कहते हैं कि पानी है तो जीवन है, लेकिन इन दिनों पानी की कमी से सारी दुनिया तबाह है। फिर भी कुछ लोग हैं जो पानी को बचाकर अपने ओर अपने आसपास के जीवन को बचाने में लगे हुए हैं उनके इन सकारात्मक प्रयासों ने दुनिया को एक नई दिशा दी है। कौन हैं ये लोग और कैसे बचा रहे हैं जल। पानी बचाने वाले इन पानीदार लोगों पर एक खास प्रस्तुतिकरीब बीस साल पहले कार्टूनिस्ट देवेंद्र ने एक कार्टून बनाया था जिसमें गर्मी के इस मौसम में एक महिला दोनों हाथों से नल निचोड़ रही है और तब जाकर उसमें से दो बूंद पानी गिरता है। सच पूछा जाए तो या कार्टून भी अब पुराना पड़ गया है। अब जल संकट के लिए गर्मी का इंतजार नहीं करना पड़ता। ठिठुराती ठंड में भी पानी का संकट सामने खड़ा मिल जाएगा। प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र के शब्दों में कहें तो ‘कहा नहीं जा सकता कि देश में राजनीति का स्तर गिरा है या जल का स्तर। लगता है इन दोनों में एक-दूसरे से नीचे गिरने की होड़-सी लगी हुई है।’ उनके अनुसार एक समय दिल्ली में ही कोई आठ सौ छोटे-बड़े तालाब थे। 17-18 नदियां थीं। कुछ हजार कुएं थे और ये सब मिलकर दिल्ली के हर हिस्से की प्यास बुझाते थे। लेकिन अब दिल्ली ने अपने सारे तालाब लगभग मार डाले हैं। हौजखास, तालकटोरा-जैसे बड़े तालाब अब बड़े महंगे मोहल्लों में तब्दील हो गए हैं।
दिल्ली ही क्यों, एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक लगभग सभी महानगरों में पानी की मांग और आपूर्ति में करीब 30 से 40 प्रतिशत तक का अंतर है और इसका सबसे बड़ा कारण है पानी की बर्बादी। रिपोर्ट के मुताबिक महानगरों को जो पानी दिया जाता है उसका अस्सी प्रतिशत नालियों के जरिए बर्बाद हो जाता है। इस बर्बाद हो रहे पानी को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने का बीड़ा फिलहाल एक निजी कंपनी आयन एक्सचेंज इंडिया लिमिटेड ने उठाया है। आयन के वाइस चेयरमैन राजेश शर्मा बताते हैं कि अगर हर हाउसिंग सोसायटी में वाटर साइकलिंग प्लांट लगाया जाए तो हर सोसायटी में हर साल लगभग 55 हजार क्यूबिक मीटर पानी की बचत होगी और एक क्यूबिक मीटर पर लगभग ग्यारह रुपये का खर्च आएगा। कंपनी की योजना है कि यह खर्च कंपनी सोसायटी के लोगों से वसूलेगी।
हमारे देश में चेरापूंजी से लेकर जैसलमेर जैसे इलाके हैं। एक जगह सैकड़ों इंच पानी गिरता है तो दूसरी जगह आठ-नौ इंच पानी गिर जाए तो प्रकृति की कृपा मानी जाती है। बकौल अनुपम मिश्र यहां रहने वाले समाजों ने अपने हिस्से में गिरने वाली एक-एक बूंद पानी बचाने के लिए स्वयंसिद्ध और समयसिद्ध तरीके निकाले। स्वयंसिद्ध यानी जिनको बनाने में बाहरी दिमाग, पैसे और मदद की जरूरत नहीं पड़ती और समयसिद्ध का मतलब है जो लंबी अवधि तक-कुछ सैकड़ों वर्षों तक खरे बने रहें। ऐसे तरीकों में तालाब, नौला, गदेरे, चाल-खाल, कुंड, बावड़ी जैसे ढांचे रहे हैं और साथ ही प्रकृति की तरफ से दिया गया नदियों का वरदान। निस्संदेह पिछले दो सौ बरसों में एक ऐसा दौर आया जब इन तरीकों का महत्व थोड़ा धुंधला पड़ा और उनकी जगह नई महंगी योजनाओं ने ले ली। लेकिन आज नए तरीके न शहर की प्यास बुझा पा रहे हैं, न गांव की।
जल संकट से निपटने के ये सफल तरीके हिमालय से कन्याकुमारी तक हर जगह मिल जाएंगे। हिमालय के एक पश्चिमी कोने में उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल के उफरेखाल गांव के लोगों ने दूधातोली लोक विकास संस्थान की मदद से अपने यहां के चालों और खालों को फिर से बचाने का अभियान कोई पंद्रह बरस पहले शुरू किया था। आज उस इलाके में ऐसी बीस हजार चालें (छोटे तालाब) न सिर्फ पानी की जरूरत पूरी कर रही हैं, बल्कि इससे फैली नमी के कारण ईंधन और चारा भी आसानी से उपलब्ध होने लगा है।
इसी तरह दक्षिण बिहार में मगध जल जमात नामक संगठन ढाई हजार साल पुरानी जल प्रणाली (आहर पाइन पद्धति) को लोगों के सहयोग से खड़ा कर रहा है। पानी की कमी के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाने वाला राजस्थान भी अब फिर से अपने पुराने ढांचों को सहेजकर खुद को एक नया जीवन देने की तैयारी में खड़ा है। जैसलमेर जिले में देश की सबसे कम वर्षा होती है। इस साल वहां अकाल है। कुल छह सेंमी. पानी गिरा है, लेकिन जिन गांवों ने अपनी कुईं, बेरी, कुआं और तालाब फिर से सुधारे हैं, आज उन इलाकों में ऐसे अकाल के समय में भी पानी का संकट नहीं मिलेगा। राजस्थान के ही सवाई माधोपुर जिले की पहाड़ी ‘कोचर की डांगी’ पर बसा गांव खरकाली पहले पानी की कमी के चलते गर्मियों में सूना हो जाता था और लोग अपने घरों में ताले लगाकर मैदानों में आ जाया करते थे। अब यहां तरुण भारत संघ की सहायता से लोगों ने पानी के 33 टांके बनाकर पानी की वैकल्पिक व्यवस्था कर ली है। मेवात जिले के ग्राम भौड़ के भूरे खां ने पचासी साल की उम्र में पहाड़ी का सीना चीरकर तीन तालाब ही बना दिए। चौदह साल की उम्र से चरवाहे का काम कर रहे भूरे खां को पेड़-पौधों और जानवरों से विशेष प्यार है और मेवात की बंजर जमीन पर उनसे उनकी प्यास देखी नहीं गई। बस फिर क्या था, अपनी जिद और जुनून में उन्होंने अपने गांव में तीन-तीन तालाब ही खोद डाले जो अब बारिश के बाद के दिनों में भी पानी से भरे रहते हैं। पानी के मामले में गुजरात ने तो कई अनोखी मिसालें कायम की हैं। सौराष्ट्र जिले के श्यामजी भाई अंटाला ने बीते दो दशकों से गुजरात में सूखे कुओं को रिचार्ज करने की मुहिम छेड़ रखी है। अब तक वे राज्य के करीब तीन लाख से ज्यादा कुएं रिचार्ज करा चुके हैं। उनके इन प्रयासों की बदौलत ही भावनगर जिले के सूखाग्रस्त गांव लाखणका के लोगों ने अपने दम पर छोटे-छोटे ‘रोक बांध’ बनाकर पानी बचाने की एक अनोखी मिसाल कायम की।
सौराष्ट्र के ही प्रेमजी भाई पटेल ने आज से चालीस साल पहले कुआं रिचार्ज करने की मुहिम शुरू की थी। आज यह अभियान अपने शिखर पर है। प्रेमजी भाई खुद किसानों को कुआं रिचार्ज करने के लिए पाइप देते हैं। इसमें पांच सौ से लेकर एक हजार रुपये तक का खर्चा आता है। इसी तरह सावरकुंडला ताकुला का भेंकरा एक ऐसा गांव है जहां 24 साल पहले यहां के भगवानभाई ने एक छोटे से नाले को मिट्टी-पत्थर डालकर रोका था।
जाहिर है कि प्रकृति बहुत उदार है, वह हर साल हमें पानी देती है। यदि हम उसे बहने न दें- तालाबों, कुओं, कुंई, बेरी आदि में रोककर रखें तो लगातार गिरता जलस्तर एक साल में न सिर्फ संभल जाता है बल्कि आने वाले दौर में तेजी से उठ भी सकता है। आज गिरती राजनीति का स्तर तो उठना ही चाहिए गिरा हुआ जलस्तर नहीं उठा तो हम सबका जीवन एक कठिन दौर में फंस जाएगा।
Source
कादम्बिनी, जून 2010