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योजना, सितम्बर 2007
जल को विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। लैटिन में इसे एक्वा, अंग्रेजी में वाटर, हिन्दी में जल या पानी, संस्कृत में पानीय या सलिल या अम्बु, मराठी व गुजराती में पाणी, बंगाली में जल, कन्नड़ में नीरू, तेलुगू में नीलू तथा फारसी में आब कहते हैं।
जल हमारे आहार का एक अनिवार्य पोषक तत्व है। जल केवल हमारी प्यास ही नहीं बुझाता बल्कि यह शरीर का सबसे बड़ा घटक है। हमारे शरीर के कुल वजन का लगभग 60 से 70 प्रतिशत जल है। नरम उत्तकों में जल की मात्रा 70 से 80 प्रतिशत और अस्थियों में 20 प्रतिशत होती है।जल हमारे आहार का एक अनिवार्य पोषक तत्व है। जल केवल हमारी प्यास ही नहीं बुझाता बल्कि यह शरीर का सबसे बड़ा घटक है। हमारे शरीर के कुल वजन का लगभग 60 से 70 प्रतिशत जल है। नरम उत्तकों में जल की मात्रा 70 से 80 प्रतिशत और अस्थियों में 20 प्रतिशत होती है। भोजन के बिना तो शायद हम कुछ दिन तक जीवित रह जाएँ पर जल के अभाव में अधिक दिन रहने की कल्पना भी करना कठिन है क्योंकि यह स्वयं तो आवश्यक पोषक तत्व है ही, अन्य पोषक तत्वों, जो इसमें घुलनशील हैं का भी वाहक बनकर उन पोषक तत्वों को शरीर के लिए उपलब्ध बनाने में इसकी भूमिका अति महत्त्वपूर्ण है। अतः जल हमारे जीवन के लिए नितान्त आवश्यक है। इसलिए कहा जाता है कि जल ही जीवन है।
शुद्ध जल एक सरल यौगिक है जो कि दो भाग हाइड्रोजन व एक भाग ऑक्सीजन के संयोग से बना होता है। जल एक अति उत्तम विलायक है। अधिकांश पदार्थ, लवण, वस्तुएँ जल में शीघ्रता से घुल जाते हैं इसलिए पूर्ण शुद्ध जल की उपलब्धता प्रायः मुश्किल से ही हो पाती है। जल जिस स्रोत से प्राप्त होता है वहाँ स्थित मिट्टी के तत्वों को अपने में घोल लेता है, यही कारण है कि समुद्री जल नमकयुक्त, पहाड़ी झरनों से प्राप्त खनिज लवणों से युक्त होता है। पदार्थों के सुगमता से घुलने के कारण जल में कोई न कोई अशुद्धि बनी रहती है इसलिए जल की शुद्धता की पहचान होना अति आवश्यक है। वही पानी शुद्ध कहलाता है, जिसमें कीटाणु और गन्दगी ना हो। हमें सदैव शुद्ध जल ही पीना चाहिए। शुद्ध जल स्वादरहित, रंगहीन व गन्धहीन तरल पदार्थ है जो पूर्णतः पारदर्शी व एक विशेष चमक से युक्त होता है।
पीने का जो पानी हम रोजाना उपयोग में लेते हैं उसमें लगभग 1 से 2 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) खनिज, लवण, फ्लोरीन पाया जाता है। खनिज लवण एवं मिनरल युक्त पानी पीने से शरीर की दैनिक आवश्यकता पूरी हो जाती है। लेकिन यदि पानी में फ्लोरीन की अत्यधिक मात्रा यानी 10 पीपीएम है और इस पानी का उपयोग भोजन बनाने और पीने में करते हैं तो फ्लोरोसिस नामक रोग होने की पूरी-पूरी सम्भावना रहती है। पानी में फ्लोरीन की अधिकता से विषाक्तता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे जी मिचलाना, उल्टी होना, मांसपेसियों में दुर्बलता आ जाती है। शरीर में कम्पन होने लगती है। शरीर ऐंठ जाता है तथा रोगी की मृत्यु भी हो सकती है। दाँतों की सतह एनामेल के गिर जाने से खुरदरी हो जाती है। दाँतों की चमक खत्म हो जाती है। दाँतों पर फ्लोरीन का जमाव होने के कारण दाँत मटमैले से दिखाई पड़ते हैं। दाँतों पर पीले और भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। दाँतों का एनामेल कहीं-कहीं से उखड़ जाता है जिससे दाँत कमजोर होकर गिर जाते हैं। अस्थियों में कैल्शियम तथा फ्लोरीन की सघनता के कारण रीढ़ की हड्डी में विद्यमान संयोजक तन्तु कड़े हो जाते हैं जिसके कारण पीठ बिल्कुल झुक जाती है। रोगी को उठने-बैठने में तकलीफ होती है तथा नाड़ी सम्बन्धी परेशानियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं।
यदि शुद्ध जल अमृत है तो दूषित पानी हानिकारक हो सकता है। सामान्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों, कुओं एवं नदियों के आसपास कपड़े धोने, बर्तन मांजने तथा मनुष्यों के नहाने की प्रवृत्ति विद्यमान है जिससे हमारा जल प्रदूषित हो जाता है। पीने योग्य जल स्रोत के आसपास कचरा एवं किसी भी प्रकार का अपशिष्ट नहीं डालना चाहिए। पेस्टिसाइड, कीटनाशकों एवं उर्वरकों को नदियों एवं तालाबों में छोड़ने से तथा हैण्डपम्प के टूटे प्लेटफॉर्म एवं जल के अव्यवस्थित निकास व्यवस्था के कारण गन्दा पानी जमीन के अन्दर चला जाता है जो जल के भूमिगत स्रोत को दूषित करता है। घर में पानी का असुरक्षित भण्डारण एवं रख-रखाव भी पानी को प्रदूषित करता है।
पीने तथा खाना पकाने के लिए काम में लिया जाने वाला जल शुद्ध होना चाहिए। जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए संग्रहित करने से लेकर उपभोग तक सावधानी बरतनी चाहिए। हमेशा मटके को अच्छी तरह धोकर जल को साफ कपड़े से छानकर भरना चाहिए। जल को हमेशा ढक कर रखना चाहिए, जिससे पानी के अन्दर धूल के कण, कीटाणु तथा कीड़े-मकोड़े आदि प्रवेश न कर सकें। जल निकालते समय गिलास में उंगलियाँ नहीं डुबानी चाहिए। अगर पानी भरने की जगह साफ नहीं हो तो पानी को उबालकर इस्तेमाल में लेना चाहिए। अगर पानी साफ नहीं हो तो उसमें फिटकरी या क्लोरीन की गोलियाँ डालकर, एक घण्टे बाद इस पानी को छानकर काम में लेना चाहिए। पानी को फ्लोरीन मुक्त करने के लिए गुलाबी फिटकरी या फ्लोराइड किट का उपयोग करना चाहिए।
जल हमारे शरीर में पोषण एवं दिनचर्या सम्बन्धी सभी क्रियाओं के सम्पादन के लिए जरूरी होता है। इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
1. प्यास शरीर की नैसर्गिक आवश्यकता है जिसकी तृप्ति का अनुभव जल के द्वारा ही होता है।
2. जल शरीर की प्रत्येक कोशिकाओं व अंगों के निर्माण का कार्य करता है। शरीर के सभी तरल पदार्थों का निर्माण जल के ही द्वारा होता है, जैसे- रक्त, पाचक रस, पित्त रस, पसीना, मल-मूत्र आदि।
3. जल शरीर के तापमान को स्थिर बनाये रखने में सहायता प्रदान करता है।
4. जल भोजन के पाचन, अवशोषण तथा चयापचय की सभी रासायनिक क्रियाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है।
5. रक्त का 80 प्रतिशत भाग पानी होता है। अतः यह रक्त परिसंचरण में सहायक होता है। इस माध्यम से ऑक्सीजन व अन्य पोषक तत्वों को कोशिकाओं में पहुँचाने तथा चयापचय की क्रियाओं के पश्चात उत्पन्न हुए विकारयुक्त एवं अनावश्यक पदार्थों को उत्सर्जित करने के लिए यह अति आवश्यक है। जलीय माध्यम से उपयोगी पदार्थों को सोखने व अनुपयोगी पदार्थों के उत्सर्जन की प्रक्रिया अत्यन्त सुगम हो जाती है।
6. यह सन्धियों के चारों ओर चिकनाहट का कार्य करता है।
7. जल बाहरी आघातों से शरीर की सुरक्षा करता है। रीढ़ की हड्डी एवं मस्तिष्क के कोमल तन्तुओं में पाया जाने वाला जल इनमें से एक गद्दी के रूप में काम करता है।
8. जल शरीर में उत्पन्न बेकार पदार्थों को मल-मूत्र तथा पसीने के रूप में उत्सर्जन संस्थान द्वारा बाहर निकालने में मदद करता है।
9. जल के द्वारा अनेक खनिज पदार्थ जैसे- सोडियम, पोटैशियम, फ्लोरीन, आयोडीन, कैल्शियम आदि की कुछ मात्रा शरीर को स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।
सामान्य स्थिति में प्यास लगना जल की आवश्यकता दर्शाता है, इस आधार पर प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में जल ग्रहण कर लेता है। सामान्य रूप से एक व्यस्क व्यक्ति को 6 से 9 गिलास पानी पीना चाहिए। किसी व्यक्ति को जल की प्रतिदिन की आवश्यकता व्यक्ति के कार्य के स्वरूप तथा मौसम पर निर्भर करती है। कठिन शारीरिक श्रम तथा उच्च तापमान के वातावरण (गर्मी के मौसम) में जल की आवश्यकता बढ़ जाती है। अन्तरराष्ट्रीय अनुसन्धान परिषद के अनुसार एक मिली. प्रति कैलोरी के अनुसार व्यक्ति को जल ग्रहण करना चाहिए अर्थात यदि कैलोरी की माँग 3,800 किलो कैलोरी होती है तो उस व्यक्ति को प्रतिदिन 3,800 मिली. जल ग्रहण करना चाहिए। जल की यह आवश्यकता कुछ विशेष शारीरिक अवस्था में बढ़ जाती है, जैसे- बच्चों को दुग्धपान कराने की अवस्था में तथा दस्त या उल्टी होने के समय। भोजन की प्रकृति भी जल की माँग को प्रभावित करती है, जैसे- अधिक प्रोटीनयुक्त भोज्य पदार्थों को पचाने के लिए अधिक जल की आवश्यकता होती है।
जल शरीर को पेय एवं भोज्य पदार्थों के सेवन से तथा शरीर में भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण द्वारा प्राप्त होता है। विभिन्न भोज्य पदार्थों में जल की उपस्थिति की मात्रा को तालिका-1 में दर्शाया गया है।
शरीर में जल की कमी हो जाने से कुछ शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे- अशान्ति, चिड़चिड़ापन, वृद्धि में कमी, पाचन रसों के निर्माण में असन्तुलन आदि। पतले दस्त या उल्टी दस्त, अतिसार, रक्तस्राव एवं तीव्र ज्वर की अवस्था में शरीर में अधिक मात्रा में जल निकल जाता है। यानी शरीर में जल की कमी हो जाती है। खासतौर से पतले दस्त या उल्टी अधिक होने से पानी का उत्सर्जन बढ़ जाता है। पानी के साथ-साथ इनमें घुलनशील खनिज लवण, जैसे- सोडियम, पोटैशियम आदि भी शरीर से बाहर निकलने लगते हैं तब जी घबराना, चक्कर आना, सुस्ती जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। यह स्थिति निर्जलीकरण (डिहाइड्रेशन) कहलाती है।
जब शरीर में उपर्युक्त लक्षणों के साथ त्वचा ढीली पड़ना, आँखों के नीचे गहरे गड्ढे होना, मुँह व जीभ का शुष्क होना, आँखों के अन्दर की नमी समाप्त होना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। इस समय यदि नर्जलीकरण का इलाज नहीं किया जाए तो हृदय की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। चयापचय के बाद उत्सर्जित पदार्थ बाहर नहीं निकल पाते हैं जिससे अपच, कब्ज, रक्तविकार आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आँत्र तथा गुर्दे ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाते जिससे गठिया, वात रोग एवं पथरी रोग होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।
यदि अधिक मात्रा में जल ग्रहण किया जाए तो वह मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है। परन्तु कुछ बीमारियों में शरीर में सूजन आ जाती है। सीरम प्रोटिन का रसाकर्षण दबाव नियन्त्रित न होने के कारण उतकों में जलजमाव हो जाता है। अतः ऐसी अवस्था में कम मात्रा में जल का सेवन करना चाहिए।
जल बहुत से रोगों में दवा का काम करता है। ठण्डे और गर्म जल में अलग-अलग औषधीय गुण होते हैं। कई रोगों में ठण्डा पानी और कई रोगों में गर्म पानी दवा का काम करता है। गर्म पानी का लाभ वात रोगों, जैसे- जोड़ों का दर्द, घुटनों का दर्द, गठिया, कन्धे की जकड़न में होता है। इसमें गर्म पानी या भाप का सेंक दिया जाता है।
जब कोई आग से जल जाए या झुलस जाए तो तुरन्त उसके जले, झुलसे अंग को ठण्डे पानी में कम से कम एक घण्टा डुबोकर रखें, उसे आराम मिलेगा, जलन दूर होगी और घाव या फफोला नहीं होगा।
नियमित रूप से हाथ-मुँह धोते समय मुँह में एक घूँट पानी रखकर आँखों में पानी के छींटे देने से आँखों की रोशनी बढ़ जाती है।
दो मुँहे बाल और बाल झड़ने की समस्या आजकल आम हो गई है। इसके लिए तीन बड़ा चम्मच समुद्री नमक एक लीटर पानी में उबालकर, ठण्डा करके बोतल में रख लें। जिस दिन बालों में शैम्पू करना हो, उस दिन इस पानी को बालों की जड़ में लगाकर अच्छी तरह मालिश करें फिर बालों में शैम्पू कर लें। ऐसा करने से बाल स्वस्थ व मजबूत होते हैं।
क्रोध की स्थिति में पैरों को ठण्डे पानी से धोकर एक गिलास ठण्डा पानी पीने से मानसिक तनाव दूर होता है तथा मस्तिष्क को शान्ति मिलती है।
त्वचा की कान्ति और चेहरे की चमक के लिए बेहद आवश्यक है कि कब्ज न रहे। इसके लिए प्रातःकाल खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
मोच आ जाने या चोट लग जाने पर उस स्थान पर ठण्डे पानी की पट्टी या बर्फ लगानी चाहिए। इससे न तो सूजन आएगी न ही दर्द बढ़ेगा। यदि चोट लगने या कटने से खून आ जाए तो वहाँ बर्फ या खूब ठण्डे पानी की पट्टी चढ़ा दें, इससे आराम मिलेगा। इंजेक्सन लगाने के बाद यदि उस स्थान पर सूजन आ जाए या दर्द बढ़े तो ढण्डे पानी की पट्टी या बर्फ लगानी चाहिए। कभी वहाँ गर्म पानी का सेंक नहीं करना चाहिए।
यदि रात में नीन्द न आती हो तो सोने से पूर्व दोनों पैरों को घुटनों तक सहने योग्य गर्म पानी से भरी बाल्टी या टब में 15 मिनट तक डुबोए रखें, इसके बाद पैरों को बाहर निकालकर पोंछ लें और सो जाएँ। नीन्द अच्छी आएगी। यह ध्यान रखें कि जब गर्म पानी में पैर डुबोएँ तब सिर पर ठण्डे पानी में भिगोकर निचोड़ा हुआ तौलिया अवश्य रखें।
अस्पतालों में पतले दस्त या उल्टी दस्त हो जाने पर चिकित्सक द्वारा रोगियों को सेलाइन (नमकीन) पानी चढ़ाते हैं। इससे रोगी ठीक हो जाता है। पतले दस्त (डायरिया) की स्थिति में जीवनरक्षक घोल (ओआरएस) जो कि पानी, नमक, शक्कर व अन्य लवणों का जलीय विलयन होता है, पिलाया जाता है। शरीर में पानी की कमी न होने पाए इसीलिए यह घोल थोड़े-थोड़े अन्तराल पर दिया जाता है। शरीर में पानी की कमी हो जाने पर मृत्यु भी हो सकती है। यही कारण है कि रोगी के शरीर में पानी पहुँचाया जाता है। हमारे देश में अस्वास्थ्यकर वातावरण और आदतों के कारण बच्चों को पतले दस्त लगने पर प्रायः देखा जाता है कि इसका सर्वोत्तम प्राथमिक उपचार नमक, शक्कर का घोल घर में बनाकर देना है। बच्चे को चिकित्सक तक ले जाने से पूर्व जीवनरक्षक घोल बनाकर देते रहने से, उसके शरीर को निर्जलीकरण की स्थिति से बचाकर मृत्यु के खतरे को टाला जा सकता है।
अत्यधिक थकान हो जाने पर एक टब में गुनगुना पानी भरकर उसमें दो नींबू का रस निचोड़कर व थोड़ा-सा नमक मिलाकर, दस मिनट तक दोनों पैरों को डालकर बेफिक्र होकर बैठे रहें। इससे आप हल्का, तरोताजा व थकानमुक्त महसूस करने लगेंगे।
गले में दर्द होने या खराश होने पर एक गिलास गुनगुने पानी में एक चम्मच नमक मिलाकर गरारे करने से बहुत लाभ होता है। साथ ही गुनगुना पानी पीना भी फायदेमन्द होता है। गले में सूजन आ जाए तो ताजे ठण्डे पानी में नीम्बू निचोड़कर गरारे करने से लाभ होता है।
अदरक के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक कप पानी में उबालने के बाद एक चम्मच चीनी मिलाकर पीने से जुकाम में आराम मिलता है।
नियमित रूप से सुबह-शाम भोजन के तुरन्त बाद एक गिलास गुनगुना पानी चाय की भाँति धीरे-धीरे पीने से मोटापा घटकर शरीर सन्तुलित हो जाता है। आँखों के नीचे स्याह घेरे दूर होते हैं। फूले हुए चेहरे की चर्बी घटकर चेहरा सुन्दर बनता है, रंग निखरता है तथा कब्ज की शिकायत दूर होती है।
दो बाल्टियों में अलग-अलग ठण्डा व गर्म पानी भर लें। पहले गुनगुने पानी में तथा फिर ठण्डे पानी में पैर डुबोकर पाँच मिनट तक रखें। इस प्रक्रिया को कम से कम पाँच बार करें। शुरुआत और अन्त गुनगुने पानी से ही होना जरूरी है। यह उपचार पैर सम्बन्धी तमात समस्याओं में अत्यन्त लाभकारी है। इससे रक्तसंचार ठीक रहता है और पैरों के दर्द से भी मुक्ति मिलती है।
(लेखक राजस्थान कृषि महाविद्यालय उदयपुर से सम्बद्ध हैं)
जल हमारे आहार का एक अनिवार्य पोषक तत्व है। जल केवल हमारी प्यास ही नहीं बुझाता बल्कि यह शरीर का सबसे बड़ा घटक है। हमारे शरीर के कुल वजन का लगभग 60 से 70 प्रतिशत जल है। नरम उत्तकों में जल की मात्रा 70 से 80 प्रतिशत और अस्थियों में 20 प्रतिशत होती है।जल हमारे आहार का एक अनिवार्य पोषक तत्व है। जल केवल हमारी प्यास ही नहीं बुझाता बल्कि यह शरीर का सबसे बड़ा घटक है। हमारे शरीर के कुल वजन का लगभग 60 से 70 प्रतिशत जल है। नरम उत्तकों में जल की मात्रा 70 से 80 प्रतिशत और अस्थियों में 20 प्रतिशत होती है। भोजन के बिना तो शायद हम कुछ दिन तक जीवित रह जाएँ पर जल के अभाव में अधिक दिन रहने की कल्पना भी करना कठिन है क्योंकि यह स्वयं तो आवश्यक पोषक तत्व है ही, अन्य पोषक तत्वों, जो इसमें घुलनशील हैं का भी वाहक बनकर उन पोषक तत्वों को शरीर के लिए उपलब्ध बनाने में इसकी भूमिका अति महत्त्वपूर्ण है। अतः जल हमारे जीवन के लिए नितान्त आवश्यक है। इसलिए कहा जाता है कि जल ही जीवन है।
शुद्ध जल के गुण
शुद्ध जल एक सरल यौगिक है जो कि दो भाग हाइड्रोजन व एक भाग ऑक्सीजन के संयोग से बना होता है। जल एक अति उत्तम विलायक है। अधिकांश पदार्थ, लवण, वस्तुएँ जल में शीघ्रता से घुल जाते हैं इसलिए पूर्ण शुद्ध जल की उपलब्धता प्रायः मुश्किल से ही हो पाती है। जल जिस स्रोत से प्राप्त होता है वहाँ स्थित मिट्टी के तत्वों को अपने में घोल लेता है, यही कारण है कि समुद्री जल नमकयुक्त, पहाड़ी झरनों से प्राप्त खनिज लवणों से युक्त होता है। पदार्थों के सुगमता से घुलने के कारण जल में कोई न कोई अशुद्धि बनी रहती है इसलिए जल की शुद्धता की पहचान होना अति आवश्यक है। वही पानी शुद्ध कहलाता है, जिसमें कीटाणु और गन्दगी ना हो। हमें सदैव शुद्ध जल ही पीना चाहिए। शुद्ध जल स्वादरहित, रंगहीन व गन्धहीन तरल पदार्थ है जो पूर्णतः पारदर्शी व एक विशेष चमक से युक्त होता है।
पीने का जो पानी हम रोजाना उपयोग में लेते हैं उसमें लगभग 1 से 2 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) खनिज, लवण, फ्लोरीन पाया जाता है। खनिज लवण एवं मिनरल युक्त पानी पीने से शरीर की दैनिक आवश्यकता पूरी हो जाती है। लेकिन यदि पानी में फ्लोरीन की अत्यधिक मात्रा यानी 10 पीपीएम है और इस पानी का उपयोग भोजन बनाने और पीने में करते हैं तो फ्लोरोसिस नामक रोग होने की पूरी-पूरी सम्भावना रहती है। पानी में फ्लोरीन की अधिकता से विषाक्तता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे जी मिचलाना, उल्टी होना, मांसपेसियों में दुर्बलता आ जाती है। शरीर में कम्पन होने लगती है। शरीर ऐंठ जाता है तथा रोगी की मृत्यु भी हो सकती है। दाँतों की सतह एनामेल के गिर जाने से खुरदरी हो जाती है। दाँतों की चमक खत्म हो जाती है। दाँतों पर फ्लोरीन का जमाव होने के कारण दाँत मटमैले से दिखाई पड़ते हैं। दाँतों पर पीले और भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। दाँतों का एनामेल कहीं-कहीं से उखड़ जाता है जिससे दाँत कमजोर होकर गिर जाते हैं। अस्थियों में कैल्शियम तथा फ्लोरीन की सघनता के कारण रीढ़ की हड्डी में विद्यमान संयोजक तन्तु कड़े हो जाते हैं जिसके कारण पीठ बिल्कुल झुक जाती है। रोगी को उठने-बैठने में तकलीफ होती है तथा नाड़ी सम्बन्धी परेशानियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं।
जल के दूषित होने के कारण
यदि शुद्ध जल अमृत है तो दूषित पानी हानिकारक हो सकता है। सामान्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों, कुओं एवं नदियों के आसपास कपड़े धोने, बर्तन मांजने तथा मनुष्यों के नहाने की प्रवृत्ति विद्यमान है जिससे हमारा जल प्रदूषित हो जाता है। पीने योग्य जल स्रोत के आसपास कचरा एवं किसी भी प्रकार का अपशिष्ट नहीं डालना चाहिए। पेस्टिसाइड, कीटनाशकों एवं उर्वरकों को नदियों एवं तालाबों में छोड़ने से तथा हैण्डपम्प के टूटे प्लेटफॉर्म एवं जल के अव्यवस्थित निकास व्यवस्था के कारण गन्दा पानी जमीन के अन्दर चला जाता है जो जल के भूमिगत स्रोत को दूषित करता है। घर में पानी का असुरक्षित भण्डारण एवं रख-रखाव भी पानी को प्रदूषित करता है।
जल को शुद्ध रखने के उपाय
पीने तथा खाना पकाने के लिए काम में लिया जाने वाला जल शुद्ध होना चाहिए। जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए संग्रहित करने से लेकर उपभोग तक सावधानी बरतनी चाहिए। हमेशा मटके को अच्छी तरह धोकर जल को साफ कपड़े से छानकर भरना चाहिए। जल को हमेशा ढक कर रखना चाहिए, जिससे पानी के अन्दर धूल के कण, कीटाणु तथा कीड़े-मकोड़े आदि प्रवेश न कर सकें। जल निकालते समय गिलास में उंगलियाँ नहीं डुबानी चाहिए। अगर पानी भरने की जगह साफ नहीं हो तो पानी को उबालकर इस्तेमाल में लेना चाहिए। अगर पानी साफ नहीं हो तो उसमें फिटकरी या क्लोरीन की गोलियाँ डालकर, एक घण्टे बाद इस पानी को छानकर काम में लेना चाहिए। पानी को फ्लोरीन मुक्त करने के लिए गुलाबी फिटकरी या फ्लोराइड किट का उपयोग करना चाहिए।
जल के कार्य
जल हमारे शरीर में पोषण एवं दिनचर्या सम्बन्धी सभी क्रियाओं के सम्पादन के लिए जरूरी होता है। इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
1. प्यास शरीर की नैसर्गिक आवश्यकता है जिसकी तृप्ति का अनुभव जल के द्वारा ही होता है।
2. जल शरीर की प्रत्येक कोशिकाओं व अंगों के निर्माण का कार्य करता है। शरीर के सभी तरल पदार्थों का निर्माण जल के ही द्वारा होता है, जैसे- रक्त, पाचक रस, पित्त रस, पसीना, मल-मूत्र आदि।
3. जल शरीर के तापमान को स्थिर बनाये रखने में सहायता प्रदान करता है।
4. जल भोजन के पाचन, अवशोषण तथा चयापचय की सभी रासायनिक क्रियाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है।
5. रक्त का 80 प्रतिशत भाग पानी होता है। अतः यह रक्त परिसंचरण में सहायक होता है। इस माध्यम से ऑक्सीजन व अन्य पोषक तत्वों को कोशिकाओं में पहुँचाने तथा चयापचय की क्रियाओं के पश्चात उत्पन्न हुए विकारयुक्त एवं अनावश्यक पदार्थों को उत्सर्जित करने के लिए यह अति आवश्यक है। जलीय माध्यम से उपयोगी पदार्थों को सोखने व अनुपयोगी पदार्थों के उत्सर्जन की प्रक्रिया अत्यन्त सुगम हो जाती है।
6. यह सन्धियों के चारों ओर चिकनाहट का कार्य करता है।
7. जल बाहरी आघातों से शरीर की सुरक्षा करता है। रीढ़ की हड्डी एवं मस्तिष्क के कोमल तन्तुओं में पाया जाने वाला जल इनमें से एक गद्दी के रूप में काम करता है।
8. जल शरीर में उत्पन्न बेकार पदार्थों को मल-मूत्र तथा पसीने के रूप में उत्सर्जन संस्थान द्वारा बाहर निकालने में मदद करता है।
9. जल के द्वारा अनेक खनिज पदार्थ जैसे- सोडियम, पोटैशियम, फ्लोरीन, आयोडीन, कैल्शियम आदि की कुछ मात्रा शरीर को स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।
जल की दैनिक आवश्यकता
सामान्य स्थिति में प्यास लगना जल की आवश्यकता दर्शाता है, इस आधार पर प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में जल ग्रहण कर लेता है। सामान्य रूप से एक व्यस्क व्यक्ति को 6 से 9 गिलास पानी पीना चाहिए। किसी व्यक्ति को जल की प्रतिदिन की आवश्यकता व्यक्ति के कार्य के स्वरूप तथा मौसम पर निर्भर करती है। कठिन शारीरिक श्रम तथा उच्च तापमान के वातावरण (गर्मी के मौसम) में जल की आवश्यकता बढ़ जाती है। अन्तरराष्ट्रीय अनुसन्धान परिषद के अनुसार एक मिली. प्रति कैलोरी के अनुसार व्यक्ति को जल ग्रहण करना चाहिए अर्थात यदि कैलोरी की माँग 3,800 किलो कैलोरी होती है तो उस व्यक्ति को प्रतिदिन 3,800 मिली. जल ग्रहण करना चाहिए। जल की यह आवश्यकता कुछ विशेष शारीरिक अवस्था में बढ़ जाती है, जैसे- बच्चों को दुग्धपान कराने की अवस्था में तथा दस्त या उल्टी होने के समय। भोजन की प्रकृति भी जल की माँग को प्रभावित करती है, जैसे- अधिक प्रोटीनयुक्त भोज्य पदार्थों को पचाने के लिए अधिक जल की आवश्यकता होती है।
प्राप्ति के साधन
जल शरीर को पेय एवं भोज्य पदार्थों के सेवन से तथा शरीर में भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण द्वारा प्राप्त होता है। विभिन्न भोज्य पदार्थों में जल की उपस्थिति की मात्रा को तालिका-1 में दर्शाया गया है।
तालिका-1: विभिन्न भोज्य पदार्थों में जल की उपस्थित मात्रा (प्रतिशत में) | |||
भोज्य पदार्थ | जल की मात्रा | भोज्य पदार्थ | जल की मात्रा |
बाजरा | 12.4 | आलू | 74.7 |
जौ | 12.5 | मूली | 94.9 |
मक्का | 14.9 | शकरकन्द | 68.5 |
चावल | 13.3 | शलजम | 91.6 |
गेहूँ साबुत | 12.8 | आँवला | 81.8 |
गेहूँ का आटा | 12.2 | अंजीर | 88.1 |
मैदा | 13.3 | सेव | 84.6 |
हरा चना | 10.4 | केला | 70.1 |
हरा मटर | 72.9 | अंगूर | 82.2 |
सूखे मटर | 16.0 | अमरूद | 81.7 |
राजमा | 12.0 | कटहल | 76.2 |
सोयाबीन | 8.1 | नीम्बू | 85.0 |
चौलाई का साग | 90.1 | मौसमी | 88.4 |
बथुआ | 89.6 | खरबूजा | 95.2 |
पालक | 92.1 | तरबूज | 95.8 |
पत्ता गोभी | 91.9 | सन्तरा | 87.6 |
फूलगोभी | 80.0 | सन्तरा रस | 97.7 |
धनिया | 86.3 | पपीता | 90.8 |
पुदीना | 84.9 | नाशपाती | 86.0 |
चुकन्दर | 87.7 | अनानास | 87.8 |
गाजर | 86.0 | अनार | 78.0 |
जल की कमी का प्रभाव
शरीर में जल की कमी हो जाने से कुछ शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे- अशान्ति, चिड़चिड़ापन, वृद्धि में कमी, पाचन रसों के निर्माण में असन्तुलन आदि। पतले दस्त या उल्टी दस्त, अतिसार, रक्तस्राव एवं तीव्र ज्वर की अवस्था में शरीर में अधिक मात्रा में जल निकल जाता है। यानी शरीर में जल की कमी हो जाती है। खासतौर से पतले दस्त या उल्टी अधिक होने से पानी का उत्सर्जन बढ़ जाता है। पानी के साथ-साथ इनमें घुलनशील खनिज लवण, जैसे- सोडियम, पोटैशियम आदि भी शरीर से बाहर निकलने लगते हैं तब जी घबराना, चक्कर आना, सुस्ती जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। यह स्थिति निर्जलीकरण (डिहाइड्रेशन) कहलाती है।
जब शरीर में उपर्युक्त लक्षणों के साथ त्वचा ढीली पड़ना, आँखों के नीचे गहरे गड्ढे होना, मुँह व जीभ का शुष्क होना, आँखों के अन्दर की नमी समाप्त होना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। इस समय यदि नर्जलीकरण का इलाज नहीं किया जाए तो हृदय की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। चयापचय के बाद उत्सर्जित पदार्थ बाहर नहीं निकल पाते हैं जिससे अपच, कब्ज, रक्तविकार आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आँत्र तथा गुर्दे ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाते जिससे गठिया, वात रोग एवं पथरी रोग होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।
जल की अधिकता का प्रभाव
यदि अधिक मात्रा में जल ग्रहण किया जाए तो वह मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है। परन्तु कुछ बीमारियों में शरीर में सूजन आ जाती है। सीरम प्रोटिन का रसाकर्षण दबाव नियन्त्रित न होने के कारण उतकों में जलजमाव हो जाता है। अतः ऐसी अवस्था में कम मात्रा में जल का सेवन करना चाहिए।
जल का औषधीय महत्त्व
जल बहुत से रोगों में दवा का काम करता है। ठण्डे और गर्म जल में अलग-अलग औषधीय गुण होते हैं। कई रोगों में ठण्डा पानी और कई रोगों में गर्म पानी दवा का काम करता है। गर्म पानी का लाभ वात रोगों, जैसे- जोड़ों का दर्द, घुटनों का दर्द, गठिया, कन्धे की जकड़न में होता है। इसमें गर्म पानी या भाप का सेंक दिया जाता है।
जल जाने पर
जब कोई आग से जल जाए या झुलस जाए तो तुरन्त उसके जले, झुलसे अंग को ठण्डे पानी में कम से कम एक घण्टा डुबोकर रखें, उसे आराम मिलेगा, जलन दूर होगी और घाव या फफोला नहीं होगा।
आँखों की रोशनी
नियमित रूप से हाथ-मुँह धोते समय मुँह में एक घूँट पानी रखकर आँखों में पानी के छींटे देने से आँखों की रोशनी बढ़ जाती है।
बाल झड़ना
दो मुँहे बाल और बाल झड़ने की समस्या आजकल आम हो गई है। इसके लिए तीन बड़ा चम्मच समुद्री नमक एक लीटर पानी में उबालकर, ठण्डा करके बोतल में रख लें। जिस दिन बालों में शैम्पू करना हो, उस दिन इस पानी को बालों की जड़ में लगाकर अच्छी तरह मालिश करें फिर बालों में शैम्पू कर लें। ऐसा करने से बाल स्वस्थ व मजबूत होते हैं।
क्रोध
क्रोध की स्थिति में पैरों को ठण्डे पानी से धोकर एक गिलास ठण्डा पानी पीने से मानसिक तनाव दूर होता है तथा मस्तिष्क को शान्ति मिलती है।
कब्ज
त्वचा की कान्ति और चेहरे की चमक के लिए बेहद आवश्यक है कि कब्ज न रहे। इसके लिए प्रातःकाल खाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी में आधा नीम्बू निचोड़कर पीना चाहिए।
चोट
मोच आ जाने या चोट लग जाने पर उस स्थान पर ठण्डे पानी की पट्टी या बर्फ लगानी चाहिए। इससे न तो सूजन आएगी न ही दर्द बढ़ेगा। यदि चोट लगने या कटने से खून आ जाए तो वहाँ बर्फ या खूब ठण्डे पानी की पट्टी चढ़ा दें, इससे आराम मिलेगा। इंजेक्सन लगाने के बाद यदि उस स्थान पर सूजन आ जाए या दर्द बढ़े तो ढण्डे पानी की पट्टी या बर्फ लगानी चाहिए। कभी वहाँ गर्म पानी का सेंक नहीं करना चाहिए।
अनिद्रा
यदि रात में नीन्द न आती हो तो सोने से पूर्व दोनों पैरों को घुटनों तक सहने योग्य गर्म पानी से भरी बाल्टी या टब में 15 मिनट तक डुबोए रखें, इसके बाद पैरों को बाहर निकालकर पोंछ लें और सो जाएँ। नीन्द अच्छी आएगी। यह ध्यान रखें कि जब गर्म पानी में पैर डुबोएँ तब सिर पर ठण्डे पानी में भिगोकर निचोड़ा हुआ तौलिया अवश्य रखें।
दस्त और उल्टी
अस्पतालों में पतले दस्त या उल्टी दस्त हो जाने पर चिकित्सक द्वारा रोगियों को सेलाइन (नमकीन) पानी चढ़ाते हैं। इससे रोगी ठीक हो जाता है। पतले दस्त (डायरिया) की स्थिति में जीवनरक्षक घोल (ओआरएस) जो कि पानी, नमक, शक्कर व अन्य लवणों का जलीय विलयन होता है, पिलाया जाता है। शरीर में पानी की कमी न होने पाए इसीलिए यह घोल थोड़े-थोड़े अन्तराल पर दिया जाता है। शरीर में पानी की कमी हो जाने पर मृत्यु भी हो सकती है। यही कारण है कि रोगी के शरीर में पानी पहुँचाया जाता है। हमारे देश में अस्वास्थ्यकर वातावरण और आदतों के कारण बच्चों को पतले दस्त लगने पर प्रायः देखा जाता है कि इसका सर्वोत्तम प्राथमिक उपचार नमक, शक्कर का घोल घर में बनाकर देना है। बच्चे को चिकित्सक तक ले जाने से पूर्व जीवनरक्षक घोल बनाकर देते रहने से, उसके शरीर को निर्जलीकरण की स्थिति से बचाकर मृत्यु के खतरे को टाला जा सकता है।
थकान
अत्यधिक थकान हो जाने पर एक टब में गुनगुना पानी भरकर उसमें दो नींबू का रस निचोड़कर व थोड़ा-सा नमक मिलाकर, दस मिनट तक दोनों पैरों को डालकर बेफिक्र होकर बैठे रहें। इससे आप हल्का, तरोताजा व थकानमुक्त महसूस करने लगेंगे।
गले में खराश
गले में दर्द होने या खराश होने पर एक गिलास गुनगुने पानी में एक चम्मच नमक मिलाकर गरारे करने से बहुत लाभ होता है। साथ ही गुनगुना पानी पीना भी फायदेमन्द होता है। गले में सूजन आ जाए तो ताजे ठण्डे पानी में नीम्बू निचोड़कर गरारे करने से लाभ होता है।
जुकाम
अदरक के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक कप पानी में उबालने के बाद एक चम्मच चीनी मिलाकर पीने से जुकाम में आराम मिलता है।
मोटापा
नियमित रूप से सुबह-शाम भोजन के तुरन्त बाद एक गिलास गुनगुना पानी चाय की भाँति धीरे-धीरे पीने से मोटापा घटकर शरीर सन्तुलित हो जाता है। आँखों के नीचे स्याह घेरे दूर होते हैं। फूले हुए चेहरे की चर्बी घटकर चेहरा सुन्दर बनता है, रंग निखरता है तथा कब्ज की शिकायत दूर होती है।
रक्तसंचार
दो बाल्टियों में अलग-अलग ठण्डा व गर्म पानी भर लें। पहले गुनगुने पानी में तथा फिर ठण्डे पानी में पैर डुबोकर पाँच मिनट तक रखें। इस प्रक्रिया को कम से कम पाँच बार करें। शुरुआत और अन्त गुनगुने पानी से ही होना जरूरी है। यह उपचार पैर सम्बन्धी तमात समस्याओं में अत्यन्त लाभकारी है। इससे रक्तसंचार ठीक रहता है और पैरों के दर्द से भी मुक्ति मिलती है।
(लेखक राजस्थान कृषि महाविद्यालय उदयपुर से सम्बद्ध हैं)