झाबुआ के मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं, जिनको फ्लोरोसिस रोग लगा हो, यह तो यहां की घर-घर की कहानी है। अगर मियाटी को रेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी
लगभग डेढ़ दशक पहले झाबुआ जिले के मियाटी गांव के तोलसिंह का ब्याह जुलवानियां की थावरीबाई से हुआ। बाद में उसने थावरीबाई की छोटी बहन कालीबाई से “नातरा” कर लिया। मियाटी की आबोहवा में जाने क्या घुला हुआ था कि काली दिन-ब-दिन कमजोर होती चली गईं। 38 की उम्र आते-आते वह निशक्त हो गईं। हड्डियां ऐसी हो गईं जैसे वह कभी भी झर से झड़कर बिखर जाएंगी। उसके पैर टेढ़े-मेढ़े हो गए और उसके लिए दो कदम चलना भी पहाड़ जैसा हो गया था। लाठी ही उसका एक सहारा रह गई।
शादी के कुछ साल बाद काली का एक बेटा, भूरसिंह पैदा हुआ। काली को भरोसा हुआ कि बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा लेकिन वह तो जवान होने से पहले ही बूढ़ा हो गया।भूर के हाथ-पैर बचपन से बेकार होने लगे। कालीबाई ने अपनी तबियत दुरुस्त करने के लिए डॉक्टर, वैद्य, नीम, हकीम सबके चक्कर लगाए, लेकिन सब बेकार। अंत में थक-हारकर ‘दैवीय प्रकोप’ मान लिया था। मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं जिसको यह रोग लगा हो। यह तो रेेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव है।
मियाटी गांव के ही ‘माध्यमिक विद्यालय’ की प्रधान अध्यापिका सीमा धसोंधी बताती हैं कि “कोई चार साल पहले तक कालीबाई का बेटा भूरसिंह कक्षा में सभी बच्चों से अलग-थलग रहने लगा था। इस पाठशाला में भूरसिंह जैसे कई बच्चे थे। बच्चों की याददाश्त काफी कमजोर होने लगी थी। हम लोग भी जब गांव का पानी पीते थे तो हमारे हाथ-पांव में दर्द होने लगता था। बच्चों के साथ ही उनकी माताओं की भी हालत अच्छी नहीं थी। एक दिन ‘इनरेम’ संस्था के लोग “विद्यालय” में आए थे। वे बच्चों की दांतों की जांच करना चाहते थे और पता लगाना चाहते थे कि बच्चों के इस तरह अपाहिज या विकलांग होने की वजह क्या है?’’
संस्था ने मियाटी गांव के हालात का बखूबी अध्ययन किया। गांव के बच्चों और लोगों के साथ काम करते-करते वह यह समझ गए कि यहां के भूजल में फ्लोराइड है, जो शरीर की हड्डियों को सीधा नुकसान पहुंचा रहा है।
अध्ययन के दौरान पता चला कि मियाटी के आस-पास के बोरवा और पंचपिपलिया सहित थांदला ब्लॉक के करीब दर्जन भर गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है। झाबुआ जिले के अलग-अलग ब्लॉक के लगभग 160 से ज्यादा गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है।
विशेषज्ञों का कहना है कि पानी में मौजूद फ्लोराइड कई बीमारियों का कारण बनता है। फ्लोराइड की वजह से सिर, हाथ-पांव और बदन में दर्द रहना बहुत सामान्य है। फ्लोराइड की अधिकता वाले जल के पीने से पेट की गड़बड़ी और एनीमिया जैसी समस्याएं भी उभर आती हैं। साथ ही हाथ-पांव टेढ़े-मेढ़े और घुटने की हड्डियां ‘स्पंजी’ और भुरभुरी हो जाती हैं। इतना ही नहीं छोटी उम्र में ही बुढ़ापे के लक्षण आने शुरू हो जाते हैं।
भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं।
‘इनरेम फाउंडेशन’, (आणंद, गुजरात) के साथ काम करने वाले डॉ. सुंदरराजन कृष्णन कहते हैं “जब हम पहली बार कालीबाई के बेटे भूरसिंह से मिले तो वह लाठी के सहारे ही या बकैंया यानी चौपाए की तरह ही चल पाता था।” उनका कहना है कि “फ्लोराइड जब पानी के जरिए शरीर में जाता है तो उसकी दोस्ती कैल्शियम से हो जाती है और वहां वे एक और एक मिलकर ग्यारह बनकर शरीर को कमजोर करने में लग जाते हैं। शरीर में लगातार कैल्शियम की कमी होने लगती है। अगर शरीर में पोषण के माध्यम से अतिरिक्त कैल्शियम नहीं जा रहा है तो शरीर कमजोर होने लगता है। यही वजह है कि भूरसिंह को शायद ही गांव के किसी व्यक्ति ने खेलते हुए देखा हो।”
‘इनरेम फाउन्डेशन के अन्य विशेषज्ञ डॉ राजनारायन इन्दू बताते हैं कि हमने बच्चों के माता-पिता से इस बीमारी के बारे में बात की और यह बीमारी किस कारण हो रही है, इसके बारे में समझाया। और यह भी बताया कि जिन बच्चों को बीमारी हो चुकी है, उनको भी ठीक करना संभव है। इस पीढ़ी को ही नहीं हर पीढ़ी को, फ्लोरोसिस से बचाया जा सकता है। हम मियाटी गांव के माओं में एक नयी उमंग जगाने में सफल रहे। उनकी आँखों में फिर से सपने सजने लगे। वे अपने बच्चों को चलता, फिरता और दौड़ता देखना चाहती थीं।
भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं। इन गांवों में जो पहला काम हुआ, वह था जलस्रोतों का परीक्षण। यह जानना जरूरी था कि पानी के कौन से स्रोत सुरक्षित हैं और कौन से फ्लोराइड-युक्त। कुओं, तालाबों और हैंडपंपों से पानी के नमूने इकट्ठा कर तीन अलग-अलग प्रयोगशालाओं में परीक्षण करवाया गया। नमूनों की जांच में जो सबसे महत्व की बात पता चली वह यह कि फ्लोरोसिस से प्रभावित व्यक्ति किन-किन स्रोतों से पीने के पानी का उपयोग करते हैं तथा इससे प्राप्त होने वाले पानी में फ्लोराइड की मात्रा कितनी है। परीक्षण से पता चला कि केवल हैडंपपों में ही अधिक मात्रा में फ्लोराइड है। कुओं, झिरी, तालाब, नदी के पानी में फ्लोराइड काफी कम है, पर खुले जलस्रोत होने के कारण उनमें बैक्टीरिया का खतरा है।
गांव के लोगों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किया गया कि वे सुरक्षित जलस्रोतों से ही पीने का पानी लें और फिल्टर से छानकर पीएं। पानी से फ्लोराइड निकालने के लिए एक्टीवेटिड एल्युमिना फिल्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है। मियाटी के लोगों ने फ्लोराइड जांच उपकरण से पानी को परखना सीख लिया है। उन्हें पता है कि परीक्षण के बाद अगर पानी पीला दिखाई दे तो मतलब है कि पानी पीने योग्य नहीं है। वहीं अगर पानी का रंग गुलाबी हो तो इस्तेमाल किया जा सकता है।
यहां दूसरा काम हुआ, भोजन का सर्वेक्षण। इसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि वे भोजन के जरिए कितनी मात्रा में फ्लोराइड अनजाने ही ग्रहण कर लेते हैं? फ्लोराइड से होने वाली बीमारी मुख्य बीमारी फ्लोरोसिस से लड़ने के लिए हमारे शरीर में प्रोटीन, मैग्निशियम, कैल्शियम, और विटामिन-सी की अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता होगी।
सुखद बात यह है कि शरीर में कैल्शियम की कमी को दूर करने का उपाय स्थानीय स्तर पर ही ढूंढ़ लिया गया है। क्षेत्र में उपलब्ध चकोड़ा या चकवड़ के पत्तों में कैल्शियम बहुत अधिक होता है इसलिए भोजन के तौर पर इसका इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है। इस इलाके में चकवड़ बहुतायत में अपने-आप उगती है। जिनकी बीमारी गंभीर हो चुकी थी, उनको समय-समय पर दवाईयां भी दी गईं। हालांकि फ्लोरोसिस से निजात पाने के लिए कोई खास दवा का इजाद नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि फ्लोरोसिस की वजह से टेढ़ी-मेढ़ी हुई हड्डियों को सीधा भी किया जा सकता है और उनमें जान भी डाली जा सकती है। मरीज को फ्लोरोसिस मुक्त पानी और खाने में ज्यादा-से-ज्यादा कैल्शियम और विटामिन सी और थोड़ा बहुत मैग्नीशियम जैसे सूक्ष्म पोषक देकर इस भयानक बीमारी से मुक्ति पाई जा सकती है।
कालीबाई और भूरसिंह को दवा और पौष्टिक आहार दिया गया, जिसके चलते धीरे- धीरे उनके पैरों की हड्डियां मजबूत होने लगीं हैं। हालांकि कालीबाई अभी भी लाठी के सहारे चलती हैं, परंतु उसे अब दो की जगह एक ही लाठी की जरूरत पड़ती है। शरीर में दर्द भी नहीं रहता। भूरसिंह का बचपना लौट आया है और अब वह सामान्य बच्चों के साथ खेलकूद सकता है। कालीबाई का लाड़ला भूर फुटबॉल को पैर की ठोकर से जब आकाश की ओर उछालता है तब लगता है मानों मां की आंखों में लंबी स्याह रात के बाद भोर की किरणें चमक उठी हैं।
मियाटी गांव सिखाता है कि देश के कोई ढाई करोड़ लोगों को फ्लोरोसिस के दर्द से मुक्ति दिलाना दूर की कौड़ी नहीं है। इन अलहदा जनों के जीवन में हम थोड़ी कोशिशों से ही खुशियों के हजार रंग भर सकते हैं, बशर्ते जनपक्षधर होने का जज्बा हो।
लगभग डेढ़ दशक पहले झाबुआ जिले के मियाटी गांव के तोलसिंह का ब्याह जुलवानियां की थावरीबाई से हुआ। बाद में उसने थावरीबाई की छोटी बहन कालीबाई से “नातरा” कर लिया। मियाटी की आबोहवा में जाने क्या घुला हुआ था कि काली दिन-ब-दिन कमजोर होती चली गईं। 38 की उम्र आते-आते वह निशक्त हो गईं। हड्डियां ऐसी हो गईं जैसे वह कभी भी झर से झड़कर बिखर जाएंगी। उसके पैर टेढ़े-मेढ़े हो गए और उसके लिए दो कदम चलना भी पहाड़ जैसा हो गया था। लाठी ही उसका एक सहारा रह गई।
शादी के कुछ साल बाद काली का एक बेटा, भूरसिंह पैदा हुआ। काली को भरोसा हुआ कि बेटा बुढ़ापे का सहारा बनेगा लेकिन वह तो जवान होने से पहले ही बूढ़ा हो गया।भूर के हाथ-पैर बचपन से बेकार होने लगे। कालीबाई ने अपनी तबियत दुरुस्त करने के लिए डॉक्टर, वैद्य, नीम, हकीम सबके चक्कर लगाए, लेकिन सब बेकार। अंत में थक-हारकर ‘दैवीय प्रकोप’ मान लिया था। मियाटी गांव में कालीबाई कोई इकलौती नहीं जिसको यह रोग लगा हो। यह तो रेेंगते, लुढ़कते और लड़खड़ाते हुए लोगों का गांव है।
मियाटी गांव के ही ‘माध्यमिक विद्यालय’ की प्रधान अध्यापिका सीमा धसोंधी बताती हैं कि “कोई चार साल पहले तक कालीबाई का बेटा भूरसिंह कक्षा में सभी बच्चों से अलग-थलग रहने लगा था। इस पाठशाला में भूरसिंह जैसे कई बच्चे थे। बच्चों की याददाश्त काफी कमजोर होने लगी थी। हम लोग भी जब गांव का पानी पीते थे तो हमारे हाथ-पांव में दर्द होने लगता था। बच्चों के साथ ही उनकी माताओं की भी हालत अच्छी नहीं थी। एक दिन ‘इनरेम’ संस्था के लोग “विद्यालय” में आए थे। वे बच्चों की दांतों की जांच करना चाहते थे और पता लगाना चाहते थे कि बच्चों के इस तरह अपाहिज या विकलांग होने की वजह क्या है?’’
संस्था ने मियाटी गांव के हालात का बखूबी अध्ययन किया। गांव के बच्चों और लोगों के साथ काम करते-करते वह यह समझ गए कि यहां के भूजल में फ्लोराइड है, जो शरीर की हड्डियों को सीधा नुकसान पहुंचा रहा है।
अध्ययन के दौरान पता चला कि मियाटी के आस-पास के बोरवा और पंचपिपलिया सहित थांदला ब्लॉक के करीब दर्जन भर गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है। झाबुआ जिले के अलग-अलग ब्लॉक के लगभग 160 से ज्यादा गांवों के भूजल में फ्लोराइड अधिक है।
विशेषज्ञों का कहना है कि पानी में मौजूद फ्लोराइड कई बीमारियों का कारण बनता है। फ्लोराइड की वजह से सिर, हाथ-पांव और बदन में दर्द रहना बहुत सामान्य है। फ्लोराइड की अधिकता वाले जल के पीने से पेट की गड़बड़ी और एनीमिया जैसी समस्याएं भी उभर आती हैं। साथ ही हाथ-पांव टेढ़े-मेढ़े और घुटने की हड्डियां ‘स्पंजी’ और भुरभुरी हो जाती हैं। इतना ही नहीं छोटी उम्र में ही बुढ़ापे के लक्षण आने शुरू हो जाते हैं।
भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं।
‘इनरेम फाउंडेशन’, (आणंद, गुजरात) के साथ काम करने वाले डॉ. सुंदरराजन कृष्णन कहते हैं “जब हम पहली बार कालीबाई के बेटे भूरसिंह से मिले तो वह लाठी के सहारे ही या बकैंया यानी चौपाए की तरह ही चल पाता था।” उनका कहना है कि “फ्लोराइड जब पानी के जरिए शरीर में जाता है तो उसकी दोस्ती कैल्शियम से हो जाती है और वहां वे एक और एक मिलकर ग्यारह बनकर शरीर को कमजोर करने में लग जाते हैं। शरीर में लगातार कैल्शियम की कमी होने लगती है। अगर शरीर में पोषण के माध्यम से अतिरिक्त कैल्शियम नहीं जा रहा है तो शरीर कमजोर होने लगता है। यही वजह है कि भूरसिंह को शायद ही गांव के किसी व्यक्ति ने खेलते हुए देखा हो।”
‘इनरेम फाउन्डेशन के अन्य विशेषज्ञ डॉ राजनारायन इन्दू बताते हैं कि हमने बच्चों के माता-पिता से इस बीमारी के बारे में बात की और यह बीमारी किस कारण हो रही है, इसके बारे में समझाया। और यह भी बताया कि जिन बच्चों को बीमारी हो चुकी है, उनको भी ठीक करना संभव है। इस पीढ़ी को ही नहीं हर पीढ़ी को, फ्लोरोसिस से बचाया जा सकता है। हम मियाटी गांव के माओं में एक नयी उमंग जगाने में सफल रहे। उनकी आँखों में फिर से सपने सजने लगे। वे अपने बच्चों को चलता, फिरता और दौड़ता देखना चाहती थीं।
भारत में फ्लोरोसिस की कोई नई समस्या नहीं है। सन् 1930 में आंध्रप्रदेश के नलगोंडा और प्रकाशम जिले में फ्लोरोसिस का पता चला था। आठ दशक से ज्यादा गुजरने के बाद भी फ्लोरोसिस से बचने का कोई प्रभावी रास्ता नहीं निकाला जा सका है। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश के 20 राज्यों के करीब 220 से ज्यादा जिलों के लोग पानी के साथ फ्लोराइड भी पी रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग ढाई करोड़ लोग फ्लोरोसिस बीमारी की चपेट में हैं। इन गांवों में जो पहला काम हुआ, वह था जलस्रोतों का परीक्षण। यह जानना जरूरी था कि पानी के कौन से स्रोत सुरक्षित हैं और कौन से फ्लोराइड-युक्त। कुओं, तालाबों और हैंडपंपों से पानी के नमूने इकट्ठा कर तीन अलग-अलग प्रयोगशालाओं में परीक्षण करवाया गया। नमूनों की जांच में जो सबसे महत्व की बात पता चली वह यह कि फ्लोरोसिस से प्रभावित व्यक्ति किन-किन स्रोतों से पीने के पानी का उपयोग करते हैं तथा इससे प्राप्त होने वाले पानी में फ्लोराइड की मात्रा कितनी है। परीक्षण से पता चला कि केवल हैडंपपों में ही अधिक मात्रा में फ्लोराइड है। कुओं, झिरी, तालाब, नदी के पानी में फ्लोराइड काफी कम है, पर खुले जलस्रोत होने के कारण उनमें बैक्टीरिया का खतरा है।
गांव के लोगों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किया गया कि वे सुरक्षित जलस्रोतों से ही पीने का पानी लें और फिल्टर से छानकर पीएं। पानी से फ्लोराइड निकालने के लिए एक्टीवेटिड एल्युमिना फिल्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है। मियाटी के लोगों ने फ्लोराइड जांच उपकरण से पानी को परखना सीख लिया है। उन्हें पता है कि परीक्षण के बाद अगर पानी पीला दिखाई दे तो मतलब है कि पानी पीने योग्य नहीं है। वहीं अगर पानी का रंग गुलाबी हो तो इस्तेमाल किया जा सकता है।
यहां दूसरा काम हुआ, भोजन का सर्वेक्षण। इसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि वे भोजन के जरिए कितनी मात्रा में फ्लोराइड अनजाने ही ग्रहण कर लेते हैं? फ्लोराइड से होने वाली बीमारी मुख्य बीमारी फ्लोरोसिस से लड़ने के लिए हमारे शरीर में प्रोटीन, मैग्निशियम, कैल्शियम, और विटामिन-सी की अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता होगी।
सुखद बात यह है कि शरीर में कैल्शियम की कमी को दूर करने का उपाय स्थानीय स्तर पर ही ढूंढ़ लिया गया है। क्षेत्र में उपलब्ध चकोड़ा या चकवड़ के पत्तों में कैल्शियम बहुत अधिक होता है इसलिए भोजन के तौर पर इसका इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है। इस इलाके में चकवड़ बहुतायत में अपने-आप उगती है। जिनकी बीमारी गंभीर हो चुकी थी, उनको समय-समय पर दवाईयां भी दी गईं। हालांकि फ्लोरोसिस से निजात पाने के लिए कोई खास दवा का इजाद नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि फ्लोरोसिस की वजह से टेढ़ी-मेढ़ी हुई हड्डियों को सीधा भी किया जा सकता है और उनमें जान भी डाली जा सकती है। मरीज को फ्लोरोसिस मुक्त पानी और खाने में ज्यादा-से-ज्यादा कैल्शियम और विटामिन सी और थोड़ा बहुत मैग्नीशियम जैसे सूक्ष्म पोषक देकर इस भयानक बीमारी से मुक्ति पाई जा सकती है।
कालीबाई और भूरसिंह को दवा और पौष्टिक आहार दिया गया, जिसके चलते धीरे- धीरे उनके पैरों की हड्डियां मजबूत होने लगीं हैं। हालांकि कालीबाई अभी भी लाठी के सहारे चलती हैं, परंतु उसे अब दो की जगह एक ही लाठी की जरूरत पड़ती है। शरीर में दर्द भी नहीं रहता। भूरसिंह का बचपना लौट आया है और अब वह सामान्य बच्चों के साथ खेलकूद सकता है। कालीबाई का लाड़ला भूर फुटबॉल को पैर की ठोकर से जब आकाश की ओर उछालता है तब लगता है मानों मां की आंखों में लंबी स्याह रात के बाद भोर की किरणें चमक उठी हैं।
मियाटी गांव सिखाता है कि देश के कोई ढाई करोड़ लोगों को फ्लोरोसिस के दर्द से मुक्ति दिलाना दूर की कौड़ी नहीं है। इन अलहदा जनों के जीवन में हम थोड़ी कोशिशों से ही खुशियों के हजार रंग भर सकते हैं, बशर्ते जनपक्षधर होने का जज्बा हो।