Source
जनसत्ता, 12 अप्रैल 2012
यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित पानी के शोधन के लिए बने नियम-कायदों की अनदेखी की जाती रही है। शीतल पेय और बोतलबंद पानी के संयंत्रों, कपड़ा मिलों, चमड़े के कारखानों आदि में न केवल पानी की अधिक खपत होती है, बल्कि उनसे निकलने वाला गंदा पानी आसपास के खेतों, नदियों-तालाबों को दूषित करता और भूजल में अनेक घातक रसायन घोल देता है।
हमारे देश में पानी की समस्या दिनोंदिन और गंभीर होती जा रही है। इसके मद्देनजर प्रधानमंत्री ने भूजल के बेतहाशा दोहन पर लगाम लगाने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया है। इससे पहले योजना आयोग इस तरह की सिफारिश कई बार कर चुका है। अभी तक भूजल को लेकर कोई कानून नहीं है। जो जिस जमीन का मालिक है वह उसके नीचे छिपेजल-भंडार पर भी अपना एकछत्र अधिकार समझता है और कानून इसमें आड़े नहीं आता। इसलिए कृषिकार्य, कल-कारखानों, घरेलू उपयोग आदि में पानी की अक्सर बर्बादी देखी जाती है। पीने और रोजमर्रा के उपयोग लायक पानी की उपलब्धता लगातार कम होते जाने की कई वजहें हैं, मगर वर्षाजल का संचय न हो पाना और जमीनी पानी का अंधाधुंध दोहन इसके सबसे बड़े कारण हैं। भूजल के अनियंत्रित दोहन ने देश के अनेक इलाकों को स्थायी रूप से सूखे के कगार पर ला खड़ा किया है।इसलिए कुछ राज्य सरकारों ने गर्मी के मौसम में धान की खेती करने, शहरी इलाकों में घरेलू उपयोग के लिए पंपिंग सेट लगाने आदि पर प्रतिबंध लगा दिया है। महानगरों में मोटर लगा कर जल बोर्ड के पाइपों से पानी खींचने, टंकियों से पानी बहाते रहने, गाड़ियों की धुलाई में पाइप के इस्तेमाल वगैरह पर जुर्माने का प्रावधान किया गया है। पानी की बर्बादी रोकने को लेकर जागरूकता अभियान भी चलाए जाते हैं। मगर इस सबके अनुकूल नतीजे नहीं आ पाए हैं। इसलिए जमीनी पानी के दोहन को लेकर कानून बनाना जरूरी हो गया है। लेकिन क्या प्रस्तावित कानून सिर्फ सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिए पानी निकालने वालों पर लागू होगा, या इसके दायरे में औद्योगिक इकाइयां भी आएंगी? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित पानी के शोधन के लिए बने नियम-कायदों की अनदेखी की जाती रही है।
शीतल पेय और बोतलबंद पानी के संयंत्रों, कपड़ा मिलों, चमड़े के कारखानों आदि में न केवल पानी की अधिक खपत होती है, बल्कि उनसे निकलने वाला गंदा पानी आसपास के खेतों, नदियों-तालाबों को दूषित करता और भूजल में अनेक घातक रसायन घोल देता है। कुछ महीने पहले हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के कारखानों से निकलने वाले पानी को लेकर खुद पर्यावरण मंत्री ने चिंता जाहिर की थी। मगर गंगा कार्ययोजना के करीब पचीस साल तक चलते रहने और यमुना की सफाई पर अरबों रुपए खर्च हो चुकने के बावजूद इन नदियों की स्थिति सुधरने के बजाय लगातार चिंताजनक होती गई है। इसी तरह सौ गज से ऊपर के भूखंडों पर बनने वाले भवनों, रिहाइशी कॉलोनियों, दफ्तरों, सार्वजनिक भवनों आदि में वर्षाजल संचय का प्रबंध जरूरी किया गया, मगर औरों की बात तो दूर, खुद सरकारी परियोजनाओं में भी इसका पालन होता नहीं दिखता।
गांवों में सूख चुके तालाबों-बावड़ियों वगैरह को पुनर्जीवित करने की योजना कागजी खानापूर्ति होकर रह गई। लिहाजा, वर्षाजल संचय का मकसद वहां भी पूरा नहीं हो पा रहा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या खेती के मौजूदा तौर-तरीकों को बिना बदले भूजल-दोहन को सीमित करने का कानून प्रभावी हो सकता है? कृषि की प्रचलित प्रणाली में न सिर्फ रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ती गई है, बल्कि पानी की भी अत्यधिक खपत होती है। लिहाजा, बेहतर जल नीति के लिए खेती की पद्धति और उद्योगों की तकनीक और प्रबंधन पर भी सोचना होगा।