जंगल पंचायत

Submitted by editorial on Sat, 03/16/2019 - 14:00
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पहाड़, पिथौरागढ़-चम्पावत अंक (पुस्तक), 2010

जंगलजंगलमानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मनुष्य का जंगल से गहरा रिश्ता रहा है। हवा, पानी तथा भोजन जंगलों से जुटाए जाते रहे हैं।

उत्तराखण्ड में जीवनयापन का मुख्य आधार खेती और पशुपालन रहा है। इन दोनों का आधार स्थानीय वनों से प्राप्त होने वाली उपज है। जलाने के लिए ईंधन की पूर्ति, खेती में प्रयुक्त होने वाले औजार, खाद हेतु पत्तियाँ, जड़ी-बूटी, जानवरों के लिए चारा और घास, घर बनाने के लिए लकड़ी के सबसे बड़े स्रोत स्थानीय वन ही रहे हैं।

वनों से इतना करीबी रिश्ता होने के कारण वन प्रबन्ध की व्यवस्था भी प्रारम्भ से कायम रही है। उत्तराखण्ड मेें वनों के प्रबन्ध की लठ पंचायत परम्परा को इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है। लठ पंचायत की परम्परा ने ही कालान्तर में वन पंचायत का रूप ग्रहण किया। पिछले लगभग 80 वर्षों से सामुदायिक वनों के प्रबन्ध की यह प्रणाली इसीलिए इतनी टिकाऊ बन पाई क्योंकि यह लोगों के अपने अनुभवों और संघर्षों से विकसित हुई वन प्रबन्ध व्यवस्था का कानूनी रूप था।

वन पंचायतों का सामान्य इतिहास

वन पंचायतें जन भागीदारी से वन प्रबन्ध का अनूठा उदाहरण है। औपनिवेशिक काल से पूर्व उत्तराखण्ड मेें वनों का प्रबन्ध मनुस्मृति के अनुसार होता था अर्थात् लोग आवश्यकतानुसार वनों का उपभोग कर सकते थे, न सिर्फ वन उपज वरन जंगलों को साफ करके उसे कृषि भूमि में बदलने के अधिकार भी लोगों को थे।

वर्ष 1981 ई. से उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का शासन प्रारम्भ हुआ तथा वन प्रबन्ध की वर्तमान व्यवस्था भी आरम्भ हुई। अंग्रेजों को यहाँ के वनों का महत्व शीघ्र ही ज्ञात हो गया था। समुद्री जहाजों और रेल की पटरियों के लिए उपयोगी यहाँ की लकड़ी तथा नदी मार्गों द्वारा आसानी से ढुलान की पद्धति ने अंग्रेजों को यहाँ के वनों पर एकाधिकार करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने यह भी समझ लिया था कि यहाँ के वनों का यदि व्यवसायिक दोहन करना है तो स्थानीय जनता के अधिकारों को सीमित करना होगा। वनों पर अधिकार सीमित करने से पूर्व भूमि पर अधिकार सीमित करना आवश्यक था। इसीलिए वर्ष 1823 ई.में बहुचर्चित साल अस्सी बंदोबस्त (सम्वत् 1880 में होने के कारण) प्रारम्भ किया गया और गाँव की सीमाएँ निर्धारित कर दी गई।

वर्ष, 1865 के उपरान्त पर्वतीय क्षेत्र पर धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण होना आरम्भ हुआ। इसी वर्ष भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया तथा साल (सोरिया रोबुस्टा) के समस्त वनों को आरक्षित घोषित कर 1868 में उनका प्रबन्ध वन विभाग को सौंप दिया गया।

सन् 1857 में नैनीताल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित वनों का उपयोग राज्य खनन अभियन्ताओं द्वारा लोहे को गलाने के लिए आरम्भ किया गया। अगले वर्ष खुर्पाताल में यह कार्य एक निजी कम्पनी को सौंप दिया गया, जिसका यहाँ के वनों पर 1864 तक नियंत्रण रहा।

1865 मेें लौह-प्रदावरण के कार्य क्षेत्र के बाहर के वनों को एक सहायक वन संरक्षक के अधीन दे दिया गया जो आयुक्त के आदेश से कार्य करता था। 1868 में आयुक्त के स्थान पर वन संरक्षक की नियुक्ति की गई। 1878 तक नैनीताल के वन कुमाऊँ वन प्रभाग का गठन किया गया। वनों के आरक्षण में 1878 के आदेशों में तराई और भाबर के बहुत से क्षेत्रों तथा अल्मोड़ा और नैनीताल के कुछ क्षेत्रों का सीमांकन कर उन्हें आरक्षित वन घोषित किया गया, जो अब पुराने आरक्षित वनों के नाम से जाने जाते हैं।

1884 में पुनर्गठन के बाद नैनीताल व रानीखेत उप प्रभाग को मिलाकर एक प्रभाग बनाया गया। यह व्यवस्था जुलाई 1915 तक रही। इसके बाद दूसरे पुनर्गठन के अन्तर्गत रानीखेत के वन पश्चिमी अल्मोड़ वन प्रभाग में सम्मिलित किए गए एवं भवाली में लीसा आसवानी एक अलग इकाई सृजित की गई।

वर्ष 1910 में अंग्रेजी शासन द्वारा कुमाऊँ के वनों का नियमित बन्दोबस्त आरम्भ किया गया। स्टिफ (राजस्व अधिकारी) व हरवर्ट (वन अधिकारी) द्वारा किए गए बन्दोवस्तों के फलस्वरूप नए आरक्षित वनों का जन्म हुआ।

आजादी से पूर्व तक पिथौरागढ़ (जिसमें वर्तमान चम्पावत जिला भी शामिल है) के वन पूर्वी अल्मोड़ा वन प्रभाग के भाग के रूप में बने रहे। वर्ष 1960 में पिथौरागढ़ प्रभाग की स्थापना हुई और पिथौरागढ़ और चम्पावत के वन क्षेत्र इस प्रभाग में शामिल किए गए।

शासनादेश संख्या 869-एम/638-44, दिनाँक 17-10-1883 द्वारा तत्कालीन अल्मोड़ा, नैनीताल तथा गढ़वाल जिलों का समस्त ऐसी भूमि जो कि खेती योग्य नाप भूमि के अन्दर नहीं थी, सुरक्षित वन घोषित कर दी गयी। इसी के साथ वर्ष1878,1893,1904 तथा 1917 में भी वनों की सीमाएँ निर्धारित की गई, नियमों की शृंखलाएँ आरम्भ की गई तथा लोगों के अधिकारों को सीमित किया गया।

फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी

अधिकरों में कटौती की व्यापक प्रतिक्रिया हुई और समस्त कुमाऊँ में व्यापक स्तर पर आन्दोलन शुरू हो गए। शासन ने दमन नीति अपनाते हुए प्रारम्भ में कड़े कानून लागू किए, परन्तु लोगों ने इन कानूनों की अवहेलना करते हुए यहाँ के जंगलों को आग के हवाले करना आरम्भ किया। फलस्वरूप शासन ने समझौता करते हुए एक समिति का गठन किया।

1921 में गठित कुमाऊँ फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी का अध्यक्ष तत्कालीन आयुक्त पी.विंढम को चुना गया तथा इसमें तीन अन्य सदस्यों को शामिल किया गया। समिति ने एक वर्ष तक पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण किया तथा 1922 में वनों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हुये गाँव की सीमाओं से दूर व्यावसायिक प्रजातियों के वनों का श्रेणी-2 तथा ग्राम की सीमा से लगे हुए चौड़ी-पत्ती के वनों को श्रेणी-1 में रखने का सुझाव दिया। समिति द्वारा यह सुझाया गया कि ग्रामीणों की निजी नाप भूमि से लगी हुई समस्त सरकारी भूमि से लगी हुई समस्त सरकारी भूमि को वन विभाग के नियंत्रण से हटा लिया जाए।

इस समिति की सिफारिशों के फलस्वरूप 1922 के पश्चात कई वन क्षेत्रों का निर्वनीकरण किया गया तथा शेष वन क्षेत्र को दो वर्गों में बाँटा गयाः

1.वर्ग-2

(क) जो पुराने आरक्षित वनः1915 से पूर्व आरक्षित घोषित किए गए। ये वन विभाग के नियंत्रण में हैं तथा इनमें किसी भी प्रजाति के वृक्षों का पातन या शाखाकर्तन मना है। (ख) नये आरक्षित वनः ये भी वन विभाग के नियंत्रण में हैं। इनमें शासनादेश संख्या 145-ए, एफ./14 दिनाँक-23-3-1941 द्वारा प्रसारित हक सम्बन्धी नियम लागू होते हैं।

2.वर्ग-1

आरक्षित वनः ये वन वर्ष 1922 से कुमाऊँ ग्रीवान्सेज कमेटी की संस्तुतियों के आधार पर राजस्व विभाग के अधीन ग्रामीणों के तुष्टीकरण हेतु रखे गए थे। परन्तु गोपीय शासकीय आदेश संख्या 6849/-बी-564/57 दिनाँक 17 नवम्बर 1964 द्वारा इन वनों को उपायुक्त के नियंत्रण से वन विभाग को हस्तान्तरित किया गया। इस शासनादेश के प्रमुख उपलब्ध निम्न थेः

1.कुमाऊँ तथा गढवाल मण्डलों (तत्कालीन कुमाऊँ मण्डल) में स्थित सभी वर्ग-1 वन, जो उस समय राजस्व विभाग के नियंत्रण मेें थे, तत्कालीन प्रभाव से वन विभाग को हस्तान्तरित किए जाने थे।
2. वन विभाग द्वारा वर्ग-1 के वनों का नियंत्रण अपने हाथ में लिए जाने के बाद भी वनों में स्थानीय निवासियों के वन सम्पदा सम्बन्धी अधिकार एवं सियायतें पूर्ववत बनी रहनी थी, परन्तु प्रतिबन्ध यह था कि इन वनों के उन भागों में, जो वन विभाग या वन पंचायतों के द्वारा निर्वनीकरण हेतु लिया जाए, अधिकार एवं रियायतें उस अवधि तक बन्द रहेगी, जब तक कि उन में लगाए गए रोपण पूर्णतः स्थापित नहीं हो जाते। इन रोपण क्षेत्रों मेें वन की पुनर्स्थापना होते ही ग्रामीणों के अधिकार एवं रियायतें पूर्ववत बहाल हो जाने थे।
3.वर्ग-1 के वनों में 9 वृक्ष प्रजातियों को रक्षित किया गया। वे थे देवदार, साल, कैल, सुरई, तुन, अखरोट, चीड़, सुरई तथा मुरिण्डा। स्थानीय निवासियों द्वारा रक्षित प्रजाति के वृक्ष के अतिरिक्त अन्य वृक्षों के शाखतराशी पर लगे प्रतिबन्ध को हटा लिया गया तथा अधिकार प्राप्त ग्रामीणों को उपरोक्त प्रतिबन्धित प्रजातियों को छोड़कर अन्य किसी भी वृक्ष को काटने अथवा गिराने की अनुमति उन क्षेत्रों में दे दी गई, जहाँ उनके अधिकार अभिलिखित थे। स्थानीय शिल्पकारों को आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त किसी प्रकार के वन सम्पदा की ब्रिकी की अनुमति नहीं थी।
 

 

 

तालिका 1 :पिथौरागढ़ जिले में वन पंचायतें (1990-95)

श्रेणी 1 की वन पंचायतें

श्रेणी 2 की वन पंचायतें

सिविल वनों की वन पंचायतें

योग

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

33

3169

2

42

1021

86245

1056

89458

 

 

तालिका 2: चम्पावत जिले में वन पंचायत

श्रेणी 1 की वन पंचायतें

श्रेणी 2 की वन पंचायतें

सिविल वनों की वन पंचायतें

योग

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

-

-

-

-

629

31232.781

629

31322.781

 

सिविल या रक्षित वन

ये वन गाँवों की परम्परागत सीमाओं के अन्दर परन्तु नाप भूमि से बाहर स्थित हैं। 1957 में कुमाऊँ नयाबाद व वेस्टलैण्ड अधिनियम के विखण्डन से पूर्व ग्रामीणों को इन वनों में भूमि विस्तार के अधिकार प्राप्त थे। आरक्षित वृक्षों को छोड़कर ग्रामवासी घरेलू प्रयोजन हेतु अन्य वृक्षों का पातन कर सकते थे। ये अधिकार 1976 में उत्तर प्रदेश ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्ष संरक्षण अधिनियम लागू होने से सीमित हो गए हैं, परन्तु स्थानीय निवासियों के निजी उपयोगार्थ अभी भी अन्य अधिकार जैसे शाखकर्तन, चारण, लीसे के अतिरिक्त अन्य गौण वन उपज एकत्र करने के अधिकार हैं।

पंचायती या सामुदायिक वन

वन पंचायत नियमावली के अन्तर्गत व्यवस्थित ये वन दो प्रकार के हैंः (क) अधिकतर वर्ग-1 तथा कुछ वर्ग-2 के आरक्षित वनों से बनाए गए वन। (ख) गाँवों की परम्परागत सीमाओं में स्थित सिविल वनों तथा नाप खेतों के कुछ भागों से बनाए गए वन कई स्थानों पर गाँव संजायती भूमि को भी पंचायती वनों में सम्मिलित किया गया।

तालिका 1-2 से स्पष्ट है कि कुछ को छोड़कर लगभग सभी वन पंचायतें सिविल वन क्षेत्रों से ही बनाई गई। लेकिन यदि अन्य जिलों से तुलना की जाए तो इस दौरान नैनीताल और अल्मोड़ा जिलो में श्रेणी-1 के वनों से मात्र 5-5 वन पंचायतें बनी, वहीं श्रेणी-2 के वनों से तो एक भी वन पंचायत नहीं बनी। इसका अर्थ यह भी हुआ कि बहुचर्चित कुमाऊँ फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी की संस्तुतियों का कोई फायदा नहीं मिला।

वन पंचायतों का संगठनात्मत ढाँचा

वन पंचायतों का तात्पर्य पंचायती वनों के प्रबन्ध हेतु गठित समिति से है। प्रत्येक ग्राम के निवासियों के दो-तिहाई सदस्यों की सहमति से सम्बन्धित ग्राम की साल अस्सी सीमा के अन्तर्गत स्थित किसी भी भूमि में पंचायती वनों का गठन करने का प्रावधान था। प्रत्येक वन पंचायत मेें 5 से 9 निर्वाचित सदस्य होते हैं। वन पंचायतों के गठन और मार्ग दर्शन को लिए राजस्व विभाग के अधीन विशेष अधिकारी (वन पंचायत निरीक्षक) के पद सृजित हैं। तहसील स्तर पर परगनाधिकारी (वन पंचायत अधिकारी) एवं जिला स्तर पर जिलाधिकारी (उपायुक्त) का प्रशासनिक नियंत्रण है। कुमाऊँ और गढ़वाल मण्डल के आयुक्त इस कार्य हेतु विभागाध्यक्ष के रूप के कार्य करते हैं।

वन पंचायत नियमावली में निरन्तर परिवर्तन व संशोधन किए गए। 1976 मेें किए गए संशोधन के कारण अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 के स्थान पर वन अधिनियम 1927 के अन्तर्गत नियमावली का निर्माण किया गया तथा वन विभाग को वन पंचायतों के अन्तर्गत प्रभावी भूमिका दी गई।

नया राज्य बनने के बाद 2001 और फिर 2005 में पुनः वन पंचायत नियमावली में परिवर्तन किए गए, जिनके द्वारा वन विभाग के कर्मचारी को वन पंचायत का पदेन सचिव नियुक्त किया गया। इसके साथ ही वन पंचायतों के अधिकारों में भी कटौती की गई और वन उपज व उपयोग में लोगों के अधिकार सीमित कर दिए गए हैं।

नियमावली मेें किए गए संशोधनों पर जनता द्वारा व्यापक प्रतिक्रिया व्यक्त की गई और वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के नेतृत्व में इस नियमावली का व्यापक विरोध किया गया। इस विरोध के पश्चात सरकार द्वारा एक संशोधन समिति का गठन किया गया। इस संशोधन समिति ने राज्य स्तरीय बैठकों आयोजित कर सरकार को अपनी रिर्पोट सौंपी।

सरकार ने वर्ष 2005 में पुनः संशोधित नियमावली लागू की, जिसमें 2001 के नियमावली के मुकाबले लोगों की आशा के अनुरूप बदलाव नहीं किए गए। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा और सरपंच संगठन के नेतृत्व में पुनः इस नियमावली का व्यापक विरोध किया गया। इस विरोध के फलस्वरूप वर्ष 2006 में सरकार ने पुनः प्रशासनिक आयोग का गठन किया। प्रशासनिक आयोग को जिम्मेदारी दी गई कि वन पंचायत की नियमावली के सम्बन्ध में सरकार को अपेक्षित सुझाव दे।

 

 

 

 

 

तालिका 3 पिथौरागढ़ की वन पंचायतें

विकास खण्ड

कुल वन पंचायतें

क्षेत्रफल हेक्टेयर में

धनराशि

विण

160

3602.40

97078

मूनाकोट

176

3515.209

87668

दार्चुला

119

13571.399

370317

डीडीहाट

161

5950.110

223774

कनालीछीना

207

6876.999

267935

मुनस्यारी

223

16929.449

222741

बेरीनाग

289

4821.328

283177

गंगोलीहाट

331

31787.067

94044

योग

1666

87053.701

1646734

 

 

तालिका 4:चम्पावत की वन पंचायतें

विकास खण्ड

कुल वन पंचायतें

क्षेत्रफल हेक्टेयर में

धनराशि

चम्पावत

215

17558.582

245000

पाटी

157

5502.065

92000

बाराकोटा

92

3201.800

101500

लोहाघाट

165

4970.800

101500

योग

629

31232.781

438500

 

वन पंचायतों की विशेषताएँ

यद्यपि वन पंचायत नियमावली वर्ष 1931 से लागू हुई परन्तु वन शिकायत की संस्तुतियों के पश्चात सक्रिय गाँवों ने अपने यहाँ वन पंचायतों का गठन आरम्भ कर दिया था। पिथौरागढ़ में भी वर्तमान विण विकास खण्ड के अन्तर्गत कई गाँवों मेें वर्ष 1930 में ही वन पंचायतों की स्थापना हो चुकी थी।

वन पंचायत नियमावली 1931 में एक विशेष प्राविधान था कि यदि गाँव में धड़ेबन्दी अर्थात अलग-अलग हितधारी हों तो वह अपनी अलग वन पंचायतें बना सकते हैं। उस समय की परिस्थितियों मेें सभी को हक मिलने और विवादों से बचने का यह एक बेहतर तरीका था और पिथौरागढ़ के कई गाँवों में दो या उससे अधिक वन पंचायतें बनीं। धारी, नाधर, शेरी, रावत, रावतधड़ा जैसी कई वन पंचायतें इसका उदाहरण हैं।

मुनस्यारी और दार्चुला विकास खण्ड में कई वन पंचायतों की सरहदें हिमालय की चोटियों से मिली है और इसके पास 1000 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल है (अगली फलयाटी 1304 हेक्टेयर खतेड़ा 1149 है)। वहीं जनपद में कई वन पंचायतें हैं जिनका क्षेत्रफल 1 हेक्टेयर से भी कम है (कमद 0.77 हेक्टेयर)। हर राजस्व गाँव में एक वन पंचायत के सरकारी आदेश के पश्चात बड़ी वन पंचायतों को छोटा किया जा रहा है और बगैर भूमि के वन पंचायतों का गठन हो रहा है।

वन पंचायत नियमावली 1976 में यह प्राविधान किया गया था कि वन विभाग को प्रत्येक वन पंचायत के लिए माइक्रोप्लान बनाने होंगे और इसके लिए वन पंचायतों की आय का 40 प्रतिशत हिस्सा वन विभाग द्वारा वसूला भी जाता रहा। पिथौरागढ़ जिले का मूनाकोट पूरे राज्य मेें इसका अपवाद है जहाँ के लिए आर.डी.गुप्ता द्वारा पहला माइक्रोप्लान तैयार किया गया हालाँकि यह माइक्रोप्लान भी सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा और इस पर अमल नहीं हुआ। 2001 के पश्चात पिथौरागढ़ में 261 और चम्पावत में 120 वन पंचायतों के माइक्रोप्लान बने हैं और इन्हें भी वन विभाग द्वारा स्वयं न बनाकर ठेके में बनवाया गया है।

वर्ष 1997 मेें राज्य में संयुक्त वन प्रबंध व्यवस्था आरम्भ हुई। मूल रूप में सुरक्षित वनों के लिए बनी इस योजना को उत्तराखण्ड की वन पंचायतों में विरोध के बावजूद, वन विभाग द्वारा लागू किया गया और तभी आरम्भ हुआ जिलों को वन पंचायतों से आच्छादित करने का तथाकथित अभियान। इस अभियान के दौरान पिथौरागढ़ में भी लगभग 600 वन पंचायतें बनीं। कुछ को छोड़ इन वन पंचायतों का अस्तित्व सिर्फ लोगों को जीवन यापन के आधार के तौर पर चारा पत्ती,लकड़ी और पानी उपलब्ध कराने में सहायक रही हैं वरन जैव विविधता के दृष्टिकोण से भी पिथौरागढ़ जिले मेें स्थित वन पंचायतें जैव विविधता की अकूत भण्डार हैं। साथ ही खेती के अतिरिक्त अन्य सहायक उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने में भी यहाँ की वन पंचायतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

जिला पिथौरागढ़ की कई वन पंचायतों की सीमाएँ गोरी और काली नदियों के किनारों से शुरू होकर हिमालय की तलहटी तक पहुँचती हैं। इन वन पंचायतों के क्षेत्रफल नजर नाप पर ही आधारित हैं। नदियों के किनारे से शुरू होने वाली सीमा में जहाँ साल शीशम और कुछ मात्रा में चीड़ सहित मैदानी इलाकों में पाई जाने वाली प्रजातियाँ मौजूद हैं वहीं लगभग 1200 मीटर की ऊँचाई के पश्चात चीड़ के जंगल आरम्भ हो जाते हैं। इसके ऊपर ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ प्रजातियों का स्वरूप भी निरन्तर बदलता है जो चीड़ के पश्चात तुन, बाँज, रियाज, खरसू के रूप में दिखाई देता है। इसके पश्चात बाँज की ही प्रजाति रियाज दिखाई देने लगती है। इस ऊँचाई पर सालम घास भी बहुतायत में पाई जाती है। जिसका उपयोग जानवरों के चारे और गौशालाओं की छतों में बहुतायत से किया जाता है।

रियाज के जंगल के पश्चात खरसू, देवदार, पांगर, रिंगाल प्रजातियाँ आरम्भ हो जाती हैं। इसी क्षेत्र में रिंगाल की देव प्रजाति भी पाई जाती है, जिससे मोस्टे, चटाइयाँ, डोके तथा अन्य कृषि उपयोगी वस्तुओं का निर्माण होता है। वर्तमान में कम हो जाने के बावजूद अभी तक यह स्थानीय लोगों की कृषि के अतिरिक्त आय का प्रमुख अंग रहा है। ये सब प्रजातियाँ लगभग एक हजार से चार हजार मीटर के बीच में पाई जाती हैं। चार हजार मीटर से ऊपर की ऊँचाई में खरसू जैसी प्रजातियों की ऊँचाई कम होने लगती है तो रिंगाल मुलायम की जगह कठोर होकर डण्डे का रूप ले लेता है। पाँच हजार मीटर से ऊपर की ऊँचाई मेें बुरांश के फूल का रंग बदलकर सफेद हो जाता है और सोड़ (उतीश), थुनेर, भुज, रागा प्रजातियों के साथ वृक्ष रेखा समाप्त हो जाती है। इससे अधिक ऊँचाई में बुग्याल हैं। ये सिर्फ घासों के मैदान न होकर जैवविविधता के भण्डार भी हैं। कूट, चिरायता, कुटकी, अतीश जैसी हजारों वन औषधियाँ बुग्यालों में पाई जाती है। ब्रह्मकमल और कस्तूरी मृग भी यहाँ पाया जाता है।

जम्बू, गन्द्रेणी, कालाजीरा के लिए प्रसिद्ध इस इलाके में पिछले कुछ वर्षों से सबसे ज्यादा चर्चा यारसागम्बू की रही है। परन्तु इस बेशकीमती जड़ी-बूटी का फायदा अधिकांशतया बिचौलियों की ही जेब में जा रहा है। यारसागम्बू के दोहन के कारण स्थानीय जैव विविधता को कितना खतरा पहुँच रहा है इसका आंकलन तो अलग से किए जाने की आवश्यकता है। वन पंचायतों के दृष्टिकोण से देखें तो आर.एस. टोलिया के कार्यकाल में वन पंचायतों को यारसागम्बू के दोहन की अनुमति मिली थी परन्तु व्यवहार में वन पंचायतों को इस अनुमति का कोई वास्तविक लाभ नहीं मिल पाया। क्योंकि यारसागम्बू का दोहन वन पंचायतों की सीमा के आधार पर न होकर इलाके की सीमाओं के आधार पर हुआ तथा वन पंचायतों और वन विभाग दोनों की ही भूमिका इस सम्बन्ध में निष्क्रिय रही। वन पंचायत की बात को तो समझा जा सकता है क्योंकि जटिल भौगोलिक परिस्थितियों ने यहाँ लोगों को गाँव की सीमाओं से बाहर निकालकर इलाकों की सीमाओं में बाँध दिया और इस कारण उपभोग के नियम भी पूरे इलाके के लिए बने। यारसागम्बू के दोहन को इसी परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। परन्तु वन विभाग का अपनी भूमिका को न निभा पाना यहाँ की जैव विविधता के लिए निसन्देह खतरे की घण्टी है।

इसी तरह कस्तूरा मृग विहार से कस्तूरी मृगों का संरक्षण हो रहा हो या नही परन्तु इस मृग विहार के भीतर आने वाली वन पंचायतों मेें लोगों के अधिकार अवश्य समाप्त हो गए हैं। मृग विहार के निर्माण के पश्चात से ही लीसा और झूला जैसी आयवर्धक लघु वन उपजों का दोहन समाप्त हो गया है। वहीं चीड़ के पेड़ गिर कर सड़ रहें हैं परन्तु ग्रामवासी इन्हें अपने उपयोग के लिए नहीं ले सकते हैं।

चम्पावत जिले की वन पंचायतों में बाँज खरसू और चौड़ी पत्ती प्रजीतियों की बहुतायत है। परन्तु वन पंचायत नियमावली 2005 के अनुसार माइक्रोप्लान न बन पाने की स्थिति में लघु वन उपजों का दोहन नहीं किया जा सकता है। जिस कारण यहाँ की कई वन पंचायतों में झूले का कानूनी रूप से दोहन बन्द है। क्षेत्रवासियों ने इस समस्या को कई बार उठाया भी है। परन्तु इस सम्बन्ध में कोई कार्यवाही न होने के कारण झूले की निकासी या तो बन्द है अथवा चोरी से की जा रही है।

बेहतरी के तरीके

वन पंचायतों का निर्माण लोगों के जीवनयापन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था। समय के साथ लोगों के जीवनयापन के तरीकों में बदलाव आएँ हैं परन्तु आज भी बहुसंख्यक जनता खेत पर ही निर्भर है। खेती और वनों के आपसी सम्बन्धों के चलते वन नीतियों में किया गया कोई भी बदलाव लोगों के जीवनयापन के तरीकों को ही प्रभावित करता है। अभी तक के अनुभवों से स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों की आँच अन्ततः समाज के सबसे निचले तबके पर ही गिरती है। महिलाएँ तथा वंचित तबके इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। संसाधनों पर नियन्त्रण न होने का सीधा असर उनके फैसले लेने की ताकत पर पड़ता है। वन पंचायतों को भी इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए।

1.वन पंचायत नियमावली 2005को तुरन्त निरस्त किया जाना चाहिए। इसके लागू होने पर वन पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त हो गई है और वे एक तरह से सुरक्षित जंगल में बदल गईं हैं। इसके अतिरिक्त नियमावली मेें दी गई जिम्मेदारी निभाने के लिए न तो वन विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी हैं और न सामुदायिक वनों के प्रबन्धन का कोई व्यावहारिक अनुभव वन विभाग के पास है। इसलिए लोगों की परेशानियाँ बढ़ी हैं। तकनीकी अनुभव वन विभाग के द्वारा वन पंचायत की अनुमति के बाद प्रदान किया जा सकता है।

2.वन पंचायत एक्टवन पंचायतों की कई समस्याओं का कारण इसके लिए अलग से कोई एक्ट तथा निदेशालय का नहीं होना है। एक्ट न होने के कारण ही वन पंचायत नियमावली में आसानी से परिवर्तन करना सम्भव हुआ है।

1976 की नियमावली के अनुसार जहाँ राजस्व विभाग को वन पंचायतों के गठन और अनुश्रवण (मोनिटरिंग) की जिम्मेदारी निभानी थी वहीं वन विभाग को वन पंचायतों के लिए माइक्रोप्लान बनाने में, पर दोनों ही विभागों ने अपनी जिम्मेदारियों को नही निभाया। कई गाँवों में ग्रामीणों के अनुरोध के बावजूद राजस्व विभाग द्वारा चुनाव नहीं कराए जा रहे हैं तथा वन विभाग द्वारा भी केवल उन्हीं गाँवों के माइक्रोप्लान तैयार किए जा रहे हैं जिनमें कोई योजना चल रही है। पृथक निदेशालय बनने पर एक ही विभाग द्वारा वन पंचायत से सम्बन्धित सभी कार्य किया जाना सम्भव हो जाएगा।

3.वर्ष 1997 के बाद प्रदेश में लगभग 8 हजार नई वन पंचायतें बनी हैं परन्तु ये उपलब्ध सिविल जंगल से बनाई गई हैं। अधिकतर सिविल जंगल ऊसर जमीन है और इनसे वर्तमान में ग्रामीणों की आवश्यकताओं की पूर्ति नही हो सकती है। वन पंचायतों का निर्माण उन सामुदायिक वनों से किया जाना चाहिए जिन पर जनता की पहुँच है। चाहे ये वन सुरक्षित, आरक्षित या अन्य किसी श्रेणी में हों। वर्तमान में भी ग्रामीणों द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति चोरी से सुरक्षित जंगलों से की जा रही है। इन वनों से लोगों का लगाव न होने के कारण इनका ह्रास तेजी से हो रहा है।

4.वन पंचायत कीआय तथा पंचायती वनों के उत्पादन के उपयोग, वितरण व बिक्री के अधिकार वन पंचायतों को मिलने चाहिए। वन पंचायतों की समस्त आय सीधे वन पंचायतों के खाते में आनी चाहिए तथा इस आय के उपयोग का अधिकार वन पंचायत के पास होना चाहिए। वर्तमान में वन विभाग की अनुमति के बगैर वन पंचायतें अपनी ही आय को खर्च नहीं कर सकती हैं। वन पंचायतों की अतिरिक्त वन उपज को बेचने के अधिकार वन पंचायतों को नही हैं। अतिरिक्त उपज होने पर वन विभाग को आवेदन देना होता है। यह आवेदन दिए जाने के बावजूद वन विभाग की रूचि विशेषकर चीड़ के गिरे हुए पेड़ों पर अधिक नही होती क्योंकि ये संख्या में कम होते हैं। जिसके कारण वन पंचायतों की उपज जंगलों मेें ही सड़ जाती है। बाज के वृक्षों से झूला तथा चीड़ की गुलिया काफी मात्रा मेें निकलता है। परन्तु पिछले कई वर्षों से इसे निकालने की अनुमति वन पंचायतों को नही मिल रही है। बिचौलिए इस व्यवस्था का फायदा उठाकर निजी जमीन और सुरक्षित जंगल के नाम पर इन दोनों के परमिट हासिल कर लेते हैं। जबकि वास्तव में ये निकाले वन पंचायतों से जाते हैं। लेकिन वन पंचायतों को इसकी आय की हिस्सेदारी नही मिल पाती है।

5. तकनीकी जानकारी

वन तथा अन्य विभाग तथा शोध संस्थाओं को वन पंचायतों में तकनीकी कार्य करने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए ताकि वन पंचायतें बदली गई पर्यावरणीय आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य कर सके तथा सक्षम वन पंचायतों में व्यवसायिक प्रजातियों को बढ़ावा मिल सके।

6.वन पंचायतों में विवादों की समय सीमा तय की जानी चाहिए। वन पंचायत की भूमि में किए गए अतिक्रमण से निपटने के लिए वन पंचायतों के पास कोई अधिकार नही हैं। राजस्व विभाग के कर्मचारियों से मिलकर सक्षम व्यक्ति वन पंचायत की भूमि में अतिक्रमण कर लेते हैं। अधिकतर इस सम्बन्ध में स्थानीय अदालत में वाद चलते हैं और ये वर्षों तक लम्बित पड़े रहते हैं। वन पंचायतों द्वारा अपने खर्च से इतने लम्बे समय से इसकी पैरवी कर पाना सम्भव नही होता है। जिस कारण अतिक्रमणकारी वन पंचायत की भूमि में कब्जा करने में सफल हो जाते हैं।

7.नीति निर्माण में भागीदारी

वन पंचायतों के सम्बन्ध में अभी तक बनी सभी नीति व कानून एक तरफा रहे हैं। आम ग्रामीणों के विरोध में चले जाते हैं। वन एक ओर जहाँ जीवन यापन का साधन हैं वही दूसरी ओर इनका पर्यावरणीय महत्व भी है। अतः यह आवश्यक है कि इन दोनों में सामंजस्य बैठाया जाए।

8.वन पंचायतों में आरक्षण की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए यद्यपि 2005 की नियमावली में महिलाओं तथा दलित समुदायों की भागीदारी बढ़ाने के लिए आरक्षण का प्राविधान किया गया है परन्तु व्यवहार में यह वन पंचायतों में लागू नहीं हो रहा है। इस प्राविधान को आवश्यकीय रूप से लागू किया जाना चाहिए तथा इनकी भागीदारी प्रभावी बनाने के लिए विशेष दक्षता वृद्धि कार्यक्रम भी चलाए जाने चाहिए।

9.वन पंचायतें

यद्यपि वन पंचायत नियमावली से शासित होती हैं परन्तु व्यवहार मेें वन पंचायतों ने प्रबन्ध में अपने तरीके विकसित किए हैं (उपनियम) वन पंचायतों के आरम्भिक दौर मेें सामन्ती समाज की अवधारणाएँ मौजूद थी, जिनकी झलक आज भी वन पंचायतों के कई उपनियमों में मिलती है। इसी कारण दलित समुदाय और महिलाओं को वन पंचायतों में जगह नहीं मिल पाई। अभी इन उपनियमों को अधिक न्यायसंगत और समान बनाने की आवश्यकता है।

अनुसूचित जन जाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) विधेयक 2006 का वन पंचायतों पर प्रभाव

आजादी के 60 साल पश्चात पारित अनुसूचित जन जाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) विधेयक 2006 अभी उत्तराखण्ड में लागू नहीं हुआ है। इस कानून के लागू होने पर वन पंचायतों के स्वरूप में भी व्यापक बदलाव आ सकता है। वन पंचायतों को वर्ष 1976 मेें अनुसूचित जिला अधिनियम से हटाकर वन अधिनियम 1927 के अधीन कर दिया गया था।

अनुसूचित जाति और परम्परागत वन निवासी (वन-अधिकारों की मान्यता) अधिनियम ने वन पंचायतों को वन विभाग के शिकंजे से मुक्त करने का रास्ता खोल दिया है। अब वन पंचायतें इस एक्ट के अधीन लाई जा सकती हैं, जहाँ वह अपने निर्णय ग्राम सभा (राजस्व गाँव) के स्तर पर ले सकती हैं। इसके अतिरिक्त वन पंचायतों का क्षेत्रफल भी अब समुदाय की पहुँच जहाँ तक हो वहाँ तक बढाया जा सकता है। चाहे वह सुरक्षित जंगल हो या संरक्षित क्षेत्र। वन-उपज के उपभोग और इससे जीवनयापन करने का अधिकार भी वन पंचायतों के पास आ जाएगा (अभी इसके लिए वन विभाग की अनुमति माइक्रोप्लान के तहत जरूरी है), जिसके अन्तर्गत लीसे तथा झूले जैसी कई वन-उपजों सहित सभी प्रकार की जड़ी बूटियाँ भी शामिल होंगी।