सोर से समन्दर तक

Submitted by editorial on Sat, 03/30/2019 - 16:44
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पहाड़, पिथौरागढ़-चम्पावत अंक (पुस्तक), 2010

पिथौरागढ़ में लॉरी बेकर (2 मार्च 1917-1 अप्रैल 2007) को करीब से जानने-पहचानने वाली पीढ़ी के लोग अब गिन-चुने रह गए हैं। जो बेकर को जानते रहे उनकी सुखद स्मृतियों में वे जीवंत हैं। बेकर का जिक्र जब तक उन तमाम वांशिदों के बीच होता रहता है जो इस नगर के बेलगाम-बेतरतीब फैलाव व अनियोजित शहरीकरण को लेकर चितिन्त हैं। शहर की बुनियादी सुविधाओं के बदतर होते हालातों से त्रस्त हैं! दिन पर दिन सीमेण्ट, लोहा, कंक्रीट के बने आड़े-तिरछे बेमेल घरों के सैलाब को देख एक घुटन सी महसूस करते हैं। चाहे यह उम्र का तकाजा हो या पीढ़ियों का अन्तर, अपनी तरह की सोच रखने वाली उस जमात के मूल वाशिंदे और परिवार इस नगर में स्वयं को हाशिए में पाते हैं।

आज से कोई साठ वर्ष पूर्व सोर की वादी वास्तव में बेहद सुन्दर थी। खेतों के इर्द-गिर्द उतरते पर्वत ढलानों में बस गए गाँव, मध्य में छोटा सा कस्बा और घाटी दो फलकों में बहती सर्पिल जल धाराएँ। यहाँ की जलवायु, वानस्पतिक विविधता और हिम शिखरों के नजारे लॉरी को अपनी जन्मभूमि का स्पर्श देते रहे। पत्नी के साथ मिलकर चिकित्सा हो या समाज सेवा या फिर वास्तुविधा पर शोध, इन सबके लिए कोई दूसरा स्थान उन्हें नहीं दिखा। लॉरी ने अपने आलेखों, शोध पत्रों और मित्रों को लिखे पत्रों में पिथौरागढ़ में अपने 15 वर्षों के प्रवास को बेहतरीन माना।

लॉरेन्स डब्लू. बेकर का जन्म 2 मार्च 1917 को बर्मिघम (इग्लैण्ड) में हुआ। किशोरावस्था में यूरोप को देखने समझने की इच्छा जागी और 17 वर्ष की आयु में साइकिल से यूरोप के अन्तरवर्ती क्षेत्रों की यात्रा कर डाली। यात्राएँ व्यक्ति को दिशा देती हैं और इस यात्रा में लॉरी को यूरोप के विविध प्राकृतिक भू-दृश्यों, बसासतों के बदलते स्वरूप, घरों की बनावट और लोगों के जीने के तरीकों ने सम्मोहित किया। बेकर के जिज्ञासु मन में वास्तुकला के प्रति आकर्षण जागा। शीघ्र ही प्रशिक्षित वास्तुविद बनने की चाह में बर्मिघम स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में प्रवेश लिया। 1937 में स्नातक पाठयक्रम पूरा कर व्यावसायिक प्रशिक्षण ले पाते इससे पहले ही फैण्ड्स एम्ब्यूलेन्स यूनिट के साथ स्वास्थ्य सहायक की सेवाएँ देने चीन पहुँच गए। जापान-चीन युद्ध के बीच घायल सैनिकों को चिकित्सा उपचर्या देने का जिम्मा सम्भाला। विकट परिस्थितियों में बेकर बर्मा सीमान्त में भी युद्ध प्रभावित लोगों के उपचार हेतु पहुँचे। आगे चलकर पश्चिम चीन में कुष्ठ रोगियों की तीमारदारी में लग गए। यह कार्य न केवल चुनौती भरा था, प्रतिकूल परिस्थितियों में बेकर के स्वास्थ्य लाभ हेतु स्वदेश लौटना पड़ा।

वापसी यात्रा के बीच मुम्बई में पारगमन में कुछ दिन का विलम्ब था। इस ठहराव में संयोगवश महात्मा गाँधी से हुई मुलाकात ने लॉरी को भारत में रूक जाने और जरूरतमंद लोगों के बीच समाज सेवा के अनुप्रेरित किया। तब लॉरी इग्लैण्ड प्रस्थान कर गए और स्वस्थ होने में समय लगा। लेकिन चेतन-अचेतन में गाँधी का सम्मोहन लॉरी को भारत की ओर खींच लाता था। तभी बेकर को खबर हुई कि किसी मिशनरी संस्था को भारत में कुष्ठ रोग पुनर्वास अभियान के तहत ऐसे समाज सेवी कार्यकर्ता की आवश्यकता है जो कुष्ठ रोग उपचार की जानकारी रखता हो तथा उसे वास्तुशिल्प का इतना ज्ञान हो कि वह कुष्ठ रोगियों के जर्जर आश्रय स्थलों को कम लागत पर दवाखानों के साथ शरणस्थलों का आकार दे सकें। उपरोक्त संस्था से सम्पर्क बनते ही लॉरी सन 1945 में भारत आए।

जिस मिशन से लॉरी जुड़े थे उसके द्वारा भारत के दूरस्थ क्षेत्रों में 90 स्थानों पर कुष्ठ रोग पुनर्वास केन्द्र चलाए जा रहे थे। लॉरी कार्य में जुट गए। किसी दौर में उन्हें भारत के विभिन्न दूरस्थ अंचलों में पहुँचने, वहाँ की मिट्टी, जलवायु, परिवेश को देखने-समझने का अवसर मिला। बहुत सीमित बजट पर उपचार केन्द्रों के जीर्णोद्धार की बाध्यता से लॉरी में वह समझ व दृष्टि विकसित हो रही थी, जिसमें वह स्थान विशेष के अनुरूप प्रचलित इमारतों की शैली में ही दवाखानों और कुष्ठ रोगियों के आश्रय स्थलों का निर्माण करवा सके।

उत्तरप्रदेश में मिशन की इस परियोजना को मूर्त रूप देेते हुए लॉरी बेकर डॉ. पी. जे. शैण्डी के परिवार के सम्पर्क में आए। लॉरी के लीक से हटकर वास्तुशिल्प के नजरिए तथा व्यवहार में जरूरतों के अनुरूप दवाखानों के जीर्णोद्धार के प्रयासों को डॉ. शैण्डी द्वारा न केवल सराहा गया बल्कि इस दिशा में नए प्रयोगों हेतु प्रोत्साहन भी दिया गया। इसी परिवार की एक और सदस्या डॉ. ऐलिजाबेथ से लॉरी का परिचय हुआ, जो हैदराबाद में कुष्ठ रोग पुनर्वास केन्द्र में सेवा दे रही थी। मिशन के कार्य को लेकर दोनों के बीच जब तक मुलाकातें हुआ करती थीं और समय के साथ अन्तरंगता बढ़ने लगी। दोनों ही पूर्ण निष्ठा व समर्पण भाव से अभियान में लगे हुए थे। दोनों मिशन की व्यवस्था एवं कार्य प्रणाली से खुश नहीं थे। असहज होती परिस्थितियों के कारण दोनों ने अभियान से अलग हो जाने का निर्णय लिया। शैण्डी परिवार के छुटपुट विरोध के बीच 1948 में आपसी सहमति पर दोनों ने विवाह कर लिया और मधुमास मनाने कुमाऊँ के एकान्त की ओर निकल आए और पिथौरागढ़ आ पहुँचे।

नवविवाहित घुमक्कड़ी करते हुए ही यहाँ पहुँचे थे और ठहराव का कोई लक्ष्य न था (देखे लॉरी का हैदर बक्श के नाम पत्र)। लेकिन ह्ंयू पानी पर्वत में स्थित चण्डाक के आस-पास के ग्रामीणों को जब श्रीमती बेकर के पेशेवर डॉक्टर होने का पता चला तो लोगों ने उन्हें चिकित्सा सेवा देने के लिए बाध्य किया। एक बन्द पड़ी चाय की दुकान में इनका दवाखाना खुला देखते ही देखते छः पट्टी सोर परगने की दूरस्थ बसासतों से मरीज यहाँ पहुँचने लगे। लॉरी डॉ. ऐलिजाबेथ को मरीजों के उपचार में सहायता देते हुए दवाखाने की पूरी व्यवस्था देखने लगे।

यह लॉरी दम्पति का सेवा भाव ही था कि चण्डाक जैसी जगह में रुक जाने का मन बनाया और बिना संसाधनों के ही विपन्न तथा जरूरतमंदों को चिकित्सा सेवाएँ दी। जिन्हें उपचार हेतु दवाखाने तक नहीं लाया जा सकता था या जो आने में असमर्थ थे, का उन्हीं के गाँव-घर जाकर इलाज करने का साहस इस परिवार ने दिखाया।

लॉरी दम्पति को चण्डाक पिथौरागढ़ के 15 वर्षों के प्रवास ने बनने-संवरने का अवसर दिया। बिखरे गाँवों तक पहुँचना, मानव बसाव को समझना और सहज-पिछड़े लोगों द्वारा अपनी सीमित आवश्यकताओं के अनुरूप नितान्त देशज वास्तु शैली में बनाए गए पहाड़ी घरों ने बेकर के वास्तु सोच को नई दिशा दी (देखें बेकर का इसी अंक में प्रकाशित भवन निर्माण तकनीकी वाली लेख) गाँधी चिन्तन से प्रभावित बेकर की पारखी नजरों ने पर्वतीय ढालदार जमीन में दो तले मकानों में भूमि का सुन्दरतम प्रयोग तथा पत्थर, मिट्टी, गारे, लकड़ी, बत्ते व छत हेतु पटाल के प्रयोग की परम्परागत वास्तु विधा को गहरे समझा और इस प्रदेश की ठण्डी जलवायु और पर्यावरण के अनुरूप बनने वाले इन घरों की लागत कीमत को न्यून बनाने के विकल्पों को खोजा। अपने इस रुचिकर शोध में उपयुक्त तकनीकी व परम्परागत के साथ गैर परम्परागत के छुटपुट परिवर्तनों हेतु माध्यमिक तकनीकी के विकल्प सुझाए और अपने शोध परिणामों को व्यावहारिक धरातल में उकेरते हुए कुछ निजी घरों-मकानों, विद्यालयों, पाठशालाओं, सार्वजनिक भवनों के नक्शे तैयार किए। मिशन इण्टर कॉलेज का हाल तथा वाचनालय वाला मुख्य भवन, गोरंगचौड़ का स्कूल, हैदर बक्श मास्साब का मोस्मानू का मकान और कुछ मिशनरियों के बंगले, बेकर का अपना सिकड़ानी तोक (चण्डाक) स्थित घर और दवाखाना आदि इनमें प्रमुख हैं।

जन्मजात चित्रकार बेकर ने जिस जगह को अपने घर के लिए चुना वह सोर उपत्यका का सुन्दरतम स्थल है, जहाँ से सूर्योदय के समय नजरें नेपाल पहाड़ियों पर जा थमती हैं। पश्चिम में ह्ंयू पानी सघन बजानी (बाँँज, देवदार मिश्रित वन) के उतरते ढालों के तल पर गोरंगचौड़ की खेतों का फैलाव लिए आकर्षक घाटी। उत्तर की ओर नंदादेवी, नंदाकोट, पंचचूली तथा नेपाल के आपी, सेपोल आदि पर्वतों के दृश्य। यहाँ भू-दृश्य को प्रकृतित रखते पत्थर, गारे, मिट्टी, लकड़ी के प्रयोग से जो घर बनाया उसमें पर्यावरण के अनुरूप ह्ंयूपानी की बर्फानी हवाओं एवं बर्फभारी से बचने की जुगत कर ली। बिना अधिक मिट्टी हटाए भूमि की आड़ में दक्षिण की ओर गोठनुमा भूतल जिस पर ढालदार पटाल की छत दी। इस बैठक में उतरना किसी कंदरा में प्रवेश का एहसास कराता था। अपनी तरह का कमरे का संयोजना। फर्श पर अपेक्षाकृत खुरदरी मोटी पटाल, दीवार से लगी पत्थर चिनकर निकाली गई बेंच और इनका टाप अपेक्षाकृत एक साथ पटालों पर बैठने की सरल व्यवस्था। कक्ष के एक किनारे बुखारी और धुँए को बाहर ले जाती कमरे के दीवारों में घूमती नाली (डक्ट), जो आग जलाते ही कमरे को गर्म कर देती।

यह ऊर्जा संवहन एवं संरक्षण का नायाब प्रयोग था। वास्तु के अनुरूप इससे जुड़ी रसोई और एक बहुत आरामदेह शयन कक्ष। बेकर द्वारा विकसित इस पहाड़ी घर में गुफानुमा तलगर का संयोजन आगे चलकर रैट ट्रेप बाउंड शैली के नाम से पहचाना गया। यह घर सही मायनों में लॉरी की अपनी सीमित जरूरतों का घर था। दिखाने से दूर, वैभव रहित किन्तु अत्यधिक सहज और सुविधाजनक।

1950 के दशक में बेकर परिवार सोर में न केवल चिकित्सा सेवाएँ दे रहा था, बल्कि लॉरी साक्षरता की दृष्टि से अत्यधिक पिछड़े इलाके के लिए शिक्षा सुविधा के विस्तार हेतु कार्य करने लगे। इस क्रम में प्राइमरी स्कूल छेड़ा, गोरंगचौड़ में स्थानीय लोगों की सहभागिता पर पूर्व माध्यमिक विद्यालय स्थापित किया और अनेक विपन्न परिवारों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने लगे। एक अमेरिकी बुजुर्ग महिला होसिंगर फिशर के विलेज लिट्रेसी अभियान में लॉरी ने प्रौढ़ शिक्षा व महिला साक्षरता हेतु कार्य किया। इसके लिए साक्षरता भवन डिजाइन किया। अन्ततः यह भवन पिथौरागढ़ के स्थान पर लखनऊ में बना। ग्रामीण क्षेत्र के मानसिक रोगियों हेतु दवाखाना व आश्रय स्थल भी लॉरी ने अमेरिकी व दक्षिण भारतीय मनोचिकित्सकों की टीम के लिए डिजाइन किया। इस दशक के उत्तरार्द्ध में अकसर ही बेकर पिथौरागढ़ के एल. डब्लू. एस. (लूसी डब्ल्यु. सलोमन गर्ल्स स्कूल) भाटकोट और मिशन इण्टर कॉलेज में शिक्षा व शिक्षणेतर क्रियाकलापों में रुचि लेने लगे थे।

पिथौरागढ़ नगर के टाउन हाल के उद्घाटन के अवसर पर मंचित नाटक के सैट लॉरी ने तैयार किए। मिशन इण्टर कॉलेज के दुर्गादास, लवकुश काण्ड नाटक हेतु मंच सज्जा और सेटों की भव्यता आज भी याद की जाती है। मिशन स्कूल के हाल में सीता के पृथ्वी में समा जाने के दृश्य हेतु डायस में बीचों-बीच एक कट लगाकर दड़बा बनवाया जिससे बड़े स्वाभाविक कलात्मक ढंग से सीता के पृथ्वी में समाए जाने का दृश्य आकर्षक था। इस हाल का डिजाइन भी लॉरी ने बनाया था। बेकर पिथौरागढ़ के समाज में अपनी अलग पहचान बना रहे थे। इस व्यक्तित्व के प्रति एक गहन आकर्षण मिशन भाटकोट के नाटकों में हिस्सा लेने वाले नन्हें छात्रों में तब था और लम्बी कदकाठी के अंग्रेज को देखना अच्छा लगता था।

सन 1960 तक चीन की तिब्बत में सामरिक गतिविधियाँ तेज हो गई और पिथौरागढ़ का सीमान्त संवेदनशील हो गया। चीन के आक्रमण को लेकर भय और संशय का वातावरण था। इन्हीं दिनों उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से बेकर से सरकारी इमारती और सार्वजनिक भवनों के निर्माण लागतों को न्यूनीकृत करने के विकल्पों के विषय में बातचीत की गई और तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त के बुलावे पर लॉरी लखनऊ पहुँचे और उन्हें अभिलेखागार का डिजाइन करने का जिम्मा सौंपा गया। विदेशी नागरिक होने के तर्क पर लॉरी को स्थान छोड़ने को विवश किया गया। इस तरह लॉरी 1963 में चण्डाक पिथौरागढ़ को छोड़ कर चले गए।

हिमालय से बिछड़े तो फिर धुर दक्षिण के केरल के समुद्र तट से लगी पहाड़ियों में ठौर बनाई। यह ग्रामीण क्षेत्र में स्थित वैकामोन गाँव था। जहाँ कुछ आदिवासी और कुछ तमिल प्रवासी रह रहे थे। बेकर परिवार ने यहाँ भी विद्यालय, कुष्ठ रोग निवारण केन्द्र व दवाखाने आदि निर्मित करवाए। परम्परागत भवन निर्माण शैली का अनुसरण कर स्थानीय संसाधनों का प्रयोग निर्माण कार्य में किया।

बेकर को केरल में कार्य की परिस्थितियाँ बेहतर लगने लगीं। अपने पिथौरागढ़ के उपयोगी अध्ययन, निष्कर्षों को केरल की जमीन में कार्य रूप देना आरम्भ किया और उन तमाम निम्न, मध्यम आय वर्ग के मेहनतकश लोगों के लिए मिट्टी, बाँस-नारियल की जटाओं व पत्तों के प्रयोग से मजबूत न्यून लागत घर निर्माण की मुहिम छेड़ दी। आरम्भ में लॉरी उपहास के पात्र बने। प्रचारित किया गया कि बेकर इजिप्ट के हासनफादी के भाँति मिट्टी के घर बनवा सकते हैं, वे वास्तुविद नहीं हैं। लॉरी इससे तनिक विचलित नहीं हुए। अपने तरह के घर निर्माण प्रक्रिया में वे उन हजारों छत विहीन लोगों के सम्मान पाते रहे, जो गरीब अपनी जरूरतों का घर लॉरी से बनवा लेते। इस दौर में भी लॉरी ने गाँधी की परम्परा व आदर्श को आगे बढ़ाया और उनका व्यवहार उन्हें वास्तविक अर्थों में समाज सेवक, गरीबों के हमदर्द के रूप में पहचान दिला सका। केरल के आदिवासी एवं मछुवारों की पूरी बस्ती बनाकर लॉरी छोटे घरों के शिल्पी के रूप में चर्चित हुए और उनकी लो कौस्ट हाउसिंग की गूँज पूरे देश में गई।

काफी वर्षों के बाद बेकर कुष्ठ रोग निवारण अभियान में सेवाएँ देने त्रिवेन्द्रम आ गए और अपने वास्तु अध्ययन के दायरे को विविधता देते हुए उच्च मध्यम वर्गीय केरल वासियों को मकानों के डिजाइन देने लगे। ये मकान न तो लोहा, सीमेण्ट, कंक्रीट से लदे थे, न ही दिखने में वैभवशाली, लेकिन कम लागत पर अपनी तरह के अनूठे सौन्दर्य को लिए ध्यान खींचने वाले थे। घरों की दीवारें लाल ईंटों से चिनी होती। जिनके जोड़ फेरो सीमेण्ट से जुड़े साफ सुथरे दिखाई पड़ते, क्योंकि दीवारों पर प्लास्टर नहीं होता। मेहराबों के साथ आड़ी-तिरछी विभिन्न तलों पर ढालू छतें होतीं और ये सीमेण्ट की न होकर नारियल जटाओं, चीनी मिट्टी के विभिन्न आकार वाली टाइल्स के टुकड़ों को संजो कर बेहद मजबूती से जुड़ी होती। सेण्टर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज का पूरा परिसर, इण्डियन टी हाउस तथा अनेक कॉफी हाउस, चर्च, अस्पतालों के साथ आईएएस अधिकारियों के निवास हेतु बनी कॉलोनी आदि बेकर के कलाकार मन, अगूठी दृष्टि और सौन्दर्य मीमांसा का अद्भुत मंजर प्रस्तुत करती हैं।

केरल की बेकर की सौन्दर्य पूर्ण और न्यून लागत वाली भवन निर्माण तकनीकी को सर्व स्वीकृति मिलने में समय जरूर लगा, लेकिन समय के साथ बेकर को समझने वाले लोग मिले। शिष्यों को जमात ने कम कीमत पर छोटे सुन्दर घरों के निर्माण अभियान को त्वरा दी और सागर तट पर यह खुशनुमा बयार बह चली।

1989 में भारतीय नागरिकता पा लेने के बाद 1991 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म सम्मान से नवाजा। 1992 में उन्हें वर्ल्ड हैबिटाट एवार्ड मिला और एक कदम आगे इसी वर्ष उनका नाम पित्तजर पुरस्कार हेतु भी नामित हुआ।

1993 के जाड़ों में त्रिवेन्द्रम पहुँचने पर हमारे मन में लॉरी से मुलाकात की प्रबल इच्छा थी। चेतन-अचेतन हम लॉरी से सम्पर्क के रास्ते ढूँढ़ रहे थे। तभी संयोगवश शेखर पाठक, अनूप शाह और मैं एक टावरनुमा कॉफी हाउस में कॉफी पीने पहुँचे। लीक से हटकर बने इस कॉफी हाउस के डिजाइन को देख हमें लगा कि लॉरी का काम हो सकता है। मैनेजर से जब बात कि तो उन्होंने बड़े सम्मान से लॉरी बेकर का नाम लिया। जब हमने बताया कि हम बेकर की कर्मस्थली पिथौरागढ़ से आए हैं और उनसे मिलना चाहेंगे, उसने तत्काल हमारी बात बेकर से करवाई और बेकर ने बड़ी गर्मजोशी से अपने कोटायम मार्ग पर स्थित नालनजीरा आवास पर पहुँचने का निमंत्रण दिया।

अगले दिन हम लॉरी के आवास हैमलेट के द्वार पर पहुँचे तो उसकी सादगी भरी बनावट और फिर दोमंजिले हैमलेट भवन को हमने बारीकी से देखा तो पाया कि यह बदलते हुए समय के एक बेहद सादगीभरा आकर्षण घर है। बातों के सिलसिले चले और लॉरी चण्डाक पिथौरागढ़ की गहन यादों में खो गए। उन्होंने मिशन, भाटकोट, सिल्थाम, धर्मशाला, सिमलगैर, नई-पुरानी बाजार, पुनेठा पुस्तक भण्डार के वर्तमान हाल जाने। पिथौरागढ़ में पचास के दशक में शिक्षा-शिक्षण से जुड़े ग्रीन वोल्ड, समसून मास्टर साहब, व्रिजय सिंह, मोहन सिंह मल्ल, नंदबिहारी पंत, देवीदत्त जोशी, पदमादत्त पन्त, डी.एल.साह, भुवनचन्द्र पन्त, रामदत्त चिल्कोटी, गंगाराम पुनेठा, खीमसिंह चेयरमैन, डॉ. त्रिलोकीनाथ पन्त एवं चण्डाक के हैदर बक्श, जीत सिंह, श्रीमती अहमद बक्श आदि के विस्तार से हालचाल जाने।

इस बीच लॉरी ने अपनी पुरानी डायरी तथा कुछ पुरानी पेटिंग्स निकाली, जिनमें बजेटी-घुड़साल, सिलपट्टा-असुरचूला, सिकड़ानी-चण्डाक के चित्र हमें दिखाए। साथ ही मिलम के मकानों के अनेक रेखांकन दिखाए। कुछ समय के लिए हैमलेट का वातावरण पिथौरागढ़मय हो गया। जिस लगाव के साथ लॉरी पिथौरागढ़ के अनुभव अपनी स्मृतियों में संजोए थे, उससे लगा कि चण्डाक और पिथौरागढ़ वास्तव में लॉरी की चाहत की पर्वतीय बसासतें रही। श्रीमती एलिजाबेथ व लॉरी को हमने पिथौरागढ़ आने का निमंत्रण दिया, लेकिन ढलती उम्र में यात्रा से जुड़ी परेशानियों के कारण लॉरी पिथौरागढ़ नहीं आ सके।

1 अप्रैल 2007 को नब्बे वर्ष की उम्र में लॉरी बेकर की सेवा से भरपूर, आदर्श एवं बर्मिघम से सोर होकर केरल तक फैली उर्वर जीवन यात्रा में तो विराम लगा, लेकिन वास्तुशास्त्र की उनकी अनूठी व्यावहारिक सोच तथा देशज शैली की यात्रा केरल के समुद्र तटों से गुजरात, मध्य पश्चिम भारत होते उनके चहेते नगर पिथौरागढ़ में भी देर-सबेर अवश्य पहुँचेगी क्योंकि वास्तविक आत्मिक सुख कम जरूरतों और प्राकृतिक परिस्थितियों में ही निहित है।