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संडे नई दुनिया, 24 अप्रैल 2011
पिछले एक दशक से जल-संकट झेल रहे केवलादेव घना राष्ट्रीय अभयारण्य को अब इंद्रदेव की मेहरबानी से जीवन मिला है। विलायती कीकर के जंगल से मुक्त कराए जा चुके इस अभयारण्य को अब बदली स्थितियों में साइबेरियाई सारस के आगमन का इंतजार है।
करीब एक दशक तक वीरानगी झेलने के बाद पक्षियों का स्वर्ग राजस्थान का केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभयारण्य एक बार फिर पक्षियों के कलरव से गूंज रहा है। कभी 250 प्रकार के प्रवासी पक्षियों की शरणस्थली बना यह अभयारण्य दस साल बाद पानी की भरपूर आवक के बाद फिर से अपनी रौनक पाने में कामयाब हुआ है। पिछली बार यहां 1998-99 में 250 प्रजातियों के प्रवासी पक्षियों ने विहार किया लेकिन लगातार घटते जल के स्तर की वजह से वर्ष 2007-08 तक आते-आते आने वाले पक्षियों की प्रजातियां सिमटकर 50 के आस-पास रह गईं। अनुकूल स्थितियों में कभी इस अभयारण्य में 400 प्रजातियों के पक्षी पाए जाते थे। पिछले साल इंद्र देवता की मेहरबानी और अजान बांध से अभयारण्य को पानी मिलने के कारण घना में फिर से रौनक लौट आई है। देशी-विदेशी परिंदों की कई प्रजातियों ने फिर से घना अभयारण्य को अपना ठौर बनाया है।दरअसल, भरतपुर के पूर्व महाराजा स्वर्गीय सूरजमल ने अपने पक्षी प्रेम की वजह से अभयारण्य तक पानी पहुंचाने के लिए अजान बांध का निर्माण कराया था और इससे वर्षों तक यहां पक्षियों के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण होता रहा लेकिन पिछले एक दशक से बांध में पानी की कम आवक के कारण किसानों को सिंचाई के लिए बीच में ही पानी को रोकने की जरूरत आन पड़ी जिससे घना में पक्षियों के लिए प्रतिकूल स्थितियां बन गईं। यह स्थिति बदलने की सरकारी कोशिशों ने हमेशा आदमी बनाम पशु-पक्षी की बहस का रूप ले लिया और हमेशा इंसानों की जीत होती रही। अजान बांध में गंभीरी और बाणगंगा नदियों से पानी आता है। राज्य सरकार और स्थानीय निवासियों के बीच हुए तालमेल के बाद अभयारण्य के लिए इस बार जरूरत भर पानी छोड़ा गया है। अभयारण्य में जल की आवक के साथ ही सबसे पहले भूरे बगुले और उनके पीछे-पीछे जलकौवे, सारस और लकलक बगुले अपने पुराने ठिकाने की ओर खींचते चले आए। फिर अन्य मेहमानों में जलसिंघे, हंस और बतख शामिल हुए। अब अभयारण्य को अपने पुराने प्रवासी मेहमान साइबेरियाई सारस का इंतजार है। वर्ष 2002 के बाद से ही यहां साइबेरियाई सारस नहीं पधारे हैं। वर्ष 1999 से 2002 तक इक्के-दुक्के साइबेरियाई सारस ही यहां आए जबकि 1998-99 तक साइबेरियाई सारसों के कारण ही इस अभयारण्य को खासी पहचान मिलती थी। सर्दियों की शुरुआत में हजारों की तादाद में साइबेरियाई सारस यहां आते और गर्मियां शुरू होने तक अपना डेरा जमाए रहते थे। घना अभयारण्य को साइबेरियाई सारस का दूसरा घर भी कहा जाता रहा।
बहरहाल, वन्यजीव विशेषज्ञों और अभयारण्य प्रशासन को बदली स्थितियों में भरोसा है कि पानी की आवक यदि ऐसे ही जारी रही तो अगले एक-दो साल में यहां फिर से साइबेरियाई सारस का कलरव सुनाई देगा। पीपुल फॉर एनीमल्स संस्था के प्रदेश प्रभारी बाबूलाल जाजू कहते हैं, 'अभयारण्य में कई साल बाद पर्याप्त मात्रा में पानी की आवक खुशी की बात है लेकिन इस स्वरूप को बरकरार रखने के लिए सरकार और वन्यजीव प्रशासन को गंभीर कदम उठाने होंगे।' जाजू मानते हैं कि अभयारण्य परिसर में प्रभावशाली लोगों के लिए बनाए जा रहे गेस्ट हाउस, अभयारण्य के आस-पास फैला शिकारियों का जाल और अभयारण्य की परिधि में पसरता कंक्रीट का जंगल वन्यजीवों के लिए गंभीर खतरा है।
एक प्राचीन शिव मंदिर से प्राप्त केवलादेव नाम वाले इस अभयारण्य को भरतपुर और घना पक्षी अभयारण के नाम से भी जाना जाता है। इसे भारत सरकार ने वर्ष 1981-82 में राष्ट्रीय अभयारण्य का दर्जा दिया। वर्ष 1985 में यूनेस्को ने भी इसे विश्व धरोहरों की सूची में शामिल किया। तब से संस्थान ने वन्यजीवों और पक्षियों के संरक्षण के लिए हर साल करोड़ों रुपए का अनुदान दिया। अभयारण्य में जल के अभाव की गंभीरता से अनजान बनी सरकार को पिछले साल यूनेस्को ने जब चेतावनी दी कि जल की व्यवस्था अविलंब नहीं करने पर अभयारण्य को अनुदान बंद कर दिया जाएगा तब सरकार चिंतित हुई। हालांकि इसी बीच इंद्र देव ने भी मेहरबानी दिखाई और पक्षियों के साथ-साथ सरकार की मुश्किलें भी दूर कर दीं। लंबे समय तक जल का अभाव झेल रहे अभयारण्य में बड़ी मात्रा में विलायती कीकर के पनपने से भी यहां के संसाधनों को खूब नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया था। वर्ष 2001 से 2005 के बीच अभयारण्य के आधा हिस्सा इसके जंगल से पट गया था। इसने यहां के पेड़-पौधे नष्ट करने शुरू कर दिए थे। हालांकि अभयारण्य प्रशासन ने स्थानीय लोगों की मदद लेकर सैकड़ों की तादाद में आर्थिक विकास समितियां बनाईं और जमीन से विलायती कीकर उखाड़ फेंका।
19वीं सदी के मध्य तक यह अभयारण्य बेजुबान पक्षियों के शिकार के लिए चर्चित रहा। वर्ष 1850 में ब्रिटिश वायसराय के स्वागत में यहां बड़े पैमाने पर पक्षियों का शिकार किया गया था तो वर्ष 1938 में लॉर्ड लिनलिथगो ने यहां करीब 4,273 पक्षियों का शिकार किया। इसमें इसमें बड़ी संख्या में हंस और बतख प्रजाति के पक्षी थे। धीरे-धीरे पक्षियों के शिकार पर रोक लगी और अपने प्रवासी पक्षियों के कारण यह अभयारण्य विश्वप्रसिद्ध हुआ। साइबेरिया और मध्य एशिया से यहां हर साल लाखों की तादाद में प्रवासी परिंदे सर्दियों में आते रहे। इन्हें देखने हजारों की तादाद में देशी-विदेशी सैलानी भी यहां खिंचते चले आए। जयपुर और आगरा जाने वाले अधिकांश पर्यटक घन पक्षी अभयारण्य प्रशासन के लिए भी मददगार होती पर पिछले एक दशक से सैलानियों की आवक में भी भारी कमी देखी गई।
बताते चलें कि केवलादेव घना राष्ट्रीय अभयारण्य में पक्षियों के साथ-साथ 390 प्रजाति के फूल भी देखे जा सकते हैं। यहां मछलियों की 50 प्रजातियां, सांप की 13 प्रजातियां, नेवले की आठ प्रजातियां मेंढक की सात प्रजातियां और कछुए की पांच प्रजातियां पाई जाती हैं। इसके अलावा तितली और अन्य छोटे जीवों की भी सैकड़ों प्रजातियां अभयारण्य को संपन्नता प्रदान करती हैं।
Anand.chaudhary@naidunia.com