शीतकालीन भाबर प्रवास: घमतप्पा

Submitted by editorial on Sat, 03/16/2019 - 11:08
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पहाड़, पिथौरागढ़-चम्पावत अंक (पुस्तक),2010

काली कुमाऊँ के दो क्षेत्रों-सिप्टी एवं तल्लादेश-के लोग विशिष्ट समूह थे। ये लोग भाबर को विस्थापित होने के बजाय अपने मूल गाँव के निकट कुछ घंटों की दूरी पर स्थित विशाल नदियों के समतल मैदानों (बगड़ों), जहाँ जाड़ों मेें अपेक्षित उचित जलवायु उपलब्ध रहती थी, स्थानान्तरित होते थे। यहाँ प्रत्येक गाँववासी के दो घर होते थे। एक जाड़ों में आवास वाला ‘नया’ तथा दूसरा ग्रीष्मकालीन मूल आवास ‘अरम’। मूल घर गाँव की भूमि में होता था। ‘नया’ जाड़ों में सुविधाजनक परन्तु ग्रीष्म व वर्षा में भाबर के ही समान गर्म व असुविधाजनक होता था। यहाँ ग्रामीणों को पशु चुगान तथा खेती-बाड़ी हेतु पर्याप्त स्थान मिल जाता था। यहाँ के लक्षण व परिस्थितियाँ भाबर के समान ही होती थीं।

पर्वतीय भाग तथा तराई को जोड़ता ‘भाबर’ भू क्षेत्र नवम्बर से जून तक बहुधा जल रहित होता है। कुछ बारहमासी जल स्रोतों को छोड़कर पानी भू-रन्ध्रोंं एवं दलदली भूमि के अन्दर विलुप्त रहता है। तीव्र बहाव वाले पहाड़ी झरने एवं नदियाँ जब भाबर क्षेत्र में पहुँचते हैं तो इनके द्वारा तीव्र बहाव में लाई गई मिट्टी के यहाँ मन्द बहाव के कारण तलछटीकरण होकर जमाव हो जाता है और नदियों का तूफानी वेग मन्द पड़ जाता है। नदियाँ मिट्टी को आगे बहाने में असमर्थ हो जाती हैं। फलतः यह भाबर क्षेत्रों में जमा हो जाती हैं। यह जमाव नदियों को अनेक धाराओं में बाँट देता है। यहाँ तीव्र वाष्पीकरण क्रिया से छोटी नदियाँ अस्तित्व विहीन हो जाती हैं। कुछ मुख्य नदियाँ जैसे कोसी, गौला,नन्धौर तथा जगधार ही अपना अस्तित्व वर्षभर बनाए रखती हैं।

मानसूनी मौसम में इन भू-भागों में औसत से अधिक वर्षा होती है। ऊष्ण ताप, तीव्र वाष्पन, जलीय मृदा इन क्षेत्रों मेें प्रचूर वन सम्पदा तथा विशाल वृक्षों को जन्म देती हैं। वनस्पतियाँ तीव्र गति से बढ़ती हैं। जाड़ों में भी पर्याप्त ऊष्णता होने से जलवायु मलेरिया जनित परन्तु स्वास्थ्य के लिये अनुकूल होती है।

नवम्बर से मार्च के मध्य पहाड़ों में अत्यधिक ठंड पड़ती है, वनस्पतियाँ मृतप्रायः हो जाती हैं। तब पशुपालन भी कठिन हो जाता है। शीत ऋतु में कृषु कार्य भी नहीं होता। इस दौरान पहाड़वासी लगभग बेरोजगार व निर्धनता की स्थिति में रहता है तथा कठोर ठंड पड़ने से जीवन यापन के औसत खर्चे भी बढ़ जाते हैं। अतः पहाड़वासी इस समय धूप सेकने के साथ-साथ व्यवसाय पूरक दिनचर्या तथा लाभदायक रोजगार हेतु उपयुक्त भाबर क्षेत्रों के प्रवास हेतु निकलते हैं। इसे शीतकालीन भाबर प्रवास कहा जाता है। कुमाऊँ में पाली पछाऊँ, काली कुमाऊँ तथा फल्दाकोट क्षेत्रों के अधिकतर लोग खरीफ की कटाई के बाद भाबर को आते हैं। भाबर के जंगलों में घास-फूस की झोपड़ियाँ बनाकर अपने परिवार व पशुओं सहित यहाँ निवास करते हैं। चार-पाँच माह प्रवास के बाद मार्च माह में लगभग 8-10 दिन पूर्व वापसी यात्रा हेतु गाँव के पुजारी (ज्योतिषी) से शुभ दिन तय कर उस दिन प्रायः ही प्रत्येक परिवार उत्सव-मेले के कपड़े पहनकर, महिलाएँ सिन्दूर सजावट कर, पर्याप्त भोजन सामग्री बनाकर, गोद में बच्चों को तथा हाथ में बिच्छू घास लेकर कुल देवता के मन्दिर में भेंट चढ़ाकर उसके स्थापना स्थल पर सिर झुका, आशीर्वाद लेकर पुरानी परम्परा के अनुसार वापसी यात्रा हेतु निकल पड़ते हैं।

समान रुचि व स्वभाव के लोग 20-25 के झुंड में एक गाँव या पड़ोसी गाँव के झुंड के साथ अपनी समस्त सामग्री व पशुधन को लेकर साथ-साथ यात्रा करते हैं। प्रत्येक सक्षम स्त्री-पुरुष अपना-अपना बिस्तर, उपयोगी सामाग्री से भरा डलिया/डोका स्वयं लादकर यात्रा में चलते हैं। डलिया एक बहुउद्देशीय उपकरण है। यह शिशुओं के बिछौने, कपड़ा, अनाज व यात्रा सामग्री रखने का कार्य करती है। रात्री विश्राम के दौरान कैम्प में वस्तुओं को ढकने में काम आती है तथा साज सामान को ढोने मेें उपयोगी सिद्ध होती है। पके भोजन, सब्जी, कुल्हाड़ी, दरांती, थाली, कटोरे, बर्तन, तेल, लैम्प आदि रखने के काम आता है। काले कम्बल से इसे ढक दिया जाता है।

कभी-कभी यात्रियों के दलों में बैलगाड़ियाँ, घोड़े भी नजर आते हैं। पटसन के बने बड़े-बड़े कुथलों में सामग्री भर कर बैलगाड़ी में रखते हैं। अधिक बुजुर्ग, अक्षम व्यक्ति या छोटे बच्चे भी इनमें बैठते हैं परन्तु सम्पन्न वर्ग के लोग ही इस प्रकार की यात्रा कर सकते थे।

पर्वतीय जीवन शैली के विशिष्ट लक्षण इन यात्राओं में परिलक्षित होते थे। उदाहरणार्थ घोड़े, बैलगाड़ी में घरेलू सामान के इर्द-गिर्द, बिस्तर, टोकरी में पड़ा बच्चा व महिलाएँ यात्रा करती थीं। परिवार का पिता घोड़े की लगाम पकड़े, इर्द-गिर्द 5-7 बच्चे, बकरी, कुत्ते, बछड़े आदि भी बैलगाड़ी में ही लदे दिखाई पड़ते थे। महिलाएँ हमेशा पुरुषों से सम्मानजनक दूरी बनाए रखती थी। हाल-ही-हाल में कुछ परिवर्तनों का प्रभाव भी दिखाई पड़ रहा है। कुछ आधुनिक जोड़े हँसते-बोलते अगल-बगल चलते भी दिखाई पड़ जाते हैं।

जानवरों के झुंड यात्री दलों के साथ चलते थे और उनके प्रभारी घरेलू सामान के बोझ से मुक्त रखे जाते थे। गाँव छोड़ने से पूर्व समस्त दल यात्रा हेतु आवश्यक सामग्री से सुसज्जित हो जाता था। कभी-कभी तो यात्रा के दौरान प्रयोज्य समस्त भोजन सामग्री को गाँव में ही तैयारी कर लिया जाता था। रास्ते के कैम्पों में भोजन बनाने की आवश्यकता नहीं रहती थी।

एक दिन की यात्रा में लगभग 10 से 15 मील तक का सफर तय हो जाता था। पूरी यात्रा में लगभग सप्ताह भर का समय लग जाता था। सूर्यास्त के आस-पास या तुरन्त बाद यात्रा स्थगित कर तत्काल जल्दी-जल्दी रात्रि पड़ाव की व्यवस्था में जुट जाते थे। अधिकांश पड़ाव रास्ते की दुकानों के आस-पास ही रहते। कभी-कभी घने जंगलों के मध्य भी रात्रि विश्राम हेतु पड़ाव डाले जाते। पड़ाव के आस-पास का पूरा मार्ग जानवरों के बिखराव से बाधित हो जाता था। निर्जन स्थलों पर कैम्प लगने से वह स्थान जीवन्त हो उठता था। यहाँ कुछ महिलाएँ सब्जी, कुछ चाय व्यवस्था मेें, उम्र दराज महिलाएँ छोटे-छोटे बच्चों को लेकर आग के चारों ओर बैठती थीं। बुजुर्ग व्यक्ति तम्बाकू व चिलम के साथ आपसी चर्चा में व्यस्त रहते थे। कैम्प का अधिकांश कार्य महिलाएँ ही निष्पादित करती थीं। कैम्प के चारों ओर खूटियों से जानवर बाँधे जाते थे। कैम्प की चहल-पहल व जीवन्तता से लगता था कि एक पूरा समाज ही यात्रा पर है।

भाबर पहुँचने पर प्रत्येक परिवार अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित खर्क (गोठ) की झोपड़ी ठीक-ठाक करके आवासीय सुविधा जुटाया करता था। आस-पास गाँव के लोग भी जंगली जानवरों, डाकुओं या अजनबियों से सुरक्षा की दृष्टि से पड़ोस में ही झोपड़ियाँ तैयार लेते थे। भाबर में निर्मित झोपड़ियों की बनावट, हिमालयी चरागाहों में निर्मित खर्कों के समान ही होती थी। प्रति तीसरे वर्ष पहाड़ के प्रवासी लोगों की झोपड़ी निर्माण हेतु पोल, बल्ली व घास मुफ्त में आवांटित होती थी परन्तु पशु चुगान का टैक्स लिया जाता था। झोपड़ियों में पशु तथा उनके मालिक साथ-साथ निवास करते थे।

भाबर प्रवासी लोगों के मुख्यालय चार वर्ग के होते थे जिनमें घमतप्पा या अस्थाई प्रवासी दैनिक मजदूर बतौर कार्य करते थे, घुमक्कड़ बन्जारे (पशु प्रजनक), घी उत्पादक, किसान और व्यापारी।

घमतप्पा लोग स्वास्थ्यवर्धक जलवायु एवं रोजगार की तलाश मेें प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में भाबर आते थे। पर्वतीय क्षेत्रों की हर तहसील से इनकी संख्या तय होती थी। कुछ सपरिवार तथा कुछ अकेले ही जाड़ों के 3-4 माह भाबर प्रवास में रहकर रवि की फसल तैयार होते समय अपने पहाड़ स्थित आवास लौट आते थे।

घमतप्पों के लिये भाबर प्रवास का समय व्यस्ततम होता था। वे भाबर के उत्पादों को बाहर भेजने का कार्य करते थे। इस समय भाबर के जंगलों में श्रमिकों की माँग भी अधिक होती थी। जंगलों या ‘थारू’ आवासों में तब प्रत्येक सक्षम स्त्री,पुरुष को बतौर श्रमिक रोजगार मिल जाता था। जंगलों में बाँस कटान, ढुलान झोपड़ियों का ढकान, लकड़ी चिरान, गोंद व कत्था विपणन, मोम-शहद निकालना व अन्य जंगली उत्पादों का दोहन-एकत्रीकरण, आग नियत्रंण हेतु सीमांकन कार्य इस समय होता था।

इन कार्यों को वन विभाग ठेके पर देता था। ठेकेदार इन ठेकों को 2-3 वर्षों हेतु प्राप्त कर कार्य करवाते थे। इनके एजेन्ट पहाड़ आकर गाँव-गाँव में श्रमिकों को अग्रिम धनराशि देकर कार्य हेतु सहमत करते थे। इस प्रकार जोड़ों में जब ये लोग प्रवास पर भाबर आते थे तो ठेकेदार उन्हें निश्चित वन भू-खण्ड़ों पर निर्धारित कार्य सौंपते थे। अपने अस्थाई आवासों के समीप उनका कार्य प्रारम्भ हो जाता था। मुख्य कार्यों में लकड़ी कटान, रेलवे टर्मिनलों तक ढुलान था। कुशल श्रमिक लकड़ी चिरान का कार्य करते थे। यह कार्य घन फिट के हिसाब से ठेके पर होता था। प्रायः10 से 25 लोग सामूहिक रूप से यह कार्य करते थे। थारू समुदायों के मध्य कार्यरत लोगों को ‘धान कुट्टे’ कहा जाता था। ये लोग अपेक्षाकृत कम मजदूरी पर फसल काटने-चूटने तथा रामनगर, हल्द्वानी या टनकपुर मंडी तक उत्पादों को पहुँचाने का कार्य करते थे।

घमतप्पों का समूह औसत कम मजदूरी वाले श्रमिकों का होता था। उनका कार्य नाम के अनुरूप धूप सेकना, पशुओं की रक्षा करना, जंगलों में श्रमिक कार्य करना एवं ग्रीष्म काल में पहाड़ों में खेती-बाड़ी करना होता था। भाबर के पशुपालक लगभग बुग्यालों के पशु चारकों के समान ही होते थे। वे जंगल में घास, पानी, चारे की सुविधा को देखते हुए अपनी झोपड़ी बना लेते थे। उनका पशुबाड़ा विशाल तथा लगभग 100 गज लम्बा 30 गज चौड़ा मजबूत लट्ठों से घिरा होता था, जिसमें जानवर रात को रहते थे। पशुपालक अपने पशु के झुंड में साड़ का चयन बड़ी सावधानी से करते थे।

पशुचारक समाज दो वर्गों में विभक्त था। पशु प्रजनक एवं घी उत्पादक। इसमें कुछ लोग सामान्य खेती-बाड़ी भी कर लेते थे। पशुचारकों का समूह अक्टूबर से मई-जून तक भाबर में पशु चुगान कराता है। पशुओं का झुण्ड मुक्त रूप से जंगलों मेें विचरण करता है, जिसे ‘लंगर’ भी कहते हैं। कभी-कभी एक समूह के पशु दूसरे समूह से मिलकर मीलों दूर पहुँच जाते हैं। रात को जब जंगली जानवरों का खतरा बढ़ जाता है तो समस्त पशु एक समूह में गोल घेरा बनाकर बाहर को मुँह करके खड़े हो जाते हैं। घेरे के बीच में नवजात बछड़े, अशक्त व विकल पशु खड़े रहते हैं। इस प्रकार डाकू या जंगली पशु इन जानवरों के सुरक्षा घेरे को नहीं भेद पाते हैं। खतरे की स्थिति में सम्पूर्ण समूह आक्रामक हो उठता है।

इन झुण्डों से इनके मालिक दुग्ध नहीं लेते थे। बछड़े ही पूरा दूध पी लेते थे। अतः वे स्वस्थ व शीघ्र ही बड़े हो जाते थे। ये बछड़े मजबूत व बड़े होने पर खेती कार्य हेतु उच्च दामों में बेचे जाते थे। पूर्वी क्षेत्रों एवं पर्वतीय भागों में इनकी माँग अधिक थी। इनको पालना सरल होता था। खेती-बाड़ी के साथ ये ग्रामीण क्षेत्रों में बैलगाड़ी खींचने के काम भी आते थे।

घी उत्पादक समाज व पशु प्रजनक समूह की जीवन शैली कमोवेश एक समान होती थी। घी उत्पादक अपने दुधारू पशुओं के दूध से मक्खन निकालकर घी बनाते थे। उनके आवास नमीयुक्त व जल प्रधान क्षेत्रों में होते थे ताकि उनकी भैसों को स्नान व पीने को पर्याप्त जल मिल सके। समूह में 50 से 1000 तक पशु हो सकते थे,जिनके 4-5 मालिक होते थे। अपने झुण्ड़ो को संयुक्त रूप मेें रखने पर उन्हें व्यवस्था एवं कार्य विभाजन की सुविधा होती थी। उनके घी को रामनगर, हल्द्वानी, टनकपुर तथा कोटद्वार में तत्काल अच्छी कीमत मिल जाती थी। प्राप्त धनराशि को पशुओं की संख्या के अनुपात में विभाजित किया जाता था। घी उत्पादक समाज को भी दो समूहों में बाँटा जा सकता है। एक समूह जो केवल 3-4 माह जाड़ों में ही भाबर प्रवास में जाता था। दूसरा समूह केवल 3-4 माह स्थाई तौर पर भाबर में ही निवास करता था। इन्हें स्थाई आवास हेतु प्लांट आवंटित होते थे।

भाबर क्षेत्र के किसान ठीक-ठाक रहन-सहन वाले होते थे। इनके पास पर्वतीय क्षेत्रों के अतिरिक्त भाबर में भी स्थाई आवास होता था। वे भाबर के गाँवों के संस्थापक होने के साथ-साथ वहाँ के प्रधान भी होते थे। उन्हें सर गिरोही के नाम से जाना जाता था। भाबर में सिंचाई व्यवस्था स्वयं के प्रयासों पर निर्भर थी।

भाबर की खेती पहाड़ी लोगों हेतु भी उपयोगी थी। अकाल के वर्षों में मुश्किल में पड़े पहाड़ के लोगों के लिये भाबरी किसानों का योगदान महत्त्वपूर्ण होता था। अधिकांश भाबरी जमींदार पहाड़वासी थे। अतः उनके उत्पादन का अंश पहाड़वासियों को कठिनाई के समय उपलब्ध होता था। पहाड़ी लोगों द्वारा उन्हें खेती में मदद दी जाती थी। अतएव उन्हें भी उत्पादन का अंश मिलना तय रहता था।

भाबर क्षेत्रों में प्रायः हल्की मि़ट्टी होती थी। पहाड़ मिलान वाला भू-क्षेत्र बलुवी मिट्टी वाला होता था। जमीनी कार्य स्वयं जमीदार या उनके नियुक्त काश्तकार करते थे। काश्तकार बिजनौर, तराई या पहाड़ी क्षेत्रों के गरीब लोग होते थे। बिजनौर क्षेत्र के काश्तकारों को संजाहिस कहा जाता है, जो कुशल कृषि श्रमिक होते थे। जमींदार उन्हें बीज, कृषि उपकरण तथा कभी बैलगाड़ी के साथ अग्रिम धनराशि भी दे देते थे। काश्तकारी के साथ वे लोग ग्रीष्म व वर्षा ऋतु में, जब जमींदारों के परिवार असाध्य गर्मी व मलेरिया के भय से पहाड़ चले जाते थे, उनकी जमीन, मकान, जानवरों आदि की देख-रेख करते थे। परन्तु पहाड़ी काश्तकार कुछ ही समय तक कार्य करता था। गर्मी बढ़ जाने पर वह अपने पहाड़ आ जाता था।

बिजनौर क्षेत्र के श्रमिक काश्तकार खेती से अच्छी आय प्राप्त कर लेते थे। आय के एक हिस्से से वे कर्जदारी चुकाते थे (यह परम्परा पश्चिमी भाबर क्षेत्र में थी)। पूर्वी क्षेत्रों के जमींदार सम्पूर्ण जमीन को लीज (पट्टे) पर एक ही व्यक्ति को देता था, जो पहाड़ का पशुपालक होता था। वह अपने पशु बाड़े को इसी जमीन में स्थापित करता था तथा अपने साथियों को भी काश्तकारी हेतु प्रोत्साहित करता था। जमीन आबाद कर उसमें उत्पादन लेते थे। जमीन का कुछ हिस्सा बिजनौर क्षेत्र के काश्तकार भी पट्टे पर देते थे, जिसमें वे लोग फल, सब्जी, कपास, तम्बाकू आदि की उपज लेते थे। भाबर क्षेत्र में कृषि उत्पाद का तीन चौथाई हिस्सा रवि फसलों से मिलता था, जिनमें सरसों, गेहूँ, जूट, पटसन, चने, गनेरा, तम्बाकू की मुख्य पैदावार होती थी। खरीफ फसलों में धान व गन्ना होता था। सरसों की फसल हेतु 5-7 बार जुताई, भूमि समतलीकरण की आवश्यकता होती थी। सितम्बर में फसल बोकर माह दिसम्बर तक फसल तैयार हो जाती थी। गेहूँ तथा गनेरा की फसल नवम्बर-दिसम्बर में बोकर अप्रैल तक काट ली जाती थी। खरीफ की फसल अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होती थी। खरीफ की फसल के दौरान मौसम असह्य तथा स्वास्थ्य अनुपयुक्त होता था। कुछ ही प्लाटों में साया विधि से धान की फसल लगाई जाती थी।

अन्तिम समूह क्रियाशील व्यवसायी वर्ग का था। इसमें मुख्तया पाली, फल्दाकोट, काली कुमाऊँ तथा बारामण्डल के लोग थे। ये लोग प्रमुख मंडियों में दलाल तथा छोटे दुकानदार होते थे। दलाली के बाद पूँजी जमा करके ये लोग हल्द्वानी,रामनगर या टनकपुर मंडियों में दुकानें तथा गोदाम चलाते थे। भाबर का बाजार एक मंडी स्थल था। यहाँ से हिमालयी गाँवों को वर्षभर की सामग्री-चीनी, कपड़ा, नमक आदि की आपूर्ति के साथ पर्वतीय क्षेत्रों के अतिरिक्त उत्पादन जैसे मिर्च, हल्दी, मोटा अनाज को खरीदकर जमा भी करते है। व्यवसाय के दिन निर्धारित होते थे। हर सप्ताह 1 या 2 दिन विशिष्ट बाजार लगते थे, जिसमेें मीलों मील दूर से लोग सामग्री खरीद व विक्री हेतु आते थे। बाजार के दिन बूथनुमा दुकानों पर लम्बी-लम्बी कतारें लगती थीं, जिनमें अनाज, ताँबे के बर्तन, लौह सामग्री के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों से जुड़ी तमाम चीजें खरीदी व बेची जाती थीं। भिन्न व्यवसाय हेतु भिन्न स्थल आवंटित थे। एक निर्धारित स्थल पर अनाज के व्यापारी अपनी प्रदर्शनीनुमा दुकान लगाते थे तो सब्जी व अन्य सामग्रियों का व्यापार अन्य स्थल पर होता था।

दुकानदारों के अतिरिक्त अन्य लोग भी पहाड़ व भाबर के सामान के विनिमय में लगे रहते थे। गुड़, नमक, कपड़ा, तम्बाकू व अन्य उत्पाद का थोक व फुटकर व्यापार होता था। लोग सामग्रियों को बैलगाड़ी से पर्वतीय भागों में ले जाकर अच्छे मुनाफे पर बेचते थे। नकद व्यापार के साथ वस्तु विनिमय भी होता था। हल्दी, मिर्च, पटसन, अदरक के बदले अन्य उत्पाद दिए जाते थे। जाड़ों में भोटिया समुदाय भी इस व्यवसाय का हिस्सा होता था। वे लोग माल वाहन हेतु भेड़-बकरियों का उपयोग करते थे।

काली कुमाऊँ के दो क्षेत्रों-सिप्टी एवं तल्लादेश-के लोग विशिष्ट समूह थे। ये लोग भाबर को विस्थापित होने के बजाय अपने मूल गाँव के निकट कुछ घंटों की दूरी पर स्थित विशाल नदियों के समतल मैदानों (बगड़ों), जहाँ जाड़ों मेें अपेक्षित उचित जलवायु उपलब्ध रहती थी, स्थानान्तरित होते थे। यहाँ प्रत्येक गाँववासी के दो घर होते थे। एक जाड़ों में आवास वाला ‘नया’ तथा दूसरा ग्रीष्मकालीन मूल आवास ‘अरम’। मूल घर गाँव की भूमि में होता था। ‘नया’ जाड़ों में सुविधाजनक परन्तु ग्रीष्म व वर्षा में भाबर के ही समान गर्म व असुविधाजनक होता था। यहाँ ग्रामीणों को पशु चुगान तथा खेती-बाड़ी हेतु पर्याप्त स्थान मिल जाता था। यहाँ के लक्षण व परिस्थितियाँ भाबर के समान ही होती थीं। नया क्षेत्र पनार, सरयू, काली व लधिया घाटियों के समतल क्षेत्रों तक विस्तृत था।

हाल के वर्षों में मोटर यातायात से मालवाहन विधि अत्यधिक प्रभावित हुई है,साथ ही आवागमन तौर-तरीकों मेें भी परिवर्तन आया है। अतएव घमतप्पों का निश्चित आवागमन अभियान भी प्रभावित, बाधित हो गया है। शीघ्रगामी मोटर यातायात से पदयात्री दलो के प्रभारी व प्रधानों (मुखियाओं) का दायित्व भी बढ़ गया है। सौभाग्य से पर्वतीय मार्गों पर रात्रिकालीन यातायात को अनुमति न होने से अधिकांशतया जानवरों के साथ यात्रा रात्रि में होती है और प्रातः होने तक वे लापरवाह चालकों द्वारा फिर भी अनेक जानवरों एवं पदयात्रियों को कुचलने या विकलाँग कर देने की घटनाएँ होती रहती हैं।

मोटर के आवागमन से बैलगाड़ी व घोड़ों से ढुलान की व्यवस्था समाप्त हो गयी है। द्रुत एवं सस्ती परिवहन प्रणाली के कारण अब बाबर की उत्पादित सामग्री तुरन्त पहाड़ों में उपलब्ध हो जाती है। खरीद फरोख्त हेतु भाबर आवागमन व प्रवास अब समाप्त प्राय है।

मोटर गाड़ियों की रफ्तार व आरामदायक सफर के कारण अब अनेक प्रवासी इनसे ही यात्रा करते हैं। पशुओं को किराए के पशु वाहक पहुँचाते हैं। इससे भाबर यात्रा की मूल तस्वीर बदल गयी है। भाबर प्रवास का मुख्य कारण हिमालयी क्षेत्र के लोगों को जाड़े की अत्यधिक ठंड से बचाना है। पहाड़ों की निर्धनता में कुछ ही लोग गर्म कपड़े प्राप्त कर सकते हैं। इन प्रवासियों में से अधिकांश लोगों को भाबर क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध हो जाता था। वापस घर वे औसत धनराशि के साथ लौटते थे, जिससे उनके घर परिवार व गाँव की सम्पन्नता में वृद्धि होती थी। उनके पशु भी ठंड, चारे पानी की समस्या से छुटकारा पाते थे। साथ ही सामूहिक जीवन से उनमें सामाजिक सहयोग की भावना में वृद्धि होती थी। पदयात्रा में धीरे-धीरे चलने, अनेक कैम्पों में रात बिताने से स्थान-स्थान के लोगों के प्रति उनकी समझ मेें वृद्धि होती थी। परन्तु इन यात्रा अभियानों की कुछ असुविधाएँ एवं हानियाँ भी थीं। अल्पकालीन प्रवास से पहाड़ की खेती पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। काली कुमाऊँ तथा फल्दाकोट के लोग पहाड़ों को ही अपना अनुकूलित मूल आवास समझते थे। भाबर क्षेत्र में उनके द्वारा विकसित भू-खण्ड (स्टेट) अपेक्षित उन्नत नहीं हो पाता था। अस्थाई प्रवासियों में स्थायित्व का अभाव होने से वे खेती की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं देते थे। उनमें उन्नत खेती हेतु प्रयासों का अभाव था। फलतः खेती से अपेक्षित लाभ नहीं मिलता था। इस प्रवृत्ति का ज्वलन्त उदाहरण काली कुमाऊँ के पठारों पर प्रत्यक्ष देखा जा सकता था। यहाँ भूमि का समरस ढलान, सिंचाई सुविधा, उपजाऊ मिट्टी सोर के ही समान थी परन्तु प्रवासी आदतों के कारण यहाँ के लोग सोर की अपेक्षा अविकसित दशा में ही रहा करते थे।

भाबर प्रवास का एक और हानिकासक प्रभाव यह था कि भाबर की जीवन पद्धति लोगों की जीवन शक्ति का ह्रास करती थी। इससे प्रतिवर्ष मृत्यु दर में वृद्धि होती थी। औसत जीवन काल घट जाता था। मलेरिया, पेचिश, पेट के कीड़े तथा ऊष्ण प्रदेशों के विभिन्न रोग मनुष्यों व पशुओं की प्रतिवर्ष मौत का कारण बनती थी। प्रवासी लोग बीमारियों के साथ अन्य अनेक सामाजिक बुराइयों को भी पहाड़ लाते थे। भाबर के भीड़ युक्त झोपड़ों का जीवन, विभिन्न समुदाय,जातियों, वर्गों का मिश्रण शोचनीय व दुखदायी होता था। जातियों के स्थापित पैतृक मानकों में सामाजिक नियंत्रण का अभाव होने से जीवन पद्धति में नैतिक पतन तथा भौतिक संस्कारों का ह्रास होता था। हालाँकि अब पूरे परिवार के प्रवास की प्रथा समाप्त हो चुकी है, फिर भी अनेक लोगों के साथ निवास का दुष्प्रभाव इस प्रकार के परिवारिक प्रवासों में अधिक पड़ता था। परिवारिक प्रवासों के कारण खेती पर भी दुष्प्रभाव देखे जाते थे।

भोटिया प्रवास तथा भाबरी लोगों के प्रवास में कई बातें समान होने के साथ कुछ अन्तर भी थे। भाबरी प्रवास केवल जाड़ों के दौरान ही होता था। भोटिया प्रवास में यातायात समस्या जटिल थी। उनकी सामग्री भेड़, बकरियों, झप्पू, घोड़ों से संचालित होती थी। पहियों के यातायात से वे अनभिज्ञ थे। वे केवल आवश्यकता भर सामग्री ही ले जाते थे। भाबर में पहियों वाले साधन प्रयोग में आते थे। बैलगाड़ी तथा बाद में मोटरों का प्रयोग होने लगा था। रोजमर्रा सामग्री के साथ विलासिता की सामग्री भी ढोई जाती थी। भोटिया प्रवास में घंटों के आकार की टोकरी (डोका) में सामान भर कर पीठ पर ढोया जाता था परन्तु भाबर प्रवासी सिर पर डलिया में सामान ढोते थे। भोटिया प्रवास में भैसों का अभाव था। बोझ ढोने हेतु अन्य पशु प्रयुक्त होते थे। परन्तु भाबरी प्रवास समूह के पास अत्यधिक जानवर व भैसें होती थीं। भोटिया प्रवास में टैन्ट साथ रखते थे जबकि भाबरी प्रवास में इनका प्रयोग नही होता था। भोटिया कैम्प जल व चुगान स्थल की उपलब्धता के आधार पर लगता था। भाबरी प्रवास कैम्प दुकानों, रास्तों के इर्द-गिर्द ही लगते थे। भाबरी प्रवास में प्रतिदिन का मार्च 10-15 मील तक होता था जबकि भोटिया मार्च में 05-06 मील दूरी ही तय हो पाती थी। भोटिया कैम्पों में स्त्री-पुरुष की भागीदारी लगभग बराबर होती थी जबकि भाबरी पड़ावों में महिलाएँ ही अधिक कार्य निष्पादित करती थीं। दोनों प्रवासियों का मूल उद्देश्य एक ही था, बेहतर मौसमी जलवायु व आसान जीवन यापन करने के साधन प्राप्त करना। दोनों प्रवास सीमित हेतु होते थे। दोनों के प्रवास में प्रवास से पूर्व कुछ औपचारिकताओं की पूर्ति आवश्यक थी। प्रवास का मुख्य कारण भौगोलिक वातावरण की भिन्नता होती थी। परिस्थितियाँ नियन्त्रित न होने के कारण लोग प्रवास यात्रा पर जाते थे। वे स्वयं को परिस्थितियों के अनुरूप बदलने का प्रयास करते थे। उनके सम्पूर्ण यात्रा किट, टैन्ट, आवागमन के अनुरूप होता था। उप हिमालयी क्षेत्र की अपेक्षा यहाँ का जीवन सुगम व सरल था। भौतिक स्वभाव के अनुरूप यातायात के स्वरूप मेें परिवर्तन होने से यात्राओं के स्वरूप में अत्यधिक परिवर्तन आया है।

(यह अध्ययन एस.डी. पंत कृतसोशल इकॉनामी ऑफ द हिमालयन्स(1937) से साभार लिया गया है।)

अनुवादः हीरा बल्लभ भट्ट