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राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप, नई दिल्ली 17 जून 2017
यूपीए और एनडीए ने कृषि की कर्ज माफी को अपना चुनावी नारा बना लिया, लेकिन किसानों की दशा सुधारने में यह लॉलीपाप देने से अधिक नहीं है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन किसान नहीं। अब समय आ गया है कि हम राजनीति से ऊपर उठकर कृषि के सतत विकास के लिये स्थायी समाधान ढूँढें। कृषि की कर्ज माफी के बदले कर्ज पर सूद को माफ करें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नये भारत में ध्यान रखना जरूरी है कि यदि भारतीय कृषि असफल होगी तो दूसरा कुछ सफल नहीं होगा। रियो प्लस 20 में भी संयुक्त राष्ट्र संगोष्ठी में स्थायी विकास के लिये हरित कृषि अर्थव्यवस्था की बात की थी, जिससे किसानों को गरीबी से बाहर निकाला जा सके। भारत में विज्ञान एवं तकनीक से युक्त हरित, श्वेत, पीली और नीली क्रांति ने कृषि की उत्पादकता और कृषि अर्थव्यवस्था में बहुत परिवर्तन किया है।
1951 के बाद और आज से तुलना करें तो खाद्य उत्पादन में पाँच गुना से अधिक वृद्धि हुई है। यह 51 मिलियन टन से 250 मिलियन टन से भी ऊपर पहुँच चुका है। दुग्ध उत्पादन में 8 गुना से अधिक वृद्धि हुई है, जो विश्व का 18.5 फीसद है। 1951 में 17 मिलियन टन से बढ़कर 146 मिलियन टन हो गया और हम दुग्ध उत्पादन में सबसे बड़े उत्पादक होकर उभरे हैं। मछली का उत्पादन 12 गुना से अधिक हुआ है। यह सब अप्रत्याशित जो हरित क्रांति के बाद संभव हुआ, भारतीय किसानों की देन है। 1960 के दशक में भारत में खाने की स्थिति बेहद दयनीय थी। आज हम खाद्य आत्मनिर्भरता के साथ-साथ ‘खाने का अधिकार’ के अवसर तक पहुँचे हैं। लेकिन विश्व की 40 फीसद भूखे बच्चे हमारे भारत में हैं। पोषण की कमी मुख्य समस्या बनी हुई है। एक ओर ध्यान देने योग्य बात है कि कुछ वर्षों में हमारी विकास दर 7 फीसद तक रही लेकिन कृषि विकास दर 1.5 से 2 फीसद तक ही रही। कृषि भारत में रोजगार का मुख्य साधन है। लेकिन हम किसानों को सुरक्षा मुहैया कराने में असफल हुए हैं।
किसानों की आत्महत्या के चौंकाऊ आंकड़े
यहाँ हमें किसानों के आत्महत्या के आंकड़ों को देखना जरूरी है। 2000-14 के बीच देश में 2 लाख 39 हजार किसानों ने आत्महत्या की। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और आंध्र प्रदेश का इस मामले में स्थान प्रमुख है। हरियाणा में 2015 में 24 किसानों की आत्महत्या का रिकॉर्ड पाया गया। कुछ वर्षों में कृषि में विस्तार के साथ काफी विकास हुआ लेकिन आपदाएँ और कृषि में रोग आदि के कारण किसानों की काफी हानि हुई। छोटे और सीमांत किसानों पर इसका अधिक प्रभाव पड़ा है। इन किसानों को अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। जैसे हिसार व सिरसा क्षेत्रों में किसानों को कपास उत्पादन में अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा है। कुछ राज्यों जैसे मध्य प्रदेश में 15 फीसद से अधिक कृषि विकास दर हासिल की लेकिन विडम्बना है कि यहाँ के किसान आंदोलन से कुछ को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यूपीए और एनडीए ने कृषि की कर्ज माफी को अपना चुनावी नारा बना लिया लेकिन किसानों की दशा सुधारने में ये लॉलीपाप देने से अधिक नहीं हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन किसान नहीं। अब समय आ गया है कि हम राजनीति से ऊपर उठकर कृषि के सतत विकास के लिये स्थायी समाधान ढूँढे।
कृषि की कर्ज माफी के बदले कर्ज पर सूद को माफ करें। सब किसानों को सस्ता कर्ज मुहैया कराने का फैसला सराहनीय है, लेकिन किसानों की कर्ज माफी देश की वित्तीय व्यवस्था को पंगु बना देगी। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को धीरे-धीरे बढ़ाते हुए मुल्य वृद्धि को नियमित करने के लिये स्टॉक होल्डर को सब्सिडी (राहत) दी जा सकती है। बड़े किसानों पर आयकर और उसे छोटे किसानों पर खर्च करने की नीति बनाई जाए। लेकिन सबसे बड़ी बात है, हमें ‘छठा उद्योग’ को बढ़ावा देते हुए किसानों की आय को बढ़ाने के बारे में गंभीरता से कदम बढ़ाने होंगे। ‘छठा उद्योग’ अर्थात प्राथमिक एक, माध्यमिक दो और तृतीयक तीन को संयुक्त रूप से बढ़ावा देने से ग्रामीण भारत को पुनर्जीवित कर सकते हैं। भारत में कहीं भी जाएँ, प्राथमिक क्रियाकलाप जैसे; कृषि, पशुपालन, मछली पालन, वानिकी आदि मिलते हैं। इनको आधार बनाते हुए सरकार को निजी क्षेत्र, उद्योग और लोगों के प्रयास से किसानों को प्रसंस्करण ईकाइयों, आऊटलेट्स और उत्पादनों के वितरण के लिये बाजार तक पहुँचाना हमारा ध्येय होना चाहिए।
मेक इन इंडिया कार्यक्रम और राष्ट्रीय कौशल विकास कार्यक्रम से जुड़कर गाँवों में इस तरह की प्रसंस्करण व मार्केटिंग की व्यवस्था करें तो भारतीय गाँवों को स्मार्ट गाँवों के रूप में परिवर्तित कर भारत के गाँवों में समृिद्ध लाने के साथ-साथ एक यूनिट में 30-50 लोगों को हम रोजगार मुहैया करा सकते हैं। उदाहरण के लिये-केरल जाते समय आप ट्रेन में केले के चिप्स-जो घरेलू उत्पादन है-लोग बेचते हैं। लेकिन बिहार के हाजीपुर में पैदा होने वाले केले का उत्पादन, इसको पके खाने के साथ कृषि प्रसंस्करण की व्यवस्था नहीं है। दरभंगा और उसके आस-पास के जिलों में मखाना उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, लेकिन इसकी ब्रिकी की कोई नियोजित व्यवस्था नहीं है। इस तरह के उत्पादनों को बढ़ावा देने के लिये वहाँ के स्थानीय लोगों को प्रोसेसिंग व मार्केटिंग द्वारा बहुत सारे रोजगार दिलाए जा सकते हैं और गाँवों से शहरों की तरफ जो पलायन होता है, उसे भी रोका जा सकता है या कम किया जा सकता है।
युक्ति से लेना होगा काम
शहरों की समस्या को भी इस युक्ति से कम किया जा सकता है। जापान के ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह के क्रियाकलाप देश को समृद्ध बनाने में अहम योगदान देते हैं और शहरों पर निर्भरता कम करते हैं। यहाँ कुछ उत्पादकों का जिक्र जरूरी है, जिसमें दूध, केक, कुकीज, आइसक्रीम, फलों के रस, स्क्वैश आदि हैं, और शहरों के लोग इसको खरीदने के लिये गाँवों की तरफ जाएँगे। इससे ‘ग्रामीण पर्यटन’ भी विकसित होगा। ‘चिकित्सा पर्यटन’ के रूप में कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु ने ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी लोगों को बहुत आकर्षित किया है। सबसे बड़ा फायदा है कि ग्रामीण भारत में मेक इन इंडिया को मजबूत करने में स्थानीय युवा सक्रिय भागीदारी करते हुए आर्थिक आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ेंगे। अंत में कृषि संबंधित संस्थानों को गतिशील बनाने के साथ ही सक्षम कृषि शिक्षा, टिकाऊ शोध, समन्वित प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जैसे कृषि विकास केंद्र को केंद्र बिंदु मानकर क्षेत्रीय विकास करना शामिल है। अभी करीब 56 राज्य कृषि विद्यालय के साथ-साथ 5 कृषि डीम्ड विश्वद्यालय हैं। इसके साथ पाँच केंद्रीय कृषि विश्वद्यालय हैं, जिसका उपयोग हम कृषि विकास में क्रांति लाने में कर सकते हैं।