किसानों को उनकी भाषा में मिले तकनीकी जानकारी

Submitted by Shivendra on Fri, 01/17/2020 - 10:47
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फार्म एन फूड

 प्रतीकात्मक hindi.news18.com

साल 1967 में देश में पड़े भीषण अकाल में बड़ी मात्रा में खाद्यान्न आयात करना पड़ा था। इस वजह से सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में अनुसंधान के काम पर जोर दिया गया। इससे एक तरफ सिंचित जमीन का क्षेत्रफल बढ़ने लगा, तो वहीं दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में विविधता लाने कोशिश की जाने लगी।

इस कामको संगठित रूप देने के लिए साल 1929 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का गठन हुआ। केन्द्र सरकार से जुड़े सभी संस्थानों को इसके तहत लाया गया। धीरे-धीरे खाद्यान्न, फलसब्जी के साथ ही जानवरों के लिए भी अनुसंधान खोले गए। लगातार अनुसंधान द्वारा खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों की नई उपजाऊ किस्मों का विकास हुआ।

किसी काम को संगठित रूप देने से अधिक पैसा बनाने में कामयाबी मिली। परिषद की अगुआई में देश में हरित क्रान्ति आई। देश में खाद्यान्नों का रिकॉर्ड उत्पादन शुरू हो गया, तेज गति से बढ़ती आबादी के बावजूद भी न सिर्फ खाद्यान्न, फलसब्जी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आई, बल्कि कुछ उत्पादों के निर्यात में भी हमें कामयाबी मिली।

इस समय देश की आबादी 135 करोड़ के पार हो चुकी है। इतनी विशाल आबादी को भी भोजन के लिए खाद्यान्न उपलब्ध है। ऐसी हालत तब है, जब खेती की जमीन धीरे-धीरे घटती जा रही है।

शहरों का क्षेत्रफल आजादी के समय 7 फीसदी से बढ़कर 35 फीसदी हो गया है। यह वृद्धि क्षेत्र में व्यापक काम के चलते हुई है।

देश में किसानों का अनुसंधान संस्थानों से सीधा जुड़ाव हुआ है। इन संस्थानों के वैज्ञानिक नियमित अंतराल पर इलाके और गांवों का दौरा करते रहते हैं और किसानों से रूबरू होकर उनको तकनीकी जानकारी देते हैं।

इस तरह के अनुसंधान और प्रसार के काम में भाषा की अहम भूमिका होती है। तकरीबन 200 सालों के ब्रिटिश राज के होने की वजह से भाषा के रूप में अंग्रेजी का बोलबाला देश के सभी क्षेत्रों में अभी तक गहराई से बना हुआ है। शिक्षा विशेष रूप से कृषि शिक्षा व अनुसंधान के क्षेत्र में आज भी अग्रेजी महत्त्वपूर्ण भाषा बनी हुई है।

अनुसंधान के काम को लेखनी में लगभग अग्रेजी का ही प्रयोग हो रहा है, जिसका साहित्यिक महत्व है, पर इसकी जांच खेत में और किसानों के बीच में होती है।

ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाएं खासकर मान्यताप्राप्त भाषाओं का महत्व काफी बढ़ जाता है। अगर इन भाषाओं के जरिए बातचीत नहीं की जाएगी, तो किसानों को जो फायदा होना चाहिए, वह नहीं मिल सकेगा। यदि उनकी भाषा में किसानों को जानकारी दी जाती है, तो वे अच्छी तरह से समझ सकेंगे और तकनीक अपनाने में भी उनकी कोई हिचक नहीं होगी।

भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में मान्यताप्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। हिन्दी देश के तकरीबन 57 फीसदी भूभाग में बोली व समझी जाने वाली भाषा है।

भारत में हिंदीभाषी राज्यों का निर्धारण भाषा के आधार पर हुआ है और उन सभी राज्यों में राज्य सरकार के काम स्थानीय भाषा में ही होते हैं। इन सभी मान्यताप्राप्त भाषाओं काक अपना-अपना प्रभाव क्षेत्र में है और इसमें साहित्य का काम भी लगातार हो रहा है। इनमें से ज्यादातर भाषाओं के अपने शब्दकोश हैं और फिल्में भी बनाई जा रही हैं, खासतौर पर तमिल, बंगला, मलयालम, मराठी व तेलुगु फिल्म उद्योग अपने-अपने क्षेत्र में बहुत ही लोकप्रिय है।

इसके अलावा उड़िया, असमी, पंजाबी, भोजपुरी, नागपुरी वगैरह भाषाओं में भी फिल्में लगातार बन रही हैं और पसंद भी की जा रही हैं।

ऐसी हालत में कृषि अनुसंधान को स्थानीय भाषा से जोड़ना समय की जरूरत है, ताकि हम अपनी उपलब्धियों को किसानों तक आसानी से पहुँचा सकें। हालांकि मान्यताप्राप्त भाषाओं में कुछ भाषाएं ऐसी हैं, जिनका प्रभाव क्षेत्र बहुत ही सिमटा हुआ है, लेकिन ज्यादातर भाषाएं बड़े क्षेत्रों में फैली हैं और कार्यालय के काम से लेकर दिनभर के काम तक निरंतर प्रयोग की जा रही है।

अगर हमें अनुसंधान की उपलब्धियों से किसानों को जोड़ना है यह जरूरी है कि अपनी बातों को उनकी भाषा और बोली में उन तक पहुंचाया जाए, यह बहुत कठिन नहीं है।

देश में सबसे पहले हिंदी का नाम आता है और कृषि से जुड़े साहित्य भी हिंदी में लगातार तैयार हो रहे हैं। भारतीय किसान संघ परिषद के ज्यादातर संस्थानों में प्रशिक्षण सामग्री और सम्बन्धित फसल से जुड़ी अनुसंधान सम्बन्धी उपलब्धियां हिंदी में ही मौजूद हैं। इसे और भी बढ़ावा देने की जरूरत है। हमेशा यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि प्रस्तुतीकरण और भी सुगम भाषा में हो।

परिषद के सभी संस्थानों में राजभाषा प्रकोष्ठ की मदद से ही काम किया जा रहा है। हिंदी भाषी वैज्ञानिक शोध भी सराहनीय योगदान दे रहे हैं। इसके बावजूद हिंदी में छपने वाले शोध साहित्य कम हैं।

कुछ वैज्ञानिक संगठनों, संस्थानों द्वारा हिंदी में शोध पत्रिकाएं छप रही हैं और कुछ एक और काम करने के लिए लगातार संघर्षरत हैं और आगे बढ़ रही हैं।

इस क्षेत्र में प्रगति संतोषजनक है, पर हिंदी के प्रभाव क्षेत्र को देखने के बाद यह काफी कम प्रतीत होता है। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों को पहल करनी होगी। उन्हें मौलिक अनुसंधान में हिंदी व भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना होगा, तभी किसान उसका फायदा उठा सकेंगे। इसी तरह कई अन्य मान्यताप्राप्त भारतीय भाषाएं ऐसी हैं, जिनका प्रभाव अपने क्षेत्र में तो बड़ा है ही, साथ ही, वे अपने क्षेत्र में लोगों की जिंदगी से सांस्कृतिक व भावनात्मक रूप से बहुत गहराई से जुड़ी हैं। जिस तरह से हिंदी भाषियों के पास हिंदी में अनुसंधान संबंधी किसी सामग्री के साथ अपनी बातें पहुँचाई जा सकती हैं, वैसे दूसरी भारतीय भाषाओं में भी धान की उपलब्धियों को रूपांतरित कर उसी प्रभाव क्षेत्र तक पहुँचाया जा सकता है।

कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में भी व्यापक रूप से अंग्रेजी का ही प्रयोग हो रहा है, पर प्रशासन का मकसद किसान हैं और किसानों की आबादी कई गुना ज्यादा है। वे गंवई इलाके में रहते हैं, इसलिए कृषि अनुसंधान संगठनों को इसे गम्भीरता से लेने की जरूरत है। अगर मौलिक रूप से इन भाषाओं के काम करने में थोड़ी कठिनाई हो, तो अनुवाद एक बेहतर साधन है। इसके द्वारा हम उन भाषाओं में बेहतरीन साहित्य तैयार कर सकते हैं, जिनका फायदा किसानों को मिले।

कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे हिंदी भाषा के साथ सकारात्मक सोच से काम करें, जिससे हिंदी में साहित्य को आगे बढ़ने का मौका तो मिलेगा ही और अपनी बात को किसानों तक आसानी से पहुँचाया जा सकेगा। इससे प्रदेश व देश की उत्पादकता में काफी अंतर देखने को मिलेगा।

हमारा मानना है कि हिंदी साहित्य अभी भी किसानों के अंदर बहुत अच्छी पैठ बनाए हुए हैं, इसलिए वैज्ञानिकों को अपनी करनी और कथनी में अंतर करना होगा। किसानों तक आसान भाषा में साहित्य को पहुँचाने के लिए अपना समर्थन करना होगा। इसके लिए जरूरत केवल सामाजिक क्रान्ति के साथ-साथ वैज्ञानिकों को वैचारिक क्रान्ति में बदलाव लाने की है। यदी हम अपनी वैचारिक क्रान्ति में बदलाव लाएंगे, तो हिन्दी साहित्य को आसानी से किसानों में लोकप्रिय बना सकेंगे।