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अश्मिका, जून 2011
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, अन्नमाप सुभाषितम।
मूर्खे पाषाण खण्डेषु, रत्नम् संज्ञाम् विधियते।।
मनुष्य के हित के लिये जंगलों को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लेना अतिआवश्यक है। जंगलों में, अभ्यारण्यों में जानवरों के प्रयोग एवं धरती के अवशोषण के लिये, पानी जमा करने के लिये बड़े-छोटे गढ्ढे, तालाब खुदवाने की अति आवश्यकता है। मनुष्य को अपने लालच से परे कुछ फल व फूलों के वृक्ष कुछ अन्न, पौधों, गन्ने, केले इत्यादि जंगलों में उगने के लिये छोड़ने होंगे ताकि जानवर अपनी भूख प्यास के लिये शहरों का रुख न करें।
मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा देते हैं पर वास्तविकता में इस पृथ्वी के तीन रत्न अन्न, जल एवं मधुर वाणी हैं। इन तीन रत्नों में भी जल रत्न सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि ‘‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून’’ जल के बिना न तो अन्न है और न वाणी की ही मधुरता। यदि जल न हो तो अन्न पैदा होने, पकने तथा पचने की कल्पना भी मिथ्या है। जल यदि खारा है या प्रदूषित है तो समस्याएँ होती है। इसलिये कुछ संपन्न देशों ने अपवाद स्वरूप अति धन व्ययकारी तकनीक से समुद्री नमकीन पानी से पीने योग्य मीठा पानी बनाना शुरू किया है। किसी भूभाग में अन्न तथा स्वच्छ, शीतल मृदु जल है तो भाषा स्वयंमेव गा उठती है।साधारण दुनिया के लिये तो धरती की सतह के 2/3 भाग में जल के होने के बाद भी इसका 2.5 प्रतिशत ही मीठा जल उपलब्ध है। और इस 2.5 प्रतिशत का अधिकांश भाग भी ऊँचे पर्वतों के ऊपर ग्लेशियर के रूप में अथवा आर्कटिक, अंर्टाकटिका में बर्फ की परत के रूप में है। बचा एक प्रतिशत से भी कम पानी सारी दुनिया के जीव जगत की प्यास बुझाता है और उसे अन्न भोजन उपलब्ध करवाता है। आज सारी दुनिया में पानी बचाओ, पानी बर्बाद न करो, तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये ही लड़ा जायेगा, इत्यादि बातें इसी एक प्रतिशत से भी कम पीने लायक पानी के लिये हो रही हैं। पुन: यह एक प्रतिशत से भी कम मनुष्यता व धरा के जीव जगत के लिये उपलब्ध मृदु जल ही है जिसे हमारे पापों का बोझ ढोना पड़ता है, फिर चाहे वह हमारी फैक्ट्रियों से निकले रसायन हों, पेस्टीसाइड हों या सीवर प्रदूषण।
हमने जनसंख्या विस्फोट के साथ ही अपने नदी नालों को प्रदूषित कर दिया है, हमारी सीवर लाइनों ने शहरों की परिधि पर बसने वाले सारे गाँवों को गंदगी से बजबजा दिया है। आज हालात ये हैं कि हमें शुद्ध जल के अतिरिक्त, संक्रमण रहित शाक सब्जी भी उपलब्ध नहीं है। आकाशात् पतित तायं, यथा गच्छति सागरं के जलचक्र के अनुसार, आकाश से जल गिरता है और अंतोगत्वा सागर में मिल जाता है। सागर तक पहुँचने और प्राणियों, मनुष्यों, पादपों को जीवन देने के मध्य वह अत्यधिक गंदगी समेट चुका होता है। यदि हमने इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया तो भारत देश में अत्यधिक जनसंख्या के लिये जल की कमी की समस्या के साथ-साथ दूषित जल की उपलब्धता की भारी समस्या का सामना भी करना पड़ेगा तथा विशेषतया जन सामान्य को उपयोग हेतु जल व स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराने की समस्या और भी अधिक रौद्र रूप ले लेगी।
इसी क्रम में भूमिगत जल की स्वच्छता को बनाये रखने हेतु सीवर का पिट सिस्टम हटाकर सीवर लाइनों के अंत में बायो गैस प्लांट स्थापित करने की संभावनाओं पर विचार किया जाना अत्यंत आवश्यक है। इस तरह से हमें रोग पैदा करने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं से काफी हद तक मुक्ति मिल जायेगी। तुच्छ सी अभिलाषा है कि सारे अपशिष्ट से बायोगैस बनाकर उस गैस से मनुष्य अपने वाहन चलाना शुरू कर पाये तो कई समस्याओं से एक साथ छुटकारा पाया जा सकेगा। वातावरण स्वच्छ रहेगा, शहरों की परिधियाँ स्वच्छ होंगी, जल स्वच्छ रहेगा तथा जन साधारण स्वस्थ रहेगा।
अब जबकि हम 121 करोड़ से ज्यादा हैं तथा 50 हजार प्रतिदिन की दर से बढ़ रहे हैं तो एक स्वाभाविक तथा बड़ी शर्म के साथ हमें स्वीकार करना ही होगा कि आज भी हमारे कई शहर, गाँव, कस्बे, मुख्य रूप से गर्मियों के मौसम में प्यासे रहने को मजबूर हैं। इन्द्र, वरूण को रिझाने के लिये यज्ञ होम के स्थान पर आज हमारे पास वाहनों तथा गरीब के चूल्हे से उठा धुआँ है। हमारे शहर धूल धुएँ के गुबार के कारणों से वृष्टि में मदद करते हैं। जल वाष्प को न्यूक्लियस उपलब्ध कराकर जल बूँद बनाने में मदद देकर ये कण शहरों में, आस-पास के निर्जन से ज्यादा वर्षा के कारण बनते हैं। शहरों में ज्यादा वर्षा होती है तथा यह पानी हमारी छत पर बरस कर ‘‘ड्रेन पाइप’’ से या हमारे ‘‘ड्राइव वे’’ में से होता हुआ बाहर आकर सड़क पर फैलकर नालों व नदियों में होता हुआ बह जाता है।
हम कई बार जब अपना ‘‘ड्राइव वे’’ धोकर साफ करते हैं तब बेकार पानी को सड़क में बहने के लिये छोड़ देते हैं। यदि ड्राइव वे को थोड़ा ढलुवा बनाकर इस पानी का बहाव हमारे लॉन की ओर कर दिया जाय तो हमारा लॉन तो लहलहायेगा ही यह धरती के जलस्तर को रिचार्ज करने में मदद करेगा और हमारे सूखे हैण्डपम्पों के लिये पानी उपलब्ध करवा पायेगा। रेनवाटर हार्वेस्टिंग आज हमारी आवश्यकता बन गई है। इसके लिये हमें सख्ती से सतत प्रयास करने होंगे।
जब तक हमारे ग्लेशियरों में बर्फ है तब तक तो हम अपनी सदानीरा नदियों को उपयोग में ला ही सकते हैं। बिजली बनाने के लिये बाँधों के अलावा भी हमें छोटे-छोटे अन्य बाँध नदियों में जगह-जगह बनाने चाहिए जोकि नदी के जल को जगह-जगह रोककर वर्ष भर लबालब भरी नदी का दर्शन करा सकें तभी पंछियों के साथ-साथ हमारी प्यास के बुझने का भी साधन उपलब्ध हो सकेगा। कुछ पर्यावरणविदों को डर रहता है कि नदी की पवित्रता बीच-बीच में तालाब बनने से भंग न हो जाये तो विनम्र निवेदन है कि सर्वप्रथम पानी जरूरी है। नदी का हो या तालाब का यह प्रश्न आज के जनसंख्या विस्फोट के परिपेक्ष में गौण है। दूसरा निवेदन है कि सदानीरा नदियों में स्थित छोटे तालाबों में होकर एक नदी की धारा जरूर बहती रहेगी तथा बरसात में संभवत: मोटी धारा भी बहेगी जो नदी के वातावरण को नदी बनाये रखने में मदद देगी। एकदम सूखा पड़ने से तो तालाब का होना ही अच्छा है।
सर्वनाशे समुत्पन्न अर्ध त्यजति पंडित:। अर्धेन कुरुते कार्य: सर्वनाशो हि दु:सह।।
अर्थात दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि आधी तज सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे।
जनसंख्या विस्फोट की सी स्थिति के कारण अब जबकि हम लगभग 50 हजार प्रतिदिन अर्थात लगभग 2 करोड़ प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहे हैं तो स्वभाविक है कि हम जंगलों तक अपने शहर फैला रहे हैं। तथा वन्य जीवों को परेशान कर उनका निवाला भी बन रहे हैं। पूर्व में देवी देवताओं के वाहन या पितर सोचकर ही सही हम जानवरों को इज्जत देते थे। फलस्वरूप अपना इको सिस्टम सुरक्षित रख पाते थे। अब समय आ गया है कि हम खाद्य जालों (फूड वेब) की महत्ता को समझें तथा उसके अनुसार कार्य करें। आज हम एक समस्या के मुहाने पर खड़े हैं हमें उदार होने की आवश्यकता है। पुराने समय में भी तो यही होता था कि समय खराब चल रहा है तो शनि, राहु, सूर्य, मंगल आदि के लिये दान कीजिए।
अब आज आपका आह्वान है कि जीव जगत के लिये दान कीजिए। मनुष्य के हित के लिये जंगलों को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लेना अतिआवश्यक है। जंगलों में, अभ्यारण्यों में जानवरों के प्रयोग एवं धरती के अवशोषण के लिये, पानी जमा करने के लिये बड़े-छोटे गढ्ढे, तालाब खुदवाने की अति आवश्यकता है। मनुष्य को अपने लालच से परे कुछ फल व फूलों के वृक्ष कुछ अन्न, पौधों, गन्ने, केले इत्यादि जंगलों में उगने के लिये छोड़ने होंगे ताकि जानवर अपनी भूख प्यास के लिये शहरों का रुख न करें। बायोडायवर्सिटी के धरा पर कायम रहने के कारण खाद्य जाल (फूड वेब) पूर्ण रहेंगे और अन्न, जल संकट संबंधी समस्याएं दूर हो जायेंगी।
प्रदूषकों यथा आर्सेनिक, लेड, कैल्शियम, इत्यादि भारी धातुओं के साथ-साथ अब हमें जैविक पदार्थों की जल में जाँच के यंत्रों को भी स्थापित करने की आवश्यकता है। एक अन्य समस्या के निवारणार्थ जोकि किसी भी दिन मुँह बाये हमारे सामने आकर खड़ी हो सकती है, की जाँच हेतु वैज्ञानिक आधार की उपलब्धता, समय की मांग है, वह है न्यूक्लियर रेडियोएक्टिव तत्वों के पानी में मिले होने की आशंका। इसे देखते हुए हमें तैयारी की जरूरत है, ताकि जल में इन तत्वों की अधिकता या कमी से होने वाले रोग के कारकों को भी दूर किया जा सके।
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कौमुदी जोशी एवं सुरेश चंद्र जोशी
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण देहरादून, गोविंद बल्लभ पंत हिमालयन पर्यावरण एवं विकास संस्थान, श्रीनगर गढवाल