अगर मन में हो कुछ करने की तमन्ना, तो मुश्किल मंजिल भी आसान हो जाती है। बचपन में बाप का साया सिर से उठ गया। मगर, मां की प्रेरणा और जीवविज्ञान से लगाव ने डा. श्वेता यादव को राह दिखाई। डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा से मृदा विज्ञान में पीएच.डी. करने के समय उन्हें गांव-गांव जाकर मिट्टी के नमूने एकत्र करने पड़ते थे। इस दौरान उन्होंने देखा कि मिट्टी की कार्बन क्षमता निरंतर घटती जा रही है। बस फिर क्या था, बलिया जिले के दुबहड़ गांव में जन्मी दिवंगत ऋषि देव प्रसाद की पुत्री श्वेता ने ठान लिया कि इस माटी के लिए कुछ करना है। तभी बंगलूरू में विभिन्न स्थानों पर उन्होंने देखा कि वर्मी कंपोस्ट पर विभिन्न प्रयोग हो रहे हैं। इन्हीं को आधार बनाकर उन्होंने शोध प्रारंभ किया, ताकि किसानों को कम लागत पर अच्छी जैविक खाद मिल सके।
वैसे तो आजकल बाजार में अनेक प्रकार के जैविक खाद उपलब्ध हैं, पर इसे उपयोग में न आने वाली वस्तुओं (धान की भूसी, लकड़ी का बुरादा, बाजरा की भूसी) से बनाया जाता है। श्वेता ने बताया कि इस वर्मी कंपोस्ट में वह तीन भाग कृषि के अनुपयुक्त पदार्थ लेती हैं और एक भाग गोबर। पांच क्विंटल में दो किलो केंचुआ और आधा किलो सूक्ष्म जीव डाले जाते हैं। इसे 40-45 दिनों तक छोड़ दिया जाता है, और 37 डिग्री सेल्सियस के आस-पास तापमान पर रखा जाता है। इससे तीन क्विंटल बायोकेमिकल तैयार हो जाता है। लागत अस्सी पैसे से एक रुपये प्रति किलो आती है। जबकि बाजार में यह तीन से पांच रुपये प्रति किलो की दर से बिक जाती है। इससे मृदा की कार्बन क्षमता में विकास होता है। पांच एकड़ खेत के लिए 10 क्विंटल खाद पर्याप्त है। जिन फसलों में नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, उनमें थोड़ा-बहुत यूरिया डालने की आवश्यकता है। जैविक खाद के कारण फसलों में कीड़े और बीमारियों से भी बचाव होता है।
श्वेता का यह अभियान फिलहाल आगरा, अलीगढ़ और हाथरस जनपद में चल रहा है। आगामी तीन-चार वर्षों बाद मेरठ मंडल में 60 यूनिट लगाने की योजना है और इसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसका विस्तार किया जाएगा। यह परियोजना हरियाणा और पंजाब में विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से चल रही है। श्वेता यादव ने अलीगढ़ के धर्म समाज महाविद्यालय में 1999 में वर्मी कल्चर रिसर्च स्टेशन की शुरुआत की। 12 वर्ष से इस विषय पर शोध कर रही श्वेता के साथ वर्तमान में 12 सहयोगी हैं। उन्होंने अमेरिका और ब्रिटेन सहित अनेक देशों में शोध पत्र पढ़े हैं। यह उनका काम के प्रति समर्पण ही है कि लोग अब उन्हें केंचुए वाली बहनजी कहने लगे हैं।
Source
अमर उजाला 26 नवम्बर 2010