आखिरकार भारतीय खेती के प्रदूषित और अंधियारे क्षितिज पर आशा की एक सुनहरी किरण चमक ही गई। आंध्र प्रदेश को प्रधानमंत्री सहायता कोष से 182 करोड़ रुपए की राशि मिली है, जिससे वह हरित क्रांति की कुछ भयंकर भूलों में सुधार करेगा यानि अवांछित रासायनिक कीटनाशकों से छुटकारा पाएगा। कोई कीटनाशक नहीं, कोई बीटी काटन नहीं और कोई कीट भी नहीं। यही रास्ता है नुकसानदायक कीटनाशकों की ओवरडोज खपाने वाले लाखों किसानों के सुरक्षित बच निकलने का। आंध्र प्रदेश के 18 जिलों के 2.5 लाख किसान रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल के बिना ही फसल उगा रहे हैं। इनमें काटन भी शामिल है। और विश्वास कीजिए, फसलों की उत्पादकता में कोई कमी नहीं आई है।
उन्हें उन संक्रामक कीटों से नहीं जूझना पड़ रहा जिन्होंने किसानों की नाक में दम कर रखा है और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि पर्यावरण बिल्कुल साफ और सुरक्षित हो गया है। कीटनाशकों के विषैले तत्वों से मानव और पशुओं पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव भी गायब हो गया है। अगले पांच सालों में कीटनाशक रहित प्रबंधन (अर्थात रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल के बिना फसल उगाना) पांच हजार गांवों के दस लाख किसानों तक बढ़ा दिया जाएगा। वर्तमान में पांच लाख एकड़ पर हो रही कीटनाशक रहित खेती का रकबा बढ़कर 25 लाख एकड़ हो जाएगा। चूंकि कीटनाशक कंपनियां एक हजार एकड़ भूमि में उगने वाली फसल में हर साल करीब 30 लाख रुपए के कीटनाशक बेच लेती हैं, इसलिए यह बड़ी बचत किसानों को सूदखोरी के चंगुल में आने से बचा लेगी और किसानों की आत्महत्याओं में भी कमी आएगी।
अगर केवल कीटनाशकों पर खर्च होने वाला पैसा ही गांवों में रह जाए, तो इससे उन क्षेत्रों का कायाकल्प हो सकता है। हालांकि, कृषि वैज्ञानिक अब भी जमीनी सच्चाई से मुंह चुरा रहे हैं। पहले उन्होंने कीटनाशकों को प्रोत्साहित किया और अब जीन संशोधित बीटी काटन को। तर्क वही है। वे हर हालत में उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं चाहे उसकी लागत कितनी ही बढ़ जाए। वास्तव में बी.टी. काटन में कीट की समस्या कई गुना बढ़ जाती है और उसमें कीटनाशकों का भारी उपयोग करना पड़ता है। अगर हम रासायनिक कीटनाशकों से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें बी.टी. काटन से भी मुंह मोड़ना होगा। दोनों एक साथ नहीं चल सकते।
उद्योग और साथ ही कृषि वैज्ञानिक इस बात को स्वीकार नहीं करते कि अवांछित रासायनिक कीटनाशकों के कारण ही कीटों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि होती है। 1960 के शुरू में कुल छह या सात प्रमुख कीट ही काटन किसानों को परेशान कर रहे थे, आज ऐसे 120 कीटों से किसान लड़ रहे हैं, जिनमें से 70 कीट बड़े कीटों की श्रेणी में आ गए हैं। बीटी काटन की बढ़ती पैदावार के साथ ही इसके पौधों में भी कुछ छोटे कीट लगने लगे हैं। उदाहरण के लिए इस साल पंजाब में काटन में लगा सफेद रंग का मुलायम सा कीट अधिकांश फसल चट कर गया। कीटों का खतरा केवल काटन तक ही सीमित नहीं है। धान का मामला सामने है।
हरित क्रांति के बाद से ही किसानों को सलाह दी जाती रही है कि कीटों को दूर भगाने के लिए रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करें। पिछले 40 साल से हम किसानों को समझा रहे हैं कि कीटनाशक अनिवार्य हैं। जबकि, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब स्वीकार कर लिया गया है कि धान में कीटनाशकों की जरूरत ही नहीं होती। ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ को अब भी इस जमीनी सच्चाई स्वीकार करना बाकी है।
फिलीपींस में ‘अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान’ ने बड़ी शालीनता से अपनी गलती स्वीकार कर ली है। आईआरआरआई के पूर्व महानिदेशक ने बताया कि हमने किसानों से सीख ली है। एशिया में धान पर कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पूरी तरह से धन और समय की बर्बादी थी। इस बात का अहसास तब हुआ जब फिलीपींस के लूजों प्रांत तथा वियतनाम और बांग्लादेश के किसानों ने बिना रासायनिक कीटनाशकों के पहले से भी अधिक धान की पैदावार की।
अगर बांग्लादेश और अन्य एशियाई देशों के किसान कीटनाशकों के बिना ही धान की अधिक पैदावार हासिल कर सकते हैं तो इस बात का कोई कारण नहीं है कि यही पद्धति भारत में क्यों नहीं कामयाब हो सकती? बांग्लादेश में कोई दो हजार गरीब किसानों (जिनकी वार्षिक औसत आय कुल चार हजार रुपए है) ने प्रमुख कृषि वैज्ञानिकों को पूरी तरह गलत सिद्ध कर दिया। भागीदार समूह के गांवों में करीब 99 फीसदी किसानों ने फसल में कीटनाशकों का इस्तेमाल बंद कर दिया है। आईआरआरआई का मानना है कि एक दशक के अंदर पूरे बांग्लादेश में 1.18 करोड़ किसान धान में कीटनाशकों का इस्तेमाल समाप्त कर देंगे।
इस बात से हैरानी नहीं होगी अगर आईआरआरआई द्वारा स्वीकृत कीटनाशक रहित धान के स्थान पर भारतीय कृषि वैज्ञानिक जीन संशोधित धान की नई प्रजाति लेकर हाजिर हो जाएं। बड़ी संख्या में जीन संशोधित फसलें अभी विकास की प्रक्रिया में हैं। कृषि विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमी और कृषि एवं खाद्य मंत्रालय जीन संशोधित कृषि को बढ़ावा देने में जुटे हैं। कृषि मंत्री शरद पवार और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल जीन संशोधित तकनीक के समर्थन में आंख मूंद कर ढोल पीट रहे हैं। यद्यपि कुछ कृषि वैज्ञानिक इस बात को मानने लगे हैं कि रासायनिक कीटनाशकों की जरूरत ही नहीं है। लेकिन, त्रासदी यह है कि यह संज्ञान बहुत देर से हुआ है।
कीटनाशक पहले ही जमीन को जहरीला, भूजल को विषैला, पर्यावरण को प्रदूषित और करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा चुके हैं। इसके बावजूद कीटनाशकों की अनुपयोगिता की यह अवधारणा जीन संशोधित फसलों को दिए जा रहे अंधाधुंध प्रोत्साहन के आगे दम तोड़ सकती है। खेती-किसानी को बचाने के लिए इसे प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित करना होगा। रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों से पिंड छुड़ाने के लिए और अधिक संकल्प शक्ति की आवश्यकता होगी। कीटनाशकों से जितनी जल्दी मुक्ति होगी, उतना ही यह देश के भविष्य के लिए बेहतर होगा।
(लेखक खाद्य एवं कृषि नीति के विश्लेषक हैं)
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