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चरखा फीचर्स, अक्टूबर 2013
अन्न संकट दूर करने के लिए 60 के दशक में हरित क्रांति लाई गई। अधिक अन्न का उत्पादन तो जरूर हुआ, पर मिट्टी ऊसर होती गई। मिट्टी, जल व वायु प्रदूषित होती गई और मनुष्य व पशुओं की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। कृषि विज्ञान केंद्र सरैया के मृदा वैज्ञानिक के.के. सिंह रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को गिनाते हुए कहते हैं कि पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग करने से वायुमंडल के साथ-साथ जल प्रदूषण भी हो रहा है। फसल की पैदावार बढ़ाने के चक्कर खेतों में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल भी धड़ल्ले से हो रहा है, जिससे मिट्टी ऊसर होती जा रही है। पहले खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा 3-5 किलो प्रति कट्ठा के हिसाब होती थी जो आज रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से 10-20 लौकी प्रति कट्ठा हो गई है। वजह साफ है किसानों का अत्यधिक मात्रा में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करना। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से धरती दिनों दिन दूषित होती जा रही है और इससे जलवायु प्रदूषण का खतरा बढ़ रहा है। यह प्रकृति के साथ-साथ फसल चक्र को भी प्रभावित कर रहा है।परिणामतः खेत बंजर हो रहे हैं व जलस्तर नीचे खिसक रहा है। इस चिंता के बीच आज भी ऐसे कुछ किसान हैं, जिनको अपनी खेती के साथ-साथ मिट्टी, पानी, भोजन व हवा की भी चिंता है। मुज़फ़्फ़रपुर जिले के सरैया प्रखंड, गोविंदपुर (जैविक ग्राम) के जादूगर श्रीकांत कुशवाहा, रविन्द्र प्रसाद, शिवनंदन श्रीवास्तव, सीताराम भगत, चिरामन पासवान, रघुनाथ प्रसाद समेत 50 से अधिक किसानों ने एक-एक एकड़ में सब्जी की खेती किया है और खेत के किनारे पौधे लगा कर पूरे गांव में हरियाली बिखेरा है। जैविक खेती के लिए मशहूर श्रीकांत कुशवाहा सुबह उठते ही किसानों के खेतों की ओर चल पड़ते हैं और लोगों को खेती का गुर सिखलाते हैं। जल, मिट्टी व हवा की शुद्धता को लेकर गोष्ठी करते रहते हैं। गोविंदपुर गांव के किसानों के इसी प्रयास का परिणाम है कि 18 दिसंबर 2006 को गोविंदपुर को जैविक ग्राम घोषित किया गया और भारतीय स्टेट बैंक ने इसे गोद लिया।
श्रीकांत का मानना है कि रासायनिक खाद के प्रयोग से पानी की खपत अधिक होती है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट होती है। कीटनाशक व रासायनिक खाद से मित्र कीट-पतंग मर जाते हैं। परागन की क्रिया सही से नहीं हो पाती है, जिससे फसल की उपज में कमी आती है। रासायनिक खाद व कीटनाशक की जगह नीम, लहसुन, तुलसी आदि के मिश्रण से बना कीटनाशक पौधों को बिना मित्र कीट को नुकसान पहुँचाए सही सुरक्षा व पोषण देता है। पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश कहते हैं कि पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान रसायन आधारित खेती से होता है। अत्यधिक कीटनाशक व रासायनिक खाद के प्रयोग से परागन की प्रक्रिया प्रभावित हुई है। मधुमक्खी व तितलियां मर रही हैं। मेंढक, केंचुए, बगुले, कौए आदि प्राणी विलुप्त हो रहे हैं। मेंढक के शरीर का जितना वजन होता है, उतना ही वह फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीट को खाते हैं। केंचुए पौधों की जड़ तक ऑक्सीजन पहुँचाता है। बगुला और कौए पटवन के समय कीट-पतंगों को चुन-चुनकर खाते हैं, जिससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व, जीवाणु, ह्यूमस और पीएच बैलेंस बने रहते हैं। जिस फसल में मधुमक्खी का वास रहता है, उसमें परागन की क्रिया से 20 प्रतिशत पैदावार बढ़ जाती है।
अन्न संकट दूर करने के लिए 60 के दशक में हरित क्रांति लाई गई। अधिक अन्न का उत्पादन तो जरूर हुआ, पर मिट्टी ऊसर होती गई। मिट्टी, जल व वायु प्रदूषित होती गई और मनुष्य व पशुओं की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। कृषि विज्ञान केंद्र सरैया के मृदा वैज्ञानिक के.के. सिंह रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को गिनाते हुए कहते हैं कि पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग करने से वायुमंडल के साथ-साथ जल प्रदूषण भी हो रहा है। नाइट्रोजन का 60 प्रतिशत अंश वायुमंडल में उड़ जाता है। पाइप ड्रिप इरिगेशन से पानी को बचाया जा सकता है। बगीचे व खेतों में जरूरत के हिसाब से सुबह-शाम पटवन किया जाए तो पौधों को प्रचुर मात्रा में पानी भी मिल जाएगा और पानी की बर्बादी भी रुकेगी। सवाल यह है कि गोविंदपुर की ही तरह पूरे देश में जैविक खेती के माडल को क्यों नहीं अपनाया जा रहा। आखिर क्या वजह है कि पूरे मुल्क में जैविक खेती के माडल सिर्फ सपना ही बना हुआ है? सब कुछ जानकर भी हम पेस्टीसाइडयुक्त चीज़ों के सेवन को क्यों मजबूर हैं?
मुल्क के कुछ हिस्सों में जैविक खेती के माडल को अपनाने की बातें ज़रूर हो रही हैं। ऐसे में मुज़फ़्फ़रपुर जिले के सरैया प्रखंड, गोविंदपुर गांव को जैविक ग्राम का दर्जा दिया जाना अपने आप में एक जीती जागती मिसाल है। गोविंदपुर गांव के निवासी आज स्वच्छ वायु और खुली हवा में सास ले रहे हैं। खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाइयों के इस्तेमाल को कम करने के लिए जनप्रतिनिधियों को आगे आना होगा ताकि रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाइयों के इस्तेमाल को कम करके खेती के जैविक तरीके को अपनाया जा सके। खास बात यह है कि जैविक तरीके से खेती करने से उत्पादन पर भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता। साथ ही साथ इस तरीके से खेती करने से पर्यावरण को भी कोई नुकसान नहीं पहुँचता है।
सरकार को भी चाहिए कि वह पेस्टीसाइड के बहुत ज़्यादा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाए। जैविक खेती खेती के परंपरागत तरीके को कहते है। देष में हरित क्रांति से पहले खेती के परंपरागत तरीके का इस्तेमाल होता था। लेकिन हरित क्रांति के विकास में खेती का परंपरागत तरीका कहीं पीछे छूट गया। जैविक ग्राम के जादूगर श्रीकांत कुशवाहा की तरह ही लोगों को जैविक खेती की अहमियत को समझना होगा। एक आम आदमी श्रीकांत कुशवाहा और चंद किसानों की कोशिशों से जब गोविंदपुर को जैविक ग्राम का दर्जा हासिल हो सकता है तो हम सब की कोशिशों से पूरे देश में जैविक खेती का माडल क्यों लागू नहीं हो सकता है। जैविक खेती के फायदे और रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों के इस्तेमाल होने वाले नुकसान से लोगों को आगाह करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए गैर सरकारी संगठन, जन प्रतिनिधियों, सरकार और सभी को एक साथ काम करना पड़ेगा। यह हमारा कर्तव्य और दायित्व बनता है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ वातावरण और शुध्द भोजन उपलब्ध कराए।
श्रीकांत का मानना है कि रासायनिक खाद के प्रयोग से पानी की खपत अधिक होती है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट होती है। कीटनाशक व रासायनिक खाद से मित्र कीट-पतंग मर जाते हैं। परागन की क्रिया सही से नहीं हो पाती है, जिससे फसल की उपज में कमी आती है। रासायनिक खाद व कीटनाशक की जगह नीम, लहसुन, तुलसी आदि के मिश्रण से बना कीटनाशक पौधों को बिना मित्र कीट को नुकसान पहुँचाए सही सुरक्षा व पोषण देता है। पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश कहते हैं कि पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान रसायन आधारित खेती से होता है। अत्यधिक कीटनाशक व रासायनिक खाद के प्रयोग से परागन की प्रक्रिया प्रभावित हुई है। मधुमक्खी व तितलियां मर रही हैं। मेंढक, केंचुए, बगुले, कौए आदि प्राणी विलुप्त हो रहे हैं। मेंढक के शरीर का जितना वजन होता है, उतना ही वह फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीट को खाते हैं। केंचुए पौधों की जड़ तक ऑक्सीजन पहुँचाता है। बगुला और कौए पटवन के समय कीट-पतंगों को चुन-चुनकर खाते हैं, जिससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व, जीवाणु, ह्यूमस और पीएच बैलेंस बने रहते हैं। जिस फसल में मधुमक्खी का वास रहता है, उसमें परागन की क्रिया से 20 प्रतिशत पैदावार बढ़ जाती है।
अन्न संकट दूर करने के लिए 60 के दशक में हरित क्रांति लाई गई। अधिक अन्न का उत्पादन तो जरूर हुआ, पर मिट्टी ऊसर होती गई। मिट्टी, जल व वायु प्रदूषित होती गई और मनुष्य व पशुओं की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। कृषि विज्ञान केंद्र सरैया के मृदा वैज्ञानिक के.के. सिंह रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को गिनाते हुए कहते हैं कि पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग करने से वायुमंडल के साथ-साथ जल प्रदूषण भी हो रहा है। नाइट्रोजन का 60 प्रतिशत अंश वायुमंडल में उड़ जाता है। पाइप ड्रिप इरिगेशन से पानी को बचाया जा सकता है। बगीचे व खेतों में जरूरत के हिसाब से सुबह-शाम पटवन किया जाए तो पौधों को प्रचुर मात्रा में पानी भी मिल जाएगा और पानी की बर्बादी भी रुकेगी। सवाल यह है कि गोविंदपुर की ही तरह पूरे देश में जैविक खेती के माडल को क्यों नहीं अपनाया जा रहा। आखिर क्या वजह है कि पूरे मुल्क में जैविक खेती के माडल सिर्फ सपना ही बना हुआ है? सब कुछ जानकर भी हम पेस्टीसाइडयुक्त चीज़ों के सेवन को क्यों मजबूर हैं?
मुल्क के कुछ हिस्सों में जैविक खेती के माडल को अपनाने की बातें ज़रूर हो रही हैं। ऐसे में मुज़फ़्फ़रपुर जिले के सरैया प्रखंड, गोविंदपुर गांव को जैविक ग्राम का दर्जा दिया जाना अपने आप में एक जीती जागती मिसाल है। गोविंदपुर गांव के निवासी आज स्वच्छ वायु और खुली हवा में सास ले रहे हैं। खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाइयों के इस्तेमाल को कम करने के लिए जनप्रतिनिधियों को आगे आना होगा ताकि रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाइयों के इस्तेमाल को कम करके खेती के जैविक तरीके को अपनाया जा सके। खास बात यह है कि जैविक तरीके से खेती करने से उत्पादन पर भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता। साथ ही साथ इस तरीके से खेती करने से पर्यावरण को भी कोई नुकसान नहीं पहुँचता है।
सरकार को भी चाहिए कि वह पेस्टीसाइड के बहुत ज़्यादा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाए। जैविक खेती खेती के परंपरागत तरीके को कहते है। देष में हरित क्रांति से पहले खेती के परंपरागत तरीके का इस्तेमाल होता था। लेकिन हरित क्रांति के विकास में खेती का परंपरागत तरीका कहीं पीछे छूट गया। जैविक ग्राम के जादूगर श्रीकांत कुशवाहा की तरह ही लोगों को जैविक खेती की अहमियत को समझना होगा। एक आम आदमी श्रीकांत कुशवाहा और चंद किसानों की कोशिशों से जब गोविंदपुर को जैविक ग्राम का दर्जा हासिल हो सकता है तो हम सब की कोशिशों से पूरे देश में जैविक खेती का माडल क्यों लागू नहीं हो सकता है। जैविक खेती के फायदे और रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों के इस्तेमाल होने वाले नुकसान से लोगों को आगाह करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए गैर सरकारी संगठन, जन प्रतिनिधियों, सरकार और सभी को एक साथ काम करना पड़ेगा। यह हमारा कर्तव्य और दायित्व बनता है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ वातावरण और शुध्द भोजन उपलब्ध कराए।