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बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झांसी से भूगोल विषय में पी.एच.डी. की उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध प्रबंध - 2008-09
पेयजल के क्षेत्र में :
स्वच्छ एवं पर्याप्त पेयजल की उपलब्धता स्वस्थ मानव और सभ्य समाज की न केवल आधारभूत आवश्यकता है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का मूलभूत अधिकार भी है। हमारे संविधान में पेयजल की आपूर्ति विषयक प्राविधान सातवीं अनुसूची के भाग-दो में देते हुए इसे राज्य सरकारों के दायित्वों के अंतर्गत राज्य का विषय रखा गया है। प्रत्येक जनपद की सीमा के अंतर्गत सभी शहरी एवं नगरीय बस्तियों में शुद्ध एवं पर्याप्त पेयजल व्यवस्था सुनिश्चित करना संबंधित राज्य सरकारों का दायित्व है तथा केंद्र सरकार राज्य सरकार द्वारा किये गये तत्संबंधी प्रयासों के लिये आर्थिक सहायता प्रदान करती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सामान्यत: शहरी क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु व्यापक प्रयास किये गये, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों की ओर सरकार द्वारा यथोचित ध्यान देना बाद में प्रारंभ किया गया। अत: शहरी क्षेत्रों की तुलना में हमारे ग्रामीण क्षेत्र शुद्ध पेयजल की आपूर्ति में पिछड़े रहे हैं। पिछले दो तीन दशकों में ग्रामीण क्षेत्र में सभी ग्राम वासियों को पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न पेयजल योजनाओं एवं कार्यक्रमों को प्रभावपूर्ण तरीकों से संचालित किया जा रहा है।
मनुष्य के पीने, खाना बनाने, स्नान करने, बर्तनों की सफाई एवं घर की धुलाई तथा शौच व्यवस्था आदि हेतु जल की आवश्यकता होती है। परिणामत: शुद्ध एवं स्वच्छ जल के स्रोत सदैव से मानव आकर्षण के केंद्र रहे हैं। घरेलू कार्यों में जल के उपयोग की मात्रा यद्यपि तुलनात्मक रूप से कम है, फिर भी जल के इस उपयोग का महत्त्व अत्यधिक है। जनपद के निवासी तम्बू, झोपड़ी, कच्चे पक्के छोटे बड़े मकान बनाकर जलस्रोतों के सहारे ग्राम तथा नगरों में निवास कर रहे हैं। इस क्षेत्र में परिवार के रहन-सहन का स्तर तथा ग्रामीण नगरीय बस्तियों के अनुसार जलापूर्ति प्रतिरूप में प्रर्याप्त भिन्नता मिलती है। जो निम्नांकित वर्णन से स्पष्ट है।
ग्रामीण बस्तियों में जल का उपयोग :
पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने की दिशा में वैज्ञानिक सोच एवं सुधरी तकनीकि प्रयोग में लाने के लिये राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन की स्थापना की गयी। इस मिशन की स्थापना के बाद से मिशन की सिफारिसों के आधार पर सरकार द्वारा राजस्व गाँवों के स्थान पर ग्रामीण बस्ती को मानक के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रत्येक बस्ती में कम से कम एक जलस्रोत जहाँ स्वच्छ जल की पर्याप्त मात्रा में निरंतर उपलब्धता सुनिश्चित रहे, मानक के आधार पर जलापूर्ति सुनिश्चित करने पर बल दिया गया है। पेयजल आपूर्ति के लिये केंद्र सरकार द्वारा वहाँ की आवश्यकता का आकलन करने हेतु औसतन 40 लीटर स्वच्छ पेयजल प्रति व्यक्ति के हिसाब से मानक निर्धारण किया गया है। स्वच्छ पेयजल वह है जो जैविक तथा रासायनिक प्रदूषण मुक्त हो। 12 लीटर पानी प्रतिमिनट की दर से निष्कासित होकर प्रत्येक 250 लोगों को जलापूर्ति के लिये पर्याप्त समझा जाता है। पेयजल आपूर्ति की आवश्यकता का आकलन करने हेतु निम्नांकित आवश्यकताओं को उनके सम्मुख अंकित प्रति व्यक्ति की दर से जल की मात्रा के आधार पर मानक का निर्धारण किया गया है।
अध्ययन क्षेत्र एक कृषि प्रधान जनपद है। यहाँ की 1030789 जनसंख्या ग्रामों में निवास करती है। जो जनपद की कुल जनसंख्या का 76.99 प्रतिशत है। ग्रामों की कुल संख्या 694 है जो जनपद के दूरस्थ एवं दुर्गम स्थानों तक बिखरे हुए हैं। यह किसी न किसी जलस्रोत के सहारे बसे एवं विकसित हुए हैं। इन बस्तियों में घरेलू कार्यों के लिये कुओं एवं हैंडपंपों के जल का उपयोग किया जाता है। क्योंकि यहाँ की स्थानीय परिस्थितियाँ इसके अनुकूल हैं। तथा जिन स्थानों की परिस्थितियाँ हैंडपंप और कुओं के अनुकूल नहीं है वहाँ नहर, तालाब एवं नदियों के जल का उपयोग भी किया जाता है। जनपद के बीहड़ी क्षेत्र अथवा दक्षिण दिशा में जल तल नीचा एवं धरातलीय बनावट जल निकासी के अनुकूल न होने से भौम जल प्राप्ति में कठिनाई होती है। अत: बरसाती नदी नालों अथवा मानव निर्मित छोटे-छोटे जलाशयों से जलापूर्ति होती है। कहीं-कहीं ऐसे ग्रामों में काफी दूर से पानी लाना पड़ता है। अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में खुले हुए जलस्रोतों के आस-पास दूषित पर्यावरण होने के कारण जलपूर्णरूपेण स्वच्छ नहीं मिल पाता है। सूखा एवं बहुत कम वर्षा जैसी स्थिति बनने पर इन लोगों को पशुओं के साथ दूसरे स्थान पर प्रवास करना पड़ता है।
जनपद के अधिकांश ग्रामीण अंचलों में जलापूर्ति की व्यवस्था व्यक्तिगत साधनों से होने के कारण उसकी मात्रा के आंकड़े उपलब्ध नहीं हो सके हैं। जलस्रोतों के अभाव में जहाँ जलापूर्ति में कठिनाई है, वहाँ सामूहिक रूप से ग्राम पंचायतों एवं सरकार के योगदान से जलापूर्ति की व्यवस्था की गयी है। इसके साथ ही जिन ग्रामों की जनसंख्या अधिक है एवं जलस्तर ऊँचा है तथा वहाँ शासकीय कार्यालय एवं संस्थाएँ होने से वहाँ लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग एवं अन्य संस्थाओं द्वारा जलापूर्ति की व्यवस्था की गयी है।
जिनमें चकरनगर, उदी, महेवा, अहेरीपुर, ताखा आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त जनपद के अन्य भागों में भी जलापूर्ति के प्रयास किये गये हैं। सन 1971 में जनपद इटावा की ग्रामीण जनसंख्या 998317 थी जो वर्तमान में 1030789 है। अत: इस जनसंख्या को 40 लीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन की दर से 10892231 गैलन जल की आवश्यकता पड़ रही है। यदि हम विकासखंड वार पेयजल के उपयोग का अवलोकन करें तो पायेंगे कि जनपद में सबसे अधिक 2017652 गैलन जल का उपयोग महेवा विकासखंड में हो रहा है। मध्यम श्रेणी के पेयजल उपयोग वाले विकासखंड भर्थना, जसवंतनगर, बसरेहर, बढ़पुरा एवं ताखा का स्थान आता है। जो पेयजल आपूर्ति में क्रमश: 1534100.7, 1524590.5, 1496989.8, 1399806.1 एवं 1161882.1 गैलन जल का उपयोग कर रहे हैं। निम्न पेयजल उपयोग में जनपद के दो विकासखंड सैफई एवं चकरनगर आते हैं, जो क्रमश: 990212.42 एवं 966997.5 गैलन जल का उपयोग करते हैं। उपरोक्त विवरण तालिका क्रमांक 8.2 में वर्णित किया गया है –
अध्ययन क्षेत्र के प्रत्येक भाग में सुविधापूर्वक जल उपलब्ध न होने से जल प्रदाय की समस्या है। भविष्य में जब यह संख्या बढ़कर दोगुनी हो जायेगी तब लगभग 100 मिलियन गैलन जल की प्रतिदिन आवश्यकता होगी। उस समय यह समस्या और भी अधिक जटिल हो जायेगी।
नगरीय बस्तियों में घरेलू जल प्रदाय :
नगरों की सघन जनसंख्या के लिये बड़े-बड़े सुरक्षित जलभंडार एवं विस्तृत जल व्यवस्था की आवश्यकता के अनुरूप न होने से घरेलू जलापूर्ति में कठिनाई होती है। जो नगर नदियों के किनारे बसे होते हैं, वहाँ से जल हौजों एवं टंकियों में साफ एवं शुद्ध किया जाता है अन्य नगरों में नलकूपों द्वारा जलापूर्ति की जाती है। अध्ययन क्षेत्र कृषि एवं ग्राम्य जीवन प्रधान है, जनपद में 6 नगर क्रमश: इटावा, भर्थना, जसवंतनगर, लखना, बकेबर एवं इकदिल है। जो जनपद की कुल जनसंख्या का 23.01 प्रतिशत ही रखते हैं। इन नगरों में नगरपालिका द्वारा जलप्रदाय व्यवस्था की गयी है। जिसमें नगरीय विकास के साथ-साथ समय-समय पर सुधार किये गये हैं। जिसका विस्तृत वर्णन अध्याय दो में दिया गया है।
नगरीय क्षेत्र में प्रति व्यक्ति पेयजल उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक है। अत: इस जनसंख्या को 30 गैलन जल प्रतिदिन की आवश्यकता होती है।
उपरोक्त तालिका संख्या 8.3 से स्पष्ट है कि सन 1991 में जनपद के नगरीय क्षेत्र इटावा, भर्थना, जसवंतनगर, लखना, बकेवर, इकदिल में जनसंख्या 207073 थी तब पेयजल का उपयोग 6113190 गैलन था, वर्तमान जनसंख्या लगभग डेढ़ गुनी हो गयी है, अत: पेयजल का उपयोग भी अधिक हो रहा है।
वर्तमान समय में इटावा, भर्थना, जसवंतनगर, लखना, बकेवर एवं इकदिल की जनसंख्या क्रमश: 210453, 38779, 10470, 13082 एवं 9965 है, जो क्रमश: 631359, 1163370, 759990, 314100, 392460 एवं 298950 गैलन जल का उपयोग कर रही है। अर्थात वर्तमान में जनपद की नगरीय जनसंख्या 308082 द्वारा 9042460 गैलन पेयजल का उपयोग किया जाता है। भविष्य में नगरीय जनसंख्या बढ़कर दोगुनी हो जायेगी, तब लगभग 18 मिलियन गैलन जल की आवश्यकता होगी। उस समय यह समस्या और अधिक गंभीर हो जायेगी।
जल संसाधनों का उद्योगों के क्षेत्र में महत्त्व :
उद्योगों को शीतलता प्रदान करने एवं अवशिष्ट पदार्थों को बहाने के लिये जल का उपयोग जनपद इटावा में भी किया जाता है। साथ ही बर्फ, रसायन, सोडा, कोल्डस्टोरेजों, आटा मिल, तेल मिल आदि में भी जल का उपयोग प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से किया जा रहा है। लघु उद्योगों में छपाई, रंगाई तथा कृषि के साथ-साथ चलने वाले कुटीर उद्योगों के संचालन में भी जल की आवश्यकता होती है। इस प्रकार जल संसाधन को पर्याप्त मात्रा में औद्योगिक उपयोग में भी लिया जाता है। अध्ययन क्षेत्र में मुख्य रूप से निम्न उद्योगों में जल का उपयोग किया जा रहा है।
कोल्ड स्टोरेज :
इस जनपद में पानी की सबसे अधिक खपत कोल्ड स्टोरेजों में होती है। आलू की कृषि यहाँ बड़े पैमाने पर की जाती है। उन्हें रखने के लिये शीत भंडारों की आवश्यकता पड़ती है। जनपद में कुल शीत भंडारों की संख्या 26 है। जिनमें प्रतिदिन 41.0 हेक्टेयर मीटर जल की आवश्यकता पड़ती है।
धान मिल :
अध्ययन क्षेत्र में कृषि फसलों में धान की खेती अधिक क्षेत्र पर की जाती है। जिसको परिष्कृत करने के लिये धान मिलों की आवश्यकता पड़ती है।
आज जनपद में धान मिलों की संख्या 75 है। जिनमें प्रतिदिन लगभग 2.5 हेक्टेयर मीटर जल की आवश्यकता पड़ती है।
बर्फ उद्योग :
जनपद के प्रत्येक नगर में बर्फ बनाने के उद्योग हैं। वर्तमान में शिक्षा एवं सभ्यता के विकास से दूरस्थ ग्रामों में भी लोग बर्फ की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं। परिणामत: बर्फ, कुल्फी और आइसक्रीम की बढ़ती हुई मांग के कारण इस उद्योग का विस्तार जनपद के संपूर्ण क्षेत्र में होता जा रहा है। बर्फ उद्योग में कच्चे माल के रूप में जल का उपयोग होता है। अत: बर्फ उद्योग में भी अनवरत जल का उपयोग बढ़ता जा रहा है।
दुग्ध अवशीतन केंद्र :
जनपद में दुग्ध अवशीतन केंद्रों की संख्या 02 है। जिनमें संपूर्ण क्षेत्र का दूध गाड़ियों के माध्यमों से अवशीतन केंद्रों पर एकत्र किया जाता है तथा बाद में बड़े-बड़े शहरों को भेज दिया जाता है। इन अवशीतन केंद्रों में प्रतिदिन 5.3 हेक्टेयर जल की आवश्यकता पड़ती है।
तेल उद्योग, आटा उद्योग एवं अन्य उद्योग :
जनपद के प्रत्येक नगर अथवा कस्बे में तेल स्पेलर और आटा चक्की आदि के कारखाने लगे हैं। जिनमें स्थानीय आवश्यकतानुसार तेल निकालने एवं आटा पीसने की मशीनें स्थापित हैं। इटावा एवं भर्थना नगरों में तेल की बड़ी मिलें है। इसके अतिरिक्त जनपद में दाल मिल, चमड़ा उद्योग एवं लकड़ी चीरने की मशीनें लगी है। जिनके संचालन में तथा मिट्टी के बर्तन और र्इंट बनाने के लिये भी जल का उपयोग किया जाता है।
भविष्य में इन क्षेत्रों में औद्योगिक विकास के लिये और अधिक जलापूर्ति की आवश्यकता होगी।
पशु पालन के क्षेत्र में जल का उपयोग :
‘जल’ जीवन की मूल आवश्यकता है, जिसके बिना किसी भी जीव का जीवन संभव नहीं है। अध्ययन क्षेत्र पशुपालन बाहुल्य है। पशुपालन में जल का महत्त्वपूर्ण योगदान है। पशुओं के द्वारा सतही एवं भूमिगत दोनों प्रकार के जल का उपयोग किया जाता है, जिसमें सतही जल अर्थात नदियों, नहरों एवं तालाबों के जल का उपयोग अधिक होता है। जनपद इटावा में प्रतिदिन प्रति पशु जल का उपयोग निम्न तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है -
तालिका संख्या 8.4 से स्पष्ट है कि इस जनपद में जल का उपयोग प्रति पशु प्रतिदिन, गाय 55 लीटर, भैंस 75 लीटर, भेड़ एवं बकरी 8 लीटर, घोड़े एवं टट्टू 45 लीटर एवं अन्य पशु 10 लीटर जल का उपयोग प्रतिदिन कर रहे हैं। जल के इस उपयोग की दृष्टि से अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न पशुओं के लिये जल का उपयोग निम्न तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है।
जनपद में वार्षिक कुल जल का उपयोग 960.98 हे. मी. है। जिसमें गायों के लिये 214.37 हे. मी. जल की आवश्यकता पड़ती है।
यदि हम विकासखंडवार गायों द्वारा जल उपयोग का अवलोकन करें तो पायेंगे कि सबसे अधिक जल का उपयोग बढ़पुरा विकासखंड में 46.29 हे. मी. किया जाता है। जसवंतनगर, भर्थना, चकरनगर एवं बसरेहर विकासखंडों में क्रमश: 37.42, 31.91, 27.17 एवं 28.95 हे. मी. जल का उपयोग किया जाता है। गायों की कम संख्या होने से सबसे कम जल का उपयोग ताखा, सैफई एवं महेवा विकासखंडों में क्रमश: 8.90, 10.96 एवं 21.76 हे. मी. किया जाता है।दुग्ध उत्पादन की दृष्टि से भैस अधिक लाभकारी होने से जनपद में भैसें अधिक पायी जाती हैं। शारीरिक बनावट में अधिक बड़ी होने के कारण अन्य पशुओं की अपेक्षा इसके द्वारा जल का अधिक उपयोग किया जाता है। जनपद में भैसों द्वारा वार्षिक जल उपयोग 403.39 हे. मी. किया जाता है। सबसे अधिक वार्षिक जल का उपयोग बढ़पुरा एवं महेवा विकासखंडों में क्रमश: 96.65 एवं 95.76 हे. मी. है तथा भर्थना, बसरेहर, ताखा एवं जसवंतनगर विकासखंडों में क्रमश: 72.63, 72.29, 65.75 एवं 53.12 हे. मी. जल का उपयोग हो रहा है। सबसे कम जल का उपयोग सैफई एवं चकरनगर विकासखंडों के द्वारा क्रमश: 34.96 एवं 39.48 हे. मी. किया जाता है।
पशुओं में जनपद में भेड़ एवं बकरियों की संख्या सबसे अधिक है। यहाँ भेड़ एवं बकरियों के द्वारा वार्षिक जल का उपयोग 68.49 हे.मी. किया जा रहा है। जिसमें सबसे अधिक जल का उपयोग महेवा एवं बढ़पुरा विकासखंडों के द्वारा क्रमश: 13.67 एवं 12.37 हे. मी. वार्षिक किया जाता है। इसी प्रकार चकरनगर, ताखा, भर्थना एवं जसवंतनगर विकासखंडों में क्रमश: 8.87, 8.10, 7.74 एवं 7.19 हे. मी. जल का उपयोग किया जाता है। सबसे कम जल का उपयोग सैफई एवं बसरेहर विकासखंडों के द्वारा क्रमश: 3.83 एवं 6.69 हे. मी. किया जा रहा है।
जनपद में घोड़े एवं टट्टू अधिक उपयोगी न होने के कारण इनकी संख्या सीमित है। फलत: संपूर्ण जनपद में घोड़ों एवं टट्टू द्वारा मात्र 2.16 हे. मी. जल का उपभोग किया जाता है। जिसमें सबसे अधिक महेवा विकासखंड में 1 हे. मी. तथा सबसे कम सैफई विकासखंड में 0.04 हे. मी. जल का उपयोग किया जाता है।
अध्ययन क्षेत्र में इन पशुओं के अलावा अन्य पशु भी है जो प्रतिवर्ष लगभग 11.79 हे. मी. जल का उपयोग करते हैं। जिसमें सबसे अधिक जल का उपयोग बसरेहर विकासखंड में 2.08 हे. मी. एवं सबसे कम चकनगर विकासखंड में 0.61 हे. मी. जल का उपयोग किया जाता है।
जनपद इटावा में पशुपालन के क्षेत्र में जल के उपयोग को निम्न संवर्ग श्रेणी में प्रस्तुत किया जा रहा है।
मानचित्र संख्या 8.1 के अवलोकन से स्पष्ट है कि बढ़पुरा विकासखंड जो जनपद के दक्षिण पश्चिम दिशा में स्थित है। पशुपालन क्षेत्र में 157.05 हे. मी. अर्थात सर्वाधिक जल का उपभोग करता है। महेवा, भर्थना एवं बसरेहर जो जनपद के उत्तर एवं उत्तरी पूर्वी भाग में अवस्थित हैं, में क्रमश: 13.92, 11.91 एवं 11.46 प्रतिशत जल का उपयोग किया जाता है। इन विकासखंडों में समतल भूमि एवं सिंचाई सुविधाओं आदि के विकास के कारण पर्याप्त मात्रा में पशुओं के लिये चारा प्राप्त होने से पशुओं की संख्या अधिक है। सैफई, चकरनगर, ताखा एवं जसवंतनगर विकासखंडों में सबसे कम क्रमश: 5.34, 8.03, 8.74 एवं 99.31 हे. मी. जल का उपयोग किया जाता है।
मत्स्य पालन के क्षेत्र में जल का उपयोग :
आदि काल से ही भोजन के लिये मछली का सहारा लिया जाता रहा है। प्रारंभ में मानव असभ्य एवं जंगली अवस्था में था, परिणामत: उस समय साधन सुविधाओं के अभाव में मत्स्य उद्योग भी अविकसित था। मत्स्य प्राप्ति एवं मत्स्य पालन और उसके उपयोग में नवीन प्राविधिकी के समावेश से मत्स्य व्यवसाय आज अन्तरराष्ट्रीय व्यवसाय बन गया है। यमुना, चंबल एवं उनकी सहायक नदियों में मीठे जल का सतत प्रवाह, जल में मलबे की न्यूनतम मात्रा एवं उपयुक्त जलवायु आदि - अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियाँ मिलने के कारण इनसे सर्वाधिक मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। जनपद के जल क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में प्रमुख रूप से ‘सफर’ मत्स्य विद्यमान है। चंबल एवं यमुना नदियों की मछली एवं मछुआ आखेट की संयुक्त नीलामी एक वर्ष के लिये सरकार द्वारा कर दी जाती है। जनपद में नदी बार मत्स्य आखेट स्थल सारणी में दर्शाया गया है।
जनपद में सबसे अधिक मत्स्य यमुना एवं चंबल नदियों पर होता है। क्योंकि ये दोनों जनपद की सबसे बड़ी नदियाँ हैं। जिसमें साल भर पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध होने के कारण सालों साल मत्स्यन का कार्य चलता रहता है। जबकि जनपद की अन्य नदियों - कुंआरी, सेंगर, अहनैया, पुरहा एवं सिरसा नदियों में, वर्ष भर पर्याप्त मात्रा में जल नहीं रहता अर्थात वे सूख जाती हैं। अत: इनका मत्स्यन मौसमी है। प्रतिवर्ष इन मत्स्य स्थलों की नीलामी हो जाती है। तदोपरांत मत्स्यन कार्य प्रारंभ हो जाता है। मछुआरे साल भर मछलियाँ पकड़ते रहते हैं। जिससे कुल उत्पादन का सही पता लगाना संभव नहीं हो पाता है।
हरदोई, रेहन, परौली, वारालोकपुर, सोठना, सरसईनावर, कुनैठा, महौरी, कुन्ड्रैल एवं मुंडेई के जलाशय जनपद में मत्स्य पालन की दृष्टि से प्रमुख हैं।
जनपद में 2004-05 में जलाशयों से कुल मत्स्य उत्पादन 2395 कुंतल था। जिनमें विभागीय जलाशयों का योगदान 50 कुंतल अर्थात 2.09 प्रतिशत है। जबकि निजी क्षेत्र के जलाशयों से 2345 कुंतल अर्थात कुल उत्पादन का 97.91 प्रतिशत का योगदान है। स्पष्ट है कि मत्स्य उत्पादन में सबसे अधिक निजी क्षेत्र के जलाशयों में मत्स्य उत्पादन है। यदि हम विकासखंड वार मत्स्य पालन की स्थिति का अवलोकन करें तो पायेंगे कि मछली का सबसे अधिक उत्पादन महेवा विकासखंड करता है। जो कुल उत्पादन का 24.01 प्रतिशत है। ताखा एवं भर्थना विकासखंड का दूसरा एवं तीसरा स्थान है। जो क्रमश: कुल उत्पादन का 23.80 एवं 21.71 प्रतिशत का योगदान करते हैं। बसरेहर, जसवंतनगर, बढ़पुरा, सैफई विकासखंड क्रमश: 12.32, 7.93, 5.64 एवं 3.97 प्रतिशत का योगदान करते हैं। सबसे कम मत्स्य उत्पादन चकरनगर विकासखंड में है। यह विकासखंड जनपद के कुल उत्पादन का मात्र 0.62 प्रतिशत का योगदान करता है।
जनपद में लगभग 60 प्रतिशत जलाशयों में ‘कार्प’ किस्म की मछलियाँ मिलती हैं। ‘कार्प’ की उप प्रजातियाँ, ‘पतला’, ‘रोहू’ और ‘मिरगल’ की मात्रा अधिक और ‘कालवासु’ कायन, ‘कार्प’ महापीर, भरेन, क्रियाट की मात्रा कम है। कार्प के अतिरिक्त यहाँ स्थानीय छोटी एवं स्थानीय बड़ी किस्म की मछलियाँ भी पकड़ी जाती हैं। जनपद के नदी, नहरों एवं जलाशयों में मत्स्य पकड़ने के लिये ‘रमनन’ चोंदी पर्सनेट एवं ट्रोलनेट जालों एवं ट्रापलर जालों का प्रयोग किया जाता है। जनपद में मत्स्य पकड़ने का कार्य उद्योग के रूप में लगभग 25 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ। वर्ष 2001 में जनपद के मत्स्य व्यवसाय से 620150 रुपये की आय हुई। जिसमें सबसे अधिक आय रुपये 342447 नदियों की मत्स्य नीलामी से हुई, जो कि कुल आय का 55.22 प्रतिशत है। दूसरा स्थान मत्स्य विक्रय (रॉयल्टी) का है। इसके द्वारा 193797/- रुपये की धनराशि प्राप्त हुई, जो कुल आय का 31.25 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त अनुमति पत्रों एवं अवैध मत्स्य की नीलामी में क्रमश: रुपये 74232 और 8128 रुपये की आय हुई जो कुल आय का क्रमश: 11.97 एवं 1.31 प्रतिशत है।
जनपद मुख्यालय पर ही मत्स्य बीज का उत्पादन किया जाता है। जिन्हें विभिन्न जलाशयों में डाला जाता है। जनपद में कृषि क्षेत्र सीमित है, जबकि जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। फलत: खाद्य समस्या भी अपना विकराल रूप लेती जा रही है। ऐसी स्थिति में जनसाधारण को खाद्य उपलब्ध कराना नितांत आवश्यक है। संभाग में खाद्य की कमी और असंतुलित भोजन को पूर्ण करने के लिये मत्स्य पालन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस दृष्टि से जलस्रोतों का अध्ययन एवं नियोजन किया जाना आवश्यक है। जनद के जलाशयों में सुव्यवस्थित जल संग्रहण वृहत रूप में मत्स्य पालन के सुअवसर प्राप्त कराने के साथ अतिरिक्त कई उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होगा। इटावा जनपद में उपलब्ध जल में मत्स्य पालन और अधिक व्यवस्थित करना खाद्य समस्या से निजात पाने में सहायक हो सकता है।
जनपद में जहाँ मत्स्य पालन से जन साधारण को विटामिन और प्रोटीन युक्त पोषाहार उपलब्ध होता है, वहीं छोटी मछलियों का शुष्क चूर्ण पशुओं और मुर्गियों के लिये पौष्टिक खाद्य होगा। साथ ही उसकी खाद कृषि एवं वनस्पति हेतु उपयोगी होगी। इसके अतिरिक्त इससे औषधियों तेल आदि का निर्माण किया जाना प्रारंभ हो सकता है। मत्स्य पालन न केवल खाद्य समस्या के समाधान तक ही सीमित है बल्कि यह स्वास्थ्य संवर्धन के साथ मलेरिया, फाइलेरिया आदि बीमारियों की रोकथाम में भी सहायक है। जल के शुद्धिकरण में भी मत्स्य पालन की भूमिका है। मत्स्य उद्योग का विकास जनपद में बेरोजगारी की समस्या के समाधान में भी सहयोगी होगा। यहाँ के मछुये सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। उन्हें समुचित रोजगार के सुअवसर प्रदान हो सकेंगे। पौष्टिक भोजन एवं रोजगार प्रदान करने के अतिरिक्त मत्स्य उत्पादन निर्यात व्यापार की वृद्धि में भी सहायक होगा।
वर्तमान में इस संभाग का मत्स्य उत्पादन संतोषजनक नहीं है। इसके तीन कारण हैं। पहला यह कि सरकार मछलियों को पकड़ने के लिये संभाग की नदियों और नहरों के ठेके नीलाम करने और अनुमति पत्र निर्गत करने के बाद जलस्रोतों से कोई मतलब नहीं रखती है। ठेकेदार अपनी अधिक से अधिक स्वार्थ सिद्धि हेतु छोटे मत्स्यों को भी पकड़कर, मत्स्य संसाधन का अनुचित शोषण करते हैं। उनके ठेके की अवधि एक वर्ष होने के कारण मत्स्य विकास की ओर उनका ध्यान ही नहीं रहता है। फलस्वरूप जनपद की नदियों में संभावित मत्स्य की मात्रा कम होती रहती है। इसके साथ ही जनपद की यमुना एवं चंबल नदियों की अंतर्प्रान्तीयता मत्स्य व्यवसाय के विकास में बाधक है। संबंधित प्रांतीय सरकारें अपना पूर्ण उत्तरदायित्व वहन नहीं करती हैं। द्वितीय जनपद के जलाश्यों में मत्स्य पालन करता है, परंतु जलाशयों से सिंचाई एवं तत्संबधी कार्यों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। मत्स्य विभाग के कर्मचारी आवास एवं अन्य साधन-सुविधा के अभाव में अपने कार्य के प्रति उदासीन रहते हैं। जिससे मत्स्य उत्पादन प्रभावित होता है। यही कारण है कि जनपद में सरसईनावर, रेहन, वारालोकपुर के जलाशयों में मत्स्य पालन की विशाल संभावना होते हुए भी उनका मत्स्य उत्पादन नगण्य है। तीसरा जनपद में निजी एवं ग्रामीण तालाबों में मत्स्य पालन करने वाले कृषक कम हैं, क्योंकि यह क्षेत्र परंपरागत रूढ़िवादी और धार्मिक विचारों का है। उपर्युक्त को दृष्टिगत रखते हुए जनपद में मत्स्य उद्योग के विकास हेतु कुछ सुझाव निम्नवत हैं -
1. सरकार को नदियों, नहरों की मत्स्य नीलामी एवं अनुमति पत्र जारी करने की प्रणाली में सुधार कर जनपद की अंत:प्रांतीय नदियों को मत्स्य पालन की दृष्टि से विभाजित कर देना अधिक उपर्युक्त होगा।
2. जनपद में प्रत्येक तहसील मुख्यालय पर मत्स्य बीज उत्पादन प्रक्षेत्र की स्थापना कर इन्हें अति आधुनिक सुविधायें प्रदान की जानी चाहिए तथा उनसे प्राप्त मत्स्य बीज को जनपद के विभिन्न जलाशयों नहरों और नदियों में नियमानुसार डाला जाना चाहिए।
3. जनपद की अधिकांश नदियों में ग्रीष्म काल में जल की मात्रा कम जो जाती है। अत: उनमें स्थान-स्थान पर एक-एक मीटर ऊँचे अवरोध बनाकर वहाँ मत्स्य बीज डालकर मत्स्य उद्योग को और अधिक विकसित किया जा सकता है। इस कार्य की देखरेख हेतु जलधाराओं के किनारे मत्स्य विभाग के कार्यालय स्थापित किए जाने चाहिए।
4. जनपद की नहरों के सहारे उपयुक्त स्थानों पर मत्स्य विभाग द्वारा जलाशय बनाये जा सकते हैं। जिनमें नहर के पानी की सुविधा उपलब्ध होगी। प्रति 20 जलाशयों पर एक मत्स्य निरीक्षक कार्यालय स्थापित किया जा सकता है तथा प्रत्येक जलाशय पर दो कर्मचारियों को देख-रेख के लिये रखा जा सकता है।
5. जनपद के बड़े-बड़े जलाशयों में मत्स्य पालन संतोषजनक नहीं है। इस हेतु जलाशयों में सर्वप्रथम मत्स्य बीज नियमानुसार एवं नियमित रूप से डाला जाना चाहिए। इसके साथ ही यहाँ कार्यरत कर्मचारियों को आवश्यक सुविधायें आकर्षक वेतनमान दिये जाने चाहिए और उनमें राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत की जानी चाहिए। जिससे वे निष्ठा एवं लगन से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें।
6. जनपद के सैकड़ों ग्रामीण तालाब जिनमें बरसात के समय पर्याप्त जल संग्रहीत हो जाता है, लेकिन उनमें मत्स्य पालन न के बराबर है। अत: मत्स्य विभाग को प्रमुख तालाबों को अपने हाथ में ले लेना चाहिए। उनमें कुछ सुधार कर मत्स्य बीज डालकर तथा नहर द्वारा इन तालाबों में जल प्रदाय कर वर्ष भर इनमें अच्छा मत्स्य पालन किया जा सकता है। इसके साथ ही ग्रामीणों में मत्स्य पालन के महत्त्व का व्यापक प्रचार किया जाना चाहिए।
7. मत्स्य प्रजनन की समयावधि में उनकी पकड़ पर रोक लगाई जानी चाहिए।
नि:संदेह उपरोक्त सुझावों के क्रियान्वयन में अधिक धनराशि की आवश्यकता होगी लेकिन इसके परिणाम स्वरूप जनपद का मत्स्य उत्पादन कई गुना बढ़ जायेगा। जो जनपद में खाद्यान्न की कमी को पूरा करने एवं असंतुलित भोजन को पूर्ण करने के लिये वरदान सिद्ध होगा।
जल संसाधन का पर्यटन के क्षेत्र में उपयोग :
घूमना-फिरना या शैर सपाटा मनुष्य के सहज स्वभाव और विकास का अभिन्न अंग रहा है। पर्यटन किसी भी उद्देश्य से किया जाये उससे ज्ञान बढ़ता है एवं मनोरंजन भी होता है। सामाजिक संबंधों का विस्तार होता है। और आर्थिक प्रगति को बढ़ावा मिलता है। आधुनिक युग में शिक्षा, विज्ञान तथा नवीनतम टेक्नोलॉजी की सतत प्रगति ने हमारे जीवन के अन्य पक्षों की तरह पर्यटन के स्वरूप और उद्देश्यों में भी परिवर्तन ला दिया है। परिवहन तथा संचार सुविधाओं की तेजी से हो रही प्रगति से पर्यटन गतिविधियों को पंख लग गये हैं। शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से एक स्थान से दूसरे स्थान पर और एक देश से दूसरे देश में जाने वाले लोगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। धार्मिक पारिवारिक और मन बहलाव के लिये होने वाला पर्यटन अब एक उद्योग का रूप ले चुका है और समूचे विश्व में इसे आय का एक मुख्य साधन माना जाने लगा है। पर्यटकों के लिये बुनियादी सुविधायें खड़ी करने तथा उससे जुड़ी अन्य व्यवसायिक गतिविधियों में बड़ी मात्रा में धन का निवेश हो रहा है। जिससे करोड़ों लोगों को रोजगार मिला हुआ है। हमारे देश में कुल रोजगार में अकेले पर्यटन का हिस्सा लगभग 9 प्रतिशत है। इस उद्योग से पाँच करोड़ से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से रोजगार मिला हुआ है। 2006 में भारत में आने वाले विदेशी सैलानियों की संख्या लगभग 45 लाख थी जो इससे पिछले साल से करीब 14 प्रतिशत अधिक है। आर्थिक दृष्टि से पर्यटन महत्त्वपूर्ण है। यह विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को एक दूसरे को समझने और मानवीय संबंधों को मजबूत बनाने में भी मददगार है।
अध्ययन क्षेत्र में अथाह जलराशि के भंडार विद्यमान है। लेकिन पिछड़ा होने से पर्यटन के क्षेत्र में इसका उपयोग न के बराबर हो रहा है। मनोरंजन के रूप में यहाँ जल संसाधन का मुख्य उपयोग धाराओं में जल क्रीड़ा करके मन बहलाने में है। लोग नदियों के किनारे कैंप लगाकर शैर-सपाटा कर आनंद प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त पितृ अमावस्या, भुजरियां मेला एवं धार्मिक सामाजिक पर्वों पर सामूहिक रूप से जल स्रोतों के किनारे एकत्रित होकर स्नान, पूजा-पाठ के साथ जल का आनंद लेते हैं। ये ही जल प्रदत्त मनोरंजन के विभिन्न रूप हैं। मनोरंजन के क्षेत्र में पिछले 25 वर्षों में सिंचाई के समान ही जल संसाधनों की मांग एक नवीन आवश्यकता के रूप में प्रकट हुई है। आधुनिक समय में जल पर आधारित पर्यटन से जल के उपयोग में तीव्र एवं नवीन मोड़ आया है।
पर्यटन के क्षेत्र में इटावा जनपद का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। फिर भी कुछ स्थान विशेष इस दृष्टि से महत्त्व के हैं, जो पर्यटन की भावी संभावना के रूप में देखे जा सकते हैं।
सुमेरशाह का किला, टिक्सी मंदिर (इटावा शहर) :
सुमेरशाह का किला इटावा शहर के दक्षिण दिशा में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इसका निर्माण सर्वप्रथम चौहान शासक सुमेरशाह ने करवाया था। कहा जाता है कि एक बार राजा सुमेरशाह स्नान करने यमुना नदी पर गये, उसी स्थान पर इन्होंने भेड़ों-बकरियों को पानी पीते देखा। यह स्थान उन्हें बहुत आकर्षित लगा, तत्पश्चात उन्होंने ज्योतिषियों को बुलाकर परामर्श किया और किले का निर्माण कराया। इसी किला पर भारत नरेश जयचंद्र से मुहम्मद गोरी का युद्ध हुआ था, इस युद्ध में मुहम्मद गोरी के बाइस श्रेष्ठ सेनापति मारे गये थे। जिनकी दरगाहें ‘‘बाइस ख्वाजा’’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी के पूर्व में टिक्सी मंदिर (विशेष्ठेश्वर महाराज जी) स्थित हैं। इटावा से गुजरने वाले पर्यटक इन ऐतिहासिक स्थलों को देखने अवश्य आते हैं।
भरेह का किला एवं भारेश्वर मंदिर (भरेह) :
भरेह जनपद इटावा के दक्षिण-पूर्व भाग में 26 उत्तरी अक्षांश से 79.17 पूर्वी देशांतर के मध्य अवस्थित है। इसी के पास यमुना एवं चंबल नदियों का संगम है। भरेह में प्राचीन किला एवं भारेश्वर मंदिर स्थित है। शिवरात्रि को यहाँ भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। पर्यटन की भावी संभावनाओं को देखते हुए अभी हाल में ही पर्यटन मंत्रालय द्वारा इसे 5 लाख रुपये मरम्मत के लिये दिये गये हैं। अत: इसे पर्यटन की भावी संभावना के रूप में देखा जा सकता है।
पंचनद (कालेश्वर) :
यह स्थान जनपद के दक्षिण-पूर्वी भाग में अवस्थित है। जहाँ चंबल, यमुना, सेंध, पहुज एवं क्वारी नदियों का संगम हुआ है। अत: इसे ‘पंचनद’ के नाम से जाना जाता है। इस संगम से लोगों की धार्मिक आस्था जुड़ी हुई है। संगम पर ही उत्तर-पश्चिम दिशा में कालेश्वर महाराज जी का मंदिर स्थित है कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। हजारों की संख्या में लोग यहाँ एकत्र होकर स्नान करके अपने आपको पवित्रता प्रदान करते हैं। बाढ़ के समय पंचनद क्षेत्र में काफी बड़े क्षेत्र में जल भर जाने का बड़ा मनोहारी दृश्य दिखाई पड़ता है।
पंचनद क्षेत्र में डॉलफिन एवं घड़ियाल को संरक्षण दिया जा रहा है, आज घड़ियालों की संख्या इतनी अधिक हो गयी है कि अक्सर बालू पर सरकते हुए देखे जा सकते हैं। डॉलफिन भी इस क्षेत्र में किलकारियाँ करती हुई देखी जा सकती है। फलत: इसे पर्यटक स्थल के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
चकरनगर :
यह यमुना, चंबल नदियों के दोआब में स्थित है। चकरनगर का नाम महाभारत में भी वर्णित है। इसके पश्चिम में तीन किमी दूर ‘खेरा’ (पहाड़ी) एक पुरानी इमारत है। जहाँ कंकड़-पत्थर से बना एक पुराना कुआँ है। प्राचीन लेखों से ज्ञात होता है कि यहाँ एक सुनार जाति का आदमी रहता था जो नरभक्षी था जो रोज एक मनुष्य का भक्षण करता था। स्थानीय लोगों के अनुसार आज भी इसकी आवाज सुनाई देती है। यहाँ आने वाले लोग इसे देखने अवश्य जाते हैं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जनपद में पर्यटक स्थलों का अभाव है फिर भी जल संसाधन के अंतर्गत अथाह जलराशि के होने के कारण प्रस्तावित पंचनद बाँध परियोजना के आधार पर इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की भावी संभावना के रूप में देखा जा सकता है।
Reference :
1. अग्रवाल, उमेशचंद्र, ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति के प्रयास, कुरूक्षेत्र पत्रिका, वर्ष 52, अंक-05, पृ. 26
1. अग्रवाल, उमेशचंद्र, ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति के प्रयास, कुरूक्षेत्र पत्रिका, वर्ष 52, अंक-05, पृ. 26
1. Thane, L. Abdul & Thane Mumtaf, Op. Sit., p. 154.
1. लघु औद्योगिक संस्थान, जनपद - इटावा (2004-05)
1. Varun, Dangali Prasad (1977), Uttar Pradesh District Gazetteers, Etawah, p. 263.
इटावा जनपद में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोगिता एवं प्रबंधन, शोध-प्रबंध 2008-09 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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