सीधे तौर पर अमेरिका और चीन के बीच समझ और व्यवहार के इस अन्तर को देखें तो जो सबसे बुनियादी मुद्दा है, वह यह है कि विकास को गति और दिशा सरकार देगी या बाजार देगा। पूर्वी एशिया की सरदारी कहने को भले जापान के हाथ में हो पर इस क्षेत्र में चीनी नीति का सर्वाधिक जोर है। स्टेट कैपिटलिज्म के इस नये मॉडल में राष्ट्रीय विकास की कमान राज्य के हाथों में है।
अगर राष्ट्र सुरक्षा की दूरबीन से दुनिया को देखें तो शत्रु हर जगह हैं। इस बारे में ब्रिटिश एम16 के प्रमुख ने अपनी मातृ संस्था सेंट एंड्रयूज यूनिवर्सिटी में हाइब्रिड खतरे को लेकर एक उल्लेखनीय व्याख्यान दिया। विस्तार से बताया कि कैसे आधुनिकतम तकनीक से लैस आतंकवादी और दूसरे खतरों पर भारी है जलवायु परिवर्तन का व्यापक खतरा। इसमें कोई दो राय नहीं कि सबसे बड़ा खतरा एटमी युद्ध का छिड़ना है। कहने को तो अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन के रूप में पाँच ही एटमी शक्तियाँ हैं, पर भारत, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया ने भी एटमी परीक्षण किये हैं।
वैज्ञानिक इस बात के लिये बार-बार आगाह कर रहे हैं कि इस तरह के युद्धक खतरों के बीच कहीं खुले में कोई एक भी एटमी परीक्षण होता है तो उससे इतना रेडिएशन पैदा होगा कि हमारा पारिस्थितिकी तंत्र इतनी दूर तक तबाह हो सकता है, जिसकी हम अभी कल्पना भी नहीं कर सकते। कह सकते हैं कि यह वह खतरा है, जो हथियारों की वृद्धि से आगे जलवायु परिवर्तन तक पहुँच जाएगा। अमेरिकी सरकार ने इसी नवम्बर में प्रकाशित अपने चौथे राष्ट्रीय जलवायु आकलन में कहा है कि जलवायु परिवर्तन का चक्र शुरू हो चुका है। यह खतरा और बढ़ेगा और इससे निपटना भविष्य में और महँगा पड़ेगा। कैलिफोर्निया, जहाँ जंगल में फैली आग से लोगों के घर तबाह हो गए और ऑस्ट्रेलिया, जहाँ ग्रेट बैरियर रीफ ने अपना प्रभाव दिखाना पहले ही शुरू कर दिया है, वहाँ तो कम-से-कम जलवायु परिवर्तन को लेकर अलग से किसी चेतावनी की जरूरत भी नहीं।
अतीत में मनुष्य भले प्राकृतिक आपदा को भगवान की देन समझता रहा है, पर अब जो हो रहा है उसके लिये तो सीधे तौर पर हम खुद जिम्मेदार हैं। खास तौर पर मनुष्य में जिस तरह अधिकतम उपभोग और जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल की राह पकड़ी है, ग्लोबल वॉर्मिंग आज उसी की देन है।
प्राथमिकता
अगर हम रक्षा और जलवायु परिवर्तन के बीच प्राथमिकता तय करने की बात करें तो इसके लिये कुछ दिलचस्प सांख्यिक तथ्य पर गौर करना चाहिए। एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2012 में अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये 166 बिलियन डॉलर खर्च किये। वर्ष 2017 के अमेरिकी रक्षा बजट (590 बिलियन डॉलर) से इसकी तुलना करें तो यह तकरीबन एक चौथाई खर्च है। यही नहीं, अमेरिकी रक्षा विभाग ने जलवायु परिवर्तन को ऐसे खतरे के तौर पर देखना शुरू कर दिया है, जो कम या नियंत्रित नहीं होगा, बल्कि समुद्री तूफान, तटीय इलाकों में बाढ़, सूखे और फसलों की बर्बादी के तौर पर आगे और तेजी से बढ़ेगा। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका से उत्तर की तरफ बढ़ रहा शरणार्थियों का पलायन अगर अमेरिकी सीमा तक पहुँच गया है, तो यह सरकारों की बेरोजगारी और सुरक्षा के मुद्दे पर नाकामी के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन का नतीजा है।
वैसे तो जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक चुनौती है और यह चुनौती इसलिये बढ़ती जा रही है क्योंकि इसकी वजहों से निपटने में हम लगातार असफल हुए हैं। यही कारण है कि इसे आज कोई भी राष्ट्र अपने लिये सबसे बड़े खतरे के तौर पर देख रहा है। इसलिये तमाम देशों के सामने तय करने की चुनौती है कि वे मानवीय खतरों से निपटने के लिये अपना सुरक्षा बजट बढ़ाएँ या फिर मिल-जुल कर जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने की सूझ दिखाएँ क्योंकि इसका खतरा तो सबको एक साथ भुगतना है। साफ है कि हम हथियार जमा करने की होड़ में ही शामिल रहे और जलवायु परिवर्तन के खतरों को नजरअन्दाज किया तो जो हश्र होगा उसका किसी को शायद अन्दाजा भी न हो। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर किसी तरह के वैश्विक या अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की बात इतनी आसान भी नहीं होगी। आज जिस तरह की भू-राजनीतिक रणनीति पर तमाम बड़े राष्ट्र काम कर रहे हैं, उसमें सम्भव है कि किसी भी देश पर बहुत कुछ खोने या न्यौछावर करने का दबाव बनाया जाए। खास तौर पर चीन आज जिस तर्ज पर विकास कर रहा है, उसमें वह चाहेगा कि वह संसाधनों का ज्यादा-से-ज्यादा दोहन करे। ऐसे में उसके सामने कार्बन उत्सर्जन और संसाधनों की बर्बादी की अपेक्षित सीमा में रहना मुश्किल होगा। यह स्थिति आगे भी जारी रही तो नहीं लगता कि चीन कभी ‘पेरिस जलवायु समझौते’ पर हस्ताक्षर भी करेगा। इस मुश्किल को जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया में बने दो खेमों की रार के तौर पर कोई भी देख सकता है। अगर सीधे तौर पर अमेरिका और चीन के बीच समझ और व्यवहार के इस अन्तर को देखें तो जो सबसे बुनियादी मुद्दा है, वह यह है कि विकास को गति और दिशा सरकार देगी या बाजार देगा। पूर्वी एशिया की सरदारी कहने को भले जापान के हाथ में हो पर इस क्षेत्र में चीनी नीति का सर्वाधिक जोर है। स्टेट कैपिटलिज्म के इस नए मॉडल में राष्ट्रीय विकास की कमान राज्य के हाथों में है। इसके उलट अमेरिका का यकीन खुले बाजार में है। उसकी दलील है कि विकास के मुद्दे पर खुले बाजार को नेतृत्व करने देना चाहिए। पर यहाँ भी एक विरोधाभास यह है कि 2018 की वैश्विक ग्लोबल मन्दी के बाद अमेरिका भी बाजार तंत्र को लेकर कई सुरक्षात्मक सुधारों को अपनाने के लिये बाध्य है।
अदृश्य ताकत?
अब सवाल है कि क्या बाजार की अदृश्य ताकत के हाथों जलवायु परिवर्तन के खतरों को छोड़ा जा सकता है। एक दशक पहले तक तो जलवायु परिवर्तन को प्राथमिक एजेंडा के तौर पर स्वीकार करने को लेकर राजनीतिक दृष्टि से बहस की जा सकती थी पर 2015 से जिस तरह लगातार हर साल सर्वाधिक गर्म वर्ष होने का कीर्तिमान बन रहा है, उसमें इस मुद्दे पर सारे संशय को किनारे कर दिया है। अब तो खतरा सामने है और इससे निपटने की अपरिहार्यता सिर पर। एशिया के बड़े विद्वान चन्द्रन नायर अपनी किताब ‘द सस्टेनेबल स्टेट’ में तर्क देते हैं कि अब जो हालात हैं, उनमें राज्य को ही जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये आगे आना होगा। उल्लेखनीय है कि 2012 में आई अपनी एक और किताब में नायर महज यह समझने पर जोर दे रहे थे कि उपभोगवादी अर्थव्यवस्था से किस तरह एशिया में पूँजीवाद की नई शक्ल गढ़ी जा रही है और इस सबके बीच धरती को बचाने का खतरा कितना चुतौतीपूर्ण है पर अब नायर सीधे न सिर्फ समाधान की बात करते हैं, बल्कि इसके लिये एकल विकल्प की भी तार्किक चर्चा करते हैं।
एक सवाल यह भी कि क्या तकनीक मौजूदा मुश्किलों के बीच हमारी मददगार हो सकती है? इसमें दो राय नहीं कि तकनीक के जरिए ऊर्जा और संसाधन क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। पर यह सब तभी ज्यादा कारगर होगा जब कानूनों में बदलाव होंगे, कर प्रोत्साहन को लेकर नई घोषणाएँ होंगी। समझ और मानसिकता का यह फर्क बगैर राज्य की भूमिका के असम्भव है। इसी तरह अगर कोई पूछे कि क्या जलवायु परिवर्तन से निजी क्षेत्र अकेला निपट लेगा तो सीधा जवाब यही है कि मुनाफा कमाने के लिये शुरू हुए निजी उद्यम से किसी जिम्मेदार रुख की जागरूक उम्मीद करना कोरी मूर्खता है। चन्द्रन नायर की यह समझ वाकई सही है कि राज्य का स्वरूप लोकतांत्रिक हो या नहीं पर यह तो उसके ही हाथ में है कि वह जलवायु परिवर्तन के खतरे को राष्ट्रीय के साथ वैश्विक चुनौती के तौर पर देखे और फिर उसके मुताबिक कदम उठाए।
(लेखक एशियाई मामलों के जानकार हैं।)
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