कावेरी

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तंजावूर का विख्यात वृहदिश्वर मंदिरतंजावूर का विख्यात वृहदिश्वर मंदिर कावेरी कर्नाटक की पूर्व कुर्ग रियासत से निकलती है। यह पूर्व मैसूर राज्य को सींचती हुई दक्षीण पूर्व की ओर बहती है और तमिलनाडु के एक विशाल प्रदेश को हरा-भरा बनाकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। कुर्ग की पहाड़ियों से लेकर समुद्र तक कावेरी की लंबाई 772 कि.मी. है। इस लम्बी यात्रा में कावेरी का रुप सैकड़ो बार बदलता है। कहीं वह पतली धार की तरह दो ऊंची चट्रटानों के बीच बहती है, जहां एक छलांग में उसे पार कर सकते है कहीं उसकी चौड़ाई डेढ़ कि.मी. के करीब होती है ओर वह सागर सी दिखाई देती है कहीं वह साढ़े तीन सौ फुट की ऊंचाई से जल प्रपात के रुप में गिरती है, जहां उसका भीषण रुप देखकर और चीत्कार सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है, कहीं वह इतनी सरल और प्यारी होती है कि उस पर बांस की लकड़ी का पुल बनाकर लोग उसे पार कर जाते हैं।

पचास के करीब छोटी-बड़ी नदियां कावेरी में आकर गिरती हैं। समुद्र में मिलने से पहले उसी से कई शाखाएं निकलकर अलग-अलग नामों से अलग-अलग नदियों के रुप में बहती हैं। कावेरी पर प्राचीन काल से लेकर अबतक सैकड़ों स्थानों पर बांध बने हैं। उसकी नहरों से विंचनेवाली भूमि का विस्तार लगभग डेढ़ करोड़ हेक्टेयर होगा। और भी लाखों एकड़ भूमि की सिंचाई उसके जल से हो सकती है, यह अनुमान लगाया गया है। निकलने के स्थान से लेकर समुद्र में गिरने के स्थान तक कावेरी के तट पर दर्जनों बड़े-बड़े नगर और उपनगर बसे हैं। बीसियों तीर्थ-स्थान हैं। अनगिनत प्राचीन मन्दिर हैं और आज तो सैकड़ो कल-कारखाने भी उसके तट पर चल रहे हैं।

जहां कावेरी समुद्र से मिलती है, वह स्थान प्राचीन काल में बहुत बड़ा बंदरगाह था। दूर-दूर के देशों से जहाज आया-जाया करते थे। पहार नामक वह नगरी एक बड़े साम्राज्य की राजधानी थी, पर आज तो वहां पर काविरिपूम्पटिनम नामक एक छोटा सा गांव रह गया है। समुद्र के उमड़ आने से प्राचीन नगर डूब गया। कहा जाता है, अभी भी वहां खोज करने से बहुत से प्राचीन भवनों और मन्दिरों का पता लगाया जा सकता है।

कावेरी के पवित्र जल ने कितने ही संतों, कवियों, राजाओं, दानियों और प्रतापी वीरों को जन्म दिया है। इसी कारण कावेरी को ‘तामिल-भाषियों की माता’ कहा जाता है।

तमिल भाषा में कावेरी को ‘काविरि’ भी कहते हैं। काविरि का अर्थ है- उपवनों का विस्तार करनेवाली। अपने जल से ऊसर भूमि को भी वह उपजाऊ बना देती है। इस कारण उसे ‘काविरि’ कहते हैं। कावेरी का एक अर्थ है-कावेर की पुत्री। राजा कवेर ने उसे पुत्री की तरह पाला था, इस कारण उसका यह नाम पड़ा।

कावेरी को ‘सहा-आमलक-तीर्थ’ और ‘शंख-तीर्थ’ भी कहते हैं। ब्रहा ने शंख के कमंडल से आंवले के पेउ़ की जड़ में विरजा नदी का जो जल चढ़ाया था, उसके साथ मिलकर बहने के कारण कावेरी के ये नाम पड़े।

तमिल भाषा में कावेरी को प्यार से ‘पोन्नी’ कहते हैं। पोन्नी का अर्थ है सोना उगानेवाली। कहा जाता है कि कावेरी के जल में सोने की धूल मिली हुई है। इस कारण इसका यह नाम पड़ा। एक और जानने योग्य बात यह है कि कावेरी में मिलने वाली कई उपनदियों में से दो के नाम कनका और हेमावती हैं। इन दोनों नामों में भी सोने का संकेत है। दक्षीण भारत में दो लम्बे पर्वतमालाएं हैं। एक पश्चिम में और दूसरी पूरब में। पश्चिम की पर्वतमाला को पश्चिमी घाट और पूरब की पर्वतमाला को पूर्वी घाट कहते हैं। इनमें पश्चिमी घाट के उत्तरी भाग में एक सुन्दर राज्य है, जिसे कुर्ग कहते हैं। राज्य में एक पहाड़ का नाम सहा-पर्वत है। इस पहाड़ को ‘ब्रहाकपाल’ भी कहते हैं।

इस पहाड़ के एक कोने में एक छोटा सा तालाब बना है। तालाब में पानी केवल ढाई फुट गहरा है। इस चौकोर तालाब का घेरा एक सौ बीस फुट का है। तालाब के पश्चिमी तट पर एक छोटा सा मन्दिर है। मन्दिर के भीतर एक तरुणी की सुन्दर मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के सामने एक दीप लगातार जलता रहता है।

यही तालाब कावेरी नदी का उदगम-स्थान है। पहाड़ के भीतर से फूट निकलनेवाली यह सरिता पहले उस तालाब में गिरती है, फिर एक छोटे से झरने के रुप में बाहर निकलती है। देवी कावेरी की मूर्ति की यहां पर नित्य पूजा होती है। कावेरी का स्रोत कभी नहीं सूखता।

कावेरी कुर्ग से निकलती अवश्य है, पर वहां की जनता को कोई लाभ नहीं पहुंचाती। कुर्ग के घने जंगलों में पानी काफी बरसता है, इस कारण वहां कावेरी का कोई काम भी नहीं है, उल्टे कावेरी कुर्ग की दो और नदियों को भी अपने साथ मिला लेती है और पहाड़ी पट्रटानों के बीच में सांप की तरह टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलती, रास्ता बनाती, मॅसूर राज्य की ओर बढ़ती है।

कनका से मिलने से पहले कावेरी की धारा इतनी पतली होती है कि उसे नदी के रुप में पहचानना भी कठिन होता है। कनका से मिलने के बाद उसे नदी का रुप और गति प्राप्त होती है। सहा’पर्वत से बहनेवाले सैकड़ों छोटे-छोटे सोते भी यहां पर उसमे आकर मिल जाते हैं। इस स्थान को ‘भागमंडलम’ कहते हैं। हेमावती नदी कर्नाटक राज्य के तिप्पूर नामक स्थान पर कावेरी से आकर मिलती है।

कावेरी के उदगम-स्थान पर हर साल सावन के महीने में बड़ा भारी उत्सव मनाया जाता है। यह है कावेरी की विदाई का उत्सव। कुर्ग के सभी हिन्दू लोग, विशेषकर स्त्रियां, इस उत्सव में बड़ी श्रद्धा के साथ भाग लेती हैं। उस दिन कावेरी की मूर्ति की विशेष पूजा होती है। ‘तलैकावेरी’ कहलानेवाले उदगम-स्थान पर सब स्नान करते हैं। स्नान करने के बाद प्रत्येक स्त्री कोई न कोई गहना, उपहार के रुप में, उस तालाब में डालती है। यह दृश्य ठीक वैसा ही होता है, जैसा कि नई विवाहित लड़की की विदाई का दृश्य।

इस संबंध में एक रोचक कहानी कही जाती है। सहा-पर्वत ने अपनी लजीली बेटी कावेरी को उसके पति समुद्रराज के पास भेजा। जब बेटी घर से विदा होकर चली गई तब सहा-पर्वत को भय हुआ कि कहीं ससुरालवाले मेरी बेटी को गरीब न समझ लें। इसलिए उसने कनका नाम की युवती को कई उपहारों के साथ दौड़ाया और कहा कि तुम जल्दी जाकर कावेरी के साथ हो लो।

कनका चली गई और ‘भागमंडलम’ नामक स्थान पर कावेरी से मिली। उपहार का शेष भाग यहीं पर कावेरी को मिला, इस कारण इस स्थान का नाम ‘भागमंडलम’ पड़ा। परन्तु पिता सहा-पर्वत का भय अब भी दूर नहीं हुआ। उसे लगा कि मैंने पुत्री को उतने उपहार नहीं दिये, जितने कि मैं दे सकता था। उसने हेमावती नाम की दूसरी लड़की को बुलाया और बहुत से उपहार देकर कहा कि तुम किसी ओर रास्ते से तेजी से जाओ। हेमावती स्वयं अपनी सहेली के चली जाने पर दुखी थी। इसलिए सहा-पर्वत की आज्ञा से वह बहुत प्रसन्न हुई और आंख मूंद कर भागी।

उधर कावेरी कनका से मिलने के बाद बहुत प्रसन्न हुई ओर विदाई का दु:ख भूल गई। ‘भागमंडलम’ से ‘चित्र’ नामक स्थान तक दोनों सहेलियां ऊंची-ऊंची चट्रटानों के बीच में हंसती-खेलती, किलोलें करती हुई चलीं, परन्तु “चित्रपुरम’ पहुंचने के बाद उनके कदम आगे नहीं बढ़े, क्योंकि वे कुर्ग की सीमा पर पहुंच गई थीं। आगे मैसूर राज्य आ गया था। उसमें प्रवेश करने का मतलब नैहर से सदा के लिए बिछुड़ना था। इस कारण वे असमंजस में पड़ गई और 32 कि.मी. तक कुर्ग और मैसूर की सीमा से साथ-साथ बहीं। चित्रपुरम से ‘कण्णेकाल’ के आगे कावेरी भारी मन से अपने पिता के घर से सदा के लिए बिछुड़ गई। बिछोह का दु:ख उसे इतना था कि वह मैसूर के हासन जिले में पहाड़ी चट्रटानों के बीच में मुंह छिपाकर रोती हुई चली। तिप्पूर नामक स्थान पर वह उत्तर की ओर मुड़ी, मानो पिता के घर लौट आयगी, परन्तु देखती क्या है कि उसकी सहेली हेमावती उत्तर से बड़े वेग से चली आ रही है। उसी स्थान पर दोनों सहेलियां गले मिलीं।

हेमावती ने अपने को और सहा-पर्वत के भेजे हुए सब उपहारों को सखी कावेरी के चरणों में न्योछावर कर दिया। इससे प्रसन्न होकर कावेरी ने घर लौटने का विचार छोड़ दिया और दक्षीण-पूरब की ओर बहने लगी।

कुर्ग से तिप्पूर तक कावेरी नदी के बहाव की भिन्न-भिन्न चालें देखकर यह मनोरंजक कहानी गढ़ी गई मालूम होती है।

कर्नाटक में लक्ष्मणतीर्थ नाम की एक और छोटी नदी दक्षीण से आकर कावेरी से मिलती है। कावेरी, हेमावती और लक्ष्मणतीर्थ-ये तीनों नदियां जरा आगे-पीछे एक-दूसरी से मिलती हैं और प्रचंड से मैसूर राज्य की राजधानी की ओर बहती हैं।

राज्य में कावेरी पर पन्द्रह बांध बनाये गए हैं, जिनसे लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है। इसके अलावा कावेरी के जल से वहां बहुत बड़ी मात्रा में बिजली भी पैदा की जाती है, जिससे कर्नाटक के उद्योग-धंधे चलते हैं। मैसूर राज्य में सिंचाई के लिए कावेरी पर बने हुए बांधों में सबसे बड़ा कण्णम्बाड़ी का बांध है। इस बांध के कारण जो विशाल जलाशय बना है, उसी को ‘कृष्णराज सागरम’ कहते हैं। यह पूर्व मैसूर राज्य की राजधानी मैसूर नगर से थोड़ी ही दूरी पर बना है। इसी जलाशय के पास वृन्दावन नाम का एक विशाल उपवन भी है। इस उपवन की सुन्दरता और रात के समय वहां जगमगानेवाली रंग-बिरंगी बिजली की बत्तियां आदि को देखकर भ्रम होता है कि हम कहीं इन्द्रपुरी में तो नहीं आ गये हैं। इस सारे सौंदर्य और जगमगाहट का आधार कावेरी का पवित्र जल ही है।

कावेरी की नजरों से इस समय पूर्व मैसूर राज्य में सवा लाख हेक्टेयर भूमि में धान और दूसरे अनाज पैदा होते हैं और 40 हजार हेक्टेयर भूमि में गन्ने की खेती की जाती है। इसके अलावा हजारों हेक्टेयर भूमि में तरह-तरह के फल और साग-सब्जियां पैदा की जाती हैं।

इस तरह राज्य की जनता को अन्न देनेवाली कावेरी उनके उद्योगधंधों के लिए बिजली पैदा करके उनकी शक्ति और धन को भी बढ़ा रही है। पिछले वर्षो में कर्नाटक में सैकड़ों नये कल-कारखाने खुले हैं।, जिनसे लाखों लोगों को रोजगार मिला है। ये सब कारखाने कावेरी नदी के प्रवाह से पैदा की जानेवाली बिजली से ही चलते हैं।

कर्नाटक में इस तरह पन-बिजली पैदा करने के जो बिजलीघर बने हुए हैं, उनमें सबसे बड़ा शिवसमुद्रम के जल-प्रपात के पास बना है।

शिवसमुद्रम प्राचीन स्थान है। यह मैसूर नगर से करीब 56 कि.मी. उत्तर-पूरब में कावेरी के दोआब में बसा है। यहां पर कावेरी का जल, पहाड़ की बनावट के कारण, विशाल झील की तरह दिखाई देता है। इसी झील से थोड़ी दूर आगे माता कावेरी तीन सौ अस्सी फुट की ऊंचाई से जल-प्रपात के रुप में गिरती है।

शिवसमुद्रम की इसी स्वाभाविक झील से नहरों द्वारा कावेरी का जल 3कि.मी. दूर तक ले जाया गया है। जहां बिजलीघर बना है, वह स्थान शिवसमुद्रम के जलाशय से करीब छ: सौ फुट नीचे है। तेरह बड़े-बड़े नलों से शिवसमुद्रम का पानी बिजलीघर तक ले जाया जाता है। बिजलीघर के पास ये नल चार सौ फुट तक सीधे उतरते हैं। इस कारण इनमें से बहने वाले पानी का वेग बहुत ही प्रचंड होता है। बिजलीघर में रहट की तरह के जो फौलादी पहिये बने हुए हैं, उन पर पानी का दबाव पड़ने पर से बड़े वेग से घूमते हैं।

इन बड़े-बड़े पहियों के घूमने से बड़ी मात्रा में बिजली पैदा होती है। इस बिजली को सारे कर्नाटक में तारों द्वारा बांटा जाता है। अनेक नगरों को प्रकाश और सैकड़ों कारखानों को बिजली इस शक्ति से मिलती है।

इस तरह कर्नाटक को हराभरा बनाकर उसके उद्योगों के लिए बिजली पैदा कर देने के बाद कावेरी तमिलभाषी तमिलनाडु की ओर बहती है। इस बीच कई छोटी-बड़ी नदियां उसमें आकर मिलती हैं। कर्नाटक की सीमा के अन्दर कावेरी से मिलनेवाली अंतिम दो नदियां शिम्शा और अर्कावती हैं।

कर्नाटक से विदा होकर कावेरी शेलम और कोयम्बुत्तूर जिलों की सीमा पर तमिलनाडु में प्रवेश करती है। यहां पर भी कई उपनदियां उसमें आकर मिलती हैं।

इसी सीमाप्रदेश में ‘होगेनगल’ नाम का विख्यात जल-प्रपात है। यहां पर कावेरी इतने प्रचंड वेग से चट्रटानों पर गिरती है कि उससे छितरानेवाले छींटे धुएं की तरह आकाश में फैल जाते हैं। धुंए का यह बादल कई मील दूर तक दिखाई देता है। इसी कारण कन्नड़ भाषा में इस जल-प्रपात को होगेनगल कहा जाता है, जिसका अर्थ है- धुएं का प्रपात।

होगेनगल जल-प्रपात के पास एक गहरा जलाशय स्वाभाविक रुप से बना है।

इसको ‘यागकुंडम’ यानी ‘यज्ञ की वेदी’ कहते हैं।

यहां तक कावेरी पहाड़ी इलाकों में बहती रही। अब वह समतल मैदान मं बहने लगती है। शेलम और कोयम्बुत्तूर जिलों की सीमा पर वह दो पहाड़ों के बीच में बहती है। सीता पर्वत और पालमलै कहलाने वाले इन्हीं दो पहाड़ों के बीच एक विशाल बांध बना है, जो ‘मेटटूर बांध’ के नाम से प्रसिद्ध है।

तमिलनाडु में कावेरी पर कितने ही छोटे-बड़े, नये-पुराने बांध बने हैं, परन्तु उनमें मेटटूर का बांध सबसे बड़ा है। कर्नाटक के कृष्णराज सागरम से भी मेटटूर का बांध अधिक विशाल है। बांध के बीच में बिजलीघर है। इससे पैदा की जानेवाली बिजली से दूर-दूर तक के शहर और गांव लाभ उठाते हैं। मेटटूर के जलाशय से 1161 कि.मी. लंबी छोटी बड़ी नहरें तिरुचि और तंजाऊर जिलों के खेतों को सींचती हैं। दस लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई इन नहरो से होती है।

कुछ लोग समझते हैं कि बांध बनाने की कला हमारे पुरखों को नहीं आती थी। विदेशियों से ही हमने यह कला सीखी, परन्तु यह धारणा गलत है। आज से लगभग दो हजार साल पहले कावेरी-प्रदेश में करिकालन नाम का प्रतापी राजा राज करता था। उसका राज्य चोल-राज्य के नाम से प्रसिद्ध था। पुहार नामक नगरी, जो उन दिनों कावेरी के समुद्र-संगम के स्थान पर बसी थी, इस राज्य की राजधानी थी। करिकालन के समय में कावेरी का तट स्थान-स्थान पर शिथिल हो गया था। इस कारण बाढ़ आने पर नदी के किनारे पर के खेत उजड़ जाते थे और बस्तियों में भी तबाही मच जाती थी। इस विपदा को रोकने और कावेरी के जल से खेतों की सिंचाई बढ़ाने के विचार से राजा करिकालन ने एक विशाल योजना बनाई उसने निश्चय किया कि श्रीरंगम से लेकर पुहार तक कावेरी नदी के किनारों को खूब ऊंचा किया जाय। श्रीरंगम से लेकर पुहार तक कावेरी नदी के किनारों को खूब ऊंचा किया जाय। श्रीरंगम से पुहार तक कावेरी नदी की लंबाई एक सौ मी से अधिक है। आजकल, जब हर तरह के यंत्र काम में लाये जाते हैं, इतनी दूर तक एक बड़ी नदी के दोनों किनारों को ऊंचा करने का काम बहुत कसाले का है। दो हजार साल पहले, जब किसी प्रकार के यंत्र नहीं थे, इतनी विशाल योजना को पूरा करना बड़ा कठिन काम रहा होगा। राजा करिकालन ने इस योजना को पूरा करके छोड़ा। इसके लिए उसने प्रजाजनों, सैनिकों और सिंहल (श्रीलंका) से लाये गए बारह हजार युद्ध बंदियों से काम लिया। जब काम पूरा हुआ तब से युद्ध-बंदी छोड़ दिये गए।

करिकालन ने किनारों को ऊंचा करके ही संतोष नहीं कर लिया। उसने कई नहरें खुदवाई और छोटे-बड़े कई बांध बनवाये। नतीजा यह हुआ कि करिकालन के समय में चोल-राज्य धन-धान्य से भरपूर रहा। वहां का वाणिज्य बढ़ा।

श्रीरंगम के पास कावेरी नदी और उसकी शाखा कोल्लिडम नदी साथ-साथ बहती हैं। इन दोनों को उल्लारु नाम की नहर मिलाती हैं, परन्तु यहां कावेरी की सतह कोल्लिडम से ऊंची है। इससे कावेरी का सारा जल कोल्लिडम में बह जाता था और बेकार हो जाता था।आज से करीब सोलह सौ साल पहले चोल राज्य के एक राजा ने इस ओर ध्यान दिया। उसने उल्लारु के बीच एक विशाल बांध बनवाकर कावेरी के जल को कोल्लिडम नदी में बहने से रोका। कल्लणै कहलानेवाला यह प्राचीन बांध केवल पत्थरों और मिट्रटी से बना है, परन्तु न जाने इस मिटटी में क्या चीज मिलाई गई थी कि आज तक करीब 11 सौ फुट लंबा यह बांध ज्यों का त्यों खड़ा है और कावेरी के प्रवाह को बेकार जाने से रोक रहा है। इस बांध को देखकर बड़े-बड़े विदेशी इंजीनियर भी अचंभे में आ जाते हैं। सन 1840 में इस प्राचीन बांध में कुछ सुधार किया गया, जिससे पानी को आवश्यकता के अनुसार रोका या छोड़ा जा सके।

इस प्रकार कर्नाटक और तमिलनाडु की सुख-समृद्धि को बढ़ानेवाली माता कावेरी ने सैकड़ो साम्राज्यों को बनते-बिगड़ते देखा है। कर्णाटक में गंगा और होयसल इसी नदी के बल पर पनपे और फूले-फले थे। उनकी राजधानी श्रीरंगपट्रणम कावेरी के तट पर ही बसी थी। १५वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना और विस्तार इस नदी ने देखा। बाद में मरहठों और मुसलमानों के कई हमले देखे। सन 1757 में हैदरअली नाम के एक सिपाही ने मरहठों को रुपये देकर मैसूर राज्य की राजधानी श्रीरंगपट्रणम पर कब्जा कर लिया था। बाद में उसके बेटे टीपू सुल्तान ने दिल्ली पर चढ़ाई करने के विचार से कावेरी पर पत्थर का एक पुल बनवाया। वह पुल आज भी मौजूद है। टीपू दिल्ली पर तो चढ़ाई नहीं कर सका, पर उसने अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़कर उनके छक्के छुड़ा दिये थे। अन्त में, इसी कावेरी के तट पर टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की थी।

तमिलभाषी प्रदेश में तो कावेरी ने ऐसे प्रातापी वीर और संत देखे हैं, जिन्होंने देश का मस्तक ऊंचा किया था। इसी कावेरी के तट पर चोल साम्राज्य बना और फैला। चोल-राजा करिकालन ने हिमालय पर अभियान किया ओर उसके शिखर पर बाघ का चिह लगा हुआ अपन झंडा अंकित कर आया। करिकालन के समय समुद्रतट पर कावेरी के संगम-स्थल पर पुहार नामक विशाल बंदरगाह बना। वहां से रोम, यूनान, चीन और अरब को तिजारती जहाज जाते-आते थे। तमिल के प्राचीन ग्रन्थों में पुहार नगर का वर्णन पढ़कर गर्व से माथा ऊंचा हो जाता है। यूनान के इतिहास में भी इस नगर का वर्णन मिलता है। यूनानी लोग इस नगर को ‘कबेरस’ कहते थे। कबेरस कावेरी शब्द से बना है।

ईसा की नवीं सदी में राजराजन नाम का एक प्रतापी राजा इसी कावेरी के प्रदेश में हुआ। उसने श्री लंका पर विजय पाई और बर्मा, मलाया, जावा और सुमात्रा को भी अपने अधीन कर लिया। इन देशों में राजराजन के समय में बने कितने ही मन्दिर आजतक विद्यमान हैं। राजराजन के पास एक विशाल नौसेना थी। तंजावूर में राजराजन ने शिवजी का जो सुन्दर मन्दिर बनवाया था, उसकी शिल्पकला को देखकर विदेशी भी दांतों तले उंगली दबाते हैं। इस राजराजन की एक उपाधि है’ पोन्निविन शेलवन’ जिसका अर्थ है ‘सुनहरी कावेरी का लाडला बेटा।’

राजराजन के बाद माता कावेरी ने अपने ही बेटों को एक-दूसरे से लड़ते देखकर आंसू बहाये। कावेरी के पुनीत जल में भाइयों का खून बहाया।

फिर मुसलमान आये। उनके बाद आंध्र और मरहठे आये। आंध्रों और महाराष्ट्र के पेश्वाओं ने कावेरी के जले ह्रदय को अपने सुशासन से शांत किया। पेशवाओं के राज्काल में दक्षीण के मन्दिरों का जीर्णोद्वार हुआ, नये-नये विद्यालय बने और पुस्तकालय भी।

कावेरी के तट पर तिरुवैयारु नामक स्थान पर पेशवाओं ने जो संस्कृत विद्यालय स्थापित किया था, वह आजतक उनका यश गा रहा है। राजधानी तंजावूर में पेशवाओं ने सरस्वती महल के नाम से एक विशाल पुस्तकालय बनाया था।

कावेरी के पुण्य-जल ने धर्म-वृक्ष को भी सींचा, और आज भी सींच रहा है। कावेरी के तीन दोआबों में भगवान विष्णु के तीन प्रसिद्ध मन्दिर बने हैं। तीनों में अनंतनाग पर शयन करने वाले भगवान विष्णु की मूर्ति बनी है, इस कारण इनको श्रीरंगम कहा जाता है। इनमें कर्नाटक की प्राचीन राजधानी श्रीरंगपट्रणम ‘आदिरंगम’ कहलाता है। शिवसमुद्रम के दोआब पर मध्यरंगम नाम का दूसरा मन्दिर है और तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नामक नगर के पास तीसरा मन्दिर है। यही तीसरा मंदिर श्रीरंगम के नाम से विख्यात है, और इसी को वैष्णव लोग सबसे अधिक महत्व का मानते हैं।

इसी प्रकार कावेरी के तट पर शैव धर्म के भी कितने ही तीर्थ हैं। चिदम्बरम का मन्दिर कावेरी की ही देन है। श्रीरंगम के पास बना हुआ जंबुकेश्वरम का प्राचीन मन्दिर भी बहुत प्रसिद्ध है। तिरुवैयारु, कुंभकोणम, तंजावूर शीरकाल आदि और भी अनेक स्थानो पर शिवजी के मन्दिर कावेरी के तट पर बने हैं। तिरुचिरापल्ली शहर के बीच में एक ऊंचे टीले पर बना हुआ मातृभूतेश्वर का मन्दिर और उसके चारों ओर का किला विख्यात है।

एक जमाने में तिरुचिरापल्ली जैन धर्म का भी केंन्द्र माना जाता था। शैव और वैष्णव संप्रदाय के कितने ही आचार्य और संत कवि कावेरी के तट पर हुए हैं। विख्यात वैष्णव आचार्य श्री रामानुज को आश्रय देनेवाला श्रीरंगपट्रणम का राजा विष्णुवर्द्धन था। तिरुमंगै आलवार और कुछ अन्य वैष्णव संतों को कावेरी-तीर ने ही जन्म दिया था। सोलह वर्ष की आयु में शैव धर्म का देश-भर में प्रचार करनेवाले संत कवि ज्ञानसंबंधर कावेरी-तट पर ही हुए थे।

महाकवि कंबन ने तमिल भाषा में अपनी विख्यात रामायण की रचना इसी कावेरी के तट पर की थी। तमिल भाषा के कितने ही विख्यात कवियों को माता कावेरी ने पैदा किया है।

दक्षीण संगीत को नये प्राण देनेवाले संत त्यागराज, श्यामा शास्त्री और मुत्तय्य दीक्षित इसी कावेरी तट के निवासी थे। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि दक्षीण की संस्कृति कावेरी माता की देन है।