जलवायु परिवर्तन ने बढ़ाई विकास की चुनौतियाँ

Submitted by editorial on Tue, 12/25/2018 - 13:24
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 22 दिसम्बर, 2018

जलवायु परिवर्तनजलवायु परिवर्तन पोलैंड में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मेलन पिछले सप्ताह सम्पन्न हुआ। यह सम्मेलन सफल रहा या विफल इसके बारे में कोई दावे से कुछ भी नहीं कह सकता। आशावादी इसके सफल होने की बात कर रहे हैं तो संशयवादियों को लगता है कि यह विफल रहा है। सफलता और विफलता की एक कसौटी तो अमेरिका का वही रुख है, जिसकी घोषणा राष्ट्रपति बनने के बाद वहाँ के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने की थी। उन्होंने जलवायु परिवर्तन पर पेरिस में हुई सहमति से अपने देश को अलग कर देने की घोषणा की थी।

जलवायु में परिवर्तन तो होता ही रहता है। इसी परिवर्तन के दौर में सभ्यताएँ खड़ी हुई हैं। लेकिन इस बीच कई सभ्यताएँ समाप्त भी हो गई हैं। कहा जाता है कि 4000 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व का समय ऐसा था, जिसमें दुनिया की अघिकांश सभ्यताएं समाप्त हो गई थीं। उस दौरान 200 साल तक दुनिया भर में लगातार सूखा पड़ा था। उसके कारण सभ्यताएँ तबाह हो गईं और फिर 2000 ईसा पूर्व से दुनिया की सभ्यताओं ने फिर पटरी पर लौटना शुरू किया और हम आज जहाँ खड़े हैं, वह पिछले 4000 साल के मानवीय प्रयासों का परिणाम है और उसके पहले की स्मृति और उसके चिन्हों को हम प्राचीन पाषाणों और खंडहरों के अवशेष में ढूंढ रहे हैं।

जो उम्मीदें थीं वह पूरी नहीं हुईं

सभ्यता एक बार फिर जलवायु परिवर्तनों के कारण विनाश का रुख न कर ले, इसी की चिन्ता में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के लिये विश्व प्रयास कर रहा है। क्योटो प्रोटोकॉल पर इसके लिये दस्तखत हुए और 2015 में पेरिस सहमति बनी। उसी की शृंखला में पोलैंड में सम्मेलन हुए। पर सम्मेलन की सफलता को लेकर जो उम्मीदें थीं वह पूरी नहीं हुईं। अमेरिका के रुख परिवर्तन की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन वह पेरिस सहमति से बाहर होने के अपने निर्णय पर अड़ा हुआ है।

हालांकि कुछ निर्णय ऐसे भी हुए हैं, जिनके कारण अमेरिका अपना रुख बदल भी सकता है। वह परिवर्तन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की माप को लेकर है। पेरिस सहमति में कार्बन गैस, जिन्हें ग्रीन हाउस गैस भी कहते हैं, की कटौती करने की सहमति तो हुई थी, लेकिन कटौती कैसे हो और उसे मापा कैसे जाए, वह बिल्कुल स्पष्ट नहीं था। सभी देश उसे मापने के लिये अलग अलग मानदंडों का इस्तेमाल कर रहे थे। अब पोलैंड सम्मेलन में मापने में एकरूपता स्थापित करने का निर्णय किया गया है। इसके कारण कार्बन गैस उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी के आँकड़े आ सकते हैं और अमेरिका के संशय का समाधान हो सकता है और पेरिस सहमति से बाहर जाने का निर्णय वह वापस ले सकता है।

जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व के अस्तित्व के लिये खतरा पैदा कर रहा है, लेकिन इसे लेकर जो अन्तरराष्ट्रीय राजनीति होती है, उसका शिकार विकासशील देश ज्यादा हो रहे हैं। ओजोन लेयर को नुकसान पहुँचाकर सभ्यता को जलवायु परिवर्तन के कारण संकट में डालने के लिये अमीर देश ही जिम्मेदार हैं। वातावरण के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ उन्होंने ही किया है। जलवायु को नुकसान पहुँचाकर उन्होंने आज अपनी चमक बढ़ाई है और जब विकासशील और गरीब देश अपनी गरीबी और बदहाली के लिये विकास के प्रोजेक्ट लगाते हैं, तो उन्हें वातावरण पर खतरा बता कर उनका विरोध किया जाता है।

विकासशील देशों पर दोहरी मार

यह सच है कि विकासशील और गरीब देश के हित में यही है कि वे वैसा कुछ भी नहीं करें, जिनसे जलवायु के परिवर्तन की रफ्तार तेज हो और दुनिया में गर्मी बढ़ती जाए, क्योंकि जलवायु में होने वाले बदलाव के पहले शिकार भी वे ही हैं विकासशील देश ज्यादातर कृषि पर निर्भर हैं और जलवायु में होने वाले बदलाव के कारण वर्षा का पैटर्न बदलता है। कहीं अति वृष्टि तो कहीं सूखा इसका परिणाम होता है। भारत में हम इसे साफ-साफ देख रहे हैं। बिहार जैसे राज्य जहाँ पहले बहुत वर्षा होती थी, अब सूखा-सूखा ही रह जाता है। दूसरी तरफ राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के जिस इलाके में वर्षा बहुत कम या होती ही नहीं थी, वे पानी में डूबने लगे हैं। भारत में ही नहीं, बल्कि ऐसा बांग्लादेश में भी हो रहा है और भी अन्य देशों में ऐसा हो रहा है।

इसलिये विकासशील देशों के आर्थिक विकास में जलवायु परिवर्तन दोहरी मार कर रहा है। एक तरफ यह उनकी परम्परागत खेती को प्रभावित कर उनके लोगों को बदहाल बना रहा है, तो दूसरी ओर उन पर अपने विकास प्रोजेक्ट्स को रोकने का दबाव पड़ता है, क्योंकि वे विकास प्रोजेक्ट्स कार्बन गैस उत्सर्जित करते हैं और विश्व समुदाय चाहता है कि वह उत्सर्जन नहीं हो और यदि हो भी तो वह न्यूनतम हो।

लेकिन एक कहावत है ‘मरता क्या न करता’। यही विकासशील और गरीब देशों पर लागू होता है। उन्हें अपने लोगोें की बदहाली समाप्त करनी है और जो टेक्नोलॉजी अभी चलन में है, उसी का इस्तेमाल करना है। उन्हें विकास के लिये ऊर्जा चाहिए और बिजली चाहिए। बिजली के लिये कोयले का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता रहा है और उसी की तकनीक उनके पास सुलभ है। उसी का वे इस्तेमाल करते हैं। उनके पास अपने शोध के साधन कम हैं।

इसलिये यह अमीर देश, जिन्होंने पर्यावरण, वातावरण और जलवायु का सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया है, उनका कर्तव्य बनता है कि गरीब देशों को वे वैकल्पिक प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराएँ और उनका खर्च भी उठाएँ। सिर्फ यह कहने से काम नहीं चलेगा कि गरीब और विकासशील देश कार्बन गैस उत्सर्जन कम करें। सिद्धान्त के तौर पर अमीर देश इस पर सहमत भी हैं, लेकिन जब व्यवहार में इस पर खर्च करने की बारी आती है, तो वे दाएँ-बाएँ ताकने लगते हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि यदि नाव डूबने लगती है, तो उसे डूबने से बचाने की जिम्मेदारी उस पर सवार मजबूत लोगों की ही होती है। कमजोर लोगों को नाव से फेंककर नाव को डूबने से नहीं बचाया जा सकता। जाहिर है कि जलवायु परिवर्तन से उपस्थित हुई गरीब देशों के आर्थिक विकास की चुनौतियों का सामना करना विकसित देशों के अपने हित में भी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)


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