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भगीरथ - जनवरी-मार्च 2011, केन्द्रीय जल आयोग, भारत
जब तक जल के महत्व का बोध हम सभी के मन में नहीं होगा तब तक सैद्धांतिक स्तर पर स्थिति में सुधार संभव नहीं है। इसके लिये लोगों को जल को सुरक्षित करने के लिये सही प्रबंधन के अनुसार कार्य करना होगा यदि वक्त रहते जल संरक्षण पर ध्यान न दिया तो हो सकता है कि जल के अभाव में अगला विश्वयुद्ध जल के लिये हो तो इसमें आश्चर्य नहीं और हम सब इसके लिये जिम्मेदार होंगे, अर्थात यह संपूर्ण मानव समाज।
प्राचीन काल से ही जल के लिये अधिक समृद्धि क्षेत्र उपमहाद्वीप को माना जाता था, पर वर्तमान समय में विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी जल संकट की समस्या ज्वलंत है। जल संकट आज भारत के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, जिस भारत में 70 प्रतिशत हिस्सा पानी से घिरा हो वहाँ आज स्वच्छ जल उपलब्ध न हो पाना विकट समस्या है। भारत में तीव्र नगरीकरण से तालाब और झीलों जैसे परंपरागत जलस्रोत सूख गए हैं। उत्तर प्रदेश में 36 ऐसे जिले हैं जहाँ भूजल स्तर में हर साल 20 सेंटीमीटर से अधिक की गिरावट आ रही है। उत्तर प्रदेश के इन विभिन्न जनपदों में प्रतिवर्ष पोखरों का सूख जाना, भूजल स्तर का नीचे भाग जाना, बंगलुरु में 262 जलाशयों में से 101 का सूख जाना, दक्षिण दिल्ली में भूमिगत जलस्तर 200 मीटर से नीचे चला जाना, चेन्नई और आस-पास के क्षेत्रों में प्रतिवर्ष 3 से 5 मीटर भूमिगत जलस्तर में कमी, जल संकट की गंभीर स्थिति की ओर ही संकेत करते हैं।केंद्रीय भूजल बोर्ड के द्वारा विभिन्न राज्यों में कराए गए सर्वेक्षण से भी यह बात स्पष्ट होती है कि इन राज्यों के भूजल स्तर में 20 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की दर से गिरावट आ रही है। भारत में वर्तमान में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 2,000 घनमीटर है, लेकिन यदि परिस्थितियाँ इसी प्रकार रहीं तो अगले 20-25 वर्षों में जल की यह उपलब्धता घटकर 1500 घनमीटर रह जायेगी। जल की उपलब्धता का 1,680 घनमीटर से कम रह जाने अर्थ है। पीने के पानी से लेकर अन्य दैनिक उपयोग तक के लिये जल की कमी हो जाएगी। इसी के साथ सिंचाई के लिये पानी की पर्याप्त उपलब्धता न रहने पर खाद्य संकट भी उत्पन्न हो जाएगा। मनुष्य सहित पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जंतु एवं वनस्पति का जीवन जल पर ही निर्भर है। जल का कोई विकल्प नहीं है। यह प्रकृति से प्राप्त निःशुल्क उपहार है पर बढ़ती आबादी, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और उपलब्ध संसाधनों के प्रति लापरवाही ने मनुष्य के सामने जल का संकट खड़ा कर दिया है। यह आज 21वीं सदी के भारत के मानव के लिये एक बड़ी चुनौती है, और इसकी दोषी सरकार नहीं बल्कि मानव समाज ही है, फिर भी जल के दुरुपयोग को रोका नहीं जा रहा है।
आज भी जगह-जगह जल का दुरुपयोग हो रहा है। जल संकट को जानते और समझते हुए भी इसे बचाने के प्रयास नहीं हो रहे हैं। जल के कुप्रबंधन की समस्या से अगर भारत शीघ्र ही न निपटा, तो निश्चित ही भविष्य में स्थितियाँ और भी भयावह हो जाएँगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि जल के प्रबंधन में भारत की जनसंख्या और गरीबी बड़ी चुनौती है। इस पर गंभीरतापूर्वक कदम सरकार को उठाने होंगे तथा प्रदूषित पेयजल से जनता को बचाने के लिये कारगर प्रयास करने होंगे, क्योंकि विकास के साथ-साथ जल की समस्या भी दिनों दिन बढ़ती जा रही है।
वर्तमान में जल संकट बहुत गहरा है। आज पानी का मूल्य बदल गया है और जल महत्त्वपूर्ण व मूल्यवान वस्तु बन चुका है। शुद्ध जल जहाँ एक ओर अमृत है, वहीं पर दूषित जल विष और महामारी का आधार। जल संसाधन, संरक्षण और संवर्धन आज की आवश्यकता है, जिसमें जनता का सहयोग अपेक्षित है। जल संकट वर्तमान समय में विकराल रूप लिये हुए है। जल की कमी से मानव जीवन के रहन-सहन में अंतर आ रहा है। 21वी सदी में जहाँ भारत ने विकास ने कीर्तिमान स्थापित किए हैं वहीं जनसंख्या वृद्धि के साथ नगरीकरण व औद्योगीकरण ने जल की मांग को बढ़ाया है। यह मानव समाज के लिये चिंता का विषय है। समस्या मानव जीवन का एक अंग है। मानव का जीवन समस्याओं का निदान करते हुए बीतता है, किंतु जब एक ही समस्या हर बार वैसी ही आती है, तो वह समस्या मानवीय चूक से उत्पन्न समस्या होती है। जल संकट भी मानवीय चूक से उत्पन्न एक समस्या है। मानव ने सभ्यता प्रगति के साथ प्रकृति का भी दोहन किया है।
प्रकृति के तत्वों, जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी एवं आकाश में से जल ही एक मात्र तत्व है, जो सीमित है। कई वर्षों से यह दिख रहा है कि जितने व्यक्ति जल न्यूनता से प्रभावित होते हैं, लगभग उतने ही व्यक्ति जल आधिक्य से प्रभावित होते हैं। जल न्यूनता या सूखा एवं जल आधिक्य या बाढ़ दोनों ही समस्याएँ जल संकट के दो पहलू हैं जल संकट में निरंतर अभिवृद्धि हो रही है। भूमिगत जल का संतृप्त तल गहराई की ओर खिसकने से परंपरागत जलस्रोत सूख रहे हैं। पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल लगभग 01 अरब 36 करोड़, 60 लाख घन कि.मी. है, परंतु उसमें से 97.5 प्रतिशत जल समुद्री है जो खारा है, यह खारा जल समुद्री जीवों और वनस्पतियों के अतिरक्त धरातलीय मानव, वनस्पति तथा जीवों के लिये अनुपयोगी है। शेष 2.5 प्रतिशत जल मीठा है। किंतु इसका 24 लाख घन कि.मी. हिस्सा 600 मीटर गहराई में भूमिगत जल के रूप में विद्यमान है तथा लगभग 5.00 लाख घन किलोमीटर जल गंदा व प्रदूषित हो चुका है।
इस प्रकार पृथ्वी पर उपस्थित कुल जल का मात्र 01 प्रतिशत ही उपयोगी है। इस एक फीसदी जल पर दुनिया की 06 अरब आबादी समेत सारे सजीव और वनस्पतियां निर्भर हैं। इस मीठे जल से सिंचाई, कृषि कार्य तथा तमाम उद्योग संचालित होते हैं। जल जीवन के लिये अमृत है एवं प्रकृति के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। इसका दुरुपयोग इसे दुर्लभ बना रहा है। आज भारत सहित दुनिया के अनेक देश जल संकट का सामना कर रहे हैं। जल की उपलब्धता का सूचकांक, फाल्केन मार्क सूचकांक के अनुसार घरेलू खपत, कृषिगत उद्योगों, ऊर्जा उत्पादन तथा अनुकूल पर्यावरण के लिये मीठे जल की आवश्यकता प्रति व्यक्ति, लगभग 1700 घनमीटर आंकी गई है। जहाँ इतना जल उपलब्ध नहीं है वहाँ जलाभाव की स्थिति मानी जाती है तथा जल उपलब्धता मात्र 500 घन मीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति रह जाए तो घोर जलाभाव की स्थिति मानी जाती है।
दुर्भाग्यवश आज देश के अनेक हिस्सों में ऐसी स्थिति निर्मित हो चुकी है। अन्तरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान बैंकॉक की रिपोर्ट के अनुसार देश के अनेक हिस्से वर्ष 2025 तक जलाभाव की गिरफ्त में होंगे। यह जलाभाव देश में खाद्यान्न संकट पैदा करेगा, उद्योगों को खत्म कर देगा, पलायन, बेरोजगारी और आपसी संघर्ष को बढ़ाएगा जिससे देश की अर्थव्यवस्था टूट सकती है। भारत वर्ष में विश्व के कुल मीठे जल की मात्रा का 2.5 प्रतिशत जल मौजूद है। जिसका 89 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। चूँकि देश तेजी से जलाभाव की ओर बढ़ रहा है, अतः इसे सहेजना हमारी जिंदगी के अनिवार्य कार्यों में से एक होना चाहिए। कुशल प्रबंधन के जरिए जल को सहेजा और बचाया जा सकता है। वर्तमान समय की आवश्यकता है, जल संरक्षण और प्रबंधन।
जल प्रबंधन की शुरुआत कृषि क्षेत्र से करनी चाहिए क्योंकि सर्वाधिक मात्रा में कृषि कार्यों में ही जल का उपयोग किया जाता है तथा सिंचाई में जल का दुरुपयोग एक गंभीर समस्या है। जनमानस में धारणा है कि अधिक पानी अधिक उपज, जो कि गलत है। फसलों के उत्पादन में सिंचाई का योगदान 15-16 प्रतिशत होता है। फसल के लिये भरपूर पानी का मतलब मात्र मिट्टी में पर्याप्त नमी ही होती है। परंतु वर्तमान कृषि पद्धति में सिंचाई का अंधाधुंध इस्तेमाल किया जा रहा है। धरती के गर्भ से पानी का आखिरी बूँद भी खींचने की कवायत की जा रही है। देश में हरित क्रांति के बाद से कृषि के जरिए जल संकट का मार्ग प्रशस्त हुआ है। बूँद-बूँद सिंचाई, बौछार (फव्वारा) तकनीक तथा खेतों के समतलीकरण से सिंचाई में जल का दुरुपयोग रोका जा सकता है। फसलों को जीवन रक्षक या पूरक सिंचाई देकर उपज को दोगुना किया जा सकता है। जल उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिये समुचित सहयावर्तन तक पौधों को संतुलित पोषक तत्वों का प्रबंध करने की आवश्यकता है। जल की सतत आपूर्ति के लिये, भूमिगत जल का पुनर्भरण किया जाना जरूरी है।
भूमिगत जल के पुनर्भरण की आसान और सस्ती तकनीक से देश के किसान अंजान नहीं हैं उन्हें प्रोत्साहन की जरूरत है। किसान को बताया जाए कि जहाँ पानी बरसकर भूमि पर गिरे उसे वहीं यथासंभव रोका जाए। ढाल के विपरीत जुताई तथा खेतों की मेड़बंदी से पानी रुकता है। खेतों के किनारे फलदार वृक्ष लगाना चाहिए। छोटे- बड़े सभी कृषि क्षेत्रों पर क्षेत्रफल के हिसाब से तालाब बनाना जरूरी है। ग्राम स्तर पर बड़े तालाबों का निर्माण गाँव के निस्तार के लिये जल उपलब्ध कराता है, साथ ही भू-गर्भ जलस्तर को बढ़ाता है। देश की मानसूनी वर्षा का लगभग 75 फीसदी जल भूमि जल के पुनर्भरण के लिये उपलब्ध है, देश के विभिन्न पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के अनुसार लगभग 3 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल का संग्रहण किया जा सकता है। रासायनिक खेती के बजाय जैविक खेती पद्धति अपनाकर कृषि में जल का अपव्यय रोका जा सकता है। कृषि के बाद शेष 11 प्रतिशत जल का उपयोग मानवीय उपभोग तथा उद्योगों में किया जाता है।
इससे जल-मल को शुद्धीकरण के उपरांत भूमिगत जल पुनर्भरण के लिये प्रयोग किया जा सकता है, साथ ही कृषि और उद्योगों में भी उपयोगी किया जा सकता है। घरेलू जल का 90 प्रतिशत भाग पुनः चक्रण के जरिए उपयोगी बनाया जा सकता है। देश के शहरों में रहने वाले 30 करोड़ लोगों के द्वारा 200 लीटर प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति के हिसाब से लगभग 20 लाख हेक्टेयर मीटर जल-मल उत्सर्जित किया जाता है। इसका पुनर्प्रयोग संभव है। देश के प्रत्येक शहर में जल उपचार संयंत्रों की स्थापना करनी चाहिए। देश के तटीय क्षेत्रों में लवणीय जल पाया जाता है, इसे मीठा बनाने के प्रयास होने चाहिए। जिन क्षेत्रों में हवा में अधिक नमी पाई जाती है, वहाँ ओस का पानी संग्रहण किया जा सकता है। गुजरात के कुछ क्षेत्रों में ऐसे प्रयास चल रहे हैं। भवन निर्माण के समय भी ऐसी व्यवस्था की जरूरत है, जे संरक्षण के लिये उपयोगी हो। वास्तव में भारतवर्ष में प्राचीन परंपराओं में जल संरक्षण के कार्य को सर्वोपरि माना गया है। धार्मिक मान्यताएँ भी उचित जल संरक्षण का संकेत देती हैं।
जल संकट के कई कारण हो सकते हैं, यह समस्या कोई ऐसी समस्या नहीं है जो एक दिन में उत्पन्न हुई हो बल्कि जल संकट धीरे-धीरे उत्पन्न हुआ इस संकट ने आज विकराल रूप धारण कर लिया है। जल के संकट का अर्थ केवल इतना नहीं है कि सतत दोहन के कारण भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है बल्कि जल में शामिल होता घातक रसायनिक प्रदूषण, फिजूलखर्ची की आदत जैसे अनेक कारण हैं जो सभी लोगों को आसानी से प्राप्त हो सकने वाले जल की उपलब्धता के मार्ग में अवरोध खड़ा कर रहे हैं। जल संकट के कुछ कारण निम्नांकित हैं-
1. औसत वर्षा में गिरावट आना।
2. प्रति व्यक्ति जल खपत में वृद्धि
3. जनसंख्या में वृद्धि।
4. भूजल स्तर में निरंतर गिरावट आना।
5. जल की गुणवत्ता की समस्या।
6. जल का आवश्यकता से अधिक दोहन।
7. ग्रीष्म ऋतु में जलस्रोतों की कमी के कारण जल प्रदाय अवरुद्ध हो जाना।
8. वर्तमान में क्रियान्वित योजनाओं से पर्याप्त जल प्रदान क्षेत्र का न होना।
9. खारेपन की समस्या।
10. पाइप लाइन की तोड़-फोड़ की समस्या।
11. लोगों में जागरुकता का अभाव।
जल संकट को दूर कर के कुछ उपाय किए जा सकते हैं-
1. एक ठोस योजना, जिसके अंतर्गत हर गाँव एवं शहर में वर्षाजल संचय की व्यवस्था की जाए।
2. अत्यधिक जल दोहन रोकने के लिये कड़े कानून बनाए जाएं, जिसमें सजा का प्रावधान हो।
3. नदियों में प्रदूषण की रोकथाम के लिये उस क्षेत्र के अधिकारि एवं जन प्रतिनिधि की जिम्मेदारी निर्धारित की जाए।
4. तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण एवं परस्पर विवादों को समाप्त करके इस समस्या का निदान किया जाए।
5. कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसके तहत नदियों के मीठे जल का अधिक-से-अधिक उपयोग किया जा सके।
6. समुद्री जल का शोधन कर कृषि कार्यों में उपयोग किया जा सके, ऐसी विधियों के खोज की आवश्यकता है।
7. बरसाती पानी को एक गड्ढे के जरिए सीधे धरती के भूगर्भीय जल भंडार में उतारा जा सकता है।
8. बड़े संस्थानों के परिसर की दीवार के पास बड़ी नालियां बनाकर पानी को जमीन पर उतारा जा सकता है। इसी प्रकार कुओं में भी पाइप के माध्यम से बरसाती पानी को उतारा जा सकता है।
9. भूगर्भीय जल भंडार को रिचार्ज करने के अलावा छत के बरसाती पानी को सीधे किसी टैंक में भी जमा किया जा सकता है।
उपरोक्त जल संरक्षण से काफी कुछ जल संकट की समस्या का निराकरण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जल प्रदूषण से मुक्त रखने तथा इनकी उपलब्धता को बनाए रखने के कुछ और भी उपाय किए जा सकते हैं जो निम्न हैं-
1. अपने मकानों की छत के बरसाती पानी को ट्यूबवैल के पास उतारने से ट्यूबवैल रिचार्ज किया जा सकता है।
2. शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी अपने मकानों की छत से गिरने वाले वर्षा के पानी को खुले दलान में रेनवाटर कैचपिट बनाकर जल को भूमि में समाहित कर भूमि का जलस्तर बढ़ा सकते हैं।
3. रेनवाटर हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
4. तालाबों, गड्ढों, पोखरों की नियमित सफाई की जानी चाहिए।
5. प्रयोग किए गए जल को शोधन के उपरांत ही नदी में छोड़ा जाना चाहिए।
6. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में विशेष जल निस्तारण व्यवस्था करके अतिरिक्त जल को अन्य स्थान पर संरक्षित करने का प्रयोग किया जाना चाहिए।
7. पोखरों इत्यादि में एकत्रित जल से सिंचाई को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिससे भूमिगत जल का उपयोग कम हो।
8. शहरों में प्रत्येक आवास के लिये रिचार्ज कूपों का निर्माण अवश्य किया जाना चाहिए जिससे वर्षाजल नालों में न बहकर भूमिगत हो जाए।
9. समय-समय पर जल के नमूने लेकर उनमें मिश्रित तत्वों पर निगरानी रखी जानी चाहिए।
10. तालाबों, पोखरों, के किनारे वृक्ष लगाने की पुरानी परंपरा को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए।
11. बंजर भूमि एवं पहाड़ी ढालों पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए क्योंकि फसलों की तुलना में वृक्ष सूखे को अधिक समय तक बर्दाश्त कर सकते हैं साथ ही मानव एवं पशुओं को आश्रय एवं चारा प्रदान करते हैं।
12. ऊँचे स्थानों, बाँधों इत्यादि के पास गहरे गड्ढे खोदे जाने चाहिए जिससे उनमें वर्षा जल एकत्रित हो जाए और बहकर जाने वाली मिट्टी को अन्यत्र जाने से रोका जा सके।
13. कृषि भूमि में मृदा की नमी को बनाए रखने के लिये हरित खाद तथा उचित फसल चक्र अपनाया जाना चाहिए। कार्बनिक अपशिष्टों का प्रयोग कर इस नमी को बचाया जा सकता है।
14. वर्षाजल को संरक्षित करने के लिये शहरी मकानों में आवश्यक रूप से वाटर टैंक लगाने जाने चाहिए इस जल का उपयोग अन्य घरेलू जरूरतों में किया जाना चाहिए।
15. पेयजल आपूर्ति करने वाली पाइप लाइनों की निरंतर देखभाल होनी चाहिए तथा जल की हानिकारक सभी कमियों को तुरंत दूर किया जाना चाहिए।
16. नगर निगमों द्वारा जल संग्रहण टैंकों, ओवरहेड टैंकों की पर्याप्त देखभाल होनी चाहिए तथा जल की सभी हानिकारक कमियों को तुरंत दूर किया जाना चाहिए।
उपर्युक्त सुझावों के आधार पर जल संकट से बचा जा सकता है और पर्याप्त मात्रा में जल भविष्य के लिये सुरक्षित हो सकता है।
22 मार्च 2010 को विश्व जल दिवस पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून सभी राष्ट्रों से अपने संबोधन में यही कहना चाह रहे थे कि ‘जल ही जीवन है’ और इस ग्रह के सभी प्राणियों को आपस में जोड़ने वाला साधन भी यही है। संयुक्त राष्ट्र के हमारे सभी लक्ष्यों से यह सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है।
जच्चा-बच्चा बेहतर स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा, महिला सशक्तीकरण, खाद्य सुरक्षा, टिकाऊ विकास और जलवायु परिवर्तन का अनुकूलन एवं शासन। इन कड़ियों की मान्यता के फलस्वरूप 2005-2015 को कार्यवाही का अन्तरराष्ट्रीय दशक ‘पानी जीवन है’ के रूप में घोषित किया गया।
अब समय आ गया है कि जब जल एवं भारत के भविष्य पर चिंतन किया जाए। भारत-भविष्य और मानव तथा मानव के जीवन की कल्पना तभी तक की जा सकती है, जब तक जल होगा, क्योंकि जल ही जीवन है और भारत का भविष्य भी इसी पर निर्भर करता है। भारत को अब अति शीघ्र पुरानी व्यवस्था बदलकर नई व्यवस्था अपनानी चाहिए और नई पीढ़ी के मामले में मुश्किल भविष्य का सामना करने के लिये तैयार करना चाहिए। देखा जाए तो भारत जल के वैश्विक स्रोतों का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। पूरे विश्व में भारत में पानी का अत्यधिक प्रयोग 13 प्रतिशत होता है। भारत के बाद चीन 12 प्रतिशत, अमेरिका 09 प्रतिशत, का स्थान है। जैसे-जैसे पानी का उपभोग बढ़ता है देश पानी के अभाव की समस्या से जूझता है। भारत में बहुत सी नदियाँ कावेरी, सिंधु नदी का जो हिस्सा यहां है, कृष्णा, माही, पेनार, साबरमती और ऊपरी पश्चिमी क्षेत्र में बहने वाली नदियों में पानी कम हो गया है। गोदावरी और ताप्ती नदियां जलाभाव की स्थिति की ओर बढ़ रही हैं, जबकि गंगा, नर्मदा और सुवर्ण रेखा जैसी नदियों को तुलनात्मक जलाभाव की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस समय ब्रह्मपुत्र, मेघना, ब्रह्माणी, वैतरणी और महानदी आदि ऐसी नदियां हैं जिनमें अतिरिक्त जल है। आई.डब्ल्यू.एम. की एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक बहुत सी भारतीय नदियों में पानी का संकट होगा। भारत को प्रतिवर्ष वर्षा एवं बर्फ से बहकर आने वाली नदियों से औसतन 4000 अरब क्यूबिक मीटर जल प्राप्त होता है।
भारत में 4525 बड़े बाँध हैं, जिनकी संग्रह क्षमता 220 अरब क्यूबिक मीटर है। इसमें जल संग्रह के छोटे-छोटे स्रोत शामिल नहीं हैं, जिनकी क्षमता 610 अरब क्यूबिक मीटर है। फिर भी हमारी प्रति कैपिटा संग्रहण की क्षमता आस्ट्रेलिया, चीन, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन और अमेरिका से बहुत कम है। चूँकि वर्ष में एक निश्चित समय तक (लगभग 100 दिन) वर्षा होती है, इसलिये वर्ष के बाकी सूखे दिनों के लिये पानी को संग्रहीत करके रखना बहुत जरूरी है।
निष्कर्ष यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से जल संरक्षण वर्तमान समय की आवश्यकता है, क्योंकि जल ही जीवन है इसका संरक्षण एवं सही उपयोग किया जाना भारत के भविष्य के सतत विकास हेतु आवश्यक है। जल संकट एक बहुत बड़ी समस्या है जिसके विकल्प क रूप में रेनवाटर हार्वेस्टिंग सार्थक हल प्रस्तुत कर सकता है। सामान्य बरसात का पानी जहाँ गिरता है वहाँ से बहकर दूसरी जगह चला जाता है। पृथ्वी की सतह पर बहने से उसमें तमाम अशुद्धियाँ मिल जाती हैं फिर उसे पीने लायक बनाने के लिये काफी धन और श्रम की आवश्यकता होती है। आर.डब्ल्यू.एच. के सिद्धांतों के अनुसार पानी जहाँ गिरता है वहाँ एकत्र करना चाहिए, इस विषय पर वैश्विक स्तर पर प्रयास चल रहे हैं, कानून बनाए जा रहे हैं, बहुत सी सरकारी गैर सरकारी संस्थाएं प्रयास कर रही हैं, पर सारे प्रयास सफल तभी हो सकते हैं जब देश के नागरिक जल-संकट की भयावहता को महसूस करें और प्रयासों को सफल बनाने में सहयोग दें और निदान की दिशा में प्रयास करें। साहस के साथ ही जल को मितव्ययिता से खर्च करना चाहिए। टंकियों के ओवरफ्लो के बाद नालियों में पानी बहने के प्रति सजग रहना चाहिए। मकानों की संरचना में आंशिक परिवर्तन करके छतों में बरसाती पानी इकट्ठा करके पाइपों के सहारे एक विशेष सोकपिट में डालना चाहिए। इसमें कपड़े धोने और शौचालयों के पानी को मिलने से बचाना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि जल व्यक्ति विशेष के लिये आवश्यक है इसलिये प्राकृतिक संसाधनों का हनन नहीं होना चाहिए, पहाड़ों, जलस्रोतों व वनों को एक सूत्र में बाँधा जाना अति आवश्यक है, जिसके माध्यम से जल संरक्षण संभव है इसके लिये जंगलों, नदियों को बचाना जरूरी है, क्योंकि दोनों के माध्यम से लोगों को पीने का पानी और पर्याप्त शुद्ध वातावरण मिलेगा। भारत के जल संकट को दूर करने के लिये चार चुनौतियाँ हैं। पहला सार्वजनिक सिंचाई-नहरों की सिंचाई क्षमता में इजाफा, कम हो रहे भूमि जल संग्रह को पुनः संग्रहीत करना, प्रति यूनिट पानी में फसलों की उत्पादकता में वृद्धि और भूमिगत जमीन के ऊपर के जलस्रोतों को नष्ट होने से बचाना, तभी जल और भारत का भविष्य सुरक्षित रहेगा।
जब तक जल के महत्व का बोध हम सभी के मन में नहीं होगा तब तक सैद्धांतिक स्तर पर स्थिति में सुधार संभव नहीं है। इसके लिये लोगों को जल को सुरक्षित करने के लिये सही प्रबंधन के अनुसार कार्य करना होगा यदि वक्त रहते जल संरक्षण पर ध्यान न दिया तो हो सकता है कि जल के अभाव में अगला विश्वयुद्ध जल के लिये हो तो इसमें आश्चर्य नहीं और हम सब इसके लिये जिम्मेदार होंगे, अर्थात यह संपूर्ण मानव समाज। आज मनुष्य के जीवन के लिये उपयोगी जल की स्थिति भी उस पेड़ की तरह होगी जहाँ वह (पेड़) यह कह रहा है कि-
‘‘जड़ आज मेरी उस शख्स ने काट दी,
थक के बैठा था, जो कल मेरी छाँव में।’’
लेखक परिचय
डॉ. अमित शुक्ल
सहायक प्राध्यापक, हिंदी, शासकीय ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय, रीवा (म.प्र.) मोबाइल-9425424234