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चौथी दुनीया 15 अप्रैल 2011

पहाड़ की अधिकांश महिलाएं पूरे दिन लकड़ी काटतीं और ज़रूरत से अधिक लकड़ी लाकर घर भरती थीं, जिसका परिणाम यह होता कि बाद में बची हुई लक़िडयों को सड़ जाने की वजह से फेंकना प़डता था। बसंती बहन ने गांव की महिलाओं को समझाना शुरू किया। यदि इसी तरह जंगल कटता रहा तो 10 सालों में यह कोसी सूख जाएगी। पानी के बिना खेती नहीं होगी। फिर जीवन कितना कठिन होगा, इस बात की कल्पना करो?
जंगल की लकड़ियों की अंधाधुन कटाई और पशुओं को खिलाने के लिए लाई जाने वाली पत्तियों की वजह से पहाड़ नंगे होते चले गए। धीरे-धीरे पीने के पानी की भी किल्लत होने लगी। वर्ष 2003 में स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि यहां पानी पर पुलिस का पहरा बिठा दिया गया, जिस वजह से किसानों को खेतों की सिंचाई के लिए भी पानी नहीं मिला। ऐसी स्थिति से बचाव के लिए आवश्यक था कि कटे हुए पेड़ फिर से लगाए जाएं। इसके लिए बसंती बहन ने प्रयास प्रारंभ किए। शुरू में इनकी बात कोई सुनने को तैयार नहीं था। जब उन्होंने पेड़ के महत्व को समझाने के लिए घर के बड़े-बुजुर्गों से बात करनी शुरू की तो परिणाम निराश करने वाले थे। कई जगह तो यह भी कहने से बुजुर्ग नहीं चुके कि यहां की महिलाएं डीएम की भी बात नहीं सुनेंगी। वह भी आकर कहेगा इसके बावजूद भी लकड़ी काटेंगी। बसंती बहन ने फिर महिलाओं से सीधी बात करनी शुरू की, उन्होंने कहा कि लकड़ी जंगल से लाओ, लेकिन इतनी ही लेकर आओ जितने की ज़रूरत है।पहाड़ की अधिकांश महिलाएं पूरे दिन लकड़ी काटती और ज़रूरत से अधिक लकड़ी लाकर घर भरती थीं, जिसका परिणाम यह होता कि बाद में बची हुई लक़िडयों को सड़ जाने की वजह से फेंकना पडता था। बसंती बहन ने गांव की महिलाओं को समझाना शुरू किया- यदि इसी तरह जंगल कटता रहा तो 10 सालों में यह कोसी सुख जायेगी पानी के बिना खेती नहीं होगी। फिर जीवन कितना कठिन होगा, इस बात की कल्पना करो? कई महिलाओं ने आकर खुद बसंती बहन के सामने क़ुबूल किया कि जंगल से पानी और खेत का क्या संबंध है, यह इन्हें पता ही नहीं था, ना ही किसी ने उन्हें बताया था। पहाड़ पर जंगल काटने की होड़ थी, इसलिए वे भी होड़ में शामिल हो गईं। महिलाओं के इस समर्थन के बाद 15 महिलाओं को लेकर मंगल दल की शुरुआत हुई। पहली मंगल दल की महिलाओं ने इस तरह इस समय कोसी के जल में खड़े होकर संकल्प लिया- कोसी जीवन दायिनी है, हम इसको बचाएंगे।
अब गांवों में महिलाओं ने महिला मंगल दल के नाम पर अपना स्वयं सहायता समूह भी बना लिया है, जिसके माध्यम से वे 10-10 रुपए प्रत्येक माह प्रति महिला इकट्ठा करती हैं और ज़रूरत के समय पर इकट्ठे धन से ज़रूरतमंद महिला की आर्थिक मदद भी करती हैं। बसंती बहन की बात करें तो वह चरमा (दिगरा) पीथौरागढ़ की रहने वाली हैं। उनकी शादी 12-13 साल की छोटी उम्र में कर दी गई थी।
2-3 साल बाद पति की मौत हो गई। बाल विधवा का जीवन जीना चुनौतिपूर्ण था। इस समय पिता ने साथ दिया। वे बसंती बहन की दूसरी शादी के लिए तैयार नहीं हुए। उनका मानना था कि पहली शादी समाज के दबाव में आकर उन्होंने कर दी, जिसकी सज़ा मिल चुकी है। अब जब तक उनकी बेटी अपने पांव पर खड़ी नहीं हो जाती, वे इसकी शादी नहीं करेंगे। इसी बीच बसंती बहन का लक्ष्मी आश्रम की गतिविधियों के साथ जुड़ाव हुआ और उन्होंने आश्रम के साथ काम करना शुरू किया। एक बार जब सामाजिक जीवन में इनका प्रवेश हो गया फिर वह इसी नए जीवन की होकर रह गईं। पिताजी ने सेवा के काम में बेटी को लगा देखकर कहा- जिस दिन तेरी शादी की थी, इस दिन तू मेरी बेटी थी। अब लक्ष्मी आश्रम में आकर तू मेरा बेटा हो गई है।
बसंती बहन ने बातचीत के दौरान कहा कि सेवा के काम में मेहनताना नहीं, लोगों का प्रेम, स्नेह, आशीर्वाद मिलता है। एक बात और बसंती बहन ने 34 साल की उम्र में अपनी पढ़ाई एक बार फिर शुरू की और मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। वास्तव में बसंती बहन जैसी महिलाएं महिला सशक्तिकरण की जीती-जागती मिसाल हैं।