पश्चिम उड़ीसा के कालाहांडी क्षेत्र से कभी तो भुखमरी के दर्दनाक समाचार मिलते हैं तो कभी बेहद गरीबी के कारण मजबूर होकर अपने बच्चे को ही बेच देने के। कभी अनेक दिनों तक मात्र कंद-मूल पर जीवित रहने को मजबूर लोगों की व्यथा-कथा हम यहाँ से प्राप्त समाचारों में पढ़ते हैं तो कभी भीषण अभाव के कारण यहाँ से प्रवास कर दूर-दूर भटकने वाले मज़दूरों की अन्तहीन समस्याएँ हमें सुनाई पड़ती हैं। ग्रामीण दुख-दर्द और अभाव की अति का जैसे पर्याय बन गया है कालाहांडी।
कालाहांडी क्षेत्र से हमारा अभिप्राय है कालाहांडी जिला और इससे जुड़े हुए नवापाड़ा और बोलनगीर जैसे जिलों का इलाक़ा। पुराना कालाहांडी जिला बहुत बड़ा होने के कारण वैसे भी प्रशासनिक सहूलियत के लिए दो भागों में बाँट दिया गया है अतः केवल एक जिले की बात न कर तीन-चार जिलों में फैले हुए काफी हद तक एक जैसी समस्याओं वाले क्षेत्र की बात करना अधिक उचित है।
कालाहांडी क्षेत्र में गरीबी और अभाव ने इतना विकट रूप कैसे ले लिया? इस प्रश्न का सही उत्तर यहाँ की समस्याओं का समाधान खोजने के लिए बहुत आवश्यक है।
यहाँ के गाँवों में कार्य कर रही एक मुख्य संस्था सहभागी विकास अभियान के समन्वयक जगदीश प्रधान एक महत्त्वपूर्ण कारण की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, “आज से पाँच-छः दशक पहले के जो अध्ययन उपलब्ध हैं उनसे पता चलता है कि उस समय तक यहाँ एक समृद्ध परम्परागत सिंचाई व्यवस्था बची हुई थी। यह स्थानीय कौशल और संसाधनों पर आधारित सिंचाई व्यवस्था उस समय की कृषि भूमि के लगभग 48 प्रतिशत भाग को पानी देने में समर्थ थी। किन्तु अनेक कारणों से यह परम्परागत सिंचाई व्यवस्था उपेक्षित व छिन्न-भिन्न होती गई और आज स्थिति यह है कि यहाँ की मात्र 11 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है।”
जहाँ परम्परागत सिंचाई का ऐसा ह्रास एक बहुत दुख भरी खबर है, वहाँ इस समस्या की सही पहचान एक उम्मीद भी जगाती है। यदि यहाँ के लोग पहले 48 प्रतिशत तक सिंचाई की व्यवस्था कर सके थे, तो आज सरकार और स्वैच्छिक संगठनों का पूरा सहयोग उन्हें मिले तो वे इससे आगे भी बढ़ सकते हैं। उन्हें प्रोत्साहित करना होगा व विशेषकर उनके बुजुर्गों के पास संचित परम्परागत सिंचाई का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करना होगा।
‘मुंडा’ यानि गाँव के सिर के पास (ऊपरी हिस्से में) किया गया जल-संग्रहण। ‘काटा’ यानि इससे नीचे बनाया गया वह जल-संरक्षण कार्य जिसे वर्षा न होने की स्थिति में काटकर धान की सिंचाई की जाए। ‘चहल’ यानि फसल के बीच का वह तालाब जिसका पानी चारों ओर फैलाया जा सके। ‘चुआ’ यानि कम गहराई का अस्थाई कुँआ।
इस तरह के तमाम स्थानीय तौर-तरीकों की जानकारी प्राप्त कर यहाँ की भौगोलिक स्थिति के बहुत अनुकूल रही परम्परागत सिंचाई व्यवस्था को नया जीवन दिया जा सकता है।
जहाँ परम्परागत तौर तरीकों और ग्रामीण बुजुर्गों से सीखने की नम्रता होनी चाहिए, वहाँ गाँव-गाँव में इस सिंचाई को नवजीवन देने के लिये पर्याप्त धन की भी आवश्यकता है। यदि सिंचाई के क्षेत्र में सही प्राथमिकताएँ तय हो जाएँ तो पर्याप्त आर्थिक संसाधनों की व्यवस्था करना सरकार के लिये कठिन नहीं होगा।
यहाँ की मात्र एक बड़े बाँध की परियोजना (इन्द्रावती परियोजना) में जितना धन झोंका गया है, उतने पैसे में तो क्षेत्र के लगभग सभी गाँवों में छोटे स्तर की सिंचाई उपलब्ध हो सकती थी।
इस बारे में विस्तृत आँकड़े उपलब्ध कराते हुए सहभागी विकास अभियान ने कहा है कि यदि सिंचाई बढ़ाने की यह प्राथमिकता तय की जाए व इतने आर्थिक संसाधन छोटे स्तर की सिंचाई के लिये उपलब्ध हों तो गाँवों में दस वर्ष में तीन लाख लोगों को अतिरिक्त रोज़गार मिल सकता है। पहले परम्परागत जल-संग्रहण सफल हो तो फिर इस क्षेत्र में टयूबवेल द्वारा सिंचाई को और आगे बढ़ाया जा सकता है।
सहभागी विकास अभियान व उनसे जुड़े संगठनों ने विशेषकर ‘चहल’ के माध्यम से अनेक गाँवों व किसानों को सूखे की स्थिति में राहत पहुँचाने का सराहनीय प्रयास किया है, जो पहले से तालाब बने हुए हैं पर जिनमें पानी सूख जाता है उनके बीच में एक और तालाब खोदने से पानी अधिक सरलता से मिलने की दृष्टि से भी चहल को बहुत उपयोगी माना गया है।
प्राय: 2 या 3 मीटर की खुदाई पर ही पानी इस तरीके से इस क्षेत्र में मिल जाता है क्योंकि यहाँ का सामान्य जल-स्तर काफी ऊँचा है। अतः सूखे के समय में जब अनेक तालाब व पोखर सूख जाते हैं तो तालाब के भीतर छोटा तालाब खोदने की यह तरकीब लोगों को बहुत राहत पहुँचाती है।
सूखे के विभिन्न वर्षों में ऐसे चहल बहुत कम लागत पर बनवाए गए। इस पर जो खर्च हुआ वह भी स्थानीय गाँववासियों को मजदूरी के रूप में मिल गया तथा सूखे के समय में इससे भी उन्हें राहत मिली। सामान्यतः एक चहल में लगभग 500 गाँववासियों व लगभग इतने ही पशुओं को राहत मिलती है।
इस तरह के परम्परागत तौर-तरीकों पर आधारित कार्यों को स्थानीय गाँववासी आसानी से किसी बाहरी परामर्श या प्रशिक्षण के पूरा कर लेते हैं। इन पर खर्च भी इतना कम होता है कि किसी भी बड़ी व मध्यम परियोजना की अपेक्षा यह बहुत सस्ते पड़ते हैं, तथा बहुत कम समय में ही इनके लाभ प्राप्त हो जाते हैं।
कालाहांडी क्षेत्र से हमारा अभिप्राय है कालाहांडी जिला और इससे जुड़े हुए नवापाड़ा और बोलनगीर जैसे जिलों का इलाक़ा। पुराना कालाहांडी जिला बहुत बड़ा होने के कारण वैसे भी प्रशासनिक सहूलियत के लिए दो भागों में बाँट दिया गया है अतः केवल एक जिले की बात न कर तीन-चार जिलों में फैले हुए काफी हद तक एक जैसी समस्याओं वाले क्षेत्र की बात करना अधिक उचित है।
कालाहांडी क्षेत्र में गरीबी और अभाव ने इतना विकट रूप कैसे ले लिया? इस प्रश्न का सही उत्तर यहाँ की समस्याओं का समाधान खोजने के लिए बहुत आवश्यक है।
यहाँ के गाँवों में कार्य कर रही एक मुख्य संस्था सहभागी विकास अभियान के समन्वयक जगदीश प्रधान एक महत्त्वपूर्ण कारण की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, “आज से पाँच-छः दशक पहले के जो अध्ययन उपलब्ध हैं उनसे पता चलता है कि उस समय तक यहाँ एक समृद्ध परम्परागत सिंचाई व्यवस्था बची हुई थी। यह स्थानीय कौशल और संसाधनों पर आधारित सिंचाई व्यवस्था उस समय की कृषि भूमि के लगभग 48 प्रतिशत भाग को पानी देने में समर्थ थी। किन्तु अनेक कारणों से यह परम्परागत सिंचाई व्यवस्था उपेक्षित व छिन्न-भिन्न होती गई और आज स्थिति यह है कि यहाँ की मात्र 11 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है।”
जहाँ परम्परागत सिंचाई का ऐसा ह्रास एक बहुत दुख भरी खबर है, वहाँ इस समस्या की सही पहचान एक उम्मीद भी जगाती है। यदि यहाँ के लोग पहले 48 प्रतिशत तक सिंचाई की व्यवस्था कर सके थे, तो आज सरकार और स्वैच्छिक संगठनों का पूरा सहयोग उन्हें मिले तो वे इससे आगे भी बढ़ सकते हैं। उन्हें प्रोत्साहित करना होगा व विशेषकर उनके बुजुर्गों के पास संचित परम्परागत सिंचाई का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करना होगा।
‘मुंडा’ यानि गाँव के सिर के पास (ऊपरी हिस्से में) किया गया जल-संग्रहण। ‘काटा’ यानि इससे नीचे बनाया गया वह जल-संरक्षण कार्य जिसे वर्षा न होने की स्थिति में काटकर धान की सिंचाई की जाए। ‘चहल’ यानि फसल के बीच का वह तालाब जिसका पानी चारों ओर फैलाया जा सके। ‘चुआ’ यानि कम गहराई का अस्थाई कुँआ।
इस तरह के तमाम स्थानीय तौर-तरीकों की जानकारी प्राप्त कर यहाँ की भौगोलिक स्थिति के बहुत अनुकूल रही परम्परागत सिंचाई व्यवस्था को नया जीवन दिया जा सकता है।
जहाँ परम्परागत तौर तरीकों और ग्रामीण बुजुर्गों से सीखने की नम्रता होनी चाहिए, वहाँ गाँव-गाँव में इस सिंचाई को नवजीवन देने के लिये पर्याप्त धन की भी आवश्यकता है। यदि सिंचाई के क्षेत्र में सही प्राथमिकताएँ तय हो जाएँ तो पर्याप्त आर्थिक संसाधनों की व्यवस्था करना सरकार के लिये कठिन नहीं होगा।
यहाँ की मात्र एक बड़े बाँध की परियोजना (इन्द्रावती परियोजना) में जितना धन झोंका गया है, उतने पैसे में तो क्षेत्र के लगभग सभी गाँवों में छोटे स्तर की सिंचाई उपलब्ध हो सकती थी।
इस बारे में विस्तृत आँकड़े उपलब्ध कराते हुए सहभागी विकास अभियान ने कहा है कि यदि सिंचाई बढ़ाने की यह प्राथमिकता तय की जाए व इतने आर्थिक संसाधन छोटे स्तर की सिंचाई के लिये उपलब्ध हों तो गाँवों में दस वर्ष में तीन लाख लोगों को अतिरिक्त रोज़गार मिल सकता है। पहले परम्परागत जल-संग्रहण सफल हो तो फिर इस क्षेत्र में टयूबवेल द्वारा सिंचाई को और आगे बढ़ाया जा सकता है।
सहभागी विकास अभियान व उनसे जुड़े संगठनों ने विशेषकर ‘चहल’ के माध्यम से अनेक गाँवों व किसानों को सूखे की स्थिति में राहत पहुँचाने का सराहनीय प्रयास किया है, जो पहले से तालाब बने हुए हैं पर जिनमें पानी सूख जाता है उनके बीच में एक और तालाब खोदने से पानी अधिक सरलता से मिलने की दृष्टि से भी चहल को बहुत उपयोगी माना गया है।
प्राय: 2 या 3 मीटर की खुदाई पर ही पानी इस तरीके से इस क्षेत्र में मिल जाता है क्योंकि यहाँ का सामान्य जल-स्तर काफी ऊँचा है। अतः सूखे के समय में जब अनेक तालाब व पोखर सूख जाते हैं तो तालाब के भीतर छोटा तालाब खोदने की यह तरकीब लोगों को बहुत राहत पहुँचाती है।
सूखे के विभिन्न वर्षों में ऐसे चहल बहुत कम लागत पर बनवाए गए। इस पर जो खर्च हुआ वह भी स्थानीय गाँववासियों को मजदूरी के रूप में मिल गया तथा सूखे के समय में इससे भी उन्हें राहत मिली। सामान्यतः एक चहल में लगभग 500 गाँववासियों व लगभग इतने ही पशुओं को राहत मिलती है।
इस तरह के परम्परागत तौर-तरीकों पर आधारित कार्यों को स्थानीय गाँववासी आसानी से किसी बाहरी परामर्श या प्रशिक्षण के पूरा कर लेते हैं। इन पर खर्च भी इतना कम होता है कि किसी भी बड़ी व मध्यम परियोजना की अपेक्षा यह बहुत सस्ते पड़ते हैं, तथा बहुत कम समय में ही इनके लाभ प्राप्त हो जाते हैं।