उत्तराखंड़ का भौगोलिक और पौराणिक महत्व किसी भी अन्य क्षेत्र की अपेक्षा कईं ज्यादा अलौकिक और वृहद है। उत्तराखंड़ के संदर्भ में कहा जाता है कि ‘पहाड़ की जवानी पहाड़ के किसी काम नहीं आती। वो तो रोजगार की तलाश में मैदानों में चली जाती है। पहाड़ों पर तो बचते हैं, बूढ़े मां-बाप और बच्चे।’ जो लोग बचे हैं, वें चौड़ी पत्ती वाले जंगलों के कम होने से हर साल जल संकट और जंगल की आग तथा प्राकृतिक आपदाओं का सामना करते हैं, लेकिन नैनीताल के किसान ‘चंदन नयाल’ की जवानी न केवल पहाड़ के काम आ रही है, बल्कि वे दूसरों के लिए भी प्ररेणास्रोत बन गए हैं। पर्यावरण संरक्षण की तरफ कदम बढ़ाते हुए उन्होंने नौकरी छोड़ 40 हजार से ज्यादा पेड़ लगाए व सैंकड़ों चाल-खाल और खंतियों का निर्माण किया है। पेश है चंदन सिंह नयाल से बातचीत के कुछ अंश -
कहते हैं पहाड़ के लोग प्रकृति और पर्यावरण के सबसे करीब होते हैं। आप कैसे पर्यावरण से जुड़े ?
मेरा जन्म नैनीताल जिले के ओखलकांडा ब्लाॅक के एक गांव में हुआ था। पिताजी किसान हैं। मेरी पढ़ाई अलग अलग जगहों पर हुई। पहले मैं नैनीताल में पढ़ा, फिर चाचा के साथ हल्द्वानी चला गया। स्कूल की छुट्टियों के दौरान (विशेषकर गर्मियों में) घर जाते थे। गांव के आसपास पूरे क्षेत्र में चीड़ का जंगल था, जिसमें गर्मियों में आग लगती थी। सभी गांव वाले आग बुझाने जाते थे। ये सिलसिला काफी सालों तक चला। पाॅलिटेक्निक का डिप्लोमा लेने के दौरान भी जब हम गांव आते तो आग ही बुझाते थे। ऐसे में मुझे बहुत बुरा लगता था। तब मैंने पर्यावरण का संरक्षण कर पहाड़ों को बचाने की ठानी।
पहाड़ से युवा उज्जवल भविष्य, नौकरी और सुख-सुविधाओं की तलाश में मैदान का रुख करते हैं। डिप्लोमा करने के बाद आप क्यों पहाड़ में रुके रहे ?
मैदान की सुख-सुविधा हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। मैंने भी कुछ समय बाहर नौकरी की, लेकिन मन नहीं लगा तो नौकरी छोड़ दी। क्योंकि पहाड़ की गोद और प्रकृति की छाया में जो सुकून व सुख है, वो मैदानी की चकाचौंध में नहीं। सभी लोभ और मोह-माया छोड़ पर्यावरण के प्रति अपने संकल्प को पूरा करने के लिए मैं वापिस गांव आ गया और छह साल पहले यहां पौधारोपण की शुरुआत की। इसके अलावा मैं हमेशा से चाहता था कि इन पहाड़ों ने हमे सब कुछ दिया है। हमें भी पहाड़ों के लिए कुछ करना चाहिए। पहाड़ों के प्रति मैं अपने उसी कर्तव्य को पूरा कर रहा है और मैं पहाड़ की इन वादियों को छोड़कर कहीं और नहीं जाऊंगा।
पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधारोपण करने का अबतक का सफर कैसा रहा ?
जब मैंने नौकरी छोड़कर पौधा लगाने का कार्य शुरू किया तो घरवालों ने काफी सुनाई। वे कहते थे कि नौकरी कर पौधारोपण के इस काम में कुछ नहीं रखा है, लेकिन मैं अपने कार्य के प्रति दृढ़ संकल्पित था। पौधा खरीदना महंगा पड़ता था और मुझे ये कार्य बड़े स्तर पर करना था, इसलिए वन विभाग से पौधों की मांग की, लेकिन उनकी तरफ से पौधे नहीं दिए गए। मैंने सोचा कब तक पौधे मांगता रहूंगा, तो मैंने अपने खेतों में खुद की नर्सरी बनाने का निर्णय लिया और अपने ही पौधों को लगाने का कार्य शुरू किया। शुरूआत में लोग मुझे पागल कहने लगे, लेकिन मुझे लोगों की बातों की कोई परवाह नहीं थी। पर्यावरण के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए विभिन्न स्कूलों और ग्रामसभाओं में जाने लगा। मैं जहां भी जाता वहां पौधारोपण जरूर करता था। ऐसा करते करते मेरे साथ नैनीताल और अल्मोड़ा जिले के 150 से ज्यादा लोग जुड़ गए। 109 स्कूलोें में बच्चों को पर्यावरण का पाठ पढ़ाने के अलावा विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन भी करा चुके हैं। इन 6 सालों में विभिन्न प्रकार के चौड़ी पत्ती वाले 40 हजार से ज्यादा पौधे लगाए हैं, जिनमें से लगभग सभी जिंदा हैं। अब वन विभाग के साथ ही स्थानीय लोग भी साथ देने लगे हैं।
पहाड़ों पर आप किस प्रकार के पौधों का रोपण करते हैं और क्यों ?
पहाड़ पर इस समय अधिकांश चीड़ का जंगल है। चीड़ के अपने अलग फायदे हैं, लेकिन उत्तराखंड में चीड़ की अधिकता यहां के लिए अभिशाप बनी हुई है। चीड़ के कारण जल संकट बढ़ रहा है और जंगलों में आग भी लगती है। साथ ही चीड़ अपने आसपास किसी अन्य प्रजाति को पनपने नहीं देता है। ऐसे में हम चौड़ी पत्ती वाले पौधों का रोपण कर रहे हैं जिसमें बांज, बुरांश आदि के चौड़ी पत्ती वाले पौधे शामिल हैं। चौड़ी पत्ती वाले ये पेड़ जल संरक्षण के लिए काफी फायदेमंद होते हैं और मृदा अपरदन को भी रोकते हैं। मेरा उद्देश्य चीड़ का विकल्प तैयार कर चौड़ी पत्ती वाला जंगल खड़ा करना है। इसके लिए शुरूआत भी कर दी है। नैनीताल में जहां हमने पौधारोपण किया है वहां पौधे अब काफी बड़े हो गए हैं। इसके साथ ही इन पौधों की ओट लिए अन्य औषधीय पौधें स्वतः ही पनपने लगे हैं। वातावरण में भी पहले की अपेक्षा थोड़ा सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है, क्योंकि अब मिट्टी में नमी पहले की अपेक्षा ज्यादा बनी रहती है।
पौधारोपण और जल संरक्षण आपस में जुड़े हैं। पहाड़ों पर जंकट भी गहरा रहा है। क्या आप जल संरक्षण के लिए भी कार्य कर रहे हैं या आपके कार्य का जल संरक्षण पर भी असर पड़ा है ?
पहाड़ पर जलस्रोत (नौले-धारे आदि) सूखते जा रहे हैं। हमने जलस्रोतों के कैचमेंट क्षेत्रों के आसपास भी पौधारोपण किया है, लेकिन जल संरक्षण पर पौधारोपण का प्रभाव तुरंत देखने को नहीं मिलता है। इसमें कई साल लग जाते हैं। इसके अलावा पहाड़ को जल संकट से उबारने के लिए हमने चाल-खाल और खंतियां बनाने का कार्य भी शुरू किया है। अभी तक हम करीब 150 चाल-खाल और खंतियां बना चुके हैं। लाॅकडाउन का सदुपयोग करते हुए इस अवधि में भी करीब 30 चाल-खाल बनाए थे। जो बरसात के बाद अब पानी से लबालब भरे हैं।
पौधा लगाने से ज्यादा कठिन उनकी देखभाल करना होता है। पर्वतीय इलाकों में ये और भी मुश्किल है। आप किस प्रकार इनकी देखभाल करते हैं ?
पहले तो मैंने अकेले पौधारोपण का कार्य शुरू किया था, लेकिन फिर एक टीम तैयार हो गई। हम जिस भी स्कूल या ग्रामसभाओं में पौधारोपण करते हैं, वहीं के लोगों व स्कूल के बच्चों को पौधों के देखभाल की जिम्मेदारी देते हैं। कुछ समय के अंतराल में उस स्थान का निरीक्षण किया जाता है। कई बार तो पेड़ जीवित है या नहीं, ये देखने के लिए फोन पर फोटो भी मंगवाते हैं। यही कारण है कि हमारे अधिकांश पेड़ आज जीवित हैं।
पौधा लगाने की भी एक तकनीक है। आपने पौधों के बारे में जानकारी कैसे जुटाई ?
शुरुआत में तो जितना पता था उसके अनुसार ही पौधारोपण करता था, लेकिन फिर मुझे लगा कि मुझे अभी काफी जानकारी जुटाने की जरूरत है। इसके लिए मैंने पद्मभूषण अनिल प्रकाश जोशी, सुंदरलाल बहुगुणा, कल्याण सिंह रावत, स्वर्गीय विश्वेश्वर दत्त सकलानी और उत्तराखंड के ग्रीन एंबेसडर जगत जंगली आदि पर्यावरणविदों से मुलाकात की। इन सभी ने मेरा मार्गदर्शन किया। जिसके बाद मुझे अपने कार्य और पर्यावरण के प्रति अपने लक्ष्य को लेकर काफी कुछ समझ में आने लगा।
आप पेशे से किसान हैं। पहाड़ के किसानों के सामने क्या चुनौतियां हैं ?
पहाड़ मैदानों को वो सब कुछ दे सकता है, जो वे चाहते हैं। बाजार में जितने भी जैविक खेती के उत्पाद आ रहे हैं। अधिकांश लोग किसानों से ही सस्ते दाम पर जैविक फसल खरीदते हैं और उत्पानों को शहरों में महंगे दामों पर बेचते हैं। कई स्थानों पर सुविधाओं के अभाव में किसान खेती भी छोड़ रहे हैं। पहाड़ के किसानों के सामने सबसे बड़ी समस्या ट्रांसपोर्ट की है। तो वहीं उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आज किसान का बेटा किसान नहीं बनाना चाहता है। वास्तव ऐसे प्रणाली हो कि किसान का बेटा किसान ही बने। क्योंकि जितना एक व्यक्ति नौकरी करके कमाता है, उससे ज्यादा वो खेती से कमा सकता है। इसके लिए उसे प्रोत्साहित किया जाए। क्योंकि यदि अधिक उत्पादन होगा, तो ही हम लोगों का पेट भर पाएंगे। कम उत्पादन के कारण उत्पादों का दाम भी बढ़ेगा ही। लोगों को इस दिशा में जागरुक करने का भी हम कार्य कर रहे हैं।
क्या पौधों को केवल मानसून व बरसात में ही लगाया जा सकता है ?
मानसून या बरसात में ही पेड़ों को लगाने की लोगों में मानसिकता बन गई है, जबकि ऐसा नहीं है। पौधों को लगाने का वैज्ञानिक तरीका होता है और साल में इन्हें किसी वक्त लगाया जा सकता है, लेकिन इनकी पर्याप्त देखरेख करनी पड़ती है। हालांकि, मानसून में पेड़ों को पनपने में आसानी होती है, इसलिए लोगों का ऐसा मानना है।
हिमांशु भट्ट (8057170025)