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प्रभात खबर, 18 दिसम्बर 2011
आदिवासी नेतृत्व के सामने दूसरा मार्ग अपने को गैर आदिवासी से काट लेने का है। यह रास्ता उग्रवाद और अलगाववाद की तरफ भी जाता है। जाहिर है मेधा पाटकर का नेतृत्व इन सभी के मुकाबले लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे से ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है। एक बड़ा सवाल, जिसका जवाब मिलना सबसे ज्यादा जरूरी है कि क्या मेधा के पास विकास का कोई विकल्प है या वे सिर्फ बड़ी परियोजनाओं का विरोध कर रही हैं। पश्चिम से आयातित सरकार के विकास मॉडल का विरोध कर रही हैं।
नर्मदा आंदोलन! डूब क्षेत्र में आये लोगों के बेहतर पुनर्वास और मुआवजे की मांग को लेकर शुरू हुआ यह आंदोलन पच्चीस वर्षों का एक लंबा सफर तय कर चुका है। बीते 25 वर्षों में इस आंदोलन ने कई चेहरे गढ़े, लेकिन मेधा पाटकर इस आंदोलन का सबसे खास चेहरा हैं। जब भी हम इस आंदोलन की बात करते हैं, मेधा अपने आप हमारी सोच से जुड़ जाती हैं। मुआवजे की मांग से शुरू हुआ यह आंदोलन बदलावों की मांग करते हुए बड़े बांधों के पूर्ण विरोध तक पहुंचा और आज फिर मुआवजे की मांग पर आकर सिमट रहा है। वास्तव में इस पूरे बदलाव को नर्मदा आंदोलन और मेधा पाटेकर को जोड़कर ही समझा जा सकता है। अरुण कुमार त्रिपाठी की किताब ‘मेधा पाटकर : नर्मदा आंदोलन और आगे’ इन सभी सूत्रों को एक सिरे से जोड़ने में काफी हद तक कामयाब दिखती है। लेखक कहते हैं कि दिक्कत यह है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन और मेधा इतने एकाकार हो गए हैं कि उन्हें अलग करना संभव नहीं है। यह तभी हो सकेगा जब आंदोलन और मेधा में गहरे अंतर्विरोध पैदा हों, लेकिन ऐसा नहीं है। वैसे भी पिछले कई दशकों से निरंतर काम करने वाली मेधा आज देश में विरोध की पहचान बन गयी हैं।सिंगूर हो या फिर नंदीग्राम, अन्ना का आंदोलन या फिर पास्को और भट्टा-परसौल, मेधा हर जगह उपस्थित दिखायी देती हैं। अपने सक्रिय सामाजिक जीवन के चलते मेधा, भारतीय समाज और राजनीति के बदलाव की एक नयी परिभाषा ईजाद कर रही हैं। एक गैर राजनीतिक व्यक्तित्व होते हुए भी मेधा के जीवन पर नजर डालकर हम भारत के राजनीतिक एजेंडे में होने वाले बदलावों को समझ सकते हैं, जो पिछले कई सालों से गांधी के सपनों के भारत से दूर होता जा रहा है। जिसने नेह के विकास मॉडल को आदिवासियों का दुश्मन, तो राजीव के मॉडल को कॉर्पोरेट कंपनियों के फायदे का एजेंडा बना दिया है। लेखक के अनुसार विकास के नाम पर विनाश की ओर जा रही मानव सभ्यता की धारा को मेधा ने पश्चिम से पूरब की तरफ खिसका दिया है। हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि नदी ने पश्चिम के ही दबाव में पूरब की तरफ पाट बदला है। इस दौरान एक तरफ मैदान बना, तो दूसरी तरफ फसलें डूबीं। इसलिए कहीं हाहाकार है, तो कहीं जय-जयकार।

आदिवासी नेतृत्व के सामने दूसरा मार्ग अपने को गैर आदिवासी से काट लेने का है। यह रास्ता उग्रवाद और अलगाववाद की तरफ भी जाता है। जाहिर है मेधा पाटकर का नेतृत्व इन सभी के मुकाबले लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे से ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है। एक बड़ा सवाल, जिसका जवाब मिलना सबसे ज्यादा जरूरी है कि क्या मेधा के पास विकास का कोई विकल्प है या वे सिर्फ बड़ी परियोजनाओं का विरोध कर रही हैं। पश्चिम से आयातित सरकार के विकास मॉडल का विरोध कर रही हैं। इसका जवाब यह किताब देती है। लेखक कहते हैं कि दरअसल, मेधा पाटकर का आंदोलन नेह के विकासवाद और विज्ञान व प्रौद्योगिकी को केंद्रीय जीवन मूल्य मानकर रची जा रही मानव सभ्यता को गांधी के ‘हिंद स्वराज’ की तरफ मोड़ देने का प्रयास है पर इस सवाल का जवाब अब भी नहीं मिला है कि क्या विकास और प्रौद्योगिकी को झटककर ‘हिंद स्वराज’ की ‘आदर्श’ स्थिति में समाज खड़ा हो सकता है? पेशे से पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने मेधा के जन्म से लेकर उनके आंदोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्ता बनने के पूरे सफर से पाठकों को रू-ब-रू कराया है। किताब की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि लेखक ने मेधा के कार्यों के वर्णन और विश्लेषण से ही उनके व्यक्तित्व को आंकने की कोशिश की है। इसमें भावुकता से ज्यादा वस्तुपरकता है।