त) की सलाह दी जाती है, क्योंकि धान के खेत में मच्छर पनपते हैं।
इंटेरो-वायरल इन्सेफलाइटिस
मानव मल में कई तरह के वायरस मौजूद होते हैं। मल में मौजूद वायरस पेयजल में पहुँच जाते हैं, जिससे यह बीमारी होती है।
लक्षण : चार-पाँच दिनों के लिये हल्का बुखार होता है जो जई के लक्षणों की तरह बढ़ जाता है।
इलाज : नहीं
वैक्सीनेशन : नहीं
रोकथाम : साफ पेयजल और हर घर के लिये साफ शौचालय जरूरी है। इसके साथ ही खुले में शौच के कारण बारिश में मल के भूगर्भ जल तक पहुँचकर उसे दूषित करने से रोकने के उपाय किये जाने चाहिए।
स्क्रब टायफूस
झाड़ियों में मौजूद कीड़े के काटने से परजीवी शरीर में प्रवेश कर जाता है, जिससे यह रोग होता है।
लक्षण : इसके लक्षण करीब-करीब जेई जैसे होते हैं। साथ ही कफ और चकत्ते भी हो जाते हैं। अन्य लक्षण वायरस के असर पर निर्भर करते हैं।
इलाज : एंटीबायोटिक : एजिथरोमाइसिन और डॉक्सीसाइक्लिंग
वैक्सीनेशन : नहीं
रोकथाम : डॉक्टर इसकी रोकथाम के बारे में सीख रहे हैं।
(लेखक इन्सेफलाइटिस इरैडिकेशन मूवमेंट के चीफ कैंपेनर हैं। इन्सेफलाइटिस इरैडिकेशन मूवमेंट स्व-पोषित अभियान है जिसे वर्ष 2005 में शुरू किया गया था।)
(अनुवाद – उमेश कुमार राय)