जल समस्या: स्थानीयता ही है समाधान

Submitted by Hindi on Fri, 06/03/2016 - 12:56
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, 03 जून, 2016

जल संकटवैश्विक तौर पर इस बार का अप्रैल महीना सबसे गरम था और इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि हम अब तक की सबसे भीषण गर्मी का सामना कर रहे हैं। मीडिया बता रहा है कि जलाशयों में पानी समाप्त हो रहा है तथा किसानों व ग्रामीणों के साथ ही साथ शहरियों के दुर्दिन भी आ रहे हैं। अपनी स्मृति के सबसे भयावह अकाल से भारत के करीब 30 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं, और वे अब पलायन कर रहे हैं। परन्तु यह त्रासदी समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर स्थान नहीं पा पाई।

अनेक नेताओं की इस राष्ट्रीय त्रासदी के प्रति ह्रदयहीनता साफ तौर पर दिखाई दे रही है। यह बात स्वयं की पीठ ठोकने, सार्वजनिक धन से अपनी ‘उपलब्धियों’ का बखान करने और अपने वेतन स्वयं बढ़ा लेने के साथ ही साथ अकाल प्रभावित क्षेत्रों में न जाने से और वहाँ के लोगों से न मिलने से तथा उन्हें समय पर धन आवंटित न करने से साफ नजर आ रही है। इसके लिये सर्वोच्च न्यायालय को राज्य एवं केन्द्र सरकार को चेताना पड़ा कि सरकारें अपनी प्यासी जनता को पानी पिलाने का कुछ प्रयत्न करें। वैसे तो पानी को लेकर तमाम महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं लेकिन दो बिन्दुओं पर तत्काल विचार होना आवश्यक है। यह हैं- शहरी जलप्रदाय एवं नदीजोड़ परियोजना।

शहरी क्षेत्रों में पानी का प्रबंधन


उपरोक्त विषय पर सरकारें मीडिया में विरोधाभासी रिपोर्ट दे रही हैं। कुछ अधिकारियों का कहना है शहरी क्षेत्रों में पानी की कमी से पार पाया जा सकता है जबकि अन्य का कहना है कि स्थितियाँ अभी और भी बिगड़ेगी। वही राजनीतिज्ञ अपनी परम्परानुसार अधिकारियों को आदेश दे रहे हैं कि ‘पीने के पानी की आपूर्ति में बाधा नहीं आना चाहिए।’ सरकारों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते कुछ लोगों को दो -तीन या कहीं-कहीं तो सात दिनों में कुछ घंटे पानी मिल रहा है और कहीं रोज पानी मिल रहा है और वे पाइप से अपनी कारें धो रहे हैं और बगीचे की घास को तर कर रहे हैं। खराब सामग्री और गैरजिम्मेदाराना रख-रखाव के चलते जब पानी का पाइप फूट जाता है तो भी जलापूर्ति के लिये जवाबदेह अधिकारी सुधारकार्य में सुस्ती दिखाते हैं और लाखों-लाख लीटर पानी नालियों में बह जाता है और दूसरी ओर हजारों लोग या तो सार्वजनिक नलों पर लंबी कतार लगाए होते हैं या जलगिरोहों (पानी माफिया) के माध्यम से चलने वाले टैंकरों से पानी खरीद रहे होते हैं।

एक ओर तो नागरिकोें से विनम्रता से कहा जाता है कि वे सहयोग करें एवं सावधानीपूर्वक पानी का इस्तेमाल करें। परन्तु निष्क्रिय पानी मीटर, अवैध नल कनेक्शन और पानी के बकाया बिल पर सख्ती नहीं की जाती। यह प्रशासनिक असफलता का द्योतक है। यदि किसी नतीजे पर पहुँचना है और बदतर होती स्थिति को काबू में लाना है तो जनता का सहयोग व भागीदारी अनिवार्य है।

जरूरी कदम


जब जल-स्रोत साथ छोड़ दें तो हमारा ध्यान मांग आधारित आपूर्ति की बजाए उपलब्ध पानी के वास्तविक मांग के आधार पर प्रबंधन पर होना चाहिए। इस हेतु प्रभावशाली ढंग से प्रणाली में सुधार, जिसमें वितरण को योजना अधोसंरचना और नवीनीकरण विद्युत ऊर्जा लागत में कमी और व्यक्तिगत प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इसके अलावा,

- पानी की दरों की समीक्षा और अत्यधिक उपभोग वाले उपभोक्ताओं हेतु दर में तेज वृद्धि।
- मीटरों के परिचालन अवैध नल कनेक्शन और बकाया बिलों के संदर्भ में वर्तमान कानूनों का अनुपालन जिससे कि गलती करने वाले उपभोक्ताओं और अधिकारियों पर कार्यवाही संभव हो
- पानी के बेकार बहने पर रोक एवं न्यूनतम समय जल आपूर्ति करना।

नदी जोड़ परियोजना


बढ़ते जलसंकट से निपटने की प्रक्रिया में हड़बड़ी भविष्य के लिये खतरा पैदा कर सकती है। नदी जोड़ परियोजना अपने आप में ही एक विध्वंसक विचार है। आवश्यकता है कि सभी बिन्दुओं पर विचार कर एक परिपूर्ण समाधान की दिशा में कदम बढ़ा जाएं।

सन 2002 में नदी जोड़ परियोजना की लागत करीब 5,60,000 करोड़ रु. आ रही थी। परंतु अब इसकी लागत 10,00,000 करोड़ से कम नहीं पड़ेगी। इसके अन्तर्गत 30 बड़ी नदियों को 37 विशाल नहरों के माध्यम से एक दूसरे से जोड़ा जाना था। इसमें ‘जल आधिक्य’ क्षेत्र से अकाल पीड़ित या ‘पानी की कमी’ वाले इलाके के साथ ही साथ बाढ़ एवं अकाल से छुटकारा पाने हेतु करीब 6,00,000 एकड़ भूमि के हस्तांतरण की आवश्यकता पड़ेगी। यह प्रस्ताव अत्यंत आकर्षक दिखाई पड़ता है लेकिन इसके अत्यंत गम्भीर परिणाम सामने आएंगे।

बाढ़ के पानी का संग्रहण भागलपुर (बिहार) के निकट गंगा से किया जाएगा जो कि समुद्र सतह से करीब 60 मीटर की ऊँचाई पर है। यहाँ पर बाढ़ के समय करीब 50000 क्यूमेक्स (क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड) पानी गुजरता है। जिस नहर में इस पानी को डालना है उसकी अधिकतम चौड़ाई 100 मीटर और गहराई 10 मीटर होगी और यह केवल 2000 क्यूमेक्स पानी समेट पाएगी। इस तरह इससे तो केवल 4 प्रतिशत बाढ़ से ‘छुटकारा’ मिल पाएगा। इसके परिचालन एवं रख-रखाव पर अनापशनाप खर्च होगा और यह पूर्वी तट पर गुरुत्वाकर्षण से 60 मीटर के नीचे ही आपूर्ति कर पाएगी। जबकि अकाल प्रभावित क्षेत्र तो दक्खन का पठार है जो कि समुद्र तट से करीब 1000 मीटर की ऊँचाई पर है। इस तरह नदी जोड़ से न तो बाढ़ की और न ही अकाल की समस्या का समाधान संभव है।

दूसरा यह कि बाढ़ तो केवल मॉनसून के चार महीनों में आती है। बाकी 8 सूखे महीनों में गंगा औसतन 5280 क्यूमेक्स ही बहती है। अतएव नहर को नदी से जोड़ कर मुख्य नहर को बहने देना एक दुष्कर कार्य है और इसमें अत्यधिक खर्चीली तकनीक का प्रयोग करना होगा। इसके अलावा इस प्रक्रिया को स्थानीय लोगों के प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ेगा क्योंकि 2000 क्यूमेक्स पानी लेने का अर्थ है नदी का 38 प्रतिशत पानी उठा लेना। इससे स्थानीय तौर पर असंतोष फैलेगा। क्योंकि यह योजना बाढ़ के मौसम में बेकार है और शुष्क मौसम में अव्यावहारिक अतएव यह योजना अपने मूलस्वरूप में ही त्रुटिपूर्ण है।

भारत में अभी भी तमाम अंतराज्यीय जलविवाद चल ही रहे हैं। अनेक विवाद न्यायाधिकरण मान रहे हैं कि राज्यों के बीच जल बटवारा एक समस्यामूलक स्थिति है। अब तो राज्यों में जिलों के मध्य भी विवाद प्रारंभ हो गए है। ऐसे में नदी जोड़ परियोजना से न केवल सामाजिक असंतोष बढ़ेगा बल्कि राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ेगी। वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक राज्य पानी की मांग कर रहा है। सभी स्थानों पर पानी की कमी से स्थानीय समस्याएं खड़ी हो रही हैं। आज महाराष्ट्र के लातूर में जलस्रोतों के निकट पुलिस बल लगाना पड़ रहा है।

स्थिति कैसी है ?


वर्तमान जल समस्या से व्यापक दूर-दृष्टि से ही निपटा जा सकता है। अतएव कुछ तात्कालिक के साथ दीर्घकालिक उपाय भी करने होंगे। नदी जोड़ परियोजना पूर्णत: मांग आधारित है। लेकिन व्यापक हल के लिये कुछ और करना होगा। सतलुज-युमना लिंक विवाद या कावेरी नदी जल विवाद से समझा जा सकता है कि नदी जोड़ का हश्र क्या होगा। भारत में वैसे ही पानी की कमी है और विश्व दिनों-दिन गरम होता जा रहा है। हम ऐसे समय काल में प्रवेश कर गए हैं जिसमें बिना सोचे समझे पानी की आपूर्ति करना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। आवश्यकता है कि तुरंत सामाजिक संवेदनशील और आर्थिक व्यवहार्य जलप्रबंधन किया जाए। यदि हम एक लोकतांत्रिक एवं प्रभावशील जल प्रबंधन ढाँचा बनाने में असफल रहते हैं तो हमारे प्रशासन का लोकतांत्रिक ढाँचा संकट में पड़ सकता है। क्योंकि उग्र सामाजिक स्थितियाँ हिंसा को उकसा सकती हैं। केन्द्र और राज्य के राजनीतिक नेता घर फूंक तमाशा देखने की प्रवृत्ति से बाज आएं और समझें कि जलसंकट का एकमात्र समाधान स्थानीय तौर पर पानी का संरक्षण और प्रबंधन ही है।

श्री एस. जी. वोम्बट्कर सेवानिवृत्त मेजर जनरल हैं। उन्हें सन 1993 में विशिष्ट सेवा मेडल प्रदान किया गया था। उन्होंने आहरी मद्रास से पी.एच.डी की है। तथा उनके सैकड़ों आलेख प्रकाशित हो चुके हैं।