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एस ए कुलकर्णी/ April 01, 2009/ भास्कर
भारत को बहुत तेजी से पुरानी व्यवस्था को बदलकर नई व्यवस्था अपनानी चाहिए और नई पीढ़ी को पानी के मामले में मुश्किल भविष्य का सामना करने के लिए तैयार करना चाहिए।
भारत जल के वैश्विक स्रोतों का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। पूरी दुनिया में भारत में पानी का सर्वाधिक इस्तेमाल (13 प्रतिशत) होता है। भारत के बाद चीन (12 प्रतिशत) और अमेरिका (9 प्रतिशत) का स्थान है। जैसे-जैसे पानी का उपभोग बढ़ता है, देश पानी के अभाव की समस्या से जूझता है। पानी के उपभोग की मात्रा किसी देश के नागरिकों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में खर्च होने वाले पानी की मात्रा से तय होती है।
आमतौर पर किसी देश या क्षेत्र विशेष में पानी की उपलब्धता की वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए स्वीडन के जल विशेषज्ञ प्रो. मैलिन फॉकनमार्क द्वारा बनाए गए मानकों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अनुसार यदि शोधन योग्य पानी का वार्षिक स्रोत प्रति कैपिटा 1700 से 1000 प्रति क्यूबिक मीटर है तो इसका अर्थ है कि वहां पानी की स्थिति दबावपूर्ण है। 1000 क्यूबिक मीटर से कम होने पर पानी का अभाव समझा जाता है।
अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (आईडब्ल्यूएमआई) ने एक नक्शा बनाया है कि दुनिया में कहां-कहां पानी के अभाव की स्थिति है। निकट व मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका के अधिकांश देश पानी के अभाव से ग्रस्त हैं। ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, पाकिस्तान, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और पश्चिमी अमेरिका भी जलाभाव के संकट को महसूस कर रहे हैं।
भारत में बहुत सी नदियों (कावेरी, सिंध नदी का जो हिस्सा हिंदुस्तान में है, कृष्णा, माही, पेनार, साबरमती और ऊपरी पश्चिमी क्षेत्र में बहने वाली नदियां) में पानी कम हो गया है। गोदावरी और ताप्ती नदियां जलाभाव की स्थिति की ओर बढ़ रही हैं, जबकि गंगा, नर्मदा और सुवर्णरेखा जैसी नदियों को तुलनात्मक जलाभाव की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस समय ब्रह्मपुत्र, मेघना, ब्राह्मणी, वैतरणी और महानदी आदि ऐसी नदियां मानी जाती हैं, जिनमें अतिरिक्त जल है।
आईडब्ल्यूएमआई की हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक बहुत सी भारतीय नदियों में पानी का संकट होगा। भारत को प्रतिवर्ष वर्षा, बर्फ और ऊपरी सीमा पर स्थित पहाड़ी देशों से बहकर आने वाली नदियों से औसतन 4000 खरब क्यूबिक मीटर जल प्राप्त होता है। हम अमूमन शोधन योग्य जल स्रोतों जैसे नदियों और जमीन के अंदर स्थित जल की बात करते हैं, जो 1969 खरब क्यूबिक मीटर है।
एक अनुमान के मुताबिक किसी स्थान के भौतिक अवरोधों और वर्षा की भिन्नता के कारण प्रतिवर्ष अधिकतम 1123 खरब क्यूबिक मीटर पानी (शोधन योग्य जल का 60 प्रतिशत) का ही इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें 690 खरब क्यूबिक मीटर सतह का और 432 खरब क्यूबिक मीटर जमीन के भीतर का पानी है। वर्षा का शेष 53 प्रतिशत पानी मिट्टी में जम जाता है या वायुमंडल में वाष्प बनकर उड़ जाता है, पौधों और वनस्पतियों द्वारा ग्रहण किया जाता है या जमीन के बहुत गहरे से बहकर समुद्र में मिल जाता है।
भारत में 4525 बड़े बांध हैं, जिनकी संग्रह क्षमता 220 खरब क्यूबिक मीटर है। इसमें जल संग्रह के छोटे-छोटे स्रोत शामिल नहीं हैं, जिनकी क्षमता 610 खरब क्यूबिक मीटर है। फिर भी हमारी प्रति कैपिटा संग्रहण की क्षमता ऑस्ट्रेलिया, चीन, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन और अमेरिका से बहुत कम है। चूंकि वर्ष में एक निश्चित समय तक (लगभग 100 दिन) वर्षा होती है, इसलिए वर्ष के बाकी सूखे दिनों के लिए पानी को संग्रहित करके रखना बहुत जरूरी है।
जो लोग बड़े बांधों के विरोधी हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि टैंक और रोधक बांध समेत पानी के संग्रह के हर छोटे और बड़े स्रोत की किसी क्षेत्र के जल संकट को हल करने में अपनी भूमिका है और उसे दूसरों के प्रतियोगी या विकल्प के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
भारत में जल संकट को दूर करने के रास्ते में चार मुख्य चुनौतियां हैं। पहला सार्वजनिक सिंचाई नहरों की सिंचाई क्षमता में इजाफा, कम हो रहे भूमि जल संग्रह को पुन: संग्रहीत करना, प्रति यूनिट पानी में फसलों की उत्पादकता में वृद्धि और भूमिगत और जमीन के ऊपर के जल स्रोतों को नष्ट होने से बचाना। पूरी दुनिया में कृषि में पानी का सर्वाधिक अपव्यय होता है। अब इस बात का काफी दबाव है कि इस मांग को कम करके घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की तेजी से बढ़ रही मांग को पूरा किया जाए और पर्यावरण के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाए।
खेतों में डालते और ले जाते हुए जो पानी बर्बाद होता है, वह पानी की वास्तविक बर्बादी नहीं है। पानी की बर्बादी को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है, लाभदायक और गैर लाभदायक। रिसाव के कारण बर्बाद होने वाला पानी लाभदायक हो जाता है, यदि वह भूमिगत जल में मिल जाए और कुंओं के द्वारा पुन: इस्तेमाल में आए। कुछ जल विशेषज्ञों के मुताबिक विश्व में वास्तव में जल संकट नहीं है, बल्कि पानी के गलत प्रबंधन के कारण दुनिया को उसकी कमी से जूझना पड़ रहा है। भारत में जल संकट का कारण जुझारू कोशिश और सही सोच का अभाव है। जाने-माने जल विशेषज्ञ और स्टॉकहोम वॉटर प्राइज विजेता प्रो. असित बिस्वास के मुताबिक, ‘गुजरे 200 वर्षो के मुकाबले आने वाले 20 सालों में जल प्रबंधन के काम और प्रक्रियाएं ज्यादा बड़े परिवर्तनों के दौर से गुजरेंगे।’
दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण इक्कीसवीं सदी की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत को बहुत तेजी से पुरानी व्यवस्था को बदलना चाहिए और नई व्यवस्था अपनानी चाहिए। नई पीढ़ी को पानी के मामले में ज्यादा मुश्किल भविष्य का सामना करने के लिए तैयार करना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि इस समय इन चुनौतियों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
- लेखक इंटरनेशनल कमीशन ऑन इरीगेशन एंड ड्रेनेज के कार्यकारी सचिव हैं।
भारत जल के वैश्विक स्रोतों का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। पूरी दुनिया में भारत में पानी का सर्वाधिक इस्तेमाल (13 प्रतिशत) होता है। भारत के बाद चीन (12 प्रतिशत) और अमेरिका (9 प्रतिशत) का स्थान है। जैसे-जैसे पानी का उपभोग बढ़ता है, देश पानी के अभाव की समस्या से जूझता है। पानी के उपभोग की मात्रा किसी देश के नागरिकों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में खर्च होने वाले पानी की मात्रा से तय होती है।
आमतौर पर किसी देश या क्षेत्र विशेष में पानी की उपलब्धता की वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए स्वीडन के जल विशेषज्ञ प्रो. मैलिन फॉकनमार्क द्वारा बनाए गए मानकों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अनुसार यदि शोधन योग्य पानी का वार्षिक स्रोत प्रति कैपिटा 1700 से 1000 प्रति क्यूबिक मीटर है तो इसका अर्थ है कि वहां पानी की स्थिति दबावपूर्ण है। 1000 क्यूबिक मीटर से कम होने पर पानी का अभाव समझा जाता है।
अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (आईडब्ल्यूएमआई) ने एक नक्शा बनाया है कि दुनिया में कहां-कहां पानी के अभाव की स्थिति है। निकट व मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका के अधिकांश देश पानी के अभाव से ग्रस्त हैं। ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, पाकिस्तान, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और पश्चिमी अमेरिका भी जलाभाव के संकट को महसूस कर रहे हैं।
भारत में बहुत सी नदियों (कावेरी, सिंध नदी का जो हिस्सा हिंदुस्तान में है, कृष्णा, माही, पेनार, साबरमती और ऊपरी पश्चिमी क्षेत्र में बहने वाली नदियां) में पानी कम हो गया है। गोदावरी और ताप्ती नदियां जलाभाव की स्थिति की ओर बढ़ रही हैं, जबकि गंगा, नर्मदा और सुवर्णरेखा जैसी नदियों को तुलनात्मक जलाभाव की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस समय ब्रह्मपुत्र, मेघना, ब्राह्मणी, वैतरणी और महानदी आदि ऐसी नदियां मानी जाती हैं, जिनमें अतिरिक्त जल है।
आईडब्ल्यूएमआई की हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक बहुत सी भारतीय नदियों में पानी का संकट होगा। भारत को प्रतिवर्ष वर्षा, बर्फ और ऊपरी सीमा पर स्थित पहाड़ी देशों से बहकर आने वाली नदियों से औसतन 4000 खरब क्यूबिक मीटर जल प्राप्त होता है। हम अमूमन शोधन योग्य जल स्रोतों जैसे नदियों और जमीन के अंदर स्थित जल की बात करते हैं, जो 1969 खरब क्यूबिक मीटर है।
एक अनुमान के मुताबिक किसी स्थान के भौतिक अवरोधों और वर्षा की भिन्नता के कारण प्रतिवर्ष अधिकतम 1123 खरब क्यूबिक मीटर पानी (शोधन योग्य जल का 60 प्रतिशत) का ही इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें 690 खरब क्यूबिक मीटर सतह का और 432 खरब क्यूबिक मीटर जमीन के भीतर का पानी है। वर्षा का शेष 53 प्रतिशत पानी मिट्टी में जम जाता है या वायुमंडल में वाष्प बनकर उड़ जाता है, पौधों और वनस्पतियों द्वारा ग्रहण किया जाता है या जमीन के बहुत गहरे से बहकर समुद्र में मिल जाता है।
भारत में 4525 बड़े बांध हैं, जिनकी संग्रह क्षमता 220 खरब क्यूबिक मीटर है। इसमें जल संग्रह के छोटे-छोटे स्रोत शामिल नहीं हैं, जिनकी क्षमता 610 खरब क्यूबिक मीटर है। फिर भी हमारी प्रति कैपिटा संग्रहण की क्षमता ऑस्ट्रेलिया, चीन, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन और अमेरिका से बहुत कम है। चूंकि वर्ष में एक निश्चित समय तक (लगभग 100 दिन) वर्षा होती है, इसलिए वर्ष के बाकी सूखे दिनों के लिए पानी को संग्रहित करके रखना बहुत जरूरी है।
जो लोग बड़े बांधों के विरोधी हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि टैंक और रोधक बांध समेत पानी के संग्रह के हर छोटे और बड़े स्रोत की किसी क्षेत्र के जल संकट को हल करने में अपनी भूमिका है और उसे दूसरों के प्रतियोगी या विकल्प के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
भारत में जल संकट को दूर करने के रास्ते में चार मुख्य चुनौतियां हैं। पहला सार्वजनिक सिंचाई नहरों की सिंचाई क्षमता में इजाफा, कम हो रहे भूमि जल संग्रह को पुन: संग्रहीत करना, प्रति यूनिट पानी में फसलों की उत्पादकता में वृद्धि और भूमिगत और जमीन के ऊपर के जल स्रोतों को नष्ट होने से बचाना। पूरी दुनिया में कृषि में पानी का सर्वाधिक अपव्यय होता है। अब इस बात का काफी दबाव है कि इस मांग को कम करके घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की तेजी से बढ़ रही मांग को पूरा किया जाए और पर्यावरण के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाए।
खेतों में डालते और ले जाते हुए जो पानी बर्बाद होता है, वह पानी की वास्तविक बर्बादी नहीं है। पानी की बर्बादी को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है, लाभदायक और गैर लाभदायक। रिसाव के कारण बर्बाद होने वाला पानी लाभदायक हो जाता है, यदि वह भूमिगत जल में मिल जाए और कुंओं के द्वारा पुन: इस्तेमाल में आए। कुछ जल विशेषज्ञों के मुताबिक विश्व में वास्तव में जल संकट नहीं है, बल्कि पानी के गलत प्रबंधन के कारण दुनिया को उसकी कमी से जूझना पड़ रहा है। भारत में जल संकट का कारण जुझारू कोशिश और सही सोच का अभाव है। जाने-माने जल विशेषज्ञ और स्टॉकहोम वॉटर प्राइज विजेता प्रो. असित बिस्वास के मुताबिक, ‘गुजरे 200 वर्षो के मुकाबले आने वाले 20 सालों में जल प्रबंधन के काम और प्रक्रियाएं ज्यादा बड़े परिवर्तनों के दौर से गुजरेंगे।’
दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण इक्कीसवीं सदी की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत को बहुत तेजी से पुरानी व्यवस्था को बदलना चाहिए और नई व्यवस्था अपनानी चाहिए। नई पीढ़ी को पानी के मामले में ज्यादा मुश्किल भविष्य का सामना करने के लिए तैयार करना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि इस समय इन चुनौतियों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
- लेखक इंटरनेशनल कमीशन ऑन इरीगेशन एंड ड्रेनेज के कार्यकारी सचिव हैं।