कैसा होगा वह पर्वतीय राज्य

Submitted by Hindi on Sun, 08/02/2015 - 11:45
Source
नैनीताल समाचार, 1 मई 1979
हिन्दुस्तान की सम्पदा ने कभी फिरंगियों को आकर्षित किया था, यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का दोहन दिनोंदिन तेज होता गया है, जिसने एक ओर बाढ़-भूस्खलन जैसी विविध पर्यावरणीय समस्याओं को उगाया है, वहीं दूसरी ओर मसूरी के धँसने और झिरौली निवासियों के बेघरबार होने जैसे खतरों को पैदा किया है, इससे भी बड़ी बात यह है कि इस सम्पदा से स्थानीय जनता को छोटी और बड़ी मजदूरी के रूप में दस प्रतिशत हिस्सा भले ही मिला हो, नब्बे प्रतिशत हिस्सा टाटा और उस जैसे औरों को ही मिला है, यही कारण है कि प्राकृतिक सम्पदा के बाहर जाने के साथ-साथ यहाँ से श्रम शक्ति का बाहर जाना भी निरन्तर तेज हुआ है।पृथक पर्वतीय राज्य! इस माँग के पीछे पहले कुछ चन्द हताश राजनीतिज्ञ हुआ करते थे, लेकिन अब पृथक पर्वतीय राज्य की घुड़दौड़ में कुछ वकील (जो अपने आसपास की जनाकांक्षाओं-जनान्दोलनों से निर्लिप्त कानून की मार खाये लोगों के मुंडन में व्यस्त हैं तथा कुछ प्रवासी बुद्धिजीवी) जो पहाड़ों में रहकर संघर्ष करने की यातना से भागकर महानगरों में अपेक्षाकृत सुविधापूर्ण जिन्दगी बिता रहे हैं, भी शामिल होते दिखाई दे रहे हैं, अभी पहाड़ के खष्टीदत्त, डिगर सिंह या चनरराम को पृथक पर्वतीय राज्य से कोई दिलचस्पी नहीं है, मगर ताज्जुब नहीं कि यह शोरगुल इसी तरह बढ़ता रहा तो एक दिन पहाड़ का आम आदमी भी इसमें शामिल हो ले।

कैसा होगा यह पृथक राज्य? क्या सचमुच तब उत्तराखण्ड का इलाका खुशहाल हो जाएगा? क्या पहाड़ का नौजवान महानगरों में बर्तन मलने या फौज में भर्ती होने की मजबूरी से मुक्त अपनी जमीन में रह पाएगा और पहाड़ी युवती विवाहित होकर भी वैधव्य की सी त्रासदी झेलने से बच जाएगी?

तार्किक दृष्टि से पृथक पर्वतीय राज्य की अपरिहार्यता कई ढंग से समझाई जाती है, आँकड़ों के आधार पर प्रस्तावित राज्य की आत्मनिर्भरता सिद्ध कर देना मुश्किल नहीं है, क्योंकि आँकड़ों के आधार पर तो हम यों ही एक निरन्तर विकसित होते राष्ट्र के नागरिक हैं, यह बात दीगर है कि यथार्थ में कुछ लोगों को छोड़कर इस राष्ट्र की अधिकांश जनता दिनों-दिन तंगहाल होती रही है, हमारे सामने हिमाचल प्रदेश का उदाहरण रखा जाता है कि पृथक राज्य का दर्जा हासिल करने के बाद उसने कैसे तेजी से प्रगति की। आँकड़ों से यह बातें भी सही हो जाती हैं, मगर हम यह कैसे भूल जायें कि आज उत्तराखण्ड में जंगल-कटान के लिये जो मजदूर लाये जा रहे हैं, वे हिमाचल के हैं, अगर उन्हें हिमाचल प्रदेश में ही रोजगार मिलता तो क्या वे इतनी दूर आते? क्या हिमाचल प्रदेश बनने के बाद वहाँ से निम्नवर्गीय युवक का दिल्ली, शिमला को जाना बन्द हो गया है?

‘अपनी राज्य’ की बात सोच कर अपने मन में लड्डू फोड़ सकते हैं, कुछ साल पहले अपना विश्वविद्यालय की बात भी इसी तरह मन में उल्लास भर कर किया करते थे, मगर क्या हुआ ? भ्रष्ट राजनीति ने एक उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय के बदले दो (कुमाऊँ/गढ़वाल) विश्वविद्यालय बना दिये और हम उन गन्दी हरकतों को, जो पहले आगरा में होने के कारण हमसे ओझल रहती थी, अपनी आँखों के सामने नैनीताल/श्रीनगर में देखने लगे, उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय के पीछे भी एक जबरदस्त भावनात्मक लगाव था, उसका प्रतिफल सामने हैं।

अतः पृथक राज्य की माँग करने से पहले हम भावुकता से बचकर यथार्थवादी ढंग से सोच लें तो बेहतर रहेगा।

भारत में प्रान्तों का विभाजन भाषा के आधार पर किया गया है, मगर भाषाई आधार पर पृथक उत्तराखण्ड राज्य नहीं माँगा जा सकता है, इस माँग के पीछे इस क्षेत्र के धीमे आर्थिक विकास और उससे उत्पन्न आक्रोश को ही बात हो सकती है।

यह तयशुदा है कि उत्तराखण्ड प्रदेश अपने में असीम प्राकृतिक सम्पदा समेटे हुए है, उत्तर भारत की नदियों का यह उद्गम स्रोत है, मगर इन नदियों के पानी पर उसका एकाधिकार नहीं हो सकता, नदी जल विवादों से अन्तरप्रान्तीय ही नहीं, बल्कि फरक्का जैसे अन्तरराष्ट्रीय विवाद भी उठते हैं, जिनसे निपटना आसान नहीं होता, बहरहाल जल विवादों से निपटकर इन नदियों के पानी का सिंचाई तथा पनबिजली के रूप में बेहतर-से-बेहतर उपयोग किया जाना सम्भव है मगर वह सिंचाई तथा वह बिजली किसके लिये फायदेमन्द होगी?

उत्तराखण्ड की तलहटी - ‘तराई’ हिन्दुस्तान के सबसे समृद्ध कृषि क्षेत्रों में एक है, लेकिन जमीन की इस समृद्धि का लाभ सिर्फ मुट्ठीभर बड़े किसानों को ही है, जिसके फार्म सैकड़ों एकड़ के विस्तार में फैले हैं। इसके विपरीत हजारों-लाखों ऐसे भूमिहीन मजदूर हैं, जो इन फार्मों में मजदूरी करते थोड़ी सी जमीन अपनी कहने की हसरत मन में लिये जिन्दगी गुजार देते हैं सीलिंग के तथाकथित कानून भूमिहीनों का सिर्फ मजाक उड़ाने के लिये बनाए गए हैं, यदि पृथक उत्तराखण्ड राज्य में इस भूमि समस्या का वास्तविक समाधान होने की सम्भावना हो, जिससे न भूमिहीन रहें और न बड़े किसान, तब इस पृथक राज्य का बनना सचमुच स्वागत योग्य होगा, लेकिन यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि हिंदुस्तान के नक्शे में भूमि सुधार कहीं भी ईमानदारी से लागू नहीं किये गए हैं।

उत्तराखण्ड की वन-सम्पदा ने साधारण पूँजीपतियों को ही नहीं टाटा जैसों को तक ललचाया है, उसी तरह जैसे हिन्दुस्तान की सम्पदा ने कभी फिरंगियों को आकर्षित किया था, यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का दोहन दिनोंदिन तेज होता गया है, जिसने एक ओर बाढ़-भूस्खलन जैसी विविध पर्यावरणीय समस्याओं को उगाया है, वहीं दूसरी ओर मसूरी के धँसने और झिरौली निवासियों के बेघरबार होने जैसे खतरों को पैदा किया है, इससे भी बड़ी बात यह है कि इस सम्पदा से स्थानीय जनता को छोटी और बड़ी मजदूरी के रूप में दस प्रतिशत हिस्सा भले ही मिला हो, नब्बे प्रतिशत हिस्सा टाटा और उस जैसे औरों को ही मिला है, यही कारण है कि प्राकृतिक सम्पदा के बाहर जाने के साथ-साथ यहाँ से श्रम शक्ति का बाहर जाना भी निरन्तर तेज हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में इस शोषण के खिलाफ आवाज उठी है, मगर शोषकों के पक्ष में दमन कर सरकार/प्रशासन ने हमेशा यह आवाज दबाने की चेष्टा की है, यह भरोसा कौन दिलाएगा कि पृथक राज्य के बनने के बाद यह शोषण/दमन इस रूप में नहीं चलेगा और पहाड़ की सम्पदा पूँजीपतियों की तिजोरी में न जाकर यहीं का कायाकल्प करेगी, यहाँ से कोई भी कच्चा माल बाहर नहीं जाएगा, बल्कि छोटी-छोटी इकाइयों के रूप में पूरा ‘उत्पादन’ बन कर बाहर जाएगा, जिससे यहाँ रोजगार की सम्भावना बढ़ेगी।

मसूरी, देहरादून और नैनीताल में इस वक्त अनेक पब्लिक स्कूल मौजूद हैं, इस तरह पूरे हिन्दुस्तान की तरह उत्तराखण्ड में भी अफसर तथा चपरासी बनाने वाली दो अलग-अलग शिक्षा प्रणालियाँ साथ-साथ चल रही हैं। क्या प्रस्तावित उत्तराखण्ड राज्य में यह दोहरी शिक्षा नीति खत्म होगी ताकि एक वर्गहीन समाज के लिये रास्ता साफ हो सके।

अनेक सवाल हैं, जो इसी तरह उछल कर प्रश्नाहत करते हैं, क्या उस पर्वतीय राज्य में ऐसी व्यवस्था कायम की जा सकेगी जहाँ एक शिक्षित योग्य, बेरोजगार युवक को आरक्षण के पक्ष तथा विपक्ष में फँसाकर मूर्ख बनाया जाएगा, जहाँ अपना छोटा सा उद्योग लगाना चाहने वाले किसी आदमी को अफसरशाही के चक्कर में आकर हताश नहीं होना पड़ेगा, जहाँ वेतनमानों में इतनी समानता होगी कि किसी भी राजकीय कर्मचारी को असन्तुष्ट नहीं रहना होगा? क्या वहाँ कानून इतना समदर्शी होगा कि मंत्री, अधिकारियों, पैसे वालों तथा दूसरी ओर गरीब आदमी को एक सा न्याय मिलेगा? सबसे बड़ी बात क्या यहाँ गरीबी उसी हद तक जिन्दा रहेगी, जितनी कि आज है।

प्रस्तावित राज्य के लिये यह बातें सोच लेनी बहुत जरूरी हैं, वैसे हमें इस बात में अत्यधिक शंका है कि जब तक पूरे हिन्दुस्तान में यह पूर्ण बुराइयाँ मौजूद हैं, हम उसके एक छोटे से हिस्से उत्तराखण्ड का चेहरा उसे ‘नखलिस्तान’ बना सकते हैं।