उत्तराखंड की वादियों में ‘जगत सिंह चौधरी ’ नाम का एक सैनिक ऐसा भी है, जो सेवानिवृत्त होने के बाद प्रकृति के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गया। 30 सालों में अपनी बंजर जमीन पर मिश्रित वन उगा दिया। जिससे पानी के सूख चुके स्रोत जीवित हो गए। अब महिलाओं को ईंधन और चारे के लिए दस किलोमीटर दूर नहीं जाना पड़ता है। उन्होंने कई ऐसे वृक्ष उगाए जो केवल ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं। इस विलक्षण कार्य को देखते हुए उनके नाम के साथ ‘जंगली’ जुड़ गया और अब उन्हें दुनिया जगत सिंह ‘जंगली’ के नाम से जानती है। उत्तराखंड सरकार ने उन्हें राज्य का ‘ग्रीन एंबेसडर’ भी बनाया है। साथ ही उन्हें 36 से ज्यादा सम्मानों से नवाजा जा चुका है। उनके इस पूरे योगदान को जानने के लिए इंडिया वाटर पोर्टल के हिमांशु भट्ट ने उनसे बातचीत की। पेश है बातचीत के कुछ अंश -
पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा कहां और कैसे मिली ?
मेरा जन्म 10 दिसंबर 1950 को रुद्रप्रयाग जिले के कोटमल्ला गांव में हुआ था। पहाड़ के लोगों का प्रारंभ से ही प्रकृति के प्रति लगाव रहा है। मेरे दादा और पिता भी समय समय पर वृक्षारोपण करते थे। 18 वर्ष की उम्र (1968) में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में भर्ती हुआ। गांव की परिस्थितियों और पानी व अन्य संसाधनों के लिए लोगों की समस्या देखी तो पर्यावरण संरक्षण की ठानी। साथ ही वर्ष 1989 से 1996 तक ग्राम प्रधान बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
माना जाता है कि हिमालयी क्षेत्र पूरे विश्व को पानी और शुद्ध हवा देते हैं, वहां एक नया जंगल खड़ा करने की जरूरत क्यों पड़ी ?
गांव में जमीन बंजर थी। पशुचारे से लेकर ईंधन की लकड़ी आदि लेने के लिए लोगों को जंगल जाना पड़ता था। ये काम महिलाओं के जिम्मे ज्यादा था और जंगल दस किलोमीटर दूर था। सेना से छुट्टी लेकर जब भी घर आता था, तो गांव खाली-सा मिलता था। अधिकांश महिलाएं जंगलों में ही गई होती थीं। ये देखकर काफी बुरा लगता था। एक बार की बात है, मैं छुट्टी पर गांव गया था। गांव पूरा खाली था। घर के बाहर मेरे दादा बैठे थे। उनसे पूछा कि सब कहां हैं। उन्होंने कहा कि सभी महिलाएं जंगल में गई हैं। जंगल दस किलोमीटर दूर था। इसी बीच एक खबर आई कि चारा लेने गई एक महिला जंगल में चट्टान से गिर गई है। किसी अनहोनी की आशंका से मैं जंगल की तरफ भागा। तभी रास्ते में अन्य महिलाएं, उस महिला को ला रही थीं। वो गिरने के कारण लहुलुहान हो गई थी। हाथ और पैर बुरी तरह जख्मी थे। इसने मुझे झकझोर दिया। ऐसा लगा कि ‘‘हम सीमा पर देश की रक्षा कर रहे हैं, लेकिन हमारी महिलाएं गांव में इतना कष्ट झेल रही हैं। क्या हम यही बस देखने के लिए सेवा दे रहे हैं ?’’ तभी से मैंने अपने पुरखों की दो हेक्टेयर बंजर जमीन को जंगल में बदलने का संकल्प लिया।
जंगल उगाना आसान काम नहीं है। बजर जमीन पर और भी ज्यादा मुश्किल है। आपके लिए बंजर जमीन पर जंगल उगाना किस प्रकार संभव हो पाया ?
जितना दिख रहा था, जंगल उगाना उससे काफी ज्यादा मुश्किल काम था। मैंने बंजर जमीन पर धीरे धीरे पौधारोपण का काम शुरु किया। जमीन काफी लंबे समय से बंजर थी। पहाड़ी इलाका होने के कारण मिट्टी बह गई थी। पहाड़ों में सीढ़ीनुमा जमीन होती है, लेकिन हमारी जमीन ढलाननुमा बन बई थी, जिससे मिट्टी की ऊपरी परत भी नष्ट हो गई थी। मैंने इसे सीढ़ीनुमा इलाके में बदला। जैसे की पहाड़ों पर सीढ़ीदार खेत होते हैं, कुछ उसी प्रकार। इसका फायदा ये रहा है कि पहले जो बरसात का पानी नीचे बह जाता था, वो ठहरने लगा। इससे मृदा अपरदन की जांच भी की जा सकी।
जमीन पर हल्की घास थी। मवेशियों को जमीन पर चरने की अनुमति दे दी गई, ताकि उनके गोबर से जमीन उपजाऊ हो सके। पहले तो घास और कुछ बांझ के पौधे लगाए। जंगल के बाहरी हिस्से में भी घास की विभिन्न प्रजातियों को लगाया गया। सेना से जब भी छुट्टी आता तो पौधारोपण करता, लेकिन 1980 में सेवानिवृत्त होने के बाद अधिकांश समय लगाए गए पौधों की देखभाल में गुजरता था। तब पानी की भी समस्या थी। पौधों के लिए पानी लाने के लिए दो किलोमीट दूर जाना पड़ता था। खुद के लगाए हुए पौधों को बड़ा होते देख उत्साह और प्रेरणा के साथ काफी ऊर्जा मिलती थी। मैंने पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों के साथ विभिन्न प्रकार की पोषक घास लगाई। धीरे धीरे सकारात्मक पर्यावरणीय वातावरण मिलने के कारण जंगल घना होने लगा और बीस साल के बाद जंगल पूरी तरह लगा चुका था। लेकिन मिश्रित वन को तैयार और विकसित होने में 30 साल लगे।
जंगल में कितने प्रकार के वृक्ष लगाए गए हैं ?
वृक्षों के अलावा वनस्पतियां भी लगाई गई हैं। 60 प्रजातियों के वृक्ष, जिनमें फलों के पेड़ भी शामिल हैं। 25 प्रकार की जड़ी बुटियां, फूलों की दस प्रजातियां, 8 फ़र्न की प्रजातियां और दस प्रकार की हरी पोषक घास लगाई हैं। आजीविका से जोड़ने के लिए दाल आदि भी उगाए जाते हैं। कई ऐसे वृक्ष भी हमारे जंगल में हैं, जो अधिक ऊंचाई पर पर पाए जाते हैं। इसके लिए माइक्रो क्लाइमेट विकसित किया गया।
अनुकूल वातावरण न होने के बाद भी अधिक ऊंचाई वाले पेड़ों को लगाने में कैसे सफलता मिली ?
मुझे लगा कि विभिन्न आपदाओं और भूस्खलन के कारण शायद एक समय पर ऊंचाई वाले इलाकों में ये वृक्ष खत्म हो जाएंगे। इसलिए मैनें इनके बारे में अध्ययन करना शुरू किया और ये जाना कि हिमालयन क्षेत्रों में ये वृक्ष कहां उगाए जा सकते हैं। विचार आया कि यदि इन पेड़ों को कम ऊंचाई वाले हिमालयन इलाकों में लगाकर नियमित देखभाल की जाए, तो इन्हें संरक्षित कर, विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। मैंने अपने मिश्रित जंगल में अनुकूल माहौल बनाकर इन वृक्षों को लगाना शुरु किया और आज ये सभी बड़े हो चुके हैं। देवदार 7 हजार फीट की ऊंचाई पर उगता है, जबकि कैल 8000 फीट, थेलका 5000 फीट, बांज 5 हजार फीट, काफल का पेड़ 6000 फीट, बुरांश 7000 फीट, कैंसर में उपयोगी माना जाना वाला थुनेर का पेड़ा, जो 10000 फीट की ऊंचाई में होता है, वो भी मिश्रित वन में सफलता पूर्वक उगाया। नींबू, रुद्राक्ष, शीशम, सागौन, चीड़, अमेरिकन चीड़, मालु आदि के पेड़ भी लगाए हैं। इसके अलावा कश्मीर में होने वाला केसर, पहाड़ी पान, 8 हजार फीट पर होने वाली केदार पत्ती, 5 हजार फीट पर होने वाला सिलफड़, 6 हजार फीट पर होने वालो काला जीरा, अदरक, बड़ी इलायची, छोटी इलायची, ब्राह्मी आदि उगाए हैं। भोजपत्र उगाने में भी सफलता मिली है।
विभिन्न स्थानों पर देखा जाता है कि बिना जाने एक ही प्रकार के पेड़ों को बड़े पैमाने पर लगा देते हैं। यहां तक कि वन विभाग और सरकार भी ऐसा कार्य करते हैं। ऐसे में आपका ध्यान केवल मिश्रित वन पर ही केंद्रित क्यों था ? जबकि पहाड़ में बड़े पैमाने पर चीड़ के जंगल हैं ?
पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में वनों का अहम योगदान होता है, लेकिन जंगलों या वृक्षारोपण के नाम पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है। चीड़ पहाड़ों का सबसे बड़ा दुश्मन है, जो जमीन की गहरइयों से पानी सोख लेता है। अपने आसपास कुछ उगने नहीं देता है। ऐसे में पहाड़ का वातावरण बदल रहा है। हर साल जंगल में आग लगने के पीछे चीड़ के पेड़ों को बड़ी संख्या में होना ही है। इससे पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचती है। बड़े स्तर पर जैव विविधता तबाह हो जाती है। मिश्रित वन से पारिस्थितिक संतुलन बना रहता है। विशेषकर चैड़ी पत्ती वाले पेड़ मृदा अपरदन को रोकने और पानी को लंबे समय तक रोककर रखते हैं। इससे भूजल को रिचार्ज होने में भी सहायता मिलती है। हालाकि चीड़ के पेड़ों का उपयोग भी विभिन्न प्रकार से किया जा सकता है, जो कि नहीं किया जा रहा है।
आप लोगों को जल के लिए पहले दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता था, क्या मिश्रित वन से पानी की समस्या का समाधान हुआ ?
गांव के नीचे पानी का एक स्रोत था, जो सूख चुका था। जैसा कि पहले ही बताया था कि मिश्रित वन या चैड़ी पत्ती वाले पेड़ जल संरक्षण के लिए अहम होते हैं। विश्व में जहां भी मिश्रित जंगल है, वहां पानी की कमी नही है। ऐसे में जैसे जैसे भूमि उपजाऊ हुई और तीस साल में मिश्रित वन बना। इसका सकारात्मक असर पानी पर भी पड़ा। जमीन की पानी को सोखने और भूमि के अंदर पानी पहुंचाने की क्षमता बढ़ी। परिणामतः सूखा हुआ स्रोत जीवित हो गया। करीब 8 महीने यहां स्रोतों में पानी रहता है। जिसका उपयोग खेती सहित पीने के लिए किया जाता है।
जैवविविधता को किस प्रकार लाभ पहुंचा ?
हम प्रकृति का जितना संरक्षण करेंगे, जैव विविधता उतनी ही बढ़ेगी। विभिन्न प्रकार के वृक्ष, यानी मिश्रित वन लगाने से उन्हें अनुकूल माहौल मिलता है। हमारे यहां भी ऐसा ही हुआ। जैसे जैसे जंगल बड़ा होता गया, ये विभिन्न जंगली जानवरों और पक्षियों का आश्रय स्थल भी बन गया। विभिन्न प्रजातियों के पक्षी यहां चहचहाते हुए देखे जा सकते हैं।
मिश्रित वन के इस माॅडल को क्या अन्य जगहों पर भी अपनाया जा रहा है ?
मेरे लिए सबसे खुशी की बात है कि मेरे द्वारा विकसित किए गए मिश्रित वन के माॅडल को अन्य गांवों में भी अपनाया जा रहा है। लोग मिश्रित वनों का योगदान समझ रहे हैं। देश-विदेश के विभिन्न काॅलेज और विश्वविद्यालयों से छात्र-छात्राएं शोध के लिए आते रहते हैं। विभिन्न संगठनों ने भी मिश्रित वनों के माॅडल को अपनाया है। यहां तक कि विदेशी संगठन भी इस माॅडल को अपना रहे हैं। इसके अलावा घराट (चक्की) के संरक्षण का कार्य भी कर रहे हैं। विभिन्न मीडिया प्लेटफार्म जैसे रेडियो और न्यूज चैनल आदि वनों पर आधारित कार्यक्रम कर कर लोगों को जागरुकता संदेश देने का मौका मिला। हमारे वन में विभिन्न डाक्युमेंट्रियों की शूटिंग हो चुकी है।
स्थानीय लोगों ने किस प्रकार साथ दिया ?
शुरुआत में लोगों को ये अजीब लगता था। मुझे इस प्रकार कार्य करता देख लोग पागल कहते थे, लेकिन कुछ लोग तब भी हौंसला-अफजाई करते थे। जैसे-जैसे लोगों को परिणाम दिखने लगा, वे भी प्रेरित हुए। उन्हें भी मिश्रित जंगल का मतलब समझ में आने लगा। इसके लिए मैं समय समय पर उनके साथ बैठक करता था। मैं उन्हें अधिक से अधिक पौधारोपण के लिए प्रेरित करता था। 5 सिंतबर 1997 को अपने गांव से दिल्ली के लिए 20 लोगों के साथ पदयात्रा की। पदयात्रा का उद्देश्य सरकार से देशभर को पहाड़ द्वारा दी जा रहे ऑक्सीजन के बदले ‘राॅयल्टी’ लेना था। तब भी लोग मुझ पर हंसे। उस दौरान पैदल दिल्ली पहुंचने में हमे करीब एक महीना लगा था। लेकिन लोगों में भी काम को देखते हुए जागरुकता आने लगी। धीरे धीरे लोगों ने भी अपने बंजर खेतों में पेड़ लगाना शुरू किया और ये अभियान आसपास के 3 गांवों तक फैल गया। पंचायत ने भी सहयोग किया। पंचायत की जमीन पर भी पौधारोपण किया गया। आज हमारे जंगल से सटी जमीन पर भी बड़ी संख्या में मिश्रित वृक्ष हैं। जिसमें पचायती की जमीन भी है। इससे अब महिलाओं को लकड़ी और चारे के लिए दस किलोमीटर दूर नहीं जाना पड़ता है।
एक अकेला व्यक्ति तीस सालों में जंगल खड़ा कर देता है, लेकिन शासन और प्रशासन के तमाम प्रयास एवं योजनाएं वनों और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में विफल साबित हो रहे हैं। शासन, प्रशासन और समाज के लिए कुछ सुझाव ?
सबसे पहले तो हमें वास्तव में पर्यावरण और वनों की परिभाषा को समझना होगा। हमने प्रकृति, प्राण और प्राणी का नारा दिया है। क्योंकि प्रकृति से प्राण है और प्राण के बिना प्राणी का होना असंभव है। मिश्रित वन पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखते हैं। सरकार को चीड़ के पेड़ों का विकल्प तैयार करना होगा। सभी को ये समझना होगा कि केवल वृक्ष लगाने से कुछ नहीं होगा और न ही लाखों की संख्या में पेड लगाए जाए। भेल कुछ ही पेड़ लगाओ, लेकिन उनकी देखभाल अपने बच्चों की तरह की जाए। लेनिक हो विपरीत रहा है। वृक्ष करोड़ों की संख्या में हर साल लगाए जाते हैं, लेकिन अधिकांश सूख जाते हैं। हमे समझना होगा कि ‘‘प्रकृति प्रेम और प्रकृति का संरक्षण भगवान की सबसे बड़ी पूजा है’’। ये भी हमारा एक नारा है और इसके प्रति सभी को जागरुक कर रहे हैं।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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