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चरखा फीचर्स, मई 2014
सबसे बड़ा सवाल है कि लोग पानी को तो प्यूरिफाई करके पी रहे हैं लेकिन जलस्तर की चिंता किसी को नहीं है। जलस्तर के नीचे जाने का मतलब साफ है कि धरती पर जलसंकट की स्थिति पैदा होगी। ऐसे में जरूरत है कि सरकार तालाब, पोखर, नदियों की सफाई कराए और बंद कुएं फिर से चालू कराए जाएं। तालाब, कुएं, पोखर आदि के चारों ओर पेड़ लगाए जाएं। वर्षा के पानी को एकत्र करने का बंदोबस्त किया जाए। कम-से-कम नलकूप का इस्तेमाल हो। फैक्ट्रियों, इमारतों आदि में पानी की खपत कम की जाए तो जलस्तर संतुलित किया जा सकता है। धरती संकट में है। पोखर, तालाब, कुएं व नदियां सूख रही हैं। भूजल स्तर गिरता जा रहा है। मौसम का मिजाज बदल रहा है। जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक आपदा के खतरे बढ़ गए हैं। दो दशक पहले तक गांवों में कुएं के पानी का इस्तेमाल होता था। आज अधिकांश कुएं ठप हो चुके हैं।
अब तालाब किनारे पशु-पक्षियों का झुंड प्यास बुझाने नहीं आता है। हंस तालाबों में तैरना बंद कर दिए हैं। नदियां मैली होती जा रही हैं। दूषित जल की वजह से नदियों के जलीय जीवों पर खतरा मंडरा रहा है। गर्मी आते ही हैंडपंप का पानी सूख जाता है। पानी की पहली परत प्रदूषित हो चुकी है। आयरन, आर्सेनिक, फ्लोराइड युक्त पानी धरती के प्राणियों के लिए कहर बनता जा रहा है। शुद्ध पेयजल का संकट गहराता जा रहा है।
वह दिन दूर नहीं जब धरती के प्राणी बूंद-बूंद पानी को तरसेंगे। देश में 14 बड़ी, 55 लघु व 100 सौ छोटीे नदियों में मल, मूत्र, दूषित जल व औद्योगिक कचरा उंढेला जा रहा है। धरती के प्राणी दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में तकरीबन 60 प्रतिशत बीमारियों का कारण अशुद्ध पानी है। जल प्रदूषित होने का मुख्य कारण मानव द्वारा औद्योगिक कचरे को जलधाराओं में प्रवाहित करना है।
फ़ैक्टरियों से निकलने वाले अवशिष्ट जल प्रदूषण का प्रमुख कारण है। रासायनिक तत्व पानी में मिलकर जलजनित बीमारियों को जन्म देते हैं। कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीज, क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, तेल, फिनोल, वसा, ग्रीस, मोम, घुलनशील गैसें आदि जल के वास्तविक गुण को प्रभावित करती हैं। पृथ्वी पर कुल 71 प्रतिशत जल उपलब्ध है जबकि इसमें से 97.3 प्रतिशत पानी खरा होने के कारण पीने के योग्य नहीं है।
भारत में ग्राउंडवाटर का 90 प्रतिशत पानी खेती में प्रयोग किया जा रहा है। जल विशेषज्ञ रणजीव कहते हैं कि कम वर्षा होने, पानी के संरक्षण की दिशा में उदासीनता, भूगर्भ जल के अति दोहन की वजह से जल का संकट गहराता जा रहा है। आज मानव भौतिक सुख के चक्कर में अपनी पुरानी परंपराओं को भूलता जा रहा है।
पहले गांव में पोखर, कुएं व नदियां जीवित थीं तो जल स्तर ठीक था। मनुष्य की करतूत के कारण जल का स्तर नीचे खिसकता जा रहा है। धरती की चिंता किसी को नहीं है। बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने के चक्कर में पानी का ज़बरदस्त दोहन हो रहा है। धीरे-धीरे भूजल स्तर में कमी आती जा रही है।
हैरान करने वाली बात है कि बिहार जैसे प्रांत में नीतीश सरकार ने सिंचाई योजना के तहत 7.5 लाख नलकूप लगाने की घोषणा की है। जबकि सरकार को ज्ञात है कि खेती के लिए नलकूप का इस्तेमाल पानी का संकट पैदा करता है। वर्षा कम होना और खेती में नलकूप का प्रयोग पानी के स्तर व संतुलन को बिगाड़ रहा है। बावजूद इसके सरकार भी जल संरक्षण को नजरअंदाज कर रही है।
प्रदूषित पानी के कारण बिहार के 15-16 जिले आर्सेनिक युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। सबसे ज्यादा गंगा किनारे स्थित जिलों पर खतरा मंडरा रहा है। आर्सेनिक का सबसे ज्यादा दुष्परिणाम पटना, भोजपुर, बेगुसराय आदि जिले झेल रहे है। जाहिर सी बात है कि ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक की मात्रा विद्यमान होती है, तो इसका इस्तेमाल प्राणियों पर जहर जैसा ही काम करेगा। इन जिलों में जल संरक्षण के लिए सरकार की ओर से किसी तरह का कोई कदम नहीं उठाया गया है।
यही वजह है कि इन जिलों की जनता जानते हुए भी दूषित पानी पीने को मजबूर है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक प्रत्येक साल तकरीबन 1500 घन किमी पानी बर्बाद हो जाता है। वहीं पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत की वजह जलजनित बीमारियां है। दुनिया में 3.1 प्रतिशत मौतें अशुद्ध जल के कारण होती हैं। अशुद्ध पानी पीने से हर साल डायरिया के चार अरब मामलों में 22 लाख मौतें होती है।
भारत में बच्चों की मौत की एक बड़ी वजह जलजनित बीमारियां हैं। दुनिया में भूजल पर आश्रित 24 प्रतिशत स्तनधारियों व 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जबकि एक तिहाई उभयचरों की स्थिति चिंताजनक बताई जा रही है। विश्व के 14 करोड़ लोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। सबसे हैरत वाली बात है कि जल के लिए देश में विभिन्न स्थानों पर 37 हत्याकांड हो चुके हैं।
2011 में किए गए सर्वे के मुताबिक बिहार के 18 हजार 431 गांव ऐसे हैं, जहां शुद्ध पेयजल की उपलब्धता नहीं है। इसमें से 1112 गांव आर्सेनिक व 3339 गांव फ्लोराइड एवं 13 हजार 980 गांव आयरन युक्त पानी पीने को मजबूर है। वहीं असम राज्य में सर्वाधिक आयरन का प्रभाव है। उड़ीसा में 13216 और 475 गांव आयरन और आर्सेनिक से प्रभावित हैं।
पानी की कमी के चलते पानी का निजीकरण होता जा रहा है। शहरों में ज्यादातर लोगों बंद बोतल पानी खरीदकर पीते हैं। घर-घर वाटर प्यूरिफायर यंत्र लगे हुए हैं। किसी न किसी रूप में लोग मिनरल वाॅटर का प्रयोग कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर गांव के लोगों के पास एक तो पेयजल को शुद्ध करने की जानकारी नहीं है या वह सक्षम नहीं हैं कि पानी को साफ करके पी सकें।
अगर सहारा है तो चापाकल। वह भी ज्यादातर 40-60 फीट की गहराई पर गाड़े गए हैं। इसके विपरीत 40-60 फीट की गहराई पर पानी पीने योग्य नहीं है। इतनी गहराई पर पानी में आयरन, आर्सेनिक, फ्लोराइड व नुकसानदायक रसायन घुले हुए हैं। ऐसे में केंद्र व राज्य सरकार की शुद्ध पेयजल, जल संरक्षण योजनाएं केवल बजट व घोषणाओं में ही अधिक दिखती हैं। इन योजनाओं का कार्यान्वयन कहीं नज़र नहीं आता है।
आज भी गांव के किसान व मजदूर तबके के लोगों को पानी की शुद्धता की जानकारी नहीं है और वह जल संरक्षण को लेकर चिंतित नहीं है। इनकी प्यास बुझ जाए बस इतनी सी जानकारी है इन्हें। जबकि पंचायत में शुद्ध पेयजल के लिए योजना है। चापाकल भी बांटे जा रहे हैं। मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड के चांदकेवारी गांव के धर्मनाथ प्रसाद, रामचंद्र प्रसाद, नूरआलम, मो. नसीर, हसरत अली आदि मानते हैं कि अब कुओं की जरूरत नहीं है।
हम लोगों ने कुओं को भरवा दिया है, क्योंकि चापाकल से ही काम चल जाता है तो कुएं की जरूरत कहां है? ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो कुएं के बारे में नहीं जानते कि कुआं वाटर को रिचार्ज करता है। आज थोड़ा बहुत इस गांव में पोखर बचे हैं तो मछली पालन के बहाने।
सबसे बड़ा सवाल है कि लोग पानी को तो प्यूरिफाई करके पी रहे हैं लेकिन जलस्तर की चिंता किसी को नहीं है। जलस्तर के नीचे जाने का मतलब साफ है कि धरती पर जलसंकट की स्थिति पैदा होगी। ऐसे में जरूरत है कि सरकार तालाब, पोखर, नदियों की सफाई कराए और बंद कुएं फिर से चालू कराए जाएं।
तालाब, कुएं, पोखर आदि के चारों ओर पेड़ लगाए जाएं। वर्षा के पानी को एकत्र करने का बंदोबस्त किया जाए। कम-से-कम नलकूप का इस्तेमाल हो। फैक्ट्रियों, इमारतों आदि में पानी की खपत कम की जाए तो जलस्तर संतुलित किया जा सकता है। गंगा के बेसिन में भरे गाद की सफाई करना होगा।
मछली पालन के बहाने पोखरों को जीवित करना आसान काम हो सकता है। गांव के किसानों के बीच जल संरक्षण व नियोजन के लिए जागरूकता, कार्यशाला व प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना जरूरी है। अगर जल संकट से निपटने के लिए जल्द से जल्द कदम न उठाए गए तो आने वाले समय में स्थिति और ज्यादा भयावह हो सकती है।
अब तालाब किनारे पशु-पक्षियों का झुंड प्यास बुझाने नहीं आता है। हंस तालाबों में तैरना बंद कर दिए हैं। नदियां मैली होती जा रही हैं। दूषित जल की वजह से नदियों के जलीय जीवों पर खतरा मंडरा रहा है। गर्मी आते ही हैंडपंप का पानी सूख जाता है। पानी की पहली परत प्रदूषित हो चुकी है। आयरन, आर्सेनिक, फ्लोराइड युक्त पानी धरती के प्राणियों के लिए कहर बनता जा रहा है। शुद्ध पेयजल का संकट गहराता जा रहा है।
वह दिन दूर नहीं जब धरती के प्राणी बूंद-बूंद पानी को तरसेंगे। देश में 14 बड़ी, 55 लघु व 100 सौ छोटीे नदियों में मल, मूत्र, दूषित जल व औद्योगिक कचरा उंढेला जा रहा है। धरती के प्राणी दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में तकरीबन 60 प्रतिशत बीमारियों का कारण अशुद्ध पानी है। जल प्रदूषित होने का मुख्य कारण मानव द्वारा औद्योगिक कचरे को जलधाराओं में प्रवाहित करना है।
फ़ैक्टरियों से निकलने वाले अवशिष्ट जल प्रदूषण का प्रमुख कारण है। रासायनिक तत्व पानी में मिलकर जलजनित बीमारियों को जन्म देते हैं। कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीज, क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, तेल, फिनोल, वसा, ग्रीस, मोम, घुलनशील गैसें आदि जल के वास्तविक गुण को प्रभावित करती हैं। पृथ्वी पर कुल 71 प्रतिशत जल उपलब्ध है जबकि इसमें से 97.3 प्रतिशत पानी खरा होने के कारण पीने के योग्य नहीं है।
भारत में ग्राउंडवाटर का 90 प्रतिशत पानी खेती में प्रयोग किया जा रहा है। जल विशेषज्ञ रणजीव कहते हैं कि कम वर्षा होने, पानी के संरक्षण की दिशा में उदासीनता, भूगर्भ जल के अति दोहन की वजह से जल का संकट गहराता जा रहा है। आज मानव भौतिक सुख के चक्कर में अपनी पुरानी परंपराओं को भूलता जा रहा है।
पहले गांव में पोखर, कुएं व नदियां जीवित थीं तो जल स्तर ठीक था। मनुष्य की करतूत के कारण जल का स्तर नीचे खिसकता जा रहा है। धरती की चिंता किसी को नहीं है। बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने के चक्कर में पानी का ज़बरदस्त दोहन हो रहा है। धीरे-धीरे भूजल स्तर में कमी आती जा रही है।
हैरान करने वाली बात है कि बिहार जैसे प्रांत में नीतीश सरकार ने सिंचाई योजना के तहत 7.5 लाख नलकूप लगाने की घोषणा की है। जबकि सरकार को ज्ञात है कि खेती के लिए नलकूप का इस्तेमाल पानी का संकट पैदा करता है। वर्षा कम होना और खेती में नलकूप का प्रयोग पानी के स्तर व संतुलन को बिगाड़ रहा है। बावजूद इसके सरकार भी जल संरक्षण को नजरअंदाज कर रही है।
प्रदूषित पानी के कारण बिहार के 15-16 जिले आर्सेनिक युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। सबसे ज्यादा गंगा किनारे स्थित जिलों पर खतरा मंडरा रहा है। आर्सेनिक का सबसे ज्यादा दुष्परिणाम पटना, भोजपुर, बेगुसराय आदि जिले झेल रहे है। जाहिर सी बात है कि ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक की मात्रा विद्यमान होती है, तो इसका इस्तेमाल प्राणियों पर जहर जैसा ही काम करेगा। इन जिलों में जल संरक्षण के लिए सरकार की ओर से किसी तरह का कोई कदम नहीं उठाया गया है।
यही वजह है कि इन जिलों की जनता जानते हुए भी दूषित पानी पीने को मजबूर है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक प्रत्येक साल तकरीबन 1500 घन किमी पानी बर्बाद हो जाता है। वहीं पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत की वजह जलजनित बीमारियां है। दुनिया में 3.1 प्रतिशत मौतें अशुद्ध जल के कारण होती हैं। अशुद्ध पानी पीने से हर साल डायरिया के चार अरब मामलों में 22 लाख मौतें होती है।
भारत में बच्चों की मौत की एक बड़ी वजह जलजनित बीमारियां हैं। दुनिया में भूजल पर आश्रित 24 प्रतिशत स्तनधारियों व 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जबकि एक तिहाई उभयचरों की स्थिति चिंताजनक बताई जा रही है। विश्व के 14 करोड़ लोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। सबसे हैरत वाली बात है कि जल के लिए देश में विभिन्न स्थानों पर 37 हत्याकांड हो चुके हैं।
2011 में किए गए सर्वे के मुताबिक बिहार के 18 हजार 431 गांव ऐसे हैं, जहां शुद्ध पेयजल की उपलब्धता नहीं है। इसमें से 1112 गांव आर्सेनिक व 3339 गांव फ्लोराइड एवं 13 हजार 980 गांव आयरन युक्त पानी पीने को मजबूर है। वहीं असम राज्य में सर्वाधिक आयरन का प्रभाव है। उड़ीसा में 13216 और 475 गांव आयरन और आर्सेनिक से प्रभावित हैं।
पानी की कमी के चलते पानी का निजीकरण होता जा रहा है। शहरों में ज्यादातर लोगों बंद बोतल पानी खरीदकर पीते हैं। घर-घर वाटर प्यूरिफायर यंत्र लगे हुए हैं। किसी न किसी रूप में लोग मिनरल वाॅटर का प्रयोग कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर गांव के लोगों के पास एक तो पेयजल को शुद्ध करने की जानकारी नहीं है या वह सक्षम नहीं हैं कि पानी को साफ करके पी सकें।
अगर सहारा है तो चापाकल। वह भी ज्यादातर 40-60 फीट की गहराई पर गाड़े गए हैं। इसके विपरीत 40-60 फीट की गहराई पर पानी पीने योग्य नहीं है। इतनी गहराई पर पानी में आयरन, आर्सेनिक, फ्लोराइड व नुकसानदायक रसायन घुले हुए हैं। ऐसे में केंद्र व राज्य सरकार की शुद्ध पेयजल, जल संरक्षण योजनाएं केवल बजट व घोषणाओं में ही अधिक दिखती हैं। इन योजनाओं का कार्यान्वयन कहीं नज़र नहीं आता है।
आज भी गांव के किसान व मजदूर तबके के लोगों को पानी की शुद्धता की जानकारी नहीं है और वह जल संरक्षण को लेकर चिंतित नहीं है। इनकी प्यास बुझ जाए बस इतनी सी जानकारी है इन्हें। जबकि पंचायत में शुद्ध पेयजल के लिए योजना है। चापाकल भी बांटे जा रहे हैं। मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड के चांदकेवारी गांव के धर्मनाथ प्रसाद, रामचंद्र प्रसाद, नूरआलम, मो. नसीर, हसरत अली आदि मानते हैं कि अब कुओं की जरूरत नहीं है।
हम लोगों ने कुओं को भरवा दिया है, क्योंकि चापाकल से ही काम चल जाता है तो कुएं की जरूरत कहां है? ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो कुएं के बारे में नहीं जानते कि कुआं वाटर को रिचार्ज करता है। आज थोड़ा बहुत इस गांव में पोखर बचे हैं तो मछली पालन के बहाने।
सबसे बड़ा सवाल है कि लोग पानी को तो प्यूरिफाई करके पी रहे हैं लेकिन जलस्तर की चिंता किसी को नहीं है। जलस्तर के नीचे जाने का मतलब साफ है कि धरती पर जलसंकट की स्थिति पैदा होगी। ऐसे में जरूरत है कि सरकार तालाब, पोखर, नदियों की सफाई कराए और बंद कुएं फिर से चालू कराए जाएं।
तालाब, कुएं, पोखर आदि के चारों ओर पेड़ लगाए जाएं। वर्षा के पानी को एकत्र करने का बंदोबस्त किया जाए। कम-से-कम नलकूप का इस्तेमाल हो। फैक्ट्रियों, इमारतों आदि में पानी की खपत कम की जाए तो जलस्तर संतुलित किया जा सकता है। गंगा के बेसिन में भरे गाद की सफाई करना होगा।
मछली पालन के बहाने पोखरों को जीवित करना आसान काम हो सकता है। गांव के किसानों के बीच जल संरक्षण व नियोजन के लिए जागरूकता, कार्यशाला व प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना जरूरी है। अगर जल संकट से निपटने के लिए जल्द से जल्द कदम न उठाए गए तो आने वाले समय में स्थिति और ज्यादा भयावह हो सकती है।