लेखक
पंजाब में बेजा रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से अनाज, सब्जी और पानी सभी कुछ जहरीला हो गया है। वहाँ कैंसर और हृदयरोग के मरीजों की तादाद बढ़ गई है। पिछले कुछ सालों से मौसम बदलाव ने भी किसानों की मुसीबत बढ़ा दी हैं। लेकिन सरकार ने वहाँ भी किसान के पीठ पर हाथ नहीं रखा है। फसल का मुआवजा से ठीक नहीं मिल पाता। फसल बीमा का पैसा भी या तो मिलता ही नहीं और मिलता है तो बहुत कम।हाल ही में देश भर के किसान कार्यकर्ता व बुद्धजीवी होशंगाबाद में जुटे और तीन दिनों तक खेती-किसानी के संकट व उसके समाधान पर मंथन करते रहे। वे सभी इस बात पर सहमत थे कि खेती-किसानी के संकट से उबरने के लिये किसानों को खुद आगे आना होगा। इसके लिये देश भर में किसानों के बीच जाना होगा, उनको जगाना होगा और किसान आन्दोलन खड़ा करना होगा। साथ ही वैकल्पिक खेती की ओर बढ़ना होगा।
यह महत्त्वपूर्ण बैठक 1 से 3 अगस्त को होशंगाबाद के नर्मदा तट पर स्थित एक गुरुकुल में हुई। इस बैठक में 14 राज्यों के किसान प्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया जिसमें सुदूर केरल के भी किसान थे। वरिष्ठ सर्वोदयी अमरनाथ भाई भी आए थे।
यहाँ आए देश भर के किसान प्रतिनिधियों ने अपने राज्यों में किसानों की स्थिति और खेती का हाल बताया और किसान आन्दोलन को कैसे खड़ा किया जाये, इस पर चर्चा की। इस बात पर सब सहमत थे कि खेती को बचाने के लिये एक तरफ गलत कृषि नीति का विरोध करना पड़ेगा वहीं दूसरी तरफ रचनात्मक खेती की ओर बढ़ना पड़ेगा।
किसान आन्दोलन को खड़ा करने की इस पहल की शुरुआत मार्च माह में वर्धा बैठक से हुई थी। आपस में संवाद रखने और मुहिम को आगे बढ़ाने के लिये राष्ट्रीय किसान समन्वय समिति के नाम से एक संगठन भी बना है। होशंगाबाद में 1 से 3 अगस्त तक बैठक हुई।
इस बैठक में खेती-किसानी के संकट, राज्यों में किसान संगठन व किसानों की स्थिति और उनके सामने चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की गई। और गरमागरम बहस और मंथन के बाद कुछ मुद्दों पर सहमति बनी है जो कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है।
इस का महत्त्व इसलिये और बढ़ जाता है जब देश की सरकार खेती-किसानी के संकट से मुँह मोड़ रही है और किसान को ही इस समस्या का दोषी बता रही है। देश के कृषि मंत्री इसे तनाव, नपुंसकता व प्रेम प्रसंग का कारण बता रहे हैं और आत्महत्या के आँकड़े कम करके बताए जा रहे हैं। जो कि किसानों के साथ मजाक है।
पंजाब से आये किसान सुखदेव का कहना था कि पंजाब में बेजा रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से अनाज, सब्जी और पानी सभी कुछ जहरीला हो गया है। वहाँ कैंसर और हृदयरोग के मरीजों की तादाद बढ़ गई है।
विश्व व्यापार संगठन की खुले बाजार की आयात-निर्यात नीति की नीति ने किसानों की मुसीबतें बढ़ा दी हैं। केरल के जोशी जेकब का कहना था कि विश्व व्यापार संगठन की नीतियों के कारण ही रबर और दाल चीनी की फसल के दाम गिर गए हैं।
उत्तर प्रदेश से जुड़े हरपाल ने भी इसी बात की तस्दीक की। उन्होंने कहा कि उनके राज्य में आलू और बासमती का निर्यात नहीं होने से किसान मुसीबत में हैं। गन्ना उत्पादक को अपनी फसलों का सही दाम नहीं मिल रहा है।
पिछले कुछ सालों से मौसम बदलाव ने भी किसानों की मुसीबत बढ़ा दी हैं। लेकिन सरकार ने वहाँ भी किसान के पीठ पर हाथ नहीं रखा है। फसल का मुआवजा से ठीक नहीं मिल पाता। फसल बीमा का पैसा भी या तो मिलता ही नहीं और मिलता है तो बहुत कम।
सर्वोदयी नेता अमरनाथ भाई मानते हैं कि हमें स्वावलम्बी खेती की ओर बढ़ना चाहिए। कम खर्च, कम कर्ज और श्रम प्रधान खेती अपनानी पड़ेगी। बाजार की खेती से निकलना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि वैश्विक समस्याओं का स्थानीय समाधान निकालने की दिशा में भी सोचना चाहिए। उड़ीसा के किसान नेता लिंगराज प्रधान ने भी किसान आन्दोलन को व्यापक बनाने की जरूरत बताई। साथ ही कारगर वैकल्पिक खेती अपनाने की बात कही।
बैठक की सफलता इसलिये मानी जाएगी कि आपसी असहमतियों के बावजूद कुछ बिन्दुओं पर सहमति बनी। जिनमें प्रमुख हैं- खेती किसानी के संकटों और उससे उभरने के लिये कृषि को विश्व व्यापार संगठन से बाहर निकाला जाए। यह समझौता देश की कृषि के लिये घातक सिद्ध हुआ है। कारपोरेट समर्थक एजेंसी विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, एशियाई बैंक आदि को हमारी कृषि नीति में प्राथमिकता की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
इसके अलावा, भूमि की मिल्कीयत समुदाय की है, सरकार को जबरन हस्तान्तरित करने का अधिकार नहीं है। जल, जंगल, ज़मीन, खनिज और जैव विविधता के बाजार के दायरे से बाहर निकाला जाये। प्राकृतिक आपदा के समय किसानों को पूरा मुआवजा मिलना चाहिए। वर्तमान में कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण गलत है, इसे बदला जाये। इसके साथ ही खेती के लिये दिये जाने वाले कर्ज को ब्याज मुक्त किया जाये। खेती किसानी और उससे जुड़े लघु कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया जाये। जीएम जेनेटिकली मोडीफाइड बीजों पर रोक लगाई जाये।
बैठक में मत था कि अगर ये कदम उठाये जाएँगे तो बहुत हद खेती के संकट का हल सम्भव है।
किसान समन्वय समिति ने तय किया है कि देश भर किसानों को जागृत और संगठित करने के लिये पहल की जाएगी। इसके लिये सभा, गोष्ठी से लेकर पदयात्रा और आन्दोलन तक की रणनीति बनाई जा रही है। क्योंकि आज अन्नदाता किसान इतना परेशान है कि वह अपनी जान तक देने के लिये मजबूर है।
अस्सी के दशक के अन्त में किसान आन्दोलन चर्चा में था। कर्नाटक में नन्जुदास्वामी, महाराष्ट्र में शरद जोशी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसान सड़कों पर उतरे थे। लेकिन यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। दरअसल किसान आन्दोलन फसलों की खरीदी, उनके दाम बढ़ाने और सब्सिडी बढ़ाने तक ही सीमित रह जाते हैं। लेकिन औद्योगिक दामों पर नियंत्रण, शिक्षा- स्वास्थ्य का निजीकरण आदि का विरोध नहीं करते। इसका मतलब है कि पूरी व्यवस्था में बदलाव जरूरी है। इसके लिये समग्रता में सोचना पड़ेगा।
यह महत्त्वपूर्ण बैठक 1 से 3 अगस्त को होशंगाबाद के नर्मदा तट पर स्थित एक गुरुकुल में हुई। इस बैठक में 14 राज्यों के किसान प्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया जिसमें सुदूर केरल के भी किसान थे। वरिष्ठ सर्वोदयी अमरनाथ भाई भी आए थे।
यहाँ आए देश भर के किसान प्रतिनिधियों ने अपने राज्यों में किसानों की स्थिति और खेती का हाल बताया और किसान आन्दोलन को कैसे खड़ा किया जाये, इस पर चर्चा की। इस बात पर सब सहमत थे कि खेती को बचाने के लिये एक तरफ गलत कृषि नीति का विरोध करना पड़ेगा वहीं दूसरी तरफ रचनात्मक खेती की ओर बढ़ना पड़ेगा।
किसान आन्दोलन को खड़ा करने की इस पहल की शुरुआत मार्च माह में वर्धा बैठक से हुई थी। आपस में संवाद रखने और मुहिम को आगे बढ़ाने के लिये राष्ट्रीय किसान समन्वय समिति के नाम से एक संगठन भी बना है। होशंगाबाद में 1 से 3 अगस्त तक बैठक हुई।
इस बैठक में खेती-किसानी के संकट, राज्यों में किसान संगठन व किसानों की स्थिति और उनके सामने चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की गई। और गरमागरम बहस और मंथन के बाद कुछ मुद्दों पर सहमति बनी है जो कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है।
इस का महत्त्व इसलिये और बढ़ जाता है जब देश की सरकार खेती-किसानी के संकट से मुँह मोड़ रही है और किसान को ही इस समस्या का दोषी बता रही है। देश के कृषि मंत्री इसे तनाव, नपुंसकता व प्रेम प्रसंग का कारण बता रहे हैं और आत्महत्या के आँकड़े कम करके बताए जा रहे हैं। जो कि किसानों के साथ मजाक है।
पंजाब से आये किसान सुखदेव का कहना था कि पंजाब में बेजा रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से अनाज, सब्जी और पानी सभी कुछ जहरीला हो गया है। वहाँ कैंसर और हृदयरोग के मरीजों की तादाद बढ़ गई है।
विश्व व्यापार संगठन की खुले बाजार की आयात-निर्यात नीति की नीति ने किसानों की मुसीबतें बढ़ा दी हैं। केरल के जोशी जेकब का कहना था कि विश्व व्यापार संगठन की नीतियों के कारण ही रबर और दाल चीनी की फसल के दाम गिर गए हैं।
उत्तर प्रदेश से जुड़े हरपाल ने भी इसी बात की तस्दीक की। उन्होंने कहा कि उनके राज्य में आलू और बासमती का निर्यात नहीं होने से किसान मुसीबत में हैं। गन्ना उत्पादक को अपनी फसलों का सही दाम नहीं मिल रहा है।
पिछले कुछ सालों से मौसम बदलाव ने भी किसानों की मुसीबत बढ़ा दी हैं। लेकिन सरकार ने वहाँ भी किसान के पीठ पर हाथ नहीं रखा है। फसल का मुआवजा से ठीक नहीं मिल पाता। फसल बीमा का पैसा भी या तो मिलता ही नहीं और मिलता है तो बहुत कम।
सर्वोदयी नेता अमरनाथ भाई मानते हैं कि हमें स्वावलम्बी खेती की ओर बढ़ना चाहिए। कम खर्च, कम कर्ज और श्रम प्रधान खेती अपनानी पड़ेगी। बाजार की खेती से निकलना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि वैश्विक समस्याओं का स्थानीय समाधान निकालने की दिशा में भी सोचना चाहिए। उड़ीसा के किसान नेता लिंगराज प्रधान ने भी किसान आन्दोलन को व्यापक बनाने की जरूरत बताई। साथ ही कारगर वैकल्पिक खेती अपनाने की बात कही।
बैठक की सफलता इसलिये मानी जाएगी कि आपसी असहमतियों के बावजूद कुछ बिन्दुओं पर सहमति बनी। जिनमें प्रमुख हैं- खेती किसानी के संकटों और उससे उभरने के लिये कृषि को विश्व व्यापार संगठन से बाहर निकाला जाए। यह समझौता देश की कृषि के लिये घातक सिद्ध हुआ है। कारपोरेट समर्थक एजेंसी विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, एशियाई बैंक आदि को हमारी कृषि नीति में प्राथमिकता की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
इसके अलावा, भूमि की मिल्कीयत समुदाय की है, सरकार को जबरन हस्तान्तरित करने का अधिकार नहीं है। जल, जंगल, ज़मीन, खनिज और जैव विविधता के बाजार के दायरे से बाहर निकाला जाये। प्राकृतिक आपदा के समय किसानों को पूरा मुआवजा मिलना चाहिए। वर्तमान में कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण गलत है, इसे बदला जाये। इसके साथ ही खेती के लिये दिये जाने वाले कर्ज को ब्याज मुक्त किया जाये। खेती किसानी और उससे जुड़े लघु कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया जाये। जीएम जेनेटिकली मोडीफाइड बीजों पर रोक लगाई जाये।
बैठक में मत था कि अगर ये कदम उठाये जाएँगे तो बहुत हद खेती के संकट का हल सम्भव है।
किसान समन्वय समिति ने तय किया है कि देश भर किसानों को जागृत और संगठित करने के लिये पहल की जाएगी। इसके लिये सभा, गोष्ठी से लेकर पदयात्रा और आन्दोलन तक की रणनीति बनाई जा रही है। क्योंकि आज अन्नदाता किसान इतना परेशान है कि वह अपनी जान तक देने के लिये मजबूर है।
अस्सी के दशक के अन्त में किसान आन्दोलन चर्चा में था। कर्नाटक में नन्जुदास्वामी, महाराष्ट्र में शरद जोशी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसान सड़कों पर उतरे थे। लेकिन यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। दरअसल किसान आन्दोलन फसलों की खरीदी, उनके दाम बढ़ाने और सब्सिडी बढ़ाने तक ही सीमित रह जाते हैं। लेकिन औद्योगिक दामों पर नियंत्रण, शिक्षा- स्वास्थ्य का निजीकरण आदि का विरोध नहीं करते। इसका मतलब है कि पूरी व्यवस्था में बदलाव जरूरी है। इसके लिये समग्रता में सोचना पड़ेगा।