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अश्मिका, जून 2012
शाम को भोजन के समय परिवार की तीन पीढ़ियों की एकत्रित मंडली में दादी जी द्वारा सुनाई जा रही पुरानी कहानियाँ उनकी पोती को मनोरंजक तो लगी परन्तु कुछ अंश तर्कपूर्ण नहीं लगे। भोजन मंच पर छोटे बच्चों के चुप रहने की खानदानी परम्परा का उल्लंघन करते हुए पोती ने प्रस्ताव रखा, दादी जी! हमारे स्कूल में बताया गया है कि परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, सब कुछ समय के साथ बदलता है, पुरानी बातों का अब उतना महत्त्व नहीं जितना वर्तमान की घटनाओं का है। क्यों न हम वर्तमान में हो रहे परिवर्तनों की बात करें। आज की बातें दादीजी के विचार में जीवन के लम्बे घटना चक्र की एक साधारण उथल-पुथल मात्र थीं, दादी के भाव को समझ कर भोजन के समय बच्चों के चुप रहने की परिपाटी को सौम्यता से स्वीकारते हुए पोती चुप हो गई। दादी जी की गरिमा का ध्यान रखकर उनकी इच्छा को सर्वमान्य मानते हुए परिवार के सभी सदस्यों ने वाद-विवाद से मुँह मोड़कर भोजन का स्वाद लेना उचित समझा।
मेरी जिज्ञासा छोटी बच्ची के प्रश्न की तरह अभी भी विस्तार पूर्ण वार्तालाप न हो सकने के कारण कुछ अधूरा सा महसूस कर रही थी। बिस्तर पर अवश्य लेटा था परन्तु नींद कोसों दूर तक नजर नहीं आ रही थी। शाम के भोजन और उस समय उठाये गये प्रश्नों के दिमागी मन्थन ने एक सरकारी प्रीतिभोज की याद ताजा करा डाली जो कुछ महिने पहले राजधानी में आयोजित जलवायु परिवर्तन की महागोष्ठी के अवसर पर एक सुरम्य स्थल पर आयोजित किया गया था। गोष्ठी का कार्यक्रम अतिसुनियोजित एवं स्थल भव्य था। मेरे स्थानीय मित्रों ने बताया कि इस प्रकार के आयोजनों के लिये आजकल कुछ संस्थाएं बनी हुई हैं जो पूरी व्यवस्था बजट के अनुसार उपलब्ध कराती हैं। मुख्य अतिथि द्वारा उद्घाटन के समय प्रज्वलित किए जाने वाले दिये की बाती से लेकर मंच व्यवस्था, प्रीतिभोज, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि इनके भरोसे छोड़े जा सकते हैं। कुछ लोग तो मुख्य अतिथि खोजने का कार्य भी इन्हीं संस्थाओं से करवाते हैं।
पाँच सितारा होटल का सुसज्जित केन्द्रीय कक्ष, गुलदस्तों, फूल मालाओं के साथ-साथ मनोरंजन, सूचना प्रसारण एवं समाचार माध्यमों के तकनीकी साज-सज्जा से सजा धजा एवं भरपूर था। मुझे इस महागोष्ठी में प्रवेश केवल मेरे हस्ताक्षर करने मात्र से प्राप्त हो गया था क्योंकि मैं आगन्तुक वक्ताओं की विशेष अतिथि श्रेणी में आता था। प्रवेश के साथ मुझे मिला था एक कन्धे में लटकाने वाला बैग, जिसे मैं थैली नहीं कहूँगा क्योंकि यह काफी मजबूत एवं लैपटॉप रखने के लिये बनाया गया था। इस बैग में रखा गया सामान भी काफी महत्त्वपूर्ण था। सबसे पहले अपने नाम की पट्टी गले में लटका दी जिसमें मेरी पहचान के साथ-साथ दूसरों को परिचय देने की औपचारिकता भी पूरी हो गई। बैग के अन्य सामानों में रंगीन चित्रों से भरे आयोजकों के प्रचार पत्र, कुछ वैज्ञानिक दस्तावेज, एक पैन, नोटबुक, प्रीति भोजों के निमंत्रण पत्र एवं श्रद्धा पूर्वक एक स्मृति चिन्ह, उपहार स्वरूप चमकीली पन्नी में लपेटा हुआ था। पाँच हजार रूपये प्रवेश शुल्क के इस समारोह में मुझे इस सब सामग्री के साथ यह निःशुल्क मिला था। मुझे इस अवसर पर अपने अहंकार को अँगूठे तले होटल के आलीशान गलीचों पर खटमल की तरह दबोचकर मारना पड़ा था जो ऐसे अवसरों पर सिर ऊँचा करने की कोशिश किया करता है।
समय की पाबन्दी का पूरा ध्यान रखकर मैं सूट-टाई से सुसज्जित समय से आधा घन्टा पहले गोष्ठी स्थल पर पहुँच गया था। नौ से साढ़े नौ तक रजिस्ट्रेशन था। लोग पहुँच रहे थे, तथा अपना बैग प्राप्त कर शाम के प्रीतिभोज के निमंत्रण पत्रों के लिफाफों को खोलकर पढ़ने में व्यस्त थे। कुछ लोग ध्यान पूर्वक मेरे गले में लटकी नामपट्टी को पढ़कर अपना परिचय देकर अपना विजिटिंग कार्ड थमा रहे थे। अधिकांश लोग उद्घाटन कार्यक्रम का विवरण पढ़कर समारोह के आरम्भ होने का इन्तजार कर रहे थे। कुछ लोग रंगीन कागजों में लिपटे उपहार की पन्नी को खोलकर खुले आसमान में उड़ते पंछियों के पंखों की फड़फड़ाहट की याद दिला रहे थे। यह आवाज ठीक उसी तरह थी जैसी एक भव्य समारोह के उद्घाटन के समय रामलीला मैदान में मैंने पंडित नेहरू को कबूतर उड़ाते देखते हुए महसूस की थी।
कार्यक्रम का प्रारम्भ निमंत्रण पत्र पर साढ़े नौ बजे प्रातः लिखा था और आगे का कार्यक्रम समय के तराजू पर तोल कर बनाया गया था। मुख्य अतिथि के व्याख्यान की समय सीमा नहीं थी, परन्तु अन्य व्याख्यानों व कार्यक्रमों को केवल पाँच मिनट दिया गया था। कार्यक्रम के समापन के तुरन्त बाद महाजलपान (हाय-टी) का जिक्र था जो मुझे काफी रोचक लग रहा था। सीधा हवाई अड्डे से गन्तव्य स्थल पर पहुँचने के कारण ठीक से जलपान नहीं कर पाया था और विमान में भी मुफ्त जलपान सेवा नहीं थी, इसलिए इस शब्द पर आँखे टिकना स्वाभाविक था। काफी अधिकारियों एवं संयोजक मंडली के सदस्यों के अन्दर बाहर जाने, माइक को खटखटाने तथा कुर्सियों को मंच पर आगे पीछे करने की क्रिया में एक घन्टा निकल गया। श्रोता गण शांत होकर इन्तजार कर रहे थे, शायद बन्दूकधारी सुरक्षा कर्मियों की अग्रिम आवाजाही का प्रभाव रहा हो। वह घड़ी आ गई जिसका सबको इन्तजार था मुख्य अतिथि महोदय एवं अन्य गणमान्य सज्जनों के कक्ष में प्रवेश का स्वागत सभी ने अपने स्थान पर खड़े हो कर किया।
इस देरी का कारण कुछ भी रहा हो परन्तु संयोजक महोदय ने इसे मौसम की खराबी के कारण हुई देरी बताया, यह मुझे पूर्व परिचित सा लगा क्योंकि हवाई जहाज के देर से चलने का कारण भी परिचारिका ने यही बताया था। मौसम को दिये गये इस महत्व से मैं गदगद हो उठा। चूँकि गोष्ठी जलवायु परिवर्तन पर थी इसलिए मैं भाँप गया था कि आगे आने वाले सम्बोधन में अनेक देरियों के लिये जलवायु परिवर्तन को कारण बताया जा सकता था। उद्घाटन की सारी औपचारिकता विधिवत सम्पन्न हुई। आखिर मुख्य अतिथि के सम्बोधन की बारी आई। उन्हें समय की कोई पाबन्दी नहीं थी, और संयोजक ने उनका पूरा पाँच पेज का परिचय शब्दशः पढ़ कर सुनाया था जो स्पष्ट करता था कि आप विषय तथा उसके बाहर के कई क्षेत्रों में पुरस्कार प्राप्त ज्ञाता हैं। अध्यक्षीय भाषण के कुछ शब्द मुझे अभी भी याद हैं जिन्हें अध्यक्ष महोदय ने सशक्त भाषा में एक सर्वज्ञाता की हैसियत से कहा था।
मुख्य अतिथि ने कहा जोर देकर, कि हम सब लोग जलवायु परिवर्तन के महाप्रलयकारी युग से गुजर रहे हैं। निकट भविष्य में पृथ्वी पर पीने का शुद्ध पानी, पर्याप्त भोजन एवं स्वच्छ हवा दुर्लभ हो जायेगी। जिससे विकास की दर कम हो जायेगी। विकास की दर स्थिर रखने के लिये लोगों में खर्च करने की क्षमता बढ़ानी होगी। उनको बोतलों में बन्द स्वच्छ पानी, लैपटॉप, कार तथा घर एवं रोजगार प्राप्त करने की क्षमतायुक्त लोगों की श्रेणी में लाना होगा। इसके लिये धन की आवश्यकता होगी। जिसके लिये कर व्यवस्था में सुधार लाने होंगे। जिससे प्रतिव्यक्ति करों में बढ़ोतरी होगी, जिसका भार सब को वहन करना पड़ेगा क्योंकि यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये आवश्यकीय है जिसका प्रभाव सब पर होगा। प्रकृति गरीब, अमीर में यदि भेदभाव नहीं रखती तो हमको भी नहीं रखना चाहिए। हम लोग जो इस विषय में आपकी सेवा करेंगे उन्हें सेवाकर भी मिलना ही चाहिए। खूब तालियाँ बजी थीं हाल में, क्योंकि इसमें सभी उपस्थित बुद्धिजीवियों को अपनी बुद्धिमता के बदले बुद्धिकर प्राप्त होने की सम्भावना नजर आ रही थी।
मुख्य अतिथि ने जोर देकर यह भी कहा था कि यह सब इसलिए हो रहा है कि आप लोग जरूरत से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड पैदा कर रहे हैं। उस समय मुझे ये बात ठीक लगी थी, क्योंकि उस वातानुकूलित कमरे में करीब चार सौ लोगों के बैठे रहने से कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने का असर आलस तथा उनींदेपन के रूप में महसूस हो रहा था। मुख्य अतिथि ने ढाढ़स बंधाते आगे बात बढ़ाते हुए कहा कि हम तो मात्र श्वास में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं, जबकि विकसित देशों के लोग हमसे हजारों गुणा ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड गैस प्रति व्यक्ति छोड़ रहा है। मुझे भी हमसे हजारों गुणा ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करने वाले व्यक्तियों से मिलने की इच्छा तीव्र हो गई।
हर वैज्ञानिक की तरह विकसित देशों में जाने की इच्छा तो पहले से ही थी यह एक नया पहलू उसमें जुड़ गया। भाषण समाप्त होते ही महाजलपान पर लोग कूद पड़े थे क्योंकि यह अवसर निर्धारित समय से एक घंटे बाद सुलभ हुआ था। सभी यही वार्ता कर रहे थे कि जलवायु परिवर्तन का भूत जंगल से राह भटक कर शहर में आये बाघ की तरह खतरनाक हो गया है। भोजन से पहले और उसके बाद शाम तक इस विषय पर वैज्ञानिक चर्चा चली, परन्तु भोजन के बाद के सत्र में आधे से कम लोग ही उपस्थित रह पाये जबकि भोजन के समय भीड़ का अनुमान लगाना मुश्किल था। भाषण काफी लच्छेदार थे परन्तु वैज्ञानिक किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाये थे। अधिकांश लोग जलवायु परिवर्तन रूपी भूत को अलग-अलग रंग में दिखा रहे थे। कुछ वैज्ञानिकों ने कठिन मेहनत से इकट्ठा किए प्रमाण भी पेश करने की कोशिश की परन्तु तर्क वही सर्वमान्य रहे जो मंच पर आसीन महानुभावों की विचार धारा से मेल खाते नजर आये।
मैं भी उस परिवार का सदस्य होने के नाते जहाँ खाने की टेबल पर बोलना अच्छा नहीं माना जाता प्रीतिभोज का आनन्द लेता रहा और बिना उंगली गीली किए चम्मच से कठोर हड्डियों के बीच से स्वादिष्ट माँस निकालने का प्रयत्न करता रहा।
प्रीतिभोज की याद दिमाग से हटते ही नींद ने दबोच लिया। सुबह उठकर घूमने निकला तो ठंड के मौसम में साधारण कपड़े पहने बच्चों को कूड़े से पॉलीथीन बैग निकाल कर इकट्ठा करते व नाली साफ करते मजदूर व खेतों में काम करती महिलाओं को देखकर महसूस हुआ कि हमारे तथा पर्यावरण के भविष्य का संरक्षण इन्हीं हाथों में सुरक्षित है।
सम्पर्क
गोविन्द बल्लभ पन्त
दून विश्वविद्यालय, देहरादून