कैलास मानस यात्रापथ के झरोखे से

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पहाड़, पिथौरागढ़-चम्पावत अंक (पुस्तक), 2010
गंगोलीहाट के जांधवी नौले में उत्कीर्ण शिलालेखगंगोलीहाट के जांधवी नौले में उत्कीर्ण शिलालेखइतिहास वैदिक भाषा का शब्द है। इति का अर्थ है-सम्पूर्ण विकास के बाद समाप्त और हास का अर्थ है-मनोरंजन। आधुनिक युग में अंग्रेजी के हिस्ट्री शब्द का इसे पर्याय मान लिया गया है। जिसका अर्थ है-अतीत का सम्पूर्ण सच्चा लेखा। जहाँ तक इतिहास का सम्बन्ध है, उसमें लुप्त और प्रकट होने की प्रक्रिया तीव्र होती है। अतः हिस्ट्री की तरह वह अतीत का सच्चा और सम्पूर्ण लेखा नहीं हो सकता। हिस्ट्री के लिये प्रमाण की नितान्त आवश्यकता है, लेकिन इतिहास में प्रमाण लुप्त होते रहते हैं। उदाहरण के लिये पिथौरागढ़ नगर के उत्तरी छोर पर स्थित खड़कोट गाँव में एक प्राचीन किला था। उसे स्थानीय लोग गोरख्याक किला कहते थे। खड़कोट का कोट शब्द भी प्राचीन किले की ओर संकेत करता है। अल्मोड़ा संग्रहालय में सुरक्षित तालेश्वर ताम्रपत्र के अनुसार कोट में मंत्री का कार्यालय था। उसमें कोटाधिकरणिक अमात्य भद्रविष्णु शब्द का प्रयोग है। यह ताम्रपत्र छठी सदी का है।

बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान से भी पता चलता है कि मंत्री का कार्यालय कोट नामक स्थान पर होता था। यह ध्यान देने की बात है कि पिथौरागढ़ जिले के अधिकांश गाँवों में कोट नामक स्थान है। उनमें पहाड़ी को काटकर शीर्ष में समतल किया गया है और उसमें चढ़ने के लिये केवल एक ही ओर से दुर्गम मार्ग है। गंगोलीहाट का मणिकोट और जाख पुरान गाँव का धुमकोट प्राचीन गिरिदुर्ग शैली के श्रेष्ठ नमूने हैं। इन कोटों में अब लाल और काले रंग के मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों के अलावा उनके इतिहास को जानने के कोई साधन नहीं हैं। केवल आस-पास के गाँवों में उनके किस्से कहानियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाए जाते हैं।

खड़कोट का किला 1960 ई. में बालिका इंटर कॉलेज के भवन हेतु ध्वस्त कर दिया गया। उस तिमंजिले किले में लगभग 150 सैनिक रह सकते थे। तिमंजिले तक जाने के लिये दीवार के सहारे सीढ़ियाँ बनी थीं। गोरखों ने 1790 से 1815 तक कुमाऊँ पर शासन किया। उस अवधि में यह किला उनके सैनिकों के आवास का कार्य करता रहा। इस किले की दीवार की कुछ खण्डित ईंटें लुंठ्यूड़ के खेतों में आज भी विद्यमान हैं। 1902 ई. में थरकोट की प्राथमिक पाठशाला के लिये सोर की हाट के सात मन्दिर तोड़ दिए गए। उनकी मूर्तियाँ थरकोट के जामीर खेत में रख दी गईं। अब थरकोट के समीप हाट गाँव में एक मध्यकालीन नौला बचा है। उसे हाट का नौला कहते हैं। गेहुँए रंग के विशाल पत्थरों को लौह शलाकाओं से जोड़कर बना हाट का नौला पिथौरागढ़ की वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है। नौले की उल्टी छत में चार मूर्तियाँ बनी हुई हैं। मन्दिर के स्तम्भ पर एक अप्सरा की आकृति उस समय की महिलाओं की वेशभूषा का उदाहरण प्रस्तुत करती है।

हाट और थर्प

हाट का अर्थ बाजार है। गंगोलीहाट और द्वाराहाट में भी प्राचीन नौले हैं। डीडीहाट में भी हाट नाम का गाँव है। उसके पास थर्प नामक गाँव में मध्यकालीन मल्ल राजवंश के राजमहल के खण्डहर स्वरूप चार विशाल चित्रित स्तम्भ भूमि पर पड़े हैं। कोट, हाट और थर्प राजधानी की एक नियोजित व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं। डीडीहाट की तरह गंगोलीहाट में भी थर्प नामक स्थल है। इतिहास जानने के लिये श्रुति (मौखिक परम्पराएँ) और संहिता (विविध स्थानों में जाकर संकलन) के नियम लागू होते हैं। वेद में ऋषि, प्रजापति, देवता और अवतार के चार सोपान हैं। ऋषि घुमक्कड़ थे। वायुपुराण (अध्याय 8) के अनुसार गमनार्थक ऋषि धातु से सर्वप्रथम ऋषि (घुमक्कड़) शब्द बना। उसमें भी जो महान थे, उन्हें महर्षि कहा जाने लगा।

गत्यर्थाहषयो धातोर्नामनिर्वृत्तिरादितः।
तस्मादृषिपरत्वेन महास्तस्मान्महर्षयः।।74।।


ऋषियों की सभा प्राचीन प्रजापति पद के लिये चुनाव करती थी। ऋग्वेद के दशम मण्डल में संकलित पुरुषसूक्त के निर्माता ऋषि नारायण को पहला प्रजापति चुना गया। उन्होंने उत्तर में बद्रीनाथ, पूर्व में गया, पश्चिम में कुरुक्षेत्र और दक्षिण में पुष्कर, चित्रकूट और कालिंजर तक धर्म प्रचार किया। इसी कारण यह क्षेत्र विष्णुप्रजापति क्षेत्र तथा आर्यावर्त्त के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विष्णु के बाद ऋषि ब्रह्म प्रजापति चुने गए। उनकी तीन पत्नियाँ थीं-सावित्री, गायत्री और सरस्वती। उन्होंने सरस्वती नदी के तट पर धर्म प्रचार किया। ऋग्वैदिक काल में यह नदी तिब्बत से कुरुक्षेत्र और पुष्कर होती हुई प्रयाग तीर्थ के पास समुद्र में गिरती थी। यह क्षेत्र ब्रह्मा के धर्मप्रचार के कारण ब्रह्मवर्त्त कहलाया।

ब्रह्मा के बाद रुद्र प्रजापति चुने गये। उन्होंने पश्चिमी तिब्बत में मानसरोवर के समीप कैलाश पर्वत को अपना केन्द्र बनाया। उन्होंने नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर बल्खबदख्शां (प्राचीन बाल्टीक) तक धर्म प्रचार किया। उन्होंने ताण्डव परम्परा शुरू की जो जागरों का स्रोत है।

रुद्र को भिषक (वैद्य) भी कहा गया है। रुद्र के बाद कैलास की गद्दी में क्रमशः दस ऋषि प्रतिष्ठित हुए। इसी कारण वैदिक साहित्य में एकादश रुद्र की चर्चा मिलती है। गीता के अनुसार ग्यारह रुद्रों में शंकर सबसे महत्त्वपूर्ण थे (दसवाँ अध्याय)-

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।23।।

विष्णुपुराण (प्रथम अंश, अध्याय 15) में कैलास के ग्यारह रुद्रों के नाम दिए हैं- 1. हर 2. बहुरूप 3. त्र्यम्बक 4. अपराजित 5. वृशाकपि 6. शम्भु 7. कपर्दी 8. रैवत 9. मृगव्याधा 10. शर्व 11. कपाली

उत्तर कुरु

पिथौरागढ़ जिले में कैलास यात्रा के मार्ग के बारे में पहला विस्तृत वर्णन स्कन्दपुराण के मानसखण्ड में मिलता है। गोपालदत्त पाण्डे द्वारा अनूदित मानसखण्ड, पिथौरागढ़ जिले के भूगोल की पहली जानकारी है। इसमें पिथौरागढ़, चम्पावत, रानीखेत, अल्मोड़ा आदि आधुनिक नगरों के अलावा कार्तिकेयपुर, ब्रह्मपुर, वैराट, लखनपुर आदि प्राचीन पर्वतीय नगरों का उल्लेख न होने से इसे पाँचवी-छठी ईस्वी के लगभग का ग्रन्थ माना जा सकता है। इस ग्रन्थ की रचना तिब्बत पर हूणों के अधिकार के कारण हुई है। तिब्बत पहले गन्धर्व और यक्षों का देश था। बाद में कुरुक्षेत्र से सरस्वती नदी के तटवर्ती मार्ग से कुरु जाति तिब्बत में पहुँची। उसने वहाँ जो बस्ती बसायी, वह उत्तरकुरु कहलायी। अब कुछ पर्वतीय लेखक वैदिक भूगोल की जानकारी न होने से कुमाऊँ-गढ़वाल के लिये उत्तरकुरु नाम की सम्भावना व्यक्त कर रहे हैं लेकिन वैदिक ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण (8/14) में उत्तरकुरु और उत्तरभद्र को हिमालय के उस पार कहा गया है। (उदीच्यां दिशि ये के च परेण हिमवन्तं जनपदा उत्तर कुरव उत्तरमद्रा इति)। महाभारत में अर्जुन की उत्तर दिशा में विजय के विवरण में यह कहा गया है कि पहले उसने मानसरोवर क्षेत्र को जीता, जहाँ गन्धर्व लोग रहते थे-

तांस्तु सान्त्वेन निर्जित्य मानसं सरं उत्तमम्।
ऋषिकुल्याश्च ताः सर्वा ददर्श कुरुनन्दनः।।4।।


सरो मानसमासाद्य द्वारकानाभिमतः प्रभुः।
गन्धर्वरक्षितं देशं व्यजयत्पाण्डवस्ततः।।5।।


उसके बाद अर्जुन जब उत्तरकुरु पहुँचा तो द्वारपालों ने उसे वैराज्य पद्धति का क्षेत्र होने के कारण वहाँ युद्ध करने से रोकते हुए कहा (सभापर्व, अध्याय 25)-

न चापि किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते।
उत्तराः कुरवो ह्योते नात्र युद्धं प्रवर्त्तते।।11।।


उत्तरकुरु का अन्तिम उल्लेख सातवीं सदी के चीनी यात्री ह्वेनसांग की सी-यू-की पुस्तक में पाया जाता है। वैदिक भूगोल के अनुसार हिमालय से समुद्र तक का क्षेत्र भारतवर्ष कहलाता था। उसमें उत्तरकुरु और उत्तरभद्र के जनपदों को सम्मिलित करने पर जम्बूद्वीप नाम प्रचलित था। अशोक मौर्य ने अपने अभिलेखों में साम्राज्य के लिये जम्बूद्वीप नाम का प्रयोग किया है। उसके रूपनाथ शिलालेख में जम्बूद्वीप का निम्नवत उल्लेख है-

इमाय कालाय जम्बूदिपसि अमिसा देवा
(प्राचीन भारतीय अभिलेख : 257)

कन्नौज के नाटककार राजशेखर (857-884 ई.) ने जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित मेरू पर्वत को औषधियों की खान बताया है-

मध्ये जम्बूद्वीपमाद्यो गिरीणां,
मेरुर्नाम्ना कांचनः शैलराजः।
यो मूर्त्तानामोषधीनां निधानं,
यश्चावासः सर्ववृन्दारकाणाम्।।
मेरु-सुमेरु पर्वत


मालवा के राजा भोज परमार (1005-1055 ई.) ने अपनी पुस्तक समरांगणा सूत्रधार (अध्याय 5) में मेरु पर्वत को जम्बूद्वीप के मध्य में बताते हुए उसके लिये सुमेरु नाम का भी प्रयोग किया है। भोज के अनुसार मेरु के उत्तर में नील पर्वत था, दक्षिण में निषध, पूर्व में माल्यवान और पश्चिम में गन्धमादन नाम का पर्वत था।

अन्तरा नीलनिषधौ जम्बूद्वीपस्य नाभिगः।
वृत्तः पुण्यजनाकीर्णाः श्रीमान् मेरुर्महाचलाः।।12।।

उदग्याम्यायते मेरोः प्राग्भागे माल्यवान गिरिः।
सेवितः सिद्धनारीभिरानील निषधायतः ।।13।।

सुमेरोः पश्चिमेनाद्रिर्गन्धर्व कुलसंकुलः।
माल्यवत्सदृशायामो महीभृद् गन्धमादनः।।14।।


सभी भारतीय ग्रन्थ इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि गन्धमादन पर्वत पर ऋषि नारायण ने बदरिकाश्रम की स्थापना की थी जो आज बदरीनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। गन्धमादन के पूर्व में स्थित वैदिक मेरु पर्वत की खोज करें तो आज का नन्दादेवी पर्वत ही प्राचीन मेरु रहा होगा।

डॉ. हर्शे ने 1964 ई. में विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान होशियारपुर (पंजाब) से मेरुः होमलैण्ड ऑफ दि आर्यन्स नामक पुस्तक प्रकाशित की। उसमें रूस के आलताई पर्वत को मेरु माना है। मंगोल भाषा के आलताई (आल्तेन उला) शब्द का अर्थ सुवर्ण पर्वत होने से यह तादात्म्य माना है लेकिन समस्या यह है कि मेरु अथवा सुमेरु एक भारतीय पर्वत है। संस्कृत के कालिदास से लेकर अवधी के तुलसीदास तक भारत की सभी भाषाओं के लेखकों ने नन्दादेवी पर्वत के लिये मेरु/सुमेरु का उल्लेख किया है। मन्दसौर अभिलेख के अनुसार सुमेरु पर्वत कैलास पर्वत के समीप था और गुप्त सम्राट कुमारगुप्त (413-455 ई.) के साम्राज्य के अन्तर्गत था-

चतुः समुद्रान्तविलोलमेखलां
सुमेरुकैलास बृहत्पयोधराम।
वनान्तवान्तस्फुटपुष्पहासिनीं
कुमारगुप्ते पृथिवीं प्रशासति।।


पिथौरागढ़ जिले के ऐतिहासिक साधनों का विश्लेषण करते समय भी सबसे पहली समस्या मेरु पर्वत को जानने की है। पिथौरागढ़ जिले के बचकोट गाँव (कनालीछीना ब्लॉक) के श्री कीर्त्तिबल्लभ उपाध्याय के संकलन में अस्कोट के पाल वंशीय राजा तिलकपाल का 1421 ई. का ताम्रपत्र है। उसके अन्त में मेरु का निम्नवत उल्लेख है-

मेरुश्चलति कल्पान्ते मर्यादा सागरो यदि।
प्रतिपन्नं महासत्यं न विचलन्ति कदाचन।।


पश्चिमी नेपाल के सोराड़ क्षेत्र के किमतोली गाँव में सुरक्षित राजा काशीचंद के 1442 ई. के ताम्रपत्र में भी मेरु सम्बन्धी उपरोक्त श्लोक उत्कीर्ण है।

मानसखण्ड में पिथौरागढ़ जनपद के मन्दिरों, मार्गों, जल-स्रोतों और पर्वत शिखरों के वर्णन का प्रारम्भ करते हुए कहा गया है कि मेरुपर्वत पर रहने वाले देवता, मन्दर पर्वत पर रहने वाले यक्ष, पाताल में रहने वाले नाग और कैलास में रहने वाले विद्याधर इस वर्णन को सुनने के लिये आमंत्रित हैं-

ये देवाः सन्ति मेरौ वरकनकमये मन्दरे ये च यक्षाः
पाताले ये भुजंगाः फणिमणिकिरणध्वस्त सर्वान्धकाराः
कैलासे स्त्रीविलासाः प्रमुदितहृदयाः ये च विद्याधराया-
स्ते मोक्षद्वारभूतं मुनिवरवचनं श्रोतुमायान्तु सर्वे।।1।।


सरस्वती नदी मानसखण्ड के रचनाकाल में लुप्त हो चुकी थी। उसमें मानसरोवर झील के वर्णन में मेरु पर्वत और लुप्त सरस्वती की चर्चा निम्नवत है-

ततो मेरुरिति ख्यातः पर्वतप्रवरः शुभे।।87।।
महामरकतप्रख्यो देवगन्धर्व सेवितः।
तत्रोत्तीर्णा सरिच्छ्रष्ठा पुण्यगुप्ता सरस्वती।।88।।


सरस्वती का एक पर्यायवाची शारदा भी रहा है। आज टनकपुर में सरयू नदी को शारदा कहा जाना भी गुप्त सरस्वती की परम्परा के अन्तर्गत है। पंचेश्वर में सरयू नदी में मिलने वाली काली नदी को मानसखण्ड में श्यामा कहा गया है और आधुनिक ब्यांस के प्राचीन व्यासाश्रम को इसका उद्गम स्थल बताया गया है (अध्याय 115)।

हिमालयतटे रम्ये पुण्या व्यासाश्रमोद्भवा।
सरयू संगमेपुण्या श्यामा नाम समागता।।22।।


मानसखण्ड का व्यासाश्रम विशेष ध्यान देने योग्य है। देवी भागवत के अनुसार व्यास ऋषि ने कुरुक्षेत्र के समीप सरस्वती नदी के तट पर अपना आश्रम बनाया (प्रथम स्कन्धा, अध्याय 4) पुरा सरस्वती तीरे व्यासः सत्यवतीसुतः।
आश्रमे कलविंतकौतुदृष्टवा विस्मयमागतः।।4।।


बहुत समय तक वेदों के संकलन में व्यस्त व्यास ऋषि की जब सन्तान नहीं हुई तो वे पुत्र की लालसा से मेरु पर्वत के समीप तपस्या करने के लिये हिमालय में आए (जगाम च तपस्प्रुं मेरुपर्वतसंनिधौ ।।22।।) इसी तपस्या के परिणामस्वरूप उन्हें शुकदेव नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। देवी भागवत में व्यास की इस तपस्या का निम्नवत वर्णन है-

मेरुश्रृंगे महारण्ये व्यासः सत्यवतीसुतः।
तपश्चचारसोत्युग्रं पुत्रार्थं कृतनिश्चयः।।4।।

(प्रथम स्कन्ध, अध्याय 10)

पाण्डवों की मृत्यु के बाद ब्यास ने बदरीनाथ (माणा में ब्यास गुफा) जाकर महाभारत की रचना की।

मानसपथ

मानसखण्ड के अनुसार तीर्थयात्री कूर्मांचल में एकत्र होते थे। वहाँ से रामेश्वर, गंगोली के कालिका मन्दिर, पातालभुवनेश्वर, बेरीनाग के पुंगेश्वर, थल के बालेश्वर मन्दिर होकर दारमा के धर्माश्रम और व्यासाश्रम में पहुँचते थे। इस प्रकार व्यासाश्रम कैलास मानसरोवर के तीर्थयात्रियों के लिये एक पड़ाव के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस सन्दर्भ में धर्माश्रम शब्द भी ध्यान देने योग्य है। दारमा में दर नामक स्थान पर गरम पानी का स्रोत है। वहीं पर धर्म नामक ऋषि ने आश्रम बनाया। यह क्षेत्र अर्धहिमानी शृंखला के अन्तर्गत रखा जा सकता है। जाड़ों में इस क्षेत्र के लोग निचली घाटियों में आ जाते हैं। धारचुला के पास तपोवन नामक स्थान में काली नदी के किनारे भी गरम पानी का स्रोत है। यह सम्भव है कि दर का धर्माश्रम शीतकाल में तपोवन में स्थानान्तरित होता रहा हो। पुराणों के अनुसार धर्मऋषि और उनकी पत्नी से नर और नारायण नामक दो पुत्र हुए जो बाद में सन्यासी बनकर बदरिकाश्रम के प्रधान बने।

मानसखण्ड में रामेश्वर के पास वसिष्ठाश्रम की चर्चा है। यह भी कहा गया है कि वसिष्ठ वशिष्ठ ऋषि ने सरयू नदी और परशुराम ने रामगंगा नदी का सर्वेक्षण किया। व्यास की तरह वसिष्ठ के भी कई आश्रम थे। महाभारत (आदि पर्व, अध्याय 102) में मेरु पर्वत के पार्श्व में वसिष्ठाश्रम का निम्न उल्लेख है-

यं लेभे वरुणाः पुत्रंपुरा भरतसत्तम।
वसिष्ठोनाम स मुनिः ख्यात आपव इत्यत।।5।।

तस्याश्रमपदं पुण्यं मृगपक्षिगणान्वितम्।
मेरो पार्श्वे नगेन्द्रस्य सर्वतुं कुसुमावृतम्।।6।।


अयोध्या के राजकुमारों को शिक्षा देने के लिये वसिष्ठ ऋषि ने सरयू के तट पर आधुनिक रामपौड़ी के नीचे सेरा में आश्रम बनाया था। पम्प हाउस के समीप एक वृक्ष के नीचे प्राचीन मन्दिर के दो विशाल पत्थर आज भी विद्यमान हैं। एक पत्थर मन्दिर के प्रवेशद्वार के ऊपर का है जिसमें टोपी पहनने और बुलगानिन कट की दाढ़ी वाला विशाल मुख बना है। बगल में वराह और बाघ लड़ते हुए उत्कीर्ण हैं। दूसरा मूर्तिफलक एक तपस्वी का उपदेशमुद्रा में है जिसके चारों ओर शिष्य अथवा श्रोता खड़े हैं।

पौराणिक साहित्य में वसिष्ठ ऋषि और कन्नौज के राजा विश्वामित्र के युद्ध की बड़ी चर्चा मिलती है। कई ग्रन्थों में त्रेतायुग की इस कहानी को कई रूपों में लिखा गया है। तथ्यात्मक रूप में यह प्रतीत होता है कि कन्नौज के राजा विश्वामित्र यात्रा के लिये हिमालय में आए थे। वसिष्ठाश्रम में रात्रिवास के समय उन्हें ऋषि की गाय नन्दिनी पसन्द आ गई। ऋषि द्वारा गाय देने से मना करने पर विश्वामित्र ने बलपूर्वक गाय ले जाने का प्रयास किया। इस पर स्थानीय खश जाति के लोगों ने गाय की रक्षा की और विश्वामित्र को सेना सहित परास्त किया।

खश एक आयुधजीवी जाति थी जो बाद में नेपाल से कश्मीर तक हिमालय में फैल गई। महाभारत के अनुसार खश मेरु और मन्दर पर्वतों के मध्य पर्वतीय नदियों के किनारे बाँस के जंगलों में कुलिन्द और तंगण जाति के पड़ोस में रहती थी। इन जातियों ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पिपीलक स्वर्ण, काले और श्वेत रंग के चंवर, हिमालय के पुष्पों का स्वादिष्ट शहद, उत्तर कुरु का पवित्र जल और कैलाश के उत्तर में पायी जाने वाली औषधियाँ आदि उपहार में दीं। बागेश्वर जनपद की कत्यूर घाटी में कार्त्तिकेयपुर नाम का नगर बसाकर खशों ने दीर्घकाल तक शासन किया। अतः यह क्षेत्र खशदेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

जिस तरह सरयू घाटी में खश जाति का उत्कर्ष हुआ, उसी प्रकार काली नदी की उपत्यका में किरात जाति का प्रभुत्व रहा। संस्कृत साहित्य में कैलाश के यात्रा पथ पर किरातों की बस्तियों के उल्लेख मिलते हैं। बौद्ध लेखक अश्वघोष ने अपने सौन्दरनन्द महाकाव्य में गौतबुद्ध के हिमालय में आने और यहाँ गौर वर्ण के किरातों को देखने का उल्लेख किया है। (सर्ग 10)

सुवर्णगौराश्च किरातसंघा मयूरपत्रोज्ज्वलगात्र लेखाः।
शार्दूलयात प्रतिमा गुहाभ्यो निष्पेतुरुद्गार इवाचलस्य।।12।।


गौतमबुद्ध अपने प्रव्रजित भाई नन्द को हिमालय दिखाने के लिये लाए थे। चम्पावत जनपद की दक्षिणी सीमा पर ब्यानधुरा, सेनापानी और सुदलीमठ के जंगलों में शुंगकालीन बौद्धकालीन स्तूप के खण्डहर हैं। बुद्ध की हिमालय यात्रा यहीं से शुरू हुई होगी। सेनापानी से रमक, गर्साड़, रीठासाहब, ढेरनाथ और सुई-बिशंग होते हुए चम्पावत पहुँचने वाले मार्ग में कैलास यात्रा पथ का सबसे महत्त्वपूर्ण पुरातत्व है। मानसखण्ड के रामेश्वर-माहात्म्य में चम्पावत के बालेश्वर मन्दिर के समीप कैलास के यात्रापथ पर बौद्धतीर्थ का उल्लेख है-

तदूर्ध्वं बालितीर्थांख्यं तीर्थमस्ति सुशोभनं।।93।।
तत्र स्नात्वा च मनुजो जले वालीश्वरं हरं।
सम्पूज्य नृपशार्दूल नरो याति परांगतिं।।94।।

ततः स्रोतं समुत्तीर्य्य बौद्धतीर्थं नृपोत्तम।
निमज्य मानवो याति विष्णुलोकं न संशयः।।95।।


बौद्धतीर्थ शब्द यह स्पष्ट करता है कि इस स्थल पर बुद्ध अथवा उनके महत्त्वपूर्ण भिक्षु रहे होंगे। सौन्दरनन्द (सर्ग 10) में बुद्ध के हिमाचल में देवदार वृक्षों के बीच रहने का उल्लेख है-

तौ देवदारूत्तमगन्धावन्तं नदीसरः प्रस्रवणौघवन्तं।
आजग्मतुः कांचनधातुमन्तं देवर्षिमन्तं हिमवन्तमाशु।।5।।


बौद्ध स्थापत्य

अशोक मौर्य (272-236 ई. पू.) के शासनकाल में हिमवत में धर्म प्रचार के लिये मज्जियम भिक्षु के नेतृत्व में पाँच भिक्षु भेजे गए। सोनारी के लेख में भिक्षु काश्यप गोत्र को समस्त हिमालय के आचार्य की उपाधि से भूषित किया है। उसने हिमालय में धर्म प्रचार में सफलता पाई होगी। पिथौरागढ़ जनपद में गंगोलीहाट और कासनी में बुद्ध सम्बन्धी दो लघु मूर्तियाँ तेरहवीं सदी के आस-पास की हैं। गंगोलीहाट के जान्धवी नौले में उत्कीर्ण शिलालेख के अनुसार 1264 से 1275 ई. तक वहाँ पर गन्धविहार का निर्माण होता रहा। यह समय पिथौरागढ़ के इतिहास का स्वर्णयुग माना जा सकता है। गंगोलीहाट की तरह विष्णु की दशावतार मूर्तियाँ पिथौरागढ़ में कासनी, मरसोली, पित्रौट, पाण्डेगाँव, थल के बालेश्वर और अस्कोट के देवाल में भी पायी जाती हैं। नेपाल में ऊकू और गढ़वाल में आदिबदरी में भी यह मूर्ति है। गुमानी कवि (1790-1846 ई.) ने अल्मोड़ा में अंग्रेजों के द्वारा विनष्ट जिस विष्णु मन्दिर का उल्लेख किया है, उसमें भी गंगोलीहाट की तरह ही मूर्ति थी। इस मूर्ति के चार भाग हैं और शीर्ष में जो बुद्ध अंकित हैं उसी शैली की नारायण मूर्ति बदरीनाथ, ध्यानबदरी और भविष्यबदरी के मन्दिरों में भी है। पाण्डेगाँव में मूर्ति के पाद में निम्न लेख है-

वासुदेव सुत मुर, प्रणीतं पूति।।

अर्थात मूर्तिकार वासुदेव के पुत्र मुर ने इस मूर्ति का निर्माण किया। इस शैली की विष्णुमूर्तियों के साथ सूर्य की वेशभूषा में कत्यूरी राजाओं की मूर्तियाँ भी पिथौरागढ़ में हैं। पिथौरागढ़ में पित्रौट नामक स्थल संस्कृत के देवकुल की याद दिलाता है। इस स्थल पर राजाओं की मृत्यु के बाद उनकी मूर्ति स्थापित की जाती थी। पिथौरागढ़ में कुमौड़, विशाड़ और नकुलेश्वर में सूर्य मूर्ति में लम्बा कोट, घुटनों तक बूट और कमर में तलवार तथा खुखरी का अंकन है। दोनों हाथों में सूर्य परम्परा में कमल के पुष्प पकड़े हुए हैं।

गंगोलीहाट में गन्धविहार का निर्माण राजा रामचन्द्र देव ने कराया। उसने अपने सार्वभौम राजानराजा क्षयती अशोक का उल्लेख किया है। अशोक मल्ल (1251-1276 ई.) उत्तराखण्ड के इतिहास का सबसे शक्तिशाली शासक प्रतीत होता है। पिथौरागढ़ जनपद में तेरहवीं सदी में सीरा के मल्ल और अस्कोट के पालों का सम्मिलित शासन प्रारम्भ हुआ। पालों की राजधानी ऊकू से राजा नागपाल का 1238 ई. का शिलालेख मिला है। 1394 ई. के भारथीपाल के घुंसेरा ताम्रपत्र से पता चलता है कि नागपाल और विक्रमपाल के शासन काल में घुंसेरा में अच्छी व्यवस्था थी। मानसखण्ड में कैलाश का मार्ग रामेश्वर से गंगोलीहाट कालिका मन्दिर की ओर बताया गया है। पालों ने घुंसेरा से तीर्थयात्रियों की व्यवस्था शुरू की।

अस्कोट से प्राप्त कत्यूरियों की वंशावली में अशोकदेव से पहले आसलदेव का नाम है। आसलदेव और सुहलदेव के सम्मिलित दानपत्र के साथ बास्ते गाँव से शक्तिवर्मा का ताम्रपत्र भी मिला है। ये दोनों ताम्रपत्र आज खण्डित हैं। मोटे तौर से देखने पर ये एक ही ताम्रपत्र के दो टुकड़े होने का भ्रम भी पैदा करते हैं। आसलदेव –सुहलदेव के नाम वाला खण्डित ताम्रपत्र निम्नवत है-

1. ओम् स्वस्ति ।। शाकः 1259 मार्गसिरे...
2. क शिर मुकुट इत्यादि विरुद कि...
3. शा पत्रं दत्त। आसलदेव सुहलदेव वि...
4. टिली रजा ना पाउणी दोहा को ना सो...
5. वे देवू साहाणी। सेवू कुअढा का लभ...
6. डाणो विरुधूड़ा रैवूट सो हमारो। आ...
7. चलति वसुदेवं। प्रतिपन्न मम लग...
8. सेठी नाथू सक्ती रामनु ...को…


यद्यपि ताम्रपत्र खण्डित है फिर भी इससे तीन तथ्य स्पष्ट हैं। आसलदेव और सुहलदेव का सम्मिलित शासन था और उन्होंने मिलकर भूमिदान किया था। 1337 ई. में किसी शासक ने उनके दान को पुनः जारी किया था। अस्कोट की वंशावली में आसलदेव का नाम होने से उसे कत्यूरी वंश का माना जा सकता है और कत्यूरियों में द्वैराज्य प्रणाली थी। घुंसेरा ताम्रपत्र से भी द्वैराज्य प्रणाली (दो राजाओं का एक साथ शासन) का पता चलता है।

डीडीहाट में हाट गाँव और गंगोलीहाट की मूर्तियों में पर्याप्त साम्य होने से यह माना जा सकता है कि वे दोनों अशोक मल्ल के शासनकाल में बनाई गईं। अशोक मल्ल के लिये बोधगया लेखों में अशोक चल्ल पाठ भी छपा है लेकिन अशोक मल्ल द्वारा विरचित नृत्याध्याय नामक पुस्तक से उसका शुद्ध नाम ज्ञात हो जाता है। उसमें उसे वीरसिंह का पुत्र कहा गया है।

गोपेश्वर के त्रिशूल लेख में वर्णित अशोक मल्ल की दिग्विजय प्राचीन भारतीय इतिहास की अन्तिम दिग्विजय थी। गया (बिहार) के उत्तरमानस नामक जलकुण्ड के समीप स्थित शीतला देवी मन्दिर के गर्भगृह में उत्कीर्ण अशोकमल्ल के लेख से ज्ञात होता है कि उसने दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में बोधगया का पुनर्निर्माण किया था। बोधगया से प्राप्त तीन अभिलेखों में अशोकमल्ल को सपादलक्षशिखरि-खशदेश राजाधिराज कहा गया है।

कैलास के यात्रियों के लिये सदावर्त्त की परम्परा थी जो चन्दवंश के समय भोग नाम से जीवित रही। तीर्थयात्री एक बार भोजन करते थे। चन्दों के समय पूर्णागिरी, बालेश्वर, रामेश्वर और कालिका मन्दिर में भोग का उल्लेख मिलता है। आदिशंकराचार्य (780-812 ई.) ने ज्योतिर्मठ के लिये दीक्षा लेने वाले सन्यासियों के लिये देवता के रूप में नारायण और देवी के रूप में पूर्णागिरी की शपथ लेने का निम्नवत नियम बनाया-

ऊँ तृतीये उत्तराम्नायः ज्योतिर्मठः आनन्दवारिसंप्रदायः
गिरिपर्वतसागरपादानि बदरिकाश्रमक्षेत्रं नारायणो देवता
पूर्णागिरी देवी त्रोटकाचार्यः अलकनन्दातीर्थं
आनन्दब्रह्मचारी अथर्वणावेदपठनं तमे वैस्यं जानथ
अयमात्मा ब्रह्मइत्यादिवाक्यविचारः नित्यानित्य-
विवेकेनात्मनोपास्तिं आत्मतीर्थे आत्मोद्धारार्थे
साक्षात्काराये सन्यासग्रहणं करिष्ये ऊँ नमो नारायणाय इति।।


तुर्क विजय से पूर्व समस्त उत्तरी भारत में पूर्णागिरि की प्रतिष्ठा थी। पूर्णागिरि के पुजारियों के पास ज्ञानचन्द (1418 ई.), कल्याण चन्द (1549 ई.) और जगत चन्द (1710 ई.) के ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि वहाँ यात्रियों की सुविधा के लिये भोग की व्यवस्था थी। पूर्णागिरि से यात्री क्रान्तेश्वर की पहाड़ी को पारकर चम्पावत पहुँचते थे। चम्पावत नगर चन्दवंश की राजधानी के साथ-साथ तीन तपस्वियों की तपोभूमि भी रही है- 1. कूर्म ऋषि के कारण कूर्मांचल नाम प्रसिद्ध हुआ। 2. नागकन्या चम्पावती के कारण चम्पावत नाम प्रचलित हुआ। 3. कत्यूरी राजकुमार गोरिल के आश्रम के कारण गोरिलचौड़ नाम चला।

कूर्मऋषि गृत्समद ऋषि के पुत्र थे। वे भी व्यास ऋषि की तरह सरस्वती तट से कुमाऊँ में आए और तीन वर्ष तक चम्पावत क्षेत्र में रहे। उनके द्वारा निर्मित तीन ऋचाएँ ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल में संकलित हैं। क्रान्तेश्वर की पहाड़ी से नीचे विनायक नामक स्थान पर कूर्मऋषि के पैर की छाप वैसी ही है जैसी गया (बिहार) के विष्णुपद में विष्णु ऋषि के पैर की छाप। विष्णुपद मन्दिर में अब कत्यूरी शैली की मूर्तियाँ पिथौरागढ़ की काशिनी, घुंसेरा और मरसोली की मूर्तियों के समान हैं। शतपथ ब्राह्मण (पृष्ठ 624) में कूर्म प्रजापति का निम्नवत उल्लेख है-

सं यत्कूर्मों नाम। एतद्वैरूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजाSअसृजत्

धर्मसिन्धु नामक ग्रन्थ के अनुसार वैशाख पूर्णिमा के दिन कूर्ण का जन्म हुआ (वैशाखपूर्णिमायां सायं कूर्मोत्पत्तिः पृष्ठ 61)। परवर्ती काल में कूर्म को देवता माना गया। आज भी संध्या के समय पृथ्वीमंत्र के अन्तर्गत कूर्म देवता का निम्नवत आह्वान किया जाता है-

ऊँ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरु ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो
देवता आसने विनियोगः।।


गौतम बुद्ध की तरह बाद में कूर्म ऋषि विष्णु के अवतार माने गए और उनके कार्य तथा विचारों के प्रचार के लिये कूर्म पुराण की रचना हुई।

प्रारम्भ में कूर्मांचल शब्द आधुनिक चम्पावत जिले के लिये प्रयुक्त नाम था। उद्योतचन्द के रामेश्वर ताम्रपत्र (1682 ई.) में कुमाऊँ नाम मानसखण्ड के कूर्मांचल के लिये प्रयुक्त है। अतः संस्कृत के कूर्मांचल का हिन्दी भाषा में कुमाऊँ नाम प्रचलित हुआ। फारसी में कुमायूँ लिखा गया है और कुमाउँनी बोली में कुमूं नाम प्रचलित हुआ। राजा रुद्रचन्द द्वारा लिखित ऊषारागोदय नामक नाटिका की पुष्पिका में कूर्मगिरि शब्द का प्रयोग है। कूर्म के लिये संस्कृत में कमठ शब्द भी है। इसी कारण रामायणप्रदीप में कुमाऊँ के राजा कल्याणचन्द तृतीय को कमठगिरिपति कहा गया है।

श्री गोपालदत्त पाण्डे द्वारा प्रकाशित मानसखण्ड में चम्पावत से रामेश्वर के मध्य स्थित कोकवराहतीर्थ की जगह लोकवराहतीर्थ छप गया है। यह कोक आधुनिक कांकड़ गाँव और वराह आधुनिक बाराकोट में स्थित था। बंगाल के दामोदरपुर ताम्रपत्रों में कोकास्वामी और श्वेतवराहस्वामी नामक हिमालय के तीर्थों की चर्चा है। व्यापारी ऋभुयाल ने इन तीर्थों की यात्रा करने के बाद डोंगाग्राम दान करने का उल्लेख किया है। अब यह बाराकोट का ढुड़ा गाँव है। वराहपुराण में कोक और वराह तीर्थों के साथ लोहार्गल तीर्थ की भी चर्चा है जो आधुनिक लोहाघाट के ऋखेश्वर नामक मन्दिर का प्राचीन नाम है। वराह पुराण में लोहार्गल तीर्थ का माहात्म्य निम्नवत वर्णित है-

ततः सिद्धवटे गत्वा त्रिंशद्योजनदूरतः।
म्लेच्छमध्ये वरारोहे हिमवन्तं समाश्रितम्।।4।।

तत्र लोहार्गले क्षेत्रे निवासो विहितः शुभः।
गुह्यं पंचदशायामं समन्तात्पंच योजनम्।।5।।


कूर्मपुराण (उत्तर विभाग, अध्याय-34) में भी कोकामुख तीर्थ का निम्नवत उल्लेख है-

अन्यत कोकामुखं विष्णोस्तीर्थमद्भुतकर्मणः।
मृतोSत्र पातकैर्युक्तो विष्णुसारूप्यमाप्नुयात्।।36।।


इस प्रकार कैलास-मानसरोवर के यात्रापथ को तीर्थयात्रियों के लिये आकर्षक और सुविधाजनक बनाने के लिये युगों से प्रयास होते रहे। पैदल यात्रा के समय रात्रिवास के लिये बनाए गए धर्मशालाएँ, मन्दिर, मूर्तियाँ और नौले अब धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं। सड़क का नया मार्ग बन जाने से तीर्थयात्रा का सारा पुरातत्व दुर्गम हो गया है। इस मार्ग में वैदिक युग से अंग्रेजी शासन (1815-1947 ई.) तक के किस्से-कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। विशेष रूप से राम और पांडवों की कैलाश यात्रा की कानियाँ रामेश्वर अर्जुनेश्वर में आज भी जीवित हैं। प्रत्येक राजवंश ने मार्गों को बदलने का प्रयास किया है। उनकी आपसी लड़ाइयों से बस्तियाँ उजड़ती रहीं। उनके युद्धों के कटुक और भड़ौ भी इस मार्ग के गाँवों में प्रचलित हैं। मार्ग में पड़ने वाली नदियों को पार करने के लिये यात्राकाल में अस्थायी पुल बनाने के भी विवरण मिलते हैं।

कैलास-मानसरोवर की तीर्थयात्रा दुर्गम होते हुए भी प्राचीन भारत में विशेष लोकप्रिय थी। इसी कारण संस्कृत साहित्य और अभिलेखों में कैलास की विशेष चर्चा मिलती है। इसके रास्ते में ही सारा इतिहास समझा जा सकता था। इसी कारण गोस्वामी तुलसीदार ने अपने रामचरितमानस में लिखा है-

बरनत पंथ विविध इतिहासा।
विश्वनाथ पहुँचे कैलासा।।



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