जुलाई के अंत में थोड़ी-सी बारिश के बाद मुम्बई नगर निगम ने अपनी उन छ: झीलों को भरने के लिए, जिनसे शहर भर को पीने का पानी मिलता है, ‘क्लाउड-सीडिंग’ का प्रयोग करने की सोची। दावा किया गया है कि मोदक सागर बांध पर मौसम की पहली क्लाउड-सीडिंग के चलते 7 अगस्त 09 को 16 मि.मी. वर्षा हुई थी। इस प्रयोग में वर्षा विशेषज्ञ शांतिलाल मेकोनी ने 250 ग्राम सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल किया जिसे एक चूल्हा किस्म के जनरेटर पर वाष्पित किया गया था। आयोडाइड की वाष्प ऊपर उठी और 6 मिनट में बादलों की सतह पर पहुंच गई। इससे बादलों का घनत्व बढ़ गया और पानी की बूंदे टपकने लगीं। अनियमित वर्षा से परेशान होकर आंध्रप्रदेश सरकार को भी लगातर छठवें साल क्लाउड-सीडिंग को विवश होना पड़ा है।
जून 2009 इस सदी का सबसे सूखा जून था। जुलाई महीने की वर्षा में कमी मौसम विभाग द्वारा अनुमानित कमी से भी 12 प्रतिशत अधिक रही। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने भी यह माना कि देश का बड़ा हिस्सा सूखे जैसी स्थिति का सामना कर रहा है जिसमें देश का उत्तर-पश्चिमी हिस्सा शामिल है, जो खाद्यान्न का आधार है। भारत, इण्डोनेशिया, मलेशिया जैसे गर्म देशों में तो सामान्य से 5 प्रतिशत कम बारिश भी सूखे की स्थिति निर्मित कर देती है।
इसके लिए यहां की सुविधाएं और वर्षा आधारित खेती ज़िम्मेदार है। पिछले आधी शताब्दी से लगभग 50 देश क्लाउड-सीडिंग पद्धति का उपयोग कर रहे हैं। चीन इस काम में अग्रणी है, जहां 90 फीसदी प्रांतों में यह किया जाता है। क्लाउड-सीडिंग का पहला प्रदर्शन जनरल इलेक्ट्रिक लैब द्वारा फरवरी 1947 में बाथुर्स्ट, ऑस्ट्रेलिया में किया गया। बादल वास्तव में पानी की बूंदों या बर्फ के कणों से मिलकर बने होते हैं। पृथ्वी की सतह के पास की नम हवा सूरज की गर्मी या हवा के झोकों के कारण ऊपर उठती है। हवा जब ऊपर उठती है तो उसका दबाव कम हो जाता है और वह ठंडी हो जाती है। ये दो प्रभाव मिलकर पानी के संघनित होकर बूंदें बनने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।
बरसात या हिमपात बादलों की नमी का वह छोटा-सा हिस्सा होता है जो पृथ्वी की सतह तक पहुंच पाता है। क्या बादलों को ज्यादा पानी बरसाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है? वैज्ञानिक सोच में थे कि कैसे क्लाउड-सीडिंग के ज़रिए वर्षा को बढ़ाया जाए। इस प्रक्रिया में वास्तव में हवा में ऐसी चीज़ बिखेरी जाती हैं जो बर्फ के लिए केंद्रक का काम करती है।
क्लाउड-सीडिंग के लिए सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ (ठोस कार्बन डाईऑक्साइड) को जनरेटर या हवाई जहाज के ज़रिए वातावरण में फैलाया जाता है। विमान से सिल्वर आयोडाइड को बादलों के बहाव के साथ फैला दिया जाता है।
सिल्वर आयोडाइड क्रिस्टल की संरचना प्राकृतिक बर्फ के जैसी ही होती है। सिल्वर आयोडाइड क्रिस्टल की सतह पर जमा पानी और बर्फ के कैसे कराते हैं कृत्रिम बारिश प्रवीण कुमार मौसम को अपने अनुरुप परिवर्तित करने के लिए विभिन्न देशों में बादलों के बीजारोपण (क्लाउड-सीडिंग) का इस्तेमाल पिछले 50 से अधिक वर्षो से हो रहा है।
अगस्त 2008 में बीजिंगा ओलंपिक के दौरान इसका प्रयोग किया गया था। कहते है कि बादल-बीजारोपण करके ओलंपिक उद्धाटन समारोह पर मंडरा रहे बारिश के खतरे को सफलता पूर्वक टाल दिया गया था। कण इस तरह से बनते हैं, जैसे वे प्राकृतिक बर्फ ही हों।
हवा के ज़रिए क्लाउड-सीडिंग करने के लिए विमान की मदद ली जाती है। विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल उच्च दाब पर भरा होता है। लक्षित क्षेत्र में विमान हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। सही बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिए जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। शुष्क बर्फ पानी को 0 डिग्री सेल्सियस से ठंडा कर देती है जिससे हवा में उपस्थित पानी के कण जम जाते हैं। क्या क्लाउड-सीडिंगा वाकई बारिश को बढ़ाता है? विश्व मौसम संगठन का मत है कि यह हर बार सफल नतीजे नहीं देता और यह बादल की किस्म, हवा की रफ्तार एवं दिशा और भूभाग की प्रकृति वगैरह पर निर्भर करता है। क्लाड-सीडिंग तभी कारगर होता है जब उपयुक्त बादल हों। अतीत में इस विधि के ज़रिए सूखे के समय मौसम परिवर्तन का प्रयास किया गया था। मगर सूखे के दौरान बादल बहुत कम होते हैं। बेहतर यह होगा कि क्लाउड-सीडिंग का इस्तेमाल बारिश वाले वर्षो में किया जाए ताकि भविष्य की ज़रुरत की व्यवस्था हो सके।
क्लाउड-सीडिंग के लिए उपयुक्त बादल मुख्यत: कुमुलीफार्म और स्ट्रेटीफार्म बादल होते हैं। कुमुलीफार्म बादल गुंबद या टॉवर के आकार के स्पष्ट बाह्य आकृति के बादल होते हैं। इनमें काफी संवहन धाराएं चलती हैं और ऊपर नीचे काफी मिक्सिंग होता है। स्ट्रेटीफार्म बादल परतदार संरचना वाले और कम संवहन धारा वाले होते हैं। क्लाउड-सीडिंग के लिए बादल में र्प्याप्त मात्रा में अति-शीतल तरल पानी मौजूद होना चाहिए। बादल पर्याप्त गहरे हों और उनका तापमान निश्चित परास के अंदर हो। बादल से बरसने वाले बर्फ कण अन्य बादल कणों से मिलकर बड़े हो जाते हैं। अंतत: ये बर्फ के कण जब बरसते हुए नीचे आते हैं तो तापमान के अनुसार पानी की बूंदों के रुप में या बर्फ के रुप में गिरते हैं।
हवा के ज़रिए क्लाउड-सीडिंग करने के लिए विमान की मदद ली जाती है। विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल उच्च दाब पर भरा होता है। लक्षित क्षेत्र में विमान हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। सही बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिए जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। क्लाउड-सीडिंग से लक्षित क्षेत्र के बाहर किसी भी प्रकार की वर्षा वृध्दि नहीं पाई गई है। सर्दियों में बादलों में र्प्याप्त बर्फ के कण नहीं होते और तरल रुप में मौजूद पानी की बूंदें वाष्पित हो जाती हैं। 12 अगस्त 2008 को बीज़िंग में 29 वें ओलम्पिक के उद्धाटन समारोह के दौरान चीन ने 21 जगहों पर क्लाउड-सीडिंग मिसाइलों का प्रयोग किया था ताकि बारिश के खतरे को टाला जा सके। परिणाम स्वरुप बारिश टल गई और उत्सव के दौरान होने वाली आतिशबाज़ी भीगने से बच गई। चीन का मौसम कार्यालय यदा-कदा ही अपने परिणाम प्रकाशित करता है, ऐसे में उनकी सफलता के दावे शक के घेरे में ही होते हैं। क्लाउड-सीडिंग का प्रयोग हवाई अड्डों में धुंध और बादल कम करने के लिए भी किया जाता है। अच्छी तरह डिज़ाइन्ड और संचालित प्रयोगों में अंदरुनी क्षेत्र में जाड़े के दिनों में बारिश में 5 से 20 प्रतिशत और तटीय भू-भाग में 5 से 30 प्रतिशत तक की वृध्दि स्वीकार्य मानी जाती है। ग्रीष्मकालीन बारिश के लिए एक बादल पर किए गए प्रयोग में 100 प्रतिशत तक का इज़ाफा देखा गया है।
ज्यादातर क्लाउड-सीडिंग प्रोजेक्ट में लाभ-लागत अनुपात 25:1 से 30:1 तक होता है। कुल मिलाकर अपनी मर्जी से कृत्रिम बारिश अभी भी पूरी तरह भरोसेमंद तकनीक नहीं है। मगर प्रत्येक जैव रासायनिक क्रिया के लिए अनिवार्य पानी पृथ्वी में दुर्लभ पदार्थ बन चुका है। लिहाज़ा इस सम्बंध में वैज्ञानिक अध्ययन लाज़मी है। अमरीका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेयरिक रिसर्च के रोलोफ ब्रुरंटजेस ने बुलेटिन ऑफ द मिटिओरोलॉजिकल सोसाइटी में लिखे अपने लेख में कहा है कि इस तकनीक को मज़बूत वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिए कुछ मूलभूत प्रश्न हैं जो अभी भी अनुत्तरित हैं। क्या क्लाउड-सीडिंग ग्लोबल वार्मिंग से छुटकारा दिला सकता है? सेंटर फॉर एटमॉसफियरिक रिसर्च, युनवर्सिटि ऑफ मेन्चेस्टर के जॉन लेथम का यह प्रस्ताव वैज्ञानिक समुदाय का ध्यान आकर्षित कर रहा है।
इसका ज़िक्र फिलॉसॉफिकल ट्राज़ेक्शन्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी में प्रकाशित दो शोध पत्रों में भी हुआ हैं। लेथम ने नमकीन पानी की बारीक बूंदों से समुद्र के बादलों की क्लाउड-सीडिंग करने का भी प्रस्ताव रखा है ताकि बादल बनने की प्राकृतिक प्रक्रिया को तेज़ किया जा सके। यह उन्हें सूर्य की अधिक रोशनी की आकाश में परावर्तित करने में सक्षम बना सकता है। वैश्विक पर्यावरण मॉडल्स की गणनाओं के आधार यह कहा जा रहा है कि क्लाउड-सीडिंग ग्लोबल वार्मिंग को 50 से 100 साल तक पीछे धकेल देगा।
जून 2009 इस सदी का सबसे सूखा जून था। जुलाई महीने की वर्षा में कमी मौसम विभाग द्वारा अनुमानित कमी से भी 12 प्रतिशत अधिक रही। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने भी यह माना कि देश का बड़ा हिस्सा सूखे जैसी स्थिति का सामना कर रहा है जिसमें देश का उत्तर-पश्चिमी हिस्सा शामिल है, जो खाद्यान्न का आधार है। भारत, इण्डोनेशिया, मलेशिया जैसे गर्म देशों में तो सामान्य से 5 प्रतिशत कम बारिश भी सूखे की स्थिति निर्मित कर देती है।
इसके लिए यहां की सुविधाएं और वर्षा आधारित खेती ज़िम्मेदार है। पिछले आधी शताब्दी से लगभग 50 देश क्लाउड-सीडिंग पद्धति का उपयोग कर रहे हैं। चीन इस काम में अग्रणी है, जहां 90 फीसदी प्रांतों में यह किया जाता है। क्लाउड-सीडिंग का पहला प्रदर्शन जनरल इलेक्ट्रिक लैब द्वारा फरवरी 1947 में बाथुर्स्ट, ऑस्ट्रेलिया में किया गया। बादल वास्तव में पानी की बूंदों या बर्फ के कणों से मिलकर बने होते हैं। पृथ्वी की सतह के पास की नम हवा सूरज की गर्मी या हवा के झोकों के कारण ऊपर उठती है। हवा जब ऊपर उठती है तो उसका दबाव कम हो जाता है और वह ठंडी हो जाती है। ये दो प्रभाव मिलकर पानी के संघनित होकर बूंदें बनने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।
बरसात या हिमपात बादलों की नमी का वह छोटा-सा हिस्सा होता है जो पृथ्वी की सतह तक पहुंच पाता है। क्या बादलों को ज्यादा पानी बरसाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है? वैज्ञानिक सोच में थे कि कैसे क्लाउड-सीडिंग के ज़रिए वर्षा को बढ़ाया जाए। इस प्रक्रिया में वास्तव में हवा में ऐसी चीज़ बिखेरी जाती हैं जो बर्फ के लिए केंद्रक का काम करती है।
क्लाउड-सीडिंग के लिए सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ (ठोस कार्बन डाईऑक्साइड) को जनरेटर या हवाई जहाज के ज़रिए वातावरण में फैलाया जाता है। विमान से सिल्वर आयोडाइड को बादलों के बहाव के साथ फैला दिया जाता है।
सिल्वर आयोडाइड क्रिस्टल की संरचना प्राकृतिक बर्फ के जैसी ही होती है। सिल्वर आयोडाइड क्रिस्टल की सतह पर जमा पानी और बर्फ के कैसे कराते हैं कृत्रिम बारिश प्रवीण कुमार मौसम को अपने अनुरुप परिवर्तित करने के लिए विभिन्न देशों में बादलों के बीजारोपण (क्लाउड-सीडिंग) का इस्तेमाल पिछले 50 से अधिक वर्षो से हो रहा है।
अगस्त 2008 में बीजिंगा ओलंपिक के दौरान इसका प्रयोग किया गया था। कहते है कि बादल-बीजारोपण करके ओलंपिक उद्धाटन समारोह पर मंडरा रहे बारिश के खतरे को सफलता पूर्वक टाल दिया गया था। कण इस तरह से बनते हैं, जैसे वे प्राकृतिक बर्फ ही हों।
हवा के ज़रिए क्लाउड-सीडिंग करने के लिए विमान की मदद ली जाती है। विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल उच्च दाब पर भरा होता है। लक्षित क्षेत्र में विमान हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। सही बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिए जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। शुष्क बर्फ पानी को 0 डिग्री सेल्सियस से ठंडा कर देती है जिससे हवा में उपस्थित पानी के कण जम जाते हैं। क्या क्लाउड-सीडिंगा वाकई बारिश को बढ़ाता है? विश्व मौसम संगठन का मत है कि यह हर बार सफल नतीजे नहीं देता और यह बादल की किस्म, हवा की रफ्तार एवं दिशा और भूभाग की प्रकृति वगैरह पर निर्भर करता है। क्लाड-सीडिंग तभी कारगर होता है जब उपयुक्त बादल हों। अतीत में इस विधि के ज़रिए सूखे के समय मौसम परिवर्तन का प्रयास किया गया था। मगर सूखे के दौरान बादल बहुत कम होते हैं। बेहतर यह होगा कि क्लाउड-सीडिंग का इस्तेमाल बारिश वाले वर्षो में किया जाए ताकि भविष्य की ज़रुरत की व्यवस्था हो सके।
क्लाउड-सीडिंग के लिए उपयुक्त बादल मुख्यत: कुमुलीफार्म और स्ट्रेटीफार्म बादल होते हैं। कुमुलीफार्म बादल गुंबद या टॉवर के आकार के स्पष्ट बाह्य आकृति के बादल होते हैं। इनमें काफी संवहन धाराएं चलती हैं और ऊपर नीचे काफी मिक्सिंग होता है। स्ट्रेटीफार्म बादल परतदार संरचना वाले और कम संवहन धारा वाले होते हैं। क्लाउड-सीडिंग के लिए बादल में र्प्याप्त मात्रा में अति-शीतल तरल पानी मौजूद होना चाहिए। बादल पर्याप्त गहरे हों और उनका तापमान निश्चित परास के अंदर हो। बादल से बरसने वाले बर्फ कण अन्य बादल कणों से मिलकर बड़े हो जाते हैं। अंतत: ये बर्फ के कण जब बरसते हुए नीचे आते हैं तो तापमान के अनुसार पानी की बूंदों के रुप में या बर्फ के रुप में गिरते हैं।
हवा के ज़रिए क्लाउड-सीडिंग करने के लिए विमान की मदद ली जाती है। विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल उच्च दाब पर भरा होता है। लक्षित क्षेत्र में विमान हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। सही बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिए जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। क्लाउड-सीडिंग से लक्षित क्षेत्र के बाहर किसी भी प्रकार की वर्षा वृध्दि नहीं पाई गई है। सर्दियों में बादलों में र्प्याप्त बर्फ के कण नहीं होते और तरल रुप में मौजूद पानी की बूंदें वाष्पित हो जाती हैं। 12 अगस्त 2008 को बीज़िंग में 29 वें ओलम्पिक के उद्धाटन समारोह के दौरान चीन ने 21 जगहों पर क्लाउड-सीडिंग मिसाइलों का प्रयोग किया था ताकि बारिश के खतरे को टाला जा सके। परिणाम स्वरुप बारिश टल गई और उत्सव के दौरान होने वाली आतिशबाज़ी भीगने से बच गई। चीन का मौसम कार्यालय यदा-कदा ही अपने परिणाम प्रकाशित करता है, ऐसे में उनकी सफलता के दावे शक के घेरे में ही होते हैं। क्लाउड-सीडिंग का प्रयोग हवाई अड्डों में धुंध और बादल कम करने के लिए भी किया जाता है। अच्छी तरह डिज़ाइन्ड और संचालित प्रयोगों में अंदरुनी क्षेत्र में जाड़े के दिनों में बारिश में 5 से 20 प्रतिशत और तटीय भू-भाग में 5 से 30 प्रतिशत तक की वृध्दि स्वीकार्य मानी जाती है। ग्रीष्मकालीन बारिश के लिए एक बादल पर किए गए प्रयोग में 100 प्रतिशत तक का इज़ाफा देखा गया है।
ज्यादातर क्लाउड-सीडिंग प्रोजेक्ट में लाभ-लागत अनुपात 25:1 से 30:1 तक होता है। कुल मिलाकर अपनी मर्जी से कृत्रिम बारिश अभी भी पूरी तरह भरोसेमंद तकनीक नहीं है। मगर प्रत्येक जैव रासायनिक क्रिया के लिए अनिवार्य पानी पृथ्वी में दुर्लभ पदार्थ बन चुका है। लिहाज़ा इस सम्बंध में वैज्ञानिक अध्ययन लाज़मी है। अमरीका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेयरिक रिसर्च के रोलोफ ब्रुरंटजेस ने बुलेटिन ऑफ द मिटिओरोलॉजिकल सोसाइटी में लिखे अपने लेख में कहा है कि इस तकनीक को मज़बूत वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिए कुछ मूलभूत प्रश्न हैं जो अभी भी अनुत्तरित हैं। क्या क्लाउड-सीडिंग ग्लोबल वार्मिंग से छुटकारा दिला सकता है? सेंटर फॉर एटमॉसफियरिक रिसर्च, युनवर्सिटि ऑफ मेन्चेस्टर के जॉन लेथम का यह प्रस्ताव वैज्ञानिक समुदाय का ध्यान आकर्षित कर रहा है।
इसका ज़िक्र फिलॉसॉफिकल ट्राज़ेक्शन्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी में प्रकाशित दो शोध पत्रों में भी हुआ हैं। लेथम ने नमकीन पानी की बारीक बूंदों से समुद्र के बादलों की क्लाउड-सीडिंग करने का भी प्रस्ताव रखा है ताकि बादल बनने की प्राकृतिक प्रक्रिया को तेज़ किया जा सके। यह उन्हें सूर्य की अधिक रोशनी की आकाश में परावर्तित करने में सक्षम बना सकता है। वैश्विक पर्यावरण मॉडल्स की गणनाओं के आधार यह कहा जा रहा है कि क्लाउड-सीडिंग ग्लोबल वार्मिंग को 50 से 100 साल तक पीछे धकेल देगा।